शुक्र है! कोई न कोई बाबूलाल है

मेरे लिए यह तय कर पाना लगभग असाध्य हो रहा था कि वकील साहब हँसते-हँसते रुँआसे हो रहे हैं या रुँआसे होते हुए हँस रहे हैं। बस, वे कहे जा रहे थे और मैं ‘मूढ़ मति’ की तरह ‘हाँ! हूँ!’ करता हुआ सुनता जा रहा था। एकाधिक बार कह चुके थे - ‘आपकी भाषा और कहने के तरीके पर मैंने कई बार आपको टोका और असहमत हुआ। खिन्नता भी जताई। पर आज मुझे कहना पड़ रहा है कि आप सही थे और हर बार सही थे।’ मुझे खुश हो जाना चाहिए था किन्तु उनके स्वरों की पीड़ा मुझे खुश नहीं होने दे रही थी।

वकील साहब याने श्री बाबूलालजी जैन। रतलाम जिले के अनुभाग (सब डिविजन) मुख्यालयवाले कस्बे आलोट के निवासी और वहाँ के अग्रणी, वरिष्ठ वकील। मेरे नियमित पाठक और लगभग उतने ही नियमित रूप से प्रतिक्रिया जतानेवाले। उनके बारे में मैं कुछ नहीं जानता सिवाय इसके कि वे आलोट के अग्रणी, वरिष्ठ वकील हैं। दो-तीन बार उनसे भेंट हुई भी किन्तु वह सब भी उनके ही सौजन्यवश। वे जब-जब भी रतलाम आए, मुझ पर कृपा कर, खुद चलकर मुझसे मिले। उनकी प्रशंसा मुझे हर बार चौंकाती है क्योंकि वैचारिकता के स्तर पर हम या तो एक दूसरे की ओर पीठ किए हुए हैं या फिर, एक सौ अस्सी अंश के कोण वाली लम्बी रेखा के अन्तिम बिन्दुओं पर आमने-सामने बैठे हुए।

वकील साहब मेरे लिखे की, सामान्यतः प्रशंसा ही करते हैं किन्तु कभी-कभार, मेरी भाषा और ‘कहन की चुभन’ से असहमति भी जताते हैं। यह ‘कभी-कभार’, ‘अनेक बार’ हो चुका है। ऐसे अवसरों पर वे साफ-साफ तो कुछ नहीं कहते किन्तु ‘कुशल और दक्ष वकील’ की तरह अन्ततः यही कहते हैं कि मैं भाषागत व्यवहार में क्रूरता और  अमानवीयता की सीमाएँ छू कर लोगों पर अत्याचार कर उन्हें पीड़ित करता हूँ। मेरे ऐसे अत्याचारों से पीड़ित मेरे आलेखों के पात्रों के प्रति सहृदयता बरतते हुए मुझे, तनिक नम्र, मानवीय और अघातक भाषा प्रयुक्त करने की ‘अमूल्य निःशुल्क सलाह’ (कोई ‘अनुभवी और दक्ष’ वकील निःशुल्क सलाह दे, यह अपने आप में ध्यानाकर्षक और महत्वपूर्ण तथ्य है - गुदगुदानेवाला तथ्य) देते हुए कहते हैं - ‘कई बार चुप रह कर भी तो अपनी बात कही जा सकती है!’ उनकी बात सौ टका सच होती है किन्तु मैं अपना क्या करूँ? यह तो ‘निर्मिति दोष’ (मेन्यूफेक्चरिंग डिफेक्ट) की तरह मेरे व्यक्तित्व के हिस्से से आगे बढ़कर मेरी पहचान बन गया है। मैं कहता हूँ - ‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अपने इस दोष से मैं खुद भी परेशान हूँ। किन्तु क्या करूँ? अब मेरा सुधरना नामुमकिन है।’ बात को हलकी करने के लिए मैं परिहास करता हूँ - ‘वकील साहब! अब आखिरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे।’ वे कुछ नहीं कहते। बड़ापन और बड़प्पन बरतते हुए, चुपचाप मेरी इस अशिष्टता तो सुन लेते हैं, सहन कर लेते हैं।

वे ही वकील साहब, मेरी उसी भाषा को आज सही बता रहे थे! लेकिन जैसा कि मैंने कहा - पीड़ा भरे उनके स्वर मुझे खुश नहीं होने दे रहे थे। बात ही कुछ ऐसी थी।

जैसा कि वकील साहब ने बताया, आलोट की गौ शाला को लेकर लोगों में क्षोभ और आक्रोश था। कुछ को गौ शाला की संचालन शैली से असन्तोष था तो कुछ को पदाधिकारियों के आचरण से। आलोट के लोगों को लग रहा था कि गौ शाला के पदाधिकारी न केवल मनमानी और पद का दुरुपयोग कर रहे हैं अपितु अनुचित रूप से व्यक्तिगत लाभ भी उठा रहे हैं। वकील साहब को भी ऐसा ही अनुभव हुआ। उन्होंने कुछ लिखा पढ़ी की। सूचना के अधिकार का उपयोग कर कुछ जानकारियाँ माँगी। वकील साहब की लिखा पढ़ी से मिले कागजों ने, आलोट के लोगों की बातों को सच साबित किया। इसका सीधा असर हुआ और जैसा कि वकील साहब ने बताया, सब कुछ तो दुरुस्त नहीं हुआ किन्तु कुछ अनुचित बातों पर तुरन्त रोक लग गई।

