एक विशेषज्ञ का व्यावहारिक परामर्श

किसी विषय विशेषज्ञ से उसके विषय से परे कोई परामर्श माँगा जाए तो प्रायः ही ‘ना’ सुनने को मिलती है। किन्तु यह परामर्श यदि अनुभवों के आधार पर माँगा जाए तो शायद ही कोई मना करे। तब अतिरिक्त उत्साह, सद्भावना और सदाशयता से यह ‘नेक काम’ किया जाता है। ‘जेपी’ ने भी ठीक यही किया। यह अलग बात रही कि परामर्श माँगनेवाले को विश्वास नहीं हुआ और लगा कि ‘जेपी’ परिहास से आगे बढ़कर कहीं उसका उपहास तो नहीं कर रहे?
 
‘जेपी’ याने  श्री जय प्रकाश डफरिया। मेरे कस्बे के अग्रणी ‘कर सलाहकार’ हैं। अपने विषय में निष्णात् तो हैं किन्तु इस समुदाय में अपवाद  लगते हैं। कर सलाहकार प्रायः ही मितभाषी, मुद्दा केन्द्रित और रुखे माने जाते हैं - ‘दो टूक‘ बात कही और चुप। जेपी ऐसे नहीं हैं। वे खुलकर बतियाते हैं, ‘व्यंजना’ में टिप्पणियाँ करते हैं और सामनेवाले का मजा लेने से पहले खुद के मजे लेते हैं। खूब गुदगुदाते हैं। अन्तरंग क्षेत्र में तो उनका ‘कर सलाहकार’ मानो ‘उड़न-छू’ हो जाता है और कोई दूसरा ही ‘जेपी’ उनकी काया में प्रवेश कर जाता है। यह सब करते हुए यह ध्यान पूरा-पूरा रखते हैं कि अनजाने में भी किसी की अवमानना, उपहास न हो जाए। इस सबसे अलग हटकर और आगे बढ़कर उनका एक पक्ष और है - अकादमिक। आय कर से सम्बन्धित प्रकाशनों (जर्नलों) में उनक लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं जो उन्हें सबसे अलग साबित और स्थापित करते हैं। इन्हीं जेपी ने, अपने विषय से अलग, अभी-अभी एक परामर्श दिया तो परामर्श माँगनेवाला और सुननेवाला (मैं) अपनी हँसी नहीं रोक पाए।
 
अपने बेटे की आयकर विवरणी के बारे में बात करने के लिए मैं जेपी के पास पहुँचा तो एक सज्जन पहले से बैठे थे। अगले कुछ ही दिनों में उन्हें अमेरीका जाना था। वे जेपी के पास आए थे - यह परामर्श लेने के लिए कि यात्रा में ‘समान’ के नाम पर क्या ले जाएँ और क्या नहीं। चूँकि जेपी कुछ दिन पहले ही अमेरीका प्रवास से लौटे थे तो उनसे बेहतर परामर्श कौन दे सकता था? जो भी कहेंगे, अनुभूत ही कहेंगे!
 
मुझे देखते ही जेपी बोले - ‘जल्दी आईए। इन्होंने एक सलाह माँगी है। आप भी सुन लीजिए। कभी आपके भी काम आएगी।’ मैंने कहा - ‘मैं अपने लिए नहीं, बेटे के लिए आया हूँ।’ जेपी बोले - ‘तब तो और भी अच्छा है। मेरी यह सलाह आपके बेटे के भी काम आएगी।’ मुझे लगा, आय कर से सम्बन्धित कोई ऐसी बात होगी जो वेतन भोगियों और व्यवसायियों (सेलेरीड पर्सन्स एण्ड प्रोफेशनल्स) पर समान रूप से लागू होती होगी। ऐसी जानकारियाँ मुझे मेरे बीमा व्यवसाय में सहायक होती हैं। सो, लालच और स्वार्थ के अधीन, जेपी के कार्यालय के दरवाजे से उनके चेम्बर तक की, दस कदमों की दूरी मैंने सात कदमों में ही पूरी कर ली। मेरी आतुरता देख कर जेपी हँसे। बोले - ‘वैसा कुछ नहीं है जैसा आपने सोच लिया। यह मामला टेक्सेशन का नहीं, जिन्दगी का है।’ मैं जेपी को जानता तो नहीं किन्तु कुछ-कुछ समझने लगा हूँ। सारी दुनिया मुझसे कहती है ‘आपसे बातों में जीतना मुश्किल है’ किन्तु जेपी मुझे अनगिनत बार आसमान दिखा चुके हैं। उनकी ‘फटाफट’ (इंस्टण्ट), ‘बिना विचारी और सहज’ (विदाउट थॉट एण्ड नेचुरल) और ‘एप्ट’ (मुझे इसके लिए उपयुक्त हिन्दी शब्द नहीं मिल रहा) प्रतिक्रियाओं/टिप्पणियों के ‘धोबीपाट’ का ‘अवर्णनीय सुख’ अनगिनत बार ले चुका हूँ। सो, अपने से बेहतर अदमी के सामने, चुपचाप बैठने की समझदारी बरत ली। इसी में मेरी बेहतरी भी थी।

