नफा एक पैसे का, हानि एक रुपये की




इन्दौर से प्रकाशित सान्ध्य दैनिक ‘प्रभात किरण’ के 14 मई के अंक में प्रकाशित इस समाचार को फेस बुक पर साझा करते हुए मैंने लिखा था कि यदि इस समाचार का हजारवाँ हिस्सा भी सच हो तो यह बड़ी निश्चिन्तता की बात है। राजनीति के ऐसे उपयोग ने मुझ ठेठ भीतर तक असहज और व्याकुल कर दिया था। इसे पढ़ते-पढ़ते मुझे कुछ बातें याद आ गईं।


पहली बात राजीव गाँधी के प्रधान मन्त्री काल की है। अटलजी की तबीयत खराब थी। बीमारी ऐसी थी कि उनका उपचार अमेरीका में ही हो सकता था और बीमार अटलजी की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इसके लिए आवश्यक संसाधन जुटा सकें। राजीव गाँधी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अटलजी को बुला कर सूचित किया कि वे (राजीव गाँधी) सरकारी स्तर पर अटलजी की अमरीका यात्रा की व्यवस्था कर रहे हैं। उन्होंने अटलजी से आग्रह किया कि वे (अटलजी) अमरीका जाएँ, निश्चिन्तिता से अपना इलाज करवाएँ और पूर्ण स्वस्थ होने के बाद ही लौटें क्योंकि अटलजी का स्वस्थ बने रहना देश के लिए जरूरी है। राजीवजी के अवचेतन में निश्चय ही यह बात रही होगी कि अटलजी इसे कहीं उन्हें बदनाम करने के लिए, उनके विरुद्ध कोई राजनीतिक षड़यन्त्र न समझें। अटलजी ने अत्यन्त भावुक होकर अपनी स्वीकृती दी। यह बात राजीव गाँधी ने कभी सार्वजनिक नहीं की। दुनिया को बताया तो खुद अटलजी ने ही बताया। 

दूसरी बात सम्भवतः पी. वी. नरसिंहराव के प्रधान मन्त्री काल की है। संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मामले में भारत का पक्ष प्रस्तुत किया जाना था। नरसिंह राव, लगभग सात भाषाओं के ज्ञाता विद्वान व्यक्ति थे। किन्तु इस अत्यन्त महत्वपूर्ण और गम्भीर मामले में उन्होंने पहले ही क्षण अटल बिहारी वाजपेयी को चुना। अटलजी ने तनिक हिचकिचाहट जताई किन्तु नरसिंह राव अपने आग्रह पर बने रहे। सारी दुनिया ने देखा कि अटलजी ने नरसिंह राव को निराश नहीं किया। उन्होंने अपना काम खूब किया और बखूबी किया। किन्तु अटलजी ने इस बात का राजनीतिक लाभ कभी नहीं लिया। और तो और चुनावी अभियान में भी उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया जबकि इस बात से अटलजी को और भाजपा को पर्याप्त ‘वोट-लाभ’ मिल सकता था। इस बात का जिक्र या तो किसी के पूछने पर किया या फिर तब, जब ऐसा करना अपरिहार्य हुआ।

इन दोनों मामलों में सम्बन्धित लोगों ने श्रेष्ठ आचरण करते हुए, ‘राजनीति’ (और विशेषतः ‘वोट की राजनीति’) को परे धकेलकर ‘देश’ की चिन्ता की थी।

किन्तु लगता है, नदियों में बहते पानी की गहराई भी कम होती जा रही है। ‘देश’ और ‘श्रेष्ठ आचरण’ या तो ओझल हो गए हैं या फिर उनकी अनदेखी की जाने लगी है। ‘लोकलाज’ का भय समाप्त हो गया लगता है। यह स्थिति किसी के भी लिए अच्छी नहीं है-न व्यक्ति के लिए, न समाज के लिए, न देश के लिए और राजनीतिक दलों के लिए तो बिलकुल ही नहीं। क्योंकि ऐसा आचरण सदैव ‘बुमरेंग’ की तरह होता है। दुष्कर्म के फल आज नहीं तो कल, भुगतने पड़ते ही हैं।

मेरी सुनिश्चित धारणा है कि वर्ण/जाति व्यवस्था हमारी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा और समस्या है। यह हमारी असफलता ही है कि आजादी के लगभग सत्तर वर्ष बाद भी इससे मुक्ति नहीं पा सके हैं। मुक्ति पाना तो दूर, इसे कम भी नहीं कर पा रहे हैं। दुर्भाग्यपूण यह कि इसे दूर करने के बजाय हम इसे दिन-प्रति-दिन बढ़ाते ही जा रहे हैं। जाति आधारित आरक्षण के विरोध में पूरे देश में चल रहा अघोषित अभियान इस बात का परिचायक है। इस आरक्षण को इस तरह प्रचारित और प्रस्तुत किया जा रहा है मानो देश ने, दलितों, शोषितों को उपकार भाव से यह दिया है। जबकि हम सब (इसका विरोध करनेवाले भी) भली प्रकार जानते हैं कि यह और कुछ नहीं, हजारों बरस से की जा रही हमारी क्रिया की सम्वैधानिक प्रतिक्रिया ही है। यह सचमुच में आश्चर्यजनक है कि हजारों बरसों तक, पीढ़ियों-पीढ़ियों को अधिकार से वंचित करनेवाले हम, अब अपने इन्हीं लोगों को मिल रहे अधिकार के कारण खुद को वंचित अनुभव कर क्रन्दन कर रहे हैं। हजारों बरस की क्षतिपूर्ति गिनती के कुछ बरसों में ही कर दी गई मानने लगे हैं। यदि हमें अपनी इस ‘स्वअर्जित/स्वघोषित दुर्दशा’ से मुक्ति पानी है तो उपचार हमें ही करने होंगे। यह उपचार करने से जब ‘लोक’ आँखें चुराने लगता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे सम्विधान ने यह जिम्मेदारी राज्य को सौंपी। मेरी दृढ़ धारणा है कि ‘समरसता स्नान’ (जिसे अब ‘कथित समरसता स्नान’ कहना पड़ेगा) की अवधारण के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने दलितों, वंचितों, शोषितों को सामाजिक स्तर पर अलग होने का अहसास कराया और ‘अतिरिक्त, अघोषित फलित’ के रूप में, नफरत भरे अभियान को बढ़ावा ही दिया।   

