पेकेज के बँधुआ मजदूर

चार साल की वन्या हर रविवार की शाम बहुत परेशान कर देती है। कर क्या देती है, वस्तुतः वह खुद परेशान हो जाती है। रविवार की शाम उसका एक भी संगी-साथी मुहल्ले में नजर नहीं आता। सारे बच्चे अपने माता-पिता के साथ कहीं न कहीं घूमने निकल जाते हैं। वन्या मुहल्ले में अकेली रह जाती है। उसका पिता तरुण, कार बनानेवाली एक अन्तरराष्ट्रीय कम्पनी के स्थानीय विक्रय केन्द्र पर बड़े ओहदे पर काम करता है। कहने को शनिवार, रविवार को उसकी छुट्टी रहती है किन्तु केवल कागजों पर। छुट्टियों के इन दोनोें दिनोें में उसे रोज की तरह सुबह साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुँचना ही पड़ता। रात में वापसी का कोई समय निश्चित नहीं। चूँकि इन दोनों दिनों की उसकी हाजरी कागजों पर नहीं लगती, इसलिए उसे इन दोनों दिन काम करने का कोई अतिरिक्त भुगतान भी नहीं मिलता। छुट्टियों के प्रति उसके नियोक्ता का व्यवहार यह कि जिस दिन भारत अपनी आजादी का जश्न मनाता है उस दिन तरुण आजाद नहीं रह पाता। उसकी नियुक्ति की शर्तें और देश के श्रम कानून, नौकरी की वास्तविकता के नीचे कराहते रहते हैं। तरुण मेरे कस्बे में परदेसी है। जाहिर है, उसका पारिवारिक जीवन रात दस-ग्यारह बजे से सुबह नौ-साढ़े नौ बजे के बीच ही रहता है। सामाजिक जीवन तो उसका लगभग शून्य ही है। 

अग्रवालजी की बेटी निधि बेंगलुरु में, एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में आईटी प्रोफेशनल है। उसका दफ्तर सुबह साढ़े नौ बजे शरु होता है खत्म शाम छः बजे। किन्तु वह कभी भी साढ़े सात-आठ बजे से पहले दफ्तर से निकल नहीं पाती। निधि अपने काम-काम में चुस्त-चौबन्द है। अपना सारा काम शाम छः बजते-बजते पूरा कर लेती है। किन्तु उसके बाद डेड़-दो घण्टे दफ्तर में ही बैठना पड़ता है क्योंकि उसका बॉस तब तक कुर्सी पर जमा रहता है और दूसरे सहकर्मी भी अपना काम निपटाने के बाद भी वहीं बने रहते हैं। काम तो बॉस के पास भी कुछ नहीं होता। वह अपने सहयोगियों-अधीनस्थों से बतियाता रहता है। एक शाम निधि छः बजे ही निकलने लगी तो बॉस ने टोका - ‘आज जल्दी जा रही हो!’ निधि ने कहा - ‘नहीं! सर! आज वक्त पर जा रही हूँ।’ बॉस ने चुप रहने की समझदारी बरती। प्रति दिन इन डेड़-दो घण्टों के लिए किसी को कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं मिलता। 