मेरे बैठते ही जेपी, मुझसे पहले बैठे सज्जन से बोले - ‘तू अमेरीका जा रहा है। बहुत अच्छी बात है। जितना कम सामान ले जाएगा उतना सुखी रहेगा। चटोरी जबान के चक्कर में खाने-पीने का सामान ले जाने से बचना। लेकिन एक सामान ले जाना बिलकुल मत भूलना। तुझे वहाँ बाकी सारा सामान मिल जाएगा लेकिन यह सामान नहीं मिलेगा। तू ठहरेगा तो किसी न किसी होटल में ही! यह सामान तुझे किसी भी होटल में नहीं मिलेगा। फाइव स्टार होटल में भी नहीं।’
 
जेपी की बातें, बातों से आगे बढ़कर ‘चन्द्रकान्ता’ का ‘रहस्य लोक’ रचती लग रही थीं। लग तो मुझे पहले ही क्षण गया था कि ‘सामान’ बहुत बड़ा तो नहीं होगा किन्तु जेपी का ‘जेपीपन’ उसे किसी ‘उड़न तश्तरी’ (यूएफओ) का दर्जा दे चुका था। मैं तो केवल रहस्योद्घाटन के क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था लेकिन परामर्श लेनेवाला ‘भयभीत होन की सीमा तक जिज्ञासु’ बन चुका था।
 
रहस्यात्मकता और गम्भीरता को बनाए रखते हुए जेपी ने कहा - ‘देख! अपन हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी में मालवी। मालवी में रतलामी। याने हमें हर काम में, हर बात में तसल्ली चाहिए। ऐसा होता है ना कि पेट तो भर जाता है लेकिन तृप्ति, तसल्ली नहीं होती? और जब तक तसल्ली नहीं होती, तब तक मन कहीं और, किसी और बात में नहीं लगता। अपना पूरा ध्यान उसी बात पर लगा रहता है। है ना? बस! उसी तसल्ली के लिए यह सामान ले जाना बिलकुल मत भूलना।’
 
जेपी ने सामनेवाले की जिज्ञासा चरम पर पहुँचा दी थी। उससे रहा नहीं गया। लगभग गिड़गिड़ाकर बोला - ‘वो तो सब ठीक है लेकिन वह सामान क्या है, यह तो बताओ? ‘सामान कुछ खास नहीं है। न तो भारी है, न बड़ा और न ही मँहगा। छोटी सी चीज है लेकिन उसके बिना यात्रा अधूरी रहेगी और तू एक सेकण्ड के लिए भी नार्मल नहीं रह पाएगा। तुझे खाना भी अच्छा नहीं लगेगा। घबराता रहेगा कि सारा अमेरीका तेरी तरफ देख रहा है और तुझ पर हँस रहा है।’ जेपी ने सहजता से कहा। सामनेवाला अब रुँआसा हो गया। दयनीय स्वरों में बोला - ‘वकील सा’ब। मुझे घबराहट होने लगी है। मेरी जान निकल जाएगी। जल्दी बता दो कि वह सामान क्या है?’