‘राज्य’ अशरीर है। संसदीय लोकतन्त्र में वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा चयनित व्यक्ति (या व्यक्तियों) के जरिए ही बोलता है। यही व्यक्ति हमारा मुखिया होता है। निश्चय ही वह किसी एक राजनीतिक दल से चुनकर आता है किन्तु वह केवल अपने दल (और अपने दल के समर्थकों) का ही मुखिया नहीं होता। समूचे राज्य का होता है। उन लोगों का भी, जो उसे पसन्द नहीं करते और जो उसमें विश्वास नहीं करते। और मुखिया का आचरण कैसा होना चाहिए - यह किसी को बताने की जरूरत नहीं। तुलसीदासजी दो पंक्तियों में मुखिया का व्यक्तित्व, चरित्र और कर्तव्याधारित आचरण बता गए हैं -

मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान में एक।
पाले, पोसे सकल जग, तुलसी सहित विवेक।।

ऐसे में जब कोई मुखिया या उसके प्रभावी संगी-साथी, सत्ता या वोट की खातिर इस ‘मुखियापन’ के सर्वथा प्रतिकूल आचरण करें तो किसी का कल्याण नहीं हो सकता। तब यह ‘एक पैसे के लाभ के लिए बरती गई ऐसी बुद्धिमानी होती है जो अन्ततः एक रुपये का नुकसान करने की मूर्खता’ ही होती है।

मुझे ‘समरसता स्नान’ ऐसा ही, ‘एक रुपये का नुकसान’ अनुभव हुआ। जाति आधारित आरक्षण के कारण परस्पर प्रेम और सौहार्द्र भाव पल-पल कम होता जा रहा है। नफरत खुल कर खेल रही है। खेदजनक यह है कि जिन पर इसे नियन्त्रित करने की जिम्मेदारी है, वे ही, अपने आचरण से इसे बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं। वे कहते कुछ और हैं और कर रहे कुछ और। निश्चय ही ‘सत्ता’ महत्वपूर्ण है। किन्तु किस कीमत पर? नफरत के साथ कोई कैसे और कब तक जी सकता है? 

इसमें सुखद बात यह रही कि कुछ साधु-सन्तों-महन्तों ने इस समरसता स्नान पर असहमति और आपत्ति जताई जिससे विवश होकर इसका नया नाकरण करना पड़ा। किन्तु तब तक, जो नुकसान होना था, वह हो चुका था। उधर ‘सीकरी’ के मोह से बच पाना ‘सन्तन’ के लिए भी असम्भव नहीं तो दुसाध्य तो होता ही है। ऐसा ही हुआ भी। नए नामकरण के बहाने वे इसमें शामिल हुए। लेकिन ‘सीकरी’ अपना चरित्र नहीं बदलती। समूचा उपक्रम पूरा होने पर इन साधुओं-सन्तों-महन्तों ने खुद को ठगा हुआ और अपमानित अनुभव किया। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरिजी तो इतने व्यथित हुए कि उन्होंने अपने आचरण के लिए उन तमाम साधुओं-सन्तों से माफी माँगी जो उनके (नरेन्द्र गिरिजी के) कहने पर इस उपक्रम में शरीक हुए थे। आश्चर्य इस बात का है कि वे, सन्त कुम्भनदास के ‘सन्तन को कहाँ, सीकरी से काम/आवत-जात पन्हैयाँ टूटीं, बिसर गयो हरि नाम’ वाली बात कैसे भूल गए!

सामाजिक विभेद दूर करना, सबकी समान रूप से देख-भाल और रक्षा करना ‘राज्य’ की जिम्मेदारी है। इसमें मुखिया की विफलता, पूरे देश की विफलता होती है। ‘सब सम्पन्न रहें’ के प्रयत्नों में आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता हो सकती है। किन्तु ‘सब प्रेमपूर्वक, परस्पर निर्भय होकर रहें’ इसमें केवल सदाशयता भरे सदाचरण की ही आवश्यकता होती है। हमें याद रखना चाहिए कि अब हम ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनानेवाले अंग्रेजों के दास नहीं हैं।

मैं अत्यधिक व्यथित भाव से कह रहा हूँ कि ‘समरसता स्नान’ की अवधारणा के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने जाति/वर्ण व्यवस्था को प्रोत्साहित ही किया। इससे बचा जाना चाहिए था। ‘वोट’ यदि ‘देश’ से बड़ा हो जाएगा तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।

हमें यदि जातिगत आरक्षण से मुक्ति पाना है तो उसकी एक ही शर्त होगी कि हम जाति/वर्णविहीन समाज बनाएँ। जातियों/वर्णों के आधार पर विभाजन करनेवाला कोई भी कदम हममें से किसी के भी लिए, कभी भी कल्याणकारी नहीं होगा।
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3 comments:

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  2. बिल्कुल सही कहा है,भाई साहेब आपने ।

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  3. आज की बुलेटिन भारत का पहला परमाणु परीक्षण और ब्लॉग बुलेटिन में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

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