ठहरे पानी में वकील साहब के फेंके कंकर ने आशा से अधिक और ऊँची लहरें उठाईं। लोगों में खुशी फैली। लोग वकील साहब को धन्यवाद और बधाई देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे। लेकिन बात केवल प्रशंसा तक सीमित नहीं रही। किसी ने कुछ और मुद्दे शामिल करने का सुझाव दिया तो किसी ने धरने पर बैठने की सलाह दी। आशा-अपेक्षा से अधिक जन-प्रतिसाद से वकील साहब को खुश होना ही था। किन्तु उन्हें खुशी के साथ धक्के भी लगे। वकील साहब ने कहा - ‘‘बैरागीजी! क्या बताऊँ? मैंने लोगों से कहा कि यदि वे वाकई में इतने खुश हैं तो कम से कम मेरी कार्रवाई की प्रशंसा करते हुए दो लाइनें मुझे लिख कर दे दें। लेकिन सबने मना कर दिया। कहने लगे - ‘वकील साहब! गौ शाला के संचालकों को तो आप जानते ही हो। जबरे लोग हैं। हम अपने बाल-बच्चे और धन्धा लेकर बैठे हैं। आपके पक्ष में ‘ओपन’ में नहीं आ सकते। लेकिन आप लगे रहिए। आप वाकई में अच्छा काम कर रहे हैं।’’ वकील साहब ने आगे कहा - ‘‘मुझे धरने पर बैठने की सलाह देनेवालों से मैंने कहा कि आप भी मेरे साथ बैठते हों तो मैं अभी धरने पर बैठ जाता हूँ। लेकिन एक भी माई का लाल सामने नहीं आया। सबके सब हें-हें करके, ‘क्या वकील साहब!  आप भी क्या मजाक करते हो!’ कह कर, हाथ जोड़ कर चले गए।’’ और इसीके बाद उन्होंने वह सब कहा जिसे सुनते हुए मैं तय नहीं कर पा रहा था कि रुँआसे हुए जा रहे हैं या खुश। बार-बार कह रहे थे - ‘बैरागीजी! आप ही सही थे। मैं आपको गलत ही टोकता रहा। लोग वास्तव में उसी भाषा और व्यवहार के काबिल हैं जैसा आप लिखते और करते हैं।‘

मैं कुछ भी नहीं कह पा रहा था। वे आयु, दुनियादारी, परिपक्वता, अनुभव आदि में मुझसे कोसों आगे हैं। मैंने अपनी सूझ-समझ के अनुसार उन्हें ढाढस बँधाने की कोशिश की। नहीं जानता कि मैं कामयाब हुआ या नहीं। किन्तु पीड़ा में भीगी, वकील साहब की आवाज अब तक मेरा पीछा कर रही है। वे पहले और अकेले आदमी नहीं है जिसके साथ ऐसा हुआ। न ही आलोट वह पहला और अकेला कस्बा है जहाँ यह हुआ। पूरा देश आलोट बना हुआ है।

मेरी बात कड़वी लग सकती है किन्तु मुझे कहने दीजिए कि हम एक आत्म-केन्द्रित, निर्लज्ज, स्वार्थी समाज में तब्दील हो गए हैं। राष्ट्र-प्रेम, सदाचरण, ईमानदारी हमारे लिए केवल दुहाइयाँ देने और आदर्श बघारने की चीजें बन कर रह गई हैं। पाकिस्तान की कारगुजारियों को लेकर हम चौबीसों घण्टे परेशान रहते हैं और इस सन्दर्भ में अपनी सरकार को ‘नपुंसक’ कहने में न तो देर करते हैं और संकोच। किन्तु इण्डियन एयर लाइन्स के अपहृत विमान काण्ड को याद कीजिए। अपने-अपने परिजनों को बचाने और सुरक्षित लौटा लाने के लिए अपहृत विमान के यात्रियों के तमाम परिजनों ने सरकार की नींद हराम कर दी थी। केवल एक लड़की ने कहा था कि सरकार उसके माता-पिता की चिन्ता न करे और विमान अपहर्ताओं के सामने घुटने नहीं टेके। उस लड़की को छोड़ कर सारे के सारे लोगों की चिन्ता में देश कहीं नहीं था। सबको अपने-अपने परिजनों की पड़ी थी।

ऐसे में, बाबूलालजी जैन वकील साहब के साथ अनोखा और अनपेक्षित क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं! लेकिन तसल्ली की बात यह है कि सारे देश में, कहीं न कहीं, कोई न कोई बाबूलाल जैन है जो इस सबके बावजूद हरकत में बना हुआ है।

यह देश और समाज ऐसे ही बाबूलालों के दम पर बचा हुआ और बना हुआ है।

5 comments:

  1. भाषायी निर्ममता कभी कभी आवश्यक हो जाती है, प्रकरण स्पष्ट ही है।

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  2. आज देश को ऐसे बाबूलालों की ही ज़रूरत है, लेकिन इन्हे चिराग लेकर ढूँढने पर भी क्या ढूंढा जा सकता है ? वास्तव मे वेचारिक क्रांति ही इसका हल है ...

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  3. aapne n jane ek saty prasang likha hai ya apni baat ko deshwasiyon tak pahunchane ka ek tareeka hai...samajh nahi pa rahi hun...lekin hatprabh hun ki aap ka lekhan kitna prabhaav chhod raha hai ki baat ko dimag se nikalna bhi chaahe to shayad niklegi nahi. hats off.

    sach hai aise napunsak samaaj ko jagane k liye bhaashayi nirmamta ko hi talwar ka kaam karna padega.

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    1. यह पूरी बात सच है। मेरे पास इस समय बाबूलालजी जैन वकील साहब का मोबाइल नम्‍बर नहीं है। प्राप्‍त करने की कोशिश करूँगा और मिलने पर यहीं सार्वजनिक करूँगा।

      पोस्‍ट की सराहना के लिए आभार। आपकी बात से मेरा हौसला बढा।

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