सामनेवाले को दिलासा देते, उसकी हिम्मत बँधाते-बढ़ाते हुए जेपी बोले - ‘घबरा मत। छोटी सी चीज है। प्लास्टिक का मग्गा। वह ले जाना बिलकुल मत भूलना।’ सामनेवाला चिहुँक कर उछला - ‘क्या? प्लास्टिक का मग्गा? उसीके लिए आप मुझे इस तरह, इतना डरा रहे थे?’ मुझसे हँसी रोके नहीं जा रही थी और जेपी? उन्हें निश्चय ही सामनेवाले की ऐसी सुनिश्चित प्रतिक्रिया का पूर्वानुमान रहा होगा। वे ‘ध्यानस्थ बुद्ध मुद्रा’ ग्रहण कर चुके थे। उसी मुद्रा में बोले - ‘हाँ। प्लास्टिक का मग्गा।’ सामनेवाले की अकबहाट यथावत् रही। मानो उस मूर्ख बना दिया गया हो, कुछ इसी तरह झुंझलाते हुए बोला - ‘क्यों? दो पैसे के प्लास्टिक मग्गे के बिना मेरी यात्रा कैसे अधूरी रह जाएगी?’
 
जेपी एक बार फिर अपने ‘जेपीपन’ पर आए और ‘परामर्शदाता’ की मुख-मुद्रा, धीर-गम्भीर वाणी में बोले - ‘तेने ध्यान से मेरी बात नहीं सुनी। मैंने कहा था ना कि अपन हिन्दुस्तान हैं और हिन्दुस्तानी में मालवी। वो भी ठेठ, असल रतलामी। अपने को हर काम में तसल्ली चाहिए। तो पूरे अमेरीका की लेट्रिनों में कमोड लगे हुए हैं। वहाँ निपटने के बाद ‘धोने’ का नहीं, ‘पोंछने’ का चलन है। इसीलिए वहाँ लेट्रिनों में मग्गा नहीं रखा जाता। अपने को उसकी आदत नहीं। अपन तो जब धोएँ नहीं तब तक साफ-सुथरा होने की तसल्ली नहीं होती। और उसके लिए बिना मग्गे के काम नहीं चलता। इसलिए, तू बाकी कोई सामान भले ही मत ले जाना। सब मिल जाएगा। लेकिन मग्गा नहीं मिलेगा। मग्गा जरूर ले जाना।’
 
‘बात तो आपने सोलह आना सही कही और बिलकुल ठीक सलाह दी वकील सा’ब। लेकिन आपने तो आज जान ही ले ली। ऐसा क्यों किया? यह बात तो आप शुरु में ही, एक मिनिट में ही कह सकते थे!’ पूछा सामनेवाले ने। एक बार फिर अपने ‘जेपीपन’ पर आते हुए जेपी ने उत्तर दिया - ‘तेरे पूछते ही मैं फट् से बता देता तो तुझे मग्गे का इम्पार्टेन्स मालूम पड़ता? मग्गे की चिन्ता करना तो दूर रहता, तुझे लगता कि वकील साहब ने भी सलाह दी तो क्या क्या सलाह दी! अब तुझे मग्गे का और मेरी बात का मतलब समझ में आया और ऐसा आया कि तू जिन्दगी भर नहीं भूलेगा। याद रखेगा कि वकील साहब ने कोई बात बताई थी।’
 
सामनेवाला अब सामान्य हो चुका था। मुस्कुराता हुआ, धन्यवाद देकर विदा हुआ। उसके जाते ही जेपी मेरी ओर मुड़े। सवाल किया - ‘बोलो दाद् भाई! (‘दादा भाई’ का लोक प्रचलित शब्द स्वरूप) ठीक किया ना?’ ‘बिलकुल ठीक किया जेपी आपने।’ यही जवाब दिया मैंने। इसी में मेरी बेहतरी थी। लेकिन जेपी की बात बाकी थी। एक और सवाल तो किया लेकिन इस बार खुल कर हँसते हुए - ‘बताईए? यह सलाह आपके और आपके बेटे के भी काम आएगी या नहीं?’ मेरी हिम्मत थी कि मैं इंकार करूँ? एक बार फिर धोबीपाट का स्वाद चखूँ? कर ही नहीं सकता था। करता तो घर आकर यह सब लिखने की हालत में रह पाता?

