भारतीय नारी की शोभा...........में गई


ये जो इस फोटू में पीछे खड़ा है, वो धर्मेन्द्र है। धर्मेन्द्र रावल। मेरे संघर्ष के दिनों का साथी। फोटू में बाँयी ओर, सलवार-सूट में मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी और दाहिनी ओर, साड़ी पहने सुमित्रा भाभी बैठी हैं। सुमित्रा भाभी याने धर्मेन्द्र की पत्नी। और बीच में जो बैठी हैं वो हैं ‘बई’। ‘बई’ याने धर्मेन्द्र की माँ और सुमित्रा भाभी की सासूजी। उम्र है 85 बरस और नाम है पार्वती। ‘बई’ और सुमित्रा भाभी, सास-बहू हैं जरूर लेकिन इकतालीस बरस से अधिक से साथ-साथ रह रही हैं तो ‘सखी-सहेली’ हो गई हैं। जब, जिसे मौका मिलता है, ठिठोली कर लेती हैं। ‘बई’ के सामने जब हम लोग होते हैं तो ‘बई’ हम सब को धर्मेन्द्र और सुमित्रा ही समझती, मानती और वैसा ही व्यवहार करती हैं। लाड़-प्यार करना हो, डाँटना-असीसना हो, ‘बई’ के लिए हम सबके सब धर्मेन्द्र-सुमित्रा हैं। इसलिए धर्मेन्द्र की ‘बई’ हम सबकी ‘बई’ है। 

‘बई’, इन्दौर के पास के गाँव गौतमपुरा की, मालवी गृहस्थन हैं। कोई पचास बरसों से अधिक से समय से जरूर इन्दौर में हैं और खड़ी बोली (याने, आपकी-हमारी हिन्दी) में बात कर लेती हैं लेकिन खड़ी बोली में सहज नहीं रह पातीं। बहुत हुआ तो दस-बीस शब्दों के बाद खड़ी बोली पता नहीं कहाँ चली जाती है और ‘बई’ के मुँह से रसभरी मालवी बरसने लगती है। मालवी के मामले में बई अपने आप में एक खजाना है। लोक जीवन के, जनम-मरण-परण से लेकर तमाम प्रसंगों के लोक गीतों ने मानो बई के ‘हिवड़े’ (हृदय) को अपना बसेरा बना रखा है। पोता समन्वय, बहू आभा के साथ और पोती तनु, पति हर्ष के साथ बेंगलुरु में नौकरी पर है। सब नियमित रूप से इन्दौर आते रहते हैं। जब भी आते हैं, ‘बई’ को घेर कर बैठ जाते हैं और ‘बई’ से मालवी में इस तरह बातें करते हैं मानो मालवी के भूले-बिसरे पाठ याद कर रहे हों। 