तन्मय एक अमरीकी आईटी कम्पनी के गाजियाबाद दफ्तर में बहुत बड़ा अधिकारी है। खूब अच्छी तनख्वाह मिलती है। किन्तु उसने त्याग-पत्र पेश कर दिया। अपनी कार्यकुशलता, दक्षता और परिश्रम से वह कम्पनी के लिए अनिवार्य जैसी स्थिति में आ गया है। कार्यालय प्रमुख ने उसे बुलाकर बात की। तन्मय ने बताया कि उसे हर आठ-दस दिनों मे अमेरीका भेजा जाता है। लौटने के बाद दो-तीन दिनों तक उसका,  सोना-खाना, उसकी दिनचर्या गड़बड़ रहती है। सब कुछ सामान्य होते ही उसे अगले ही दिन फिर अमरीका जाने का हुक्म थमा दिया जाता है। यात्रा से अधिक असुविधा गाजियाबाद से दिल्ली हवाई अड्डेे जाना और हवाई अड्डे से गाजियाबाद आनेे में होती है। वह अनिद्रा और हाई बीपी के घेरे में आ गया है। नियुक्ति की शर्तों के अधीन वह ऐसी यात्राओं से मना नहीं कर सकता। किन्तु दूसरी ओर, इसी कारण उसकी जान पर बन आई है। उसे यात्रा और अमरीका प्रवास में सारी सुविधाएँ जरूर उपलब्ध कराई जाती हैं किन्तु इस अतिरिक्त भाग-दौड़ के लिए कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं मिलता। यहाँ भी श्रम कानूनों पर मेनेजमेण्ट की मनमर्जी भारी पड़ती है। कम्पनी उसे खोना नहीं चाहती थी। उसने इसी शर्त पर स्तीफा वापस लिया कि उसे इस तरह अमरीका नहीं भेजा जा जाएगा।

हेमेन्द्र भी बेंगलुरु में ऐसी ही एक अमरीकी कम्पनी में काम करता है। उसकी नौकरी भी नौ से छःह बजे तक की है किन्तु रात आठ बजे से पहले कभी वापसी नहीं होती। हफ्ते में चार-पाँच बार ऐसा होता है कि वह घर के लिए निकल रहा होता है कि अमरीका से फोन आता है - ‘हेमेन्द्र! अपने एक महत्वपूर्ण ग्राहक यहाँ बैठे हुए हैं। उनकी एक छोटी सी समस्या हल कर दो।’ यह ‘छोटी सी समस्या’ कभी भी आधी रात से पहले हल नहीं होती। इस तरह आधी रात तक उसका काम करना कहीं भी रेकार्ड पर नहीं आता। महीने में दो-तीन बार उसे ‘इमर्जेन्सी’ के नाम पर शनिवार-रविवार को भी दफ्तर आना पड़ता है। इस अतिरिक्त काम के लिए उसे न तो कोई अतिरिक्त भुगतान मिलता है और न ही मुआवजे के रूप में कोई छुट्टी ही मिलती है। इसके विपरीत, सुबह नौ बजे नौकरी पर पहुँचना अनिवार्य है। यहाँ भी श्रम कानून एड़ियाँ रगड़ता है।

अड़तीस वर्षीय सुयश की कठिनाई तनिक विचित्र है। उसे सुबह साढ़े नौ बजे पहुँचना होता है। नौकरी तो शाम छःह बजे तक की ही है किन्तु रात नौ बजे से पहले कभी नहीं निकल पाता। नौकरी ऐसी कि सुबह जाते ही अपने खोके (क्यूबिम) में जो घुसता है तो लौटते समय ही निकल पाता है। घर से दफ्तर और दफ्तर से घर दुपहिया पर, दफ्तर में खोके में। पैदल चलना-फिरना शून्य। दो बरसों में उसका शरीर थुलथुल और वजन नब्बे किलो पार हो गया है। उसे हाई बीपी ने घेरना शुरु कर दिया है। किन्तु कम्पनी को इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है। 

सुयश एक विदेशी विज्ञापन कम्पनी में काम करता है। कम्पनी दृष्य-श्रव्य-मुद्रित (आडियो-विजुअल-प्रिण्ट) विज्ञापन तैयार करती है। उसका समय भी सुबह साढ़े नौ से शाम छःह तक की है। समय पर पहुँचना जरूरी है किन्तु जरूरी नहीं कि शाम छःह बजे छुट्टी मिल ही जाएगी। कभी नहीं मिलती। कम से कम साढ़े आठ तो बजते ही हैं। शनिवार आधे दिन की छुट्टी रहती है किन्तु केवल कागजों पर। एक भी शनिवार ऐसा नहीं आया जब आधे दिन बाद छुट्टी मिल गई हो। रविवार की छुट्टी भी अपवादस्वरूप ही मिल पाती है। कभी स्पॉट रेकार्डिंग के लिए तो कभी आउटडोर शूट के लिए रविवार को जाना पड़ता है। इस अतिरिक्त काम के लिए सुयश को भी कोई अतिरिक्त भुगतान या मुआवजास्वरूप छुट्टी नहीं मिलती। सुबह समय पर पहुँचना अनिवार्य। वापसी का कोई समय नहीं। यहाँ भी केवल कम्पनी-कानून ही चलता है।