वे जेपी हैं! यह सब पढ़कर आप उनके ‘जेपीपन’ का केवल अनुमान ही लगा सकेंगे। उसका आनन्द लेने के लिए आपको कम से कम एक बार तो जेपी से मिलना ही पड़ेगा।

7 comments:

  1. मग्गे वाली बात से शत प्रतिशत सहमत जी,

    अपन भी इस असहजता वाले माहौल से दो चार हो चुके हैं, वो भी इंडिया में ही. ये रहा लिंक और कुछ अंश.

    http://safedghar.blogspot.com/2009/09/blog-post_16.html

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    आयोजन का दौर चल ही रहा था कि सोचा एक बार बाथरूम हो आया जाय। वहां जाने पर पूरा बाथरूम खाली था। महंगे एअर फ्रेशनर ने वहां भी मधुमास को ला रखा था। आठ दस ओबामा दीवालों पर चल रहे थे। दरअसल मझोले आकार के बाथरूम में करीब आठ दस LCD लगे थे जिनपर CNN चैनल चल रहा था । LCD के किनारे सुनहरे फ्रेम से मढे गये थे। देखने पर लगता था कि दीवाल में कोई चलती फिरती पेंटिंग है। सोचा आया हूँ तो शौचालय का इस्तेमाल कर लूं। अंदर जाकर जब सिटकनी लगाई तो देखा कि पानी का तो कोई इंतजाम ही नहीं है यहां। टॉयलेट पेपर दीवार से लटक रहा है। अब क्या करूँ ? टॉयलेट पेपर देख कर तो मेरा मन बिदक गया। मन मसोस कर बिना कुछ करे धरे ही बाहर आ गया। मन ही मन कहा- साले, पानी की बाल्टी या मग ही रख देते। लेकिन क्यों रखेंगे….अंग्रेजीयत को ठेस न लगेगी।

    उस वक्त मुझे अपने बचपन के मित्र रामधारी की याद हो आई जिसे हम धरीया कह कर बुलाते थे। गांव में खेलते-खेलते जब अचानक उसे प्रेशर आ जाता तो खेल छोड कर खेतों के एक ओर जाकर वह निपटान करता और वहीं जमीन पर पडे ढेले का इस्तेमाल सफाई के लिये कर वह फिर खेलने आ जाता। एक दो बार देखने के जब सबको पता चला कि ये शौच के बाद ‘ढेलउवल’ करता है, पानी का इस्तेमाल नहीं करता… तो सभी आपस में कहते इससे दूर रहो……बहुत फूहड है…..गंदा है….ये है वो है….। उसकी माँ भी रामधारी को गुस्सा करती थी कि – ‘केत्थो लायक नहीं है इ निमहुरा….( किसी लायक नहीं है ये नासपीटा…’) . लेकिन अब पता चल रहा है कि और किसी लायक रामधारी हो या न हो, फाईव स्टार होटल में रहने की लायकी उसमें बचपन से थी, तभी तो हम जिस ‘ढेलउवल क्रिया’ को फूहड मानते थे, गंदा मानते थे वही सब कुछ यहां फाईव स्टार में टॉयलेट पेपर के रूप में मान्य है।

    सोचता हूँ, आज अगर रामधारी की माई फाईव स्टार होटल में इस्तेमाल होने वाले इन टॉयलेट पेपर्स को देखती तो जरूर अपने बेटे को इंटेलेक्चुअल, गुणी और हाई क्लास का मानती औऱ कहती – मेरा बेटा फाईव स्टार वाले बडे बडे लोगों की तरह रहता है………. है कोई मेरे बेटे के बराबरी का पूरे गाँव में :)

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  2. अब अमरीकी भी लोटा (याने मग्गा) का उपयोग चालू करने लगे हैं. अलबत्ता उनके लोटे कंप्यूटरी किस्म के हैं. मैं जेपी की तरह उलझाऊंगा नहीं, बल्कि लिंक दूंगा, जल्दी से जाकर पढ़ लें -

    http://nuktachini.debashish.com/239


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  3. मग्गा नहीं हो तो कोई बात नहीं... डिस्पोजेबल ग्लास हर होटल में मिलते है....

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  4. बहुत पते की बात बतायी है..

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  5. हमें भी यही कमी खली थी पर बाल्टी की भी कमी खलती है, पता नहीं शावर में वो आनंद नहीं है।

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