बड़बोले बयान और लोकतन्त्र का ऊँट



वो नेता ही क्या जो बड़बोला न हो। और नेता यदि सत्ता पक्ष से जुड़ा हो तो यह बड़बोलापन नीम चढ़ा करेला बन जाता है। तब, नेता की बातें, बातें नहीं रह जातीं। वे गर्वोक्तियाँ और दम्भोक्तियाँ बन जाती हैं। अण्णा के, 2011 वाले आन्दोलन के दौरान, काँग्रेस के तत्कालीन प्रवक्ता मनीष तिवारी के वक्तव्य, उनकी शब्दावली, उनकी भाषा याद कीजिए! उनके तेवर और मुख मुद्राएँ याद कीजिए! लगता ही नहीं था कि वे इसी धरती के सामान्य मनुष्य हैं। लगता था, कोई देवदूत, निर्णायक मुद्रा में ईश्वरीय आदेश सुना रहा है। यह अलग बात है कि उनके बड़बोलेपन ने काँग्रेस को लज्जाजनक स्थिति में ला खड़ा किया और अन्ततः उन्हें प्रवक्ता पद से ही हटाना पड़ा था।


यह तो हुई नेता और सत्ता पक्ष से जुड़े नेता की बात। किन्तु इन दोनों गुणों के अतिरिक्त यह नेता यदि संघ परिवार से हो तो नीम चढ़े करेले पर कुनैन का पुट भी लग जाता है। तब बात गर्वोक्तियों और दम्भोक्तियों से आगे बढ़ कर धमकियों तक पहुँचती लगने लगती है। अरविन्द केजरीवाल को लेकर भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा का वक्तव्य पढ़ कर कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ मुझे। झा ने केजरीवाल की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि केजरीवाल को राजनीति का क ख ग भी नहीं आता और वर्तमान स्थिति में तो उनका (झा का, याने भाजपा का) वार्ड अध्यक्ष ही केजरीवाल को हरा देगा।

सारी दुनिया की बात ही छोड़ दें, खुद केजरीवाल भी जानते हैं कि वे राजनीति का क ख ग नहीं जानते। रही बात जीतने-हारने की, तो इसके लिए आशावादी उद्घोषणाएँ ही की जा सकती हैं। यह आशावाद सच भी हो सकता है और सच नहीं भी हो सकता।

भारतीय लोकतन्त्र, जन इच्छाओं के प्रकटीकरण का वह ऊँट है जिसके बारे में उसका मालिक तो दूर रहा, खुद वह ऊँट भी नहीं जानता कि वह किस करवट बैठेगा। इस ऊँट ने अच्छे-अच्छों को जमीन दिखा दी, उनके होश दुरुस्त कर दिए और छब्बेजी  बनने का दावा करनेवाले चौबेजी को दुबेजी भी नहीं रहने दिया।

हम भारतीय,  आदर्श अनुप्रेरित, भावना प्रधान समुदाय हैं। विदेशों में यदि कोई उम्मीदवार भाषण देते-देते रोने लग जाए तो उसकी पराजय तत्क्षण सुनिश्चित हो जाती है। इसके विपरीत, भारत में कोई उम्मीदवार ऐसा करे तो श्रोताओं का जी भर आता है, वे उसकी पीड़ा में भागीदार हो कर साथ में रोने लगते हैं और सहानुभूति का अपना पूरा कोष, अपने वोट के जरिए उस पर लुटा देते हैं। और जब परिणाम आता है तो, कल तक आम सभाओं में रो रहा उम्मीदवार, कुर्सी पर बैठा, खिलखिलता नजर आता है।

