मुझसे बुरा न कोय

अच्छे लोगों को सुनना-पढ़ना सदैव ही लाभदायक होता है। ‘लाभ’ शब्द सामने आते ही कड़क नोटों की छवि आँखों के सामने आ जाती है और चाँदी के कलदार सिक्कों की खनक कानों में गूँजने लगती है। किन्तु यह लाभ वैसा नहीं होता। कुछ सन्दर्भों में, उसे कोसों पीछे छोड़ देता है। भ्रान्तियाँ नष्ट कर देता है, आत्मा का बोझ हटा देता है, आत्मा निर्मल कर देता है और इस सबसे उपजा सुख अवर्णनीय आनन्द देता है। यह लगभग वैसा ही है जैसे सुगन्ध के किसी व्यापारी के पास बैठना - जब लौटते हैं तो अनेक खुशबुएँ हमारे साथ चली आती हैं। ऐसे ही एक ‘सत्संग’ से मैं अभी-अभी कुछ ऐसा मालामाल हुआ हूँ कि मन के जाले झड़ गए, धुन्ध छँट गई और आत्म ग्लानि में डुबो देनेवाला अपराध बोध दूर हो गया।


मैं इस बात को लेकर क्षुब्ध, व्यथित (और कुपित भी) रहता आया हूँ कि अपने-अपने क्षेत्र में स्थापित, मेरे आसपास के कुछ सम्माननीय, प्रणम्य और ख्यात लोग अपने निजी आचरण में घटिया और टुच्चे क्यों हैं? वे क्यों दूसरों को हेय, उपेक्षनीय मानते हैं? क्यों दूसरों की अवमानना करने के अवसर खोजते रहते हैं? क्यों दूसरो की खिल्ली उड़ाते रहते हैं? यह सब मुझे उनकी गरिमा और कद के प्रतिकूल, अशोभनीय लगता है। ऐसी बातें इन्हें शोभा नहीं देतीं। इन्हीं और ऐसी ही बातों को लेकर मैं मन ही मन कुढ़ता रहता आया हूँ। इन आदरणीयों के ऐसे अनपेक्षित आचरण से मुझे बराबर ऐसा लगता रहा है मानो मेरा कोई अपूरणीय नुकसान हो रहा है। मेरे मानस में स्थापित इन सबकी उज्ज्वल छवियाँ और प्रतिमाएँ भंग होती लगती हैं। होते-होते हो यह गया है कि इनकी सृजनशीलता, अच्छाइयाँ मानो लुप्त हो गईं और इनका अनपेक्षित आचरण ही मन पर पसरने लगा और ये मुझे ऐसे ही लगने लगे जैसे कि नहीं लगने चाहिए थे। गए कुछ समय से मेरी आकुलता मुझे विकल किए दे रही थी। मुझे क्या हो गया है? मैं अच्छा-अच्छा क्यों नहीं सोच पा रहा हूँ?


ऐसे में, फेसबुक पर प्रस्तुत एक आलेख पर, ‘जनसत्ता’ के सम्पादक श्री ओम थानवी की एक टिप्पणी ने मेरी सहायता की। मेरे जाले झाड़ दिए, मेरे मन का बोझ हटा दिया। प्रख्यात समाजवादी चिन्तक श्री अफलातून के एक आलेख पर ओमजी की यह टिप्पणी इस प्रकार है - ‘......यह हमारे हिन्दी समुदाय की बेचारगी है कि राजनीति में तो हम महापुरुष ढूँढ और ओढ़ लेते हैं, लेकिन साहित्य और कला में किसी को विभूति मानने में कष्ट होता है। हिन्दी के महान साहित्यकार, महापुरुष ही नहीं, हिन्दी समाज के पितृपुरुष हैं। मगर ‘गोदान’, ‘शेखर एक जीवनी’ या ‘परती परिकथा’ का लेखक हमारे यहाँ कुछ भी हो सकता है, महापुरुष नहीं। उसे, उनसे चरित्र प्रमाण-पत्र लेना होगा जिनका अपना कोई ठिकाना नहीं है! यह सब हमारे यहीं है, बाहर इस तरह की गाँठें नहीं हैं। एजरा पाउण्ड नाजीवाद का समर्थक होकर भी महान कवि हो सकता है, जड़ विचारों के बावजूद नीत्शे भी। ज्यों जेने (Jean Jenet) हद दर्जे का चोर, लफंगा, घोषित रूप से ‘आदतन अपराधी’ था, लेकिन उसके साहित्य को देखते ज्याँ पॉल सार्त्र ने उन्हें सन्त की पदवी दी। जेने पर सार्त्र की किताब का नाम ही है -सन्त जेने। हमारे यहाँ तो यही खोजते रहेंगे कि प्रेमचन्द के खाते में इतना धन कहाँ से आया, अज्ञेय के किस काम या यात्रा के पीछे सी आई ए का हाथ था।......’ इस टिप्पणी ने मुझे मेरे रोग की जड़ थमा दी।


