हमारी चुप्पी ले आई हमें इस मुकाम पर



                                                              
गुवाहाटी में जो कुछ हुआ उस पर काफी कुछ कहा जा चुका है। निजी स्तर मैं खुद को लज्जित और क्षुब्ध अनुभव कर रहा हूँ और कहीं न कहीं खुद को भी इसके लिए दोषी मानता हूँ। अनुचित की अनदेखी करने और सहन करने की जो प्रवृत्ति सामाजिक चलन में तेजी से घर करती जा रही है, उसे ही मैं एक बड़ा कारण मानता हूँ। यह ‘चलन’ मुझे, कहीं न कहीं ‘नव कुबेर संस्कृति का प्रभाव’ लगता है।

गए बीस बरसों में आए बदलावों को केवल सरकारी नीतियों में बदलाव के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए। इसके आर्थिक-सामाजिक बदलावों की अनदेखी करना आत्मवंचना होगा।

गए बीस बरसों में औसत मध्यमवर्गीय परिवारों में आए पूँजी प्रवाह ने हमारी संस्कारशीलता की चूलें हिला दी हैं। लोगों की बढ़ती क्रय शक्ति ने भौतिकता को जो प्रधानता दी, उसके चलते हमारी सहिष्णुता और पारस्परिकता ‘खण्डित’ होने से आगे बढ़कर ‘नष्ट’ होती नजर आ रही है। उदारीकरण के पूँजीगत प्रभावों ने पीढ़ियों के रिश्तों को झकझोर कर रख दिया है। मैं अनेक युवा ‘प्रोफेशनलों’ के पालकों से सम्पर्क में हूँ और उनसे खुलकर बात करता हूँ। इन पालकों ने अपना पेट काटकर (पेट पर पत्थर बाँधकर) अपने बच्चों को ‘प्रोफेशनल’ की हैसियत दी। ऐसे कई पालकों की पीड़ा यह है कि भारी-भरकम पेकेज (एक अध्यापक के लिए 6 लाख का पेकेज भी भारी भरकम होता है) पाकर इनके बेटे इन्हें मूर्ख मानने लगे हैं और बाप की जिस वेतन श्रेणी के दम पर भारी-भरकम पेकेज हासिल किया, उसी वेतन श्रेणी की खिल्ली उड़ाते हैं। बेशक ऐसे पालक अधिसंख्य नहीं हैं किन्तु हैं तो सही। ये पालक जब टोकते हैं, संयमित जीवन जीने की सलाह देते हैं तो बच्चे कहते हैं - ‘जिन्दगी भर कलम घसीट कर आपने बीस-बाईस हजार की मास्टरी हासिल की। आप उसी तरह से सोचते हैं जबकि आज जमाना बदल गया है।’ पूँजी के आतंक से माँ-बाप की बोलती बन्द होने लगी है। रिश्तों का लिहाज और आँख की शरम टूटने लगी है। संस्कारवान बच्चों के उदाहरण सामने नहीं आते। आते हैं तो   बिगड़े बच्चों के किस्से ही सामने आते हैं, प्रचुरता से आते हैं और लगातार आते हैं। ऐसे में ‘कगार पर बैठे बच्चे’ अचेतन में ही ऐसे किस्सों से प्रेरित होते हों तो अचरज क्या?

हमारी दशा बिलकुल वैसी ही है कि पिघलता तो हिमालय है किन्तु बाढ़ मैदान में आती है। बचाव हमें अपने स्तर पर ही करना होगा। हमें अपना घर सम्हालना होगा। नव कुबेरों के रास्ते चलने को उद्यत अपने बच्चों को रोकना-टोकना होगा। वैयक्तिकता ही सामाजिकता में बदलती है। गुवाहाटी काण्ड में शामिल युवकों के चित्रों के साथ ही साथ यदि उनके माता-पिता के चित्र भी प्रदर्शित किए जाते तो निश्चय ही इसका अतिरिक्त प्रभाव पड़ता और अधिक प्रभावी सन्देश जाता - ‘देखो! ये वे माँ-बाप हैं जिन्होंने अपने बच्चों को नियन्त्रित नहीं किया। इन्हें मनमानी करने दी। अच्छे संस्कार नहीं दिए।’ बच्चों की करनी से माँ-बाप को और माँ-बाप की करनी से बच्चों को जोड़ा ही जाना चाहिए। आज परिवारों में साथ-साथ रहते हुए भी बच्चे और माँ-बाप अलग-अलग इकाइयाँ बन कर जी रहे हैं। ‘बच्चों को टोको मत, बुरा मान जाएँगे।’ के नाम पर अनुचित की अनदेखी की जा रही है। आचरण के नाम बरती जा रही वैयक्तिकता जब परिवार से जुड़ती है तो उसके अर्थ बदल जाते हैं।