गए कुछ महीनों से ‘बई’ बीमार चल रही है। कभी-कभार अस्पताल में भी भर्ती कराना पड़ जाता है। कुछ दिन अस्पताल में। फिर घर। यह आना-जाना अब परेशान नहीं करता। बीच में ‘बई’ तनिक अधिक परेशान हो गई थी। कुछ इस तरह कि उनकी दुनिया बिस्तर पर ही सिमट आई थी। यह दीपावली से पहले की बात है। उस दौरान ‘बई’ को टी-शर्ट और पायजामा पहनाना पड़ा। बई ने पहन तो लिए लेकिन उन सारे दिनों में ‘बई’ मानो एक अतिरिक्त बीमारी से ग्रस्त हो गई हों। उन सारे दिनों ‘बई’ को लगता रहा कि वे भले ही अपने कमरे में बन्द हैं लेकिन फिर भी सारी दुनिया उन्हें इन कपड़ों में देख-देख कर हँस रही है। टी-शर्ट और पायजामा मानो कपड़े न होकर, मूल बीमारी से अधिक त्रासदायी एक और बीमारी हों। उनकी दशा ‘स्वस्थ तन, बीमार मन’ जैसी रही। उस दौरान वीणाजी और मैं इन्दौर गए। निकले तो हम कहीं और के लिए थे लेकिन सोचा कि धर्मेन्द्र का घर भी इसी इलाके में है, ‘बई’ से मिल लिया जाए। वीणाजी हिचकीं। वे सलवार-सूट में थीं। इन कपड़ों में भला ‘बई’ के सामने कैसे जाएँ? उन्होंने साफ मना कर दिया - ‘मैं तो बई के सामने इन कपड़ों में नहीं जाऊँ।’ मैंने जोर दिया। कहा कि संयोग से इस इलाके में हैं। इतनी दूर, अलग से आना मुश्किल होगा। अपने बुजुर्गों से मिलना तो अपने लिए ‘तीरथ करने’ की तरह है। ‘बई’ को जो कहना होगा, कह देंगी। अपन तो अपने मन की तसल्ली के लिए चल रहे हैं। वीणाजी को बात तो जँची लेकिन हिम्मत ने साथ छोड़ दिया। बड़े ही कच्चे मन से चलीं। हमने जोड़े से ‘बई ’को प्रणाम किया। ‘बई’ ने, असीसते हुए, भेदती नजर से वीणाजी को देखा आशीर्वचन समाप्त कर मानो ‘फोल्डिंग लप्पड़’ मारा - ‘यो कई? अबे लाड़्याँ सास के सामे सलवार-सूट में आवा लागी?’ (यह क्या? बहुएँ अब सलवार-सूट पहन कर सास के सामने आने लगीं?) पहले से पस्त-हिम्मत वीणाजी मानो निष्प्राण हो गईं। नजरें तो पहले से ही नीची थीं। अब बोलती भी बन्द हो गई। लेकिन मन के कोने-कचारे से हिम्मत बटोर कर, हँसते हुए बोली - ‘कई कराँ बई! जब सासजी टी सरट पेन ले तो लाड़्याँ ने भी सलवार-सूट पेननो पड़े।’ (क्या करें बई? जब सासूजी टी-शर्ट पहन लें तो बहुओं को भी सलवार-सूट पहनना पड़ता है।) वीणाजी ने तो सहज भाव से (केवल कहने के लिए) कहा था लेकिन ‘बई’ मानो झपाक से बुझ गईं। उनके, गोरे-चिट्टे, गोल-मटोल चेहरे पर विवशता, पीड़ा, करुणा छा गई। बड़ी ही मुश्किल से बोली - ‘कई कराँ बई! बीमारी जो नी करावे कम हे।’ (क्या करें! बीमारी जो न कराए, कम है।) सास-बहू का सम्वाद तो पूरा हुआ लेकिन कमरे का माहौल सामान्य होने में थोड़ा वक्त लगा।

दीपावली के बाद ‘बई’ जैसे ही बेहतर हुईं, सबसे पहला फैसला सुनाया - ‘मूँ यो सरट ने पाजामो नी पेरूँगा। मने साड़ी पेराओ।’ (मैं यह शर्ट और पायजामा नहीं पहनूँगी। मुझे साड़ी पहनाओ।) सुमित्रा भाभी जोर से हँस दीं। ‘सखी’ से ठिठोली की - ‘इत्ती भी कई जलदी हे? इन कपड़ाँ माँ भी आप घणा रुपारा लागी रिया हो।’ (इतनी भी क्या जल्दी है। इन कपड़ों में भी आप बहुत सुन्दर लग रही हैं।) एक सखी ने दूसरी सखी की शरारत पहचानी। जवाब आया - ‘तम भी सुमितरा! तमने तो रोर करवा को मोको मिलनो चइये! रोर बाद में करजो दरी! पेलाँ मने साड़ी पेनावो।’ (तुम भी सुमित्रा! तुम्हें तो ठिठोली करने का मौका मिलना चाहिए। ठिठोली बाद में करना। पहले मुझे साड़ी पहनाओ।) 