दोष तो मेरा ही है जो मैं अपने इन आदरणीयों की सृजनशीलता, इनके सारस्वत योगदान को परे सरकाकर इनकी कमियाँ देखने में व्यस्त हो गया। ओमजी की यह टिप्पणी पढ़ने के साथ ही साथ, ‘कथादेश’ में कुछ ही महीनों पहले छपा एक वाक्य भी याद आ गया - ‘हम अपने प्रिय लेखकों को पढ़ना शुरु करते हैं और जल्दी ही प्रूफ की अशुद्धियाँ देखने लगते हैं।’ याने, दोष ‘उनका’ नहीं, मेरा, मेरी नजर का ही है। अपनी विकलता का कारण मैं ही हूँ। अपने निजी आचरण में ‘वे’ कैसे भी हों, मुझे उनके ‘व्यक्तित्व’ की अनदेखी कर उनके ‘कृतित्व’ पर ही ध्यान देना चाहिए था। मैं व्यर्थ ही उन्हें दोष देता रहा। दोषी तो मैं ही हूँ। दोषी ही नहीं, मैं तो अपराधी भी हूँ - उनका भी और खुद का भी। दोष ही देखने हैं तो मुझे तो अपने ही दोष देखने चाहिए जहाँ सुधार की तत्काल आवश्यकता और भरपूर गुंजाइश है। मैं तो दोहरा अपराध करता रहा - ‘उनमें’ कमियाँ देखने का और ‘उनके’ प्रति मन में उपजते रहे आदर भाव की उपेक्षा करने का। किन्तु इसके ‘जुड़वाँ सहोदर’ की तरह इस विचार ने तनिक राहत दी कि यह सब अन्यथा सोचने के पीछे कोई दुराशयता नहीं रही। अब समझ पड़ रहा है कि मेरे इन आदरणीयों के अनपेक्षित आचरण से मैं दुखी केवल यह सोचकर था कि यदि इनमें यह दोष नहीं होता तो सोने पर सुहागा हो जाता। तब मेरे ये आदरणीय सम्पूर्ण निर्दोष, पूर्ण आदर्श होते, इनमें कहीं कोई कमी न हाती। ये अधिक स्वीकार्य, अधिक लोकप्रिय होते, अधिक सराहे जाते, अधिक प्रशंसा पाते और किसी को भी इनकी आलोचना करने का अवसर नहीं मिलता।


मैं यह सब लिख रहा हूँ 30 मार्च की सुबह चार बजे। सूरज की पहली किरण के फूटते ही मैं अपने जीवन के पैंसठवे वर्ष में प्रवेश कर जाऊँगा। इस क्षण मैं ईश्वर से याचना कर रहा हूँ - हे! प्रभु! मेरी दृष्टि निर्मल कीजिए ताकि मैं औरों के दोष नहीं देखूँ। देखूँ तो बस, अपने ही दोष देखूँ। वह विवेक और साहस भी दीजिए कि मैं अपने दोष दूर कर सकूँ।

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8 comments:

  1. जन्मदिन की शुभकामनायें!

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  2. जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएँ..

    हमारे भी बुद्धि के जाले झाड़ लिये हमने, ब्लॉग का यही तो फ़ायदा है।

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  3. बहुत ही बढ़िया आलेख.
    दोष सारा नज़र का है.
    इसी उम्मीद के साथ कि हम हंस बनें,कागा नहीं.

    जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें.

    प्रसाद जी के ब्लॉग से आपके ब्लॉग तक पहुंचा हूँ.
    एक और सार्थक ब्लॉगर के दर्शन हो गए.

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  4. हमारी संस्‍कृति में ही शायद, शील और आचार का स्‍थान सर्वोपरि रहा है इसीलिए हम अक्‍सर मर्यादा पुरुषोत्‍तमों की अपेक्षा रखते हैं, इससे कम हमें कुछ चलता नहीं. साथ ही पं. भीमसेन जोशी, कवि नीरज के खाने-पीने की आदतों पर तथा अमिताभ बच्‍चन के प्रेम प्रसंग और हेमामालिनी के विवाह के उदाहरण को साथ लेकर, इन हस्तियों की प्रतिष्‍ठा और सम्‍मान पर विचार करें. लंबी चर्चा के इस विषय पर संक्षेप में कहना मुश्किल है, सो यह कहते हुए कि इस गंभीर वैचारिक पोस्‍ट पर सिर्फ जन्‍मदिन की शुभकामना देना, पोस्‍ट को पूरा सम्‍मान न देने जैसा होगा, बधाई.

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  5. आपको दृष्टि बदलने की आवश्यकता नहीं है। सद्बुद्धि दोष भी देखती है तो आक्षेप की दृष्टि से नहीं बल्कि निराकरण के उद्देश्य से। ईश्वर आपको स्वस्थ और चिरायु करे!

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  6. लाभ को सब धन से जोड़ते हैं जो कि अन्याय है शब्द के साथ। आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें।

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  7. जन्मदिन की बहुत बहुत शुभकामनाएँ

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  8. ्मुझ से बुरा.... कम से कम आज तो ऐसा न कहो:) जन्मदिन की बधाई॥

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