पूँजी का प्रवाह हमारे बच्चों को बौराता नजर आ रहा है। इसका असर हमारी जड़ों पर हो रहा है। हमारे बच्चों के इस दुराचरण के लिए हम भी कहीं न कहीं जिम्मेदार तो हैं ही। 
हमें अपने बच्चों को ‘अपने बच्चे’ मानना होगा। मैं तेजी से अनुभव कर रहा हूँ कि हम अपने बच्चों को टोकने का साहस खोते जा रहे हैं। हमें तनिक सख्ती से कहना होगा - ‘प्रगतिशीलता का अर्थ असामाजिकता नहीं होता। तुम हमारे बाप नहीं, हम तुम्हारे बाप हैं। हमारे किए से तुम्हारा ‘बेहतर आज’ बना है तो तुम्हारी जिम्‍मेदारी है कि तुम्हारे किए से हमारा आज बदतर न बने।’ हमें समझाना होगा कि उनकी जिन्दगी, उनकी करनी केवल उनकी नहीं है। उनकी जिन्दगी और करनी हमसे भी जुड़ती और प्रभावित करती है।

इसकी शुरुआत कुछ इस तरह से की जा सकती है कि गुवाहाटी काण्ड के नायक युवाओं के माँ-बाप, अपने-अपने बच्चों को पुलिस को सौंपे और कहें - ‘हमारे बच्चों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए। अपने बच्चों की इस हरकत के लिए हम भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। हमें भी दण्ड मिलना चाहिए और अपने बच्चों को दण्डित होते देखना हमारे लिए कठोर दण्ड है।’

मुमकिन है मेरी बातें आड़ी-तिरछी हों, क्रमबध्द न हों, परस्पर जुड़ती न हों। किन्तु शुरुआत तो हमें ही करनी होगी। हममें से प्रत्येक को करनी होगी - अपने-अपने घर से। 

11 comments:

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  2. आपकी बातों से पूर्ण सहमत ,माँ बाप यदि ऐसा उचित मानवीय ,अनुकरणीय कदम उठाते हैं तो इतिहास रचा जायेगा किन्तु मेरा दृढ़ विश्वास है कि
    उनके नपुंसक माँ बाप यह कटाई नहीं करेंगे क्योकि यहाँ उदहारण रखने के चक्कर में वो इतिहास में शामिल हो जायेंगे
    सुन्दर सार्थक साहसी पोस्ट के लिए सादर नमन

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  3. ‘नव कुबेर संस्कृति का प्रभाव’ ... आपने सही जगह नब्ज टटोली ... जब जब भी इस तरह के वाकयात हमारे सामने घटे ... विरोध दर्ज करना पहला कदम होगा ...

    कुछ अरसे पहले एक नारा दिया गया था ... माना राजनैतिक था ... वो था ... " उन्हौने साठ सालों में क्या किया " ... तब मैं सबकों यही कहता की जो जो उनके सामने काम थे शायद उन्हौने प्राथमिकता के आधार पर किये होंगे ... अब जब सम्पन्नता देश में बढ रही हैं तो ... आप जो अब जो जो जरूरी हैं वो विकास करें ... पर इस तरह देश को गुमराह न करें ... या कृतघ्नता के साथ बेवजह का असंतोष तो न फैलाएं ... मेरे पिता निम्न माध्यम वर्ग से रहे ... बहुत कम तनख्वाह पाते थे ... पर हाँ उन्हौने उन हालातों में भी कभी महंगाई को नहीं रोया ... संस्कारों की मज़बूत जमीं के चलते मैं आभारी हूँ की आज भी कभी ये ख्याल नहीं आया की मेरे पिता ने कुछ नहीं किया ... बल्कि गर्व करता हूँ की उन्हौने मेरी शिक्षा का विषम स्थितियों में भी समुचित प्रबंध ही किया .

    अब बच्चों के कुकर्मों के साथ माँ बाप का नाम सार्वजानिक तौर पर जोड़ने का आपका सुझाव फिर लगता हैं आपके धीरज की तात्कालिक हालातों में डगमगाने सा हैं ... जो बहुत सामान्य हैं ... पर मैं जनता हूँ आपकी पीड़ा गहरी हैं .... और जायज भी ...आपके सरोकार ऊँचे हैं ...

    फिर भी इस बात को कहाँ दावे के साथ कहा जा सकता हैं की हर समझदार माँ बाप की औलाद सही ही निकलती हैं ... या फिर हमेशा गलत ही रास्तों पर जाती हैं ... हर किसी के पूर्व संस्कारों को बस वर्तमान जन्म में ... थोड़ी सी हवा पानी ही मिलती हैं ... फल तो उसके पूर्व जन्मों के कर्मों और वर्त्तमान कर्मों के सम्मिश्रण के ही आते हैं ... गर कोई समझदारी में थोडा आगे बड़ा तो समझ समझ कर इस जन्म सम्यक कर्म करता हुआ भविष्य संवारने की अपने तई कोशिश करता ही हैं ... और कोई कोई तो इतना नादाँ होता हैं की प्रकाश में जन्म लेकर भी अंधकार की और तेजी से दौड़ने में ही अपनी भलाई समझता हैं .