हम नीतियों के नाम पर वोट देने वाले मतदाता कभी नहीं रहे। आज तक नहीं बन पाए। हम सदैव ही तात्कालिकता से प्रभावित हो कर अपना भाग्य तय करते हैं। आपातकाल और सेंसरशिप लगाने की सजा देकर जिस इन्दिरा गाँधी को इतिहास के, कूड़े के ढेर पर फेंक दिया था, ढाई साल बाद ही उसी इन्दिरा गाँधी को हमने सर-माथे पर बैठा लिया था। इस देश में कौन नहीं हारा? इन्दिरा गाँधी हारीं, अटलजी जैसे वाक्पटु, जन नेता हारे, कालूरामजी श्रीमाली जैसे शिक्षा शास्त्री हारे, मुख्यमन्त्री पद पर रहते हुए डॉक्टर कैलास नाथ काटजू हारे, व्यक्तिगत ईमानदारी की प्रतिमूर्ति मनमोहनसिंह हारे। यदि मेरी याददाश्त ठीक काम कर रही है टाटा-बिड़ला जैसे आद्योगिक घरानों के लोग हारे (वह भी तब जब देश में आद्योगिक घरानों के नाम पर ये ही दो-तीन नाम अंगुलियों पर गिने जाते थे)।

हारने-जीतने से न तो किसी के राजनीतिक ज्ञान या अनुभव का रिश्ता होता है न ही उसकी बुद्धिमत्ता, कुशलता, क्षमता, विद्वत्ता, दीर्घानुभव, परिपक्वता का। इसलिए, केजरीवाल का राजनीतिक  ककहरा न जानना उनके हारने का कारण होगा ही - यह घोषणा करना, राजनीतिक विवशता या शुभेच्छापूर्ण सोच हो सकता है, किन्तु यह सच ही होगा - यह जरूरी नहीं। यहाँ बता दूँ कि व्यक्तिगत रूप से मैं केजरीवाल से पूर्णतः असहमत हूँ और उन्हें ‘हीन महत्वाकांक्षी’ मानता हूँ।

मुझे दो प्रसंग याद आ रहे हैं। पहला - हेमवतीनन्दनजी बहुगुणा का। उत्तर प्रदेश में उन्‍हें  ‘लोक नेता’ का दर्जा प्राप्‍त था। किन्तु ‘वक्त’ ने साथ नहीं दिया तो वे अमिताभ बच्चन से हार गए। उसी अमिताभ बच्चन से जो सचमुच में राजनीति का क ख ग नहीं जानते थे। इस पराजय से व्यथित हो बहुगुणाजी ने गाँधी टोपी पहनना ही बन्द कर दी थी और शपथ ली थी कि अब जीतने पर ही टोपी लगाएँगे। दूसरा प्रसंग लोक नायक जय प्रकाश नाराण से जुड़ा है। जेपी का और उनके आन्दोलन का प्रभाव कम करने के लिए, जेपी को फासिस्ट बताते हुए, काँग्रेस की प्रदेश सरकारों के माध्यम से ‘फासिस्ट विरोधी सम्मेलन’ आयोजित किए जा रहे थे। प्रकाश चन्द्रजी सेठी तब मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री हुआ करते थे। उसी दौर में, काँग्रेस विधायक दल की एक बैठक में सेठीजी ने जेपी को मध्य प्रदेश में कहीं से भी विधान सभा का चुनाव जीतने की चुनौती दे दी। उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि शाजापुर के विधायक रमेश दुबे उठ खड़े हुए और बोले कि सेठीजी ने आज कह दिया सो कह दिया। आगे से ऐसी चुनौती न दें। क्योंकि मध्य प्रदेश में ग्राम पंचायतों के ऐसे भी वार्ड हैं जहाँ इन्दिरा गाँधी भी चुनाव नहीं जीत सकती। कल किसी जनसंघी ने, इन्दिरा गाँधी को पंचायत का वार्ड चुनाव जीतने की चुनौती दे दी तो जवाब देते नहीं बनेगा। सुनकर सेठीजी आगे कुछ नहीं बोले और अपनी चुनौती फिर कहीं नहीं दुहराई।