ये सारे के सारे कोई काल्पनिक पात्र-प्रसंग नहीं हैं। ये सब बच्चे मेरे पॉलिसीधारक हैं। सीधे मुझसे जुड़े हुए। इनसे जीवन्त सम्पर्क है मेरा। ये सारे के सारे बताते हैं कि इनके साथ काम करनेवाले तमाम लोगों का भी यही किस्सा है। इनकी शब्दावली भले ही अलग-अलग रही किन्तु सब खुद को ‘उच्च तकनीकी शिक्षित, पेकेज के मारे, कुशल बँधुआ मजदूर’ मानते हैं। ये सब अपने-अपने नगरों-कस्बों से, माँ-बाप से दूर बैठे हैं। इनके लिए सारे त्यौहार-पर्व अपना अर्थ और महत्व खो चुके हैं। पारिवारिकता खोते जा रहे हैं। देहातों-कस्बों-गाँवों के छोटे बच्चे जिस उम्र में धड़ल्ले से दादा-दादी, नाना-नानी से बातें कर-करके मनमोहते हुए परेशान कर देते हैं, उसी उम्र के इनके बच्चे बराबर बोल नहीं पा रहे। इनके बच्चों को बात करनेवाले बच्चे और परिजन नहीं मिल रहे। इनकी जिन्दगी दफ्तर और मॉलों तक सिमट कर रह गई है। बाजार की गिरफ्त इतनी तगड़ी है कि बचत के नाम पर भी कोई बड़ा आँकड़ा इनके बैंक खातों में नहीं है। निधि के मुताबिक ये तमाम लोग ‘सुबह हो रही है, शाम हो रही है, जिन्दगी यूँ ही तमाम हो रही है’ पंक्तियों को जीने को अभिशप्त हो गए हैं। बेंगलुरु और पुणे में मालवा के सैंकडों बच्चे नौकरियाँ कर रहे हैं किन्तु इनका आपस में मिलना तभी हो पाता है जब ये किसी प्रसंग पर अपने-अपने नगरों-कस्बों में इकट्ठे होते हैं। 

निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण ने आर्थिक सन्दर्भों में जरूर परिदृष्य बदल दिया है किन्तु अपनी इस पीढ़ी की सेहत, इसकी पारिवारिकता, इसकी सामाजिकता सिक्कों की खनक में गुम हो गई है। पेकेज की प्राप्ति की कीमत कहीं हम अपनी इस समूची पीढ़ी को अकेलापन और अस्वस्थता देकर तो नहीं चुका रहे?
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6 comments:

  1. आधुनिकता की विवशता कहें या विडंबना !

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  2. बहुत ही उम्दा ..... Very nice collection in Hindi !! :)

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  3. विष्णु जी, सच में मन दुखी कर दिया है ऐसी जीवन शैली ने. :-(

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  4. बहुत शानदार लिखा है आपने। ज्वलंत मसला उठाया है।
    लेकिन हम भी जब सरकारी बैंकों में या ऐसे संस्थानों में जाते हैं, जहां पूर्ण स्वतंत्रता व सुविधा प्राप्त है तो कोफ्त होती है कि यह संस्थान को बर्बाद कर रहे हैं।
    वहीं जिन संस्थानों में खून पीने की प्रवृत्ति जितनी ज्यादा है वह उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं।

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  6. वर्तमान समाज की यथार्थ तस्वीर..

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