    मान भी लें ... माँ बाप की तस्वीर लगा भी देते तो क्या बच्चों के कुकर्म की सजा माँ बाप को देना ... फिर कोई और आगे बढें तो शिक्षकों को देना ... फिर आगे बढकर समाज को देना क्या उचित होगा . ...

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  4. आपकी अधिकांश बातों से सहमत हूँ। लेकिन भारत की समस्याओं के बारे में बात करते समय एक नुक़्ता अक्सर छूट जाता है - वह है प्रशासनिक व्यवस्था का अभाव। जहाँ सारी दुनिया में प्रशासन अपना काम करता है, वहाँ भारत के हर क्षेत्र में इसका पूर्णाभाव दिखता है। अब हर व्यक्ति, हर समय, हर जगह इतना सक्षम तो नहीं हो सकता कि अपनी सुरक्षा स्वयं करता रहे। और अगर आम आदमी यही करता रहेगा तो बाकी क्या करेगा? आर्थिक भ्रष्टाचार हो या यौन अपराध; छेड़छाड़ हो या गाली-गलौज़, धार्मिक दंगे हों या आतंकी गतिविधियाँ, कानून व्यवस्था सुचारु करके इन बातों को वैसे ही नामुमकिन किया जा सकता है जैसे किसी भी सभ्य देश में होता है - फिर हमारे नेता, प्रशासक, शिक्षक, प्रवचनकर्ता और आम जनता इस दिशा में कारगर कदम क्यो नहीं उठाते? ऐसा माहौल क्यों नहीं बनाया जाता है? देश की व्यवस्था की ज़िम्मेदारी के नाम पर लूटने वाले खुद बुलैटप्रूफ़ गाड़ियों में निकलते हैं, इतना काफ़ी नहीं है, आम जनता को इन्हीं शोहदों के बीच से ग़ुज़रना पड़ता है जिनकी हिम्मत कानून के निकम्मेपन ने कई गुना बढ़ा रखी है।

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  5. इसकी शुरुआत कुछ इस तरह से की जा सकती है कि गुवाहाटी काण्ड के नायक युवाओं के माँ-बाप, अपने-अपने बच्चों को पुलिस को सौंपे और कहें - ‘हमारे बच्चों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाए। अपने बच्चों की इस हरकत के लिए हम भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। हमें भी दण्ड मिलना चाहिए और अपने बच्चों को दण्डित होते देखना हमारे लिए कठोर दण्ड है।’........
    .काश ऐसा साहस माँ-बाप दिखा पाते ...आज हमारे सामने यही तो सबसे बड़ी बिडम्बना है की माँ-बाप अपने बच्चों की इतना संरक्षण देते हैं की उनके हौसले बुलंद होते हैं उन्हें मालूम होता है की हमारे माँ-बाप हमारा ही पक्ष लेंगे ....
    आपके सार्थक और गहन चिंतन भरी प्रस्तुति के लिए आपका आभार!

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    1. कविता जी, विष्णु जी,
      जिन माता-पिताओं में यह साहस है उनके बच्चे शायद कभी भी ऐसी हरकत करके उन्हें शर्मिन्दा नहीं करेंगे। यह समस्या दूसरी किस्म के (ग़ैर-ज़िम्मेदार) माँ-बाप की समस्या है, जिन्हें सक्षम कानून व्यवस्था और माक़ूल सज़ा की ज़रूरत है।

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    2. आपने बिलकुल ठीक कहा अनुरागजी। सच तो यह है कि ऐसे 'बिगडैल बच्‍चे' बहुत कम हैं किन्‍तु चूँकि वे 'प्रभाववाले' या 'पैसेवाले' परिवारों से होते हैं सो उनके हौसले बहुत बुलन्‍द होते हैं और उन्‍हें राजकीय संरक्षण तत्‍काल ही मिल रहा होता है, इसलिए उन पर अंकुश लगा पाना आसान नहीं होता। देखिए न! गुवाहाटी मामले में पहचान होने के बाद भी ग्‍यारह लोग पुलिस पकड से बाहर हैं - घटना के पॉंचवें दिन तक!

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  6. आपने बिल्कुल सही कहा, पैकेज हमारे समाज में कैरेक्टर से भी बड़ा हो गया है, यह नया वर्ण भेद है जो पैकेज से निर्धारित होता है नई पीढ़ी को इस खतरे के प्रति सचेत करना होगा नहीं तो इसके अंजाम और भी बुरे होंगे।

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  7. दुखद सत्य तो ये है की संभवतः अश्वत्थामा तो नहीं लेकिन dhritrastra और गांधारी अमर ,अस्तित्वमान है ज्यादा हिंसक और क्रूर रूप में प्रत्येक युग में

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