गए अठवाड़े हम दोनों फिर इन्दौर में थे। ‘बई’ से मिलना ही था। बीस दिसम्बर की दोपहर ‘बई’ के पास पहुँचे। वे बिस्तर पर जरूर थीं लेकिन लेटी हुई नहीं, बैठी हुई। देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वे बीमार हैं। एकदम ताजादम। आवाज की खनक अपने मुकाम पर लौट आई थी। वीणाजी इस बार भी सलवार-सूट में थीं। हम दोनों ने जोड़े से पाँव छुए। दिपदिपाते चेहरे, जग-मगाती आँखों और टपकती शहतूतों जैसी वाणी से ‘बई’ ने असीसा। पाँव छूकर खड़े होते-होते वीणाजी ने चुहल की - ‘यो कई बई! मूँ तो वसी की वसी सलवार-सूट में अई। पण आपने पईजामो ने सरट उतारी द्यो?’ (बई! यह क्या? मैं तो उसी तरह सलवार-सूट में आई लेकिन आपने तो पायजामा और शर्ट उतार दिया?) ‘सास’ को मानो ‘बहू’ के इस ‘वार’ का पूरा-पूरा अनुमान था। गौतमपुरा की पटेलन की तरह तनकर, दर्पभरी वाणी में तपाक से बोलीं - ‘तम भलेऽई कई भी को ने कई भी पेरो। पण भारतीय नारी की सोभा तो साड़ी में ईऽज हे।’ (तुम भले ही कुछ भी कहो और कुछ भी पहनो। लेकिन भारतीय नारी की शोभा तो साड़ी में ही है।) कह कर ‘बई’ ने तनी हुई गर्दन हम चारों के चेहरों पर घुमाई। पूरा कमरा मानो अनूठे उजास से भर गया हो। हम चारों के साथ खुद ‘बई’ भी अपनी ही बात पर सन्तोषभरी हँसी, हँसी।

अचानक ही सुमित्रा भाभी ने मानो छुपा दाँव चला। दबी-दबी मुस्कान से, चुहल करती हुई बोलीं - ‘या बात तो आपने सई की बई के भारतीय नारी की सोभा साड़ी में हे। पण अपनी मुन्नी जीजी भी अब सलवार-सूट पेनवा लाग्या। वाँ भारतीय नारी की सोभा काँ गई?’ (यह बात तो बई! आपने सही कही कि भारतीय नारी की शोभा साड़ी में है। लेकिन अब तो अपनी मुन्नी जीजी भी सलवार-सूट पहनने लगी हैं। वहाँ भारतीय नारी की शोभा कहाँ गई?) (‘मुन्नी जीजी, याने ‘बई’ की बेटी याने कि धर्मेन्द्र की बहन और सुमित्रा भाभी की ननद। रतलाम में रहती हैं और पोतों के साथ खेल रही हैं।) मैं सहम गया। बेटी किसी भी माँ की सबसे बड़ी कमजोरियों में से एक होती है! मैंने देखा, धर्मेन्द्र भी असहज था। लेकिन हमारी ‘बई’ तो आखिर ‘बई’ थी। ठठाकर बोली - ‘हाँ। म्हारे मालम हे। इनी वास्ते केई री हूँ। अबे भारतीय नारी की सोभा छूला में गी।’ (हाँ। मुझे मालूम है। इसीलिए कह रही हूँ। अब भारतीय नारी की शोभा चूल्हे (भाड़) में गई) ‘बई’ का यह कहना था कि मानो कमरे में बम फूट गया हो। हम पाँचों के पाँचों जोर-जोर से हँस रहे थे। इस तरह हँसते हुए ‘बई‘ अब रंच मात्र भी बीमार नजर नहीं आ रही थीं।

ऐसी हैं हमारी ‘बई’, जो इस फोटू में बीच में बैठी नजर आ रही हैं।
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3 comments:

  1. मालवी पढ़ कर मजा़ आ जाता है। बहुत सुंदर वाकया।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-12-2017) को "स्वच्छता ही मन्त्र है" (चर्चा अंक-2829) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    क्रिसमस हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. प्रसंग पढ़कर मैं भी धर्मेंद्र के घर मन से पहुँच गया । बई से मिलकर आत्मीयता लगती है । सुखद संस्मरण ।

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