धमकियाँ लगनेवाली गर्वोक्तियाँ, दम्भोक्तियाँ कहने/सुनने/पढ़ने में भले ही अच्छी लगती हों किन्तु उनकी वास्तविकताएँ सर्वथा अकल्पनीय/अनपेक्षित परिणाम बन कर भी सामने आ सकती हैं। स्वर्गीय रमेश दुबे की बात की तर्ज पर कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में अनेक ग्राम पंचायतों के ऐसे वार्ड होंगे जहाँ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी भी चुनाव न जीत सकें। ऐसी ही स्थिति सोनिया गाँधी के लिए भी बन सकती है।

लिहाजा, नेता होने का मतलब बड़बोला होना हो सकता है किन्तु उसका बड़बोला होना अनिवार्यता कभी नहीं होता। जो जितने बड़े पद पर बैठा होता है, उसे उतनी ही अधिक गम्भीरता, जिम्मेदारी, शालीनता से बोलना चाहिए - बिलकुल, ‘ज्यों-ज्यों भीगे कामरी, त्यों-त्यों भारी होत’ की तर्ज पर।

यह सब लिखते हुए मुझे एकाएक ही (मेरे जमाने की) फिल्म ‘वक्त’ के एक गीत की दो पंक्तियाँ याद आ गईं -
                           आदमी को चाहिए, वक्त से डर कर रहे।
                           कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज।


इन पंक्तियों को कृपया केवल प्रभात झा तक सीमित मत कर दीजिएगा। ये हम सब पर समान रूप से लागू होती हैं। मुझ पर भी।

6 comments:

  1. फेस बुक पर श्रीसुशील मीनू माथुर, रतलाम की टिप्‍पणी -
    धन्‍यवाद और बधाई अच्‍छी जानकारी के लिए। समझदार और बुध्दिजीवी समय निकाल कर इस लेख को अवश्‍य पढें।

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  2. आदमी को चाहिए, वक्त से डर कर रहे।
    कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज।

    ये आपने ऊँची बात कह दी

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  3. काश हम औरों की वैशाखियों के बिना ही महान होना सीखें..

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  4. फेस बुक पर श्री हिम्‍मत लाल जैन, रतलाम की टिप्‍पणी -

    सही नेता जमीन से आए, वही है। वार्ड पार्षद भी एक इम्‍पार्टेण्‍ट पोस्‍ट है भाई।

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  5. फेस बुक पर श्री सुरेश चन्‍द्र करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी -

    नेता जब बोलता है तो उसके मुँह से बडबोलेपन के कीटाणु निकलते हैं और ये कीटाणु तब अधिक मात्रा में निकलते हैं जब श्रोता बड़ी संख्‍या में हों या ये किसी बड़ी आमसभा में हों। इनके तर्क भी बड़े अजीबोगरीब होतें हैं। गाँधीसागर बांध का उद्घाटन पंडितजी के कर कमलों से हुआ। उसके बाद चुनाव आये। विरोधी पक्ष के नेता ने आमसभा मैं कहा की अब आदमी बीमार पड़ेंगे। जब बाँध से बिजली लेंगे, पानी को गिराकर बिजली बनेगी तो पानी की ऊर्जा तो चली गयी अब पानी मैं कस कहाँ? वो पानी खेतों मैं जायेगा, तो पैदा होने वाले गेहूँ में कस कहाँ से आएगा? विष्णु! इनके तर्क ऐसे थोथे होतें हैं। इस भाषण वीर नेता का नाम आप जान गए होंगे क्योंकि हम एक ही जिले के हैं। मगर एक पहलू से नेता का बडबोलापन जरूरी भी है नहीं तो अधिकारी बडबोले हो जायेंगे। नेता तो अस्थायी है जबकि अधिकारी तो ३०/४० साल रहेगा। नेता एक आवश्यक प्रजाति है। अधिकारी,उद्योगपति के सन्‍तुलन के लिए यह जीव जरूरी है।

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  6. बड़बोलेपन का भाव काफ़ी ज़्यादा है हमारे देश में

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