दुष्यन्त कुमार के ‘मुनासिब लोग’

हम पति-पत्नी के दो बैंकों में खाते हैं। पहला बैंक ऑफ बड़ौदा की स्टेशन रोड़ शाखा में और दूसरा भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की कलेक्टोरेट एरिया शाखा में। बड़ौदा बैंक में हमारा खाता बरसों से चल रहा है। किन्तु, श्रीमतीजी सरकारी नौकरी में थी। उनकी पेंशन एसबीआई की इसी शाखा से मिलनी थी। इसलिए यहीं खाता खुलवाने  बाध्यता थी। एसबीआई में हमेशा इतनी भीड़ रहती है कि घुसने की ही हिम्मत नहीं होती। तीन दिन चक्कर काटे लेकिन खाता नहीं खुला। अचानक ही मालूम हुआ कि शाखा प्रबन्धक, एलआईसी की हमारी शाखा मे पदस्थ विकास अधिकारी श्री संजय गुणावत के बड़े भाई हैं। उन्होंने मदद की। खाता फौरन ही खुल गया। 

जब-जब भी एसबीआई जाने की जरूरत हुई, जाने से पहले ही हिम्मत पस्त हो जाती। ईश्वर महरबान हुआ और एक कृपालु वहाँ पदस्थ मिले। उनका काम ऐसा कि सप्ताह में तीन दिन उन्हें शाखा से बाहर रहना पड़ता है। जाने से पहले तलाश कर लेता। वे वहाँ होते तो ही जाता। नहीं होते तो जाना टाल देता।

हम पति-पत्नी नेट बैंकिंग या ई-बैंकिंग अब तक नहीं सीख पाए। एटीएम कार्ड घर बैठे आया। बच्चों ने हिम्मत बढ़ाई और सिखाया तो एटीएम से रकम निकालनी शुरु की। पाँच-सात बरस से एटीएम का उपयोग कर रहा हूँ लेकिन रकम निकालते समय आज भी हाथ काँपते हैं। श्रीमतीजी तो एटीएम का उपयोग अब तक नहीं सीख पाईं। बड़ौदा बैंक के कुछ मित्रों ने ई-बैंकिंग के लिए खूब प्रोत्साहित किया। बार-बार आग्रह किया। हिम्मत कर ई-बैंकिंग सुविधा के लिए खानापूर्ति की। किन्तु पता नहीं, प्रक्रिया के किस चरण में मुझसे कहाँ चूक हुई कि पास वर्ड उलझ गया और ऐसा उलझा कि बैंक के तमाम जानकार मित्र जूझ-जूझ कर हार गए लेकिन पास वर्ड उलझा ही रहा। अब तक उलझा हुआ ही है। मैंने तो उलझन की शुरुआत में ही घुटने टेक दिए। उसके बाद से ई-बैंकिंग के नाम से धूजनी (कँपकँपी) छूटने लगती है।

इसी के चलते, अपने खाते के ब्यौरे जानने के लिए हम लोग पास बुक पर ही निर्भर बने हुए हैं। लेकिन एसबीआई से पास बुक छपवाना किसी युद्ध लड़ने से कम नहीं। खिड़की पर लम्बी लाइन। अपना नम्बर आए तो बाबू पास बुक लेते हुए, मुँह बिगाड़ कर, हड़काते हुए सलाह दे - ‘मशीन से क्यों नहीं छपवा लेते?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं होता। परिचित सज्जन ने एक बार कह ही दिया - ‘यार! सरजी! आप पास बुक मशीन से छपवा लिया करो।’ उसके बाद उनकी मदद लेने की हिम्मत भी जाती रही। 

अब, पास बुक छपवाना मेरे लिए दुनिया का सर्वाधिक दुरुह काम बन गया। इधर श्रीमतीजी हैं कि महीना-दो महीना पूरे होते ही टोकने लगती हैं।

गए दिनों अचानक ही मालूम हुआ कि मित्र निवास रोड़ पर पास बुक छापने की एक नहीं दो-दो मशीनें लगी हैं। पुष्टि करने गया। देखा, बहुत ही आसानी से पास बुकें छपवा रहे हैं। मशीन भी बहुत बढ़िया - बराबर निर्देश भी देती है और प्रक्रिया की जानकारी भी। लेकिन वहाँ भी ल ऽ ऽ ऽ म्बी ऽ ऽ लाईन। देख कर छक्के छूट गए। मेरी दशा देख एक अनुभवी ने कहा - ‘रात नौ बजे के आसपास आईए। मशीनें खाली मिलेंगी।’ मेरा दिल बल्लियों उछल गया।

मैं बुधवार 14 नवम्बर की रात गया। एक सज्जन पास बुक छपवा रहे थे। मैं दूसरी मशीन की तरफ बढ़ा। उसके पर्दे पर मशीन के काम न करने की सूचना तैर रही थी। मैं, पास बुक छपवा रहे सज्जन के पीछे आ खड़ा हुआ। उनकी पास बुक छपते ही मशीन ने पास बुक लेने का सन्देश दिया। उन्होंने पास बुक निकाली। वे हटे। मैं मशीन के सामने खड़ा हुआ। लेकिन यह क्या? क्षमा याचना करते हुए मशीन के पर्दे पर, मशीन के काम न करने का सन्देश चमक रहा था। मैंने मुझसे पहलेवाले सज्जन से मदद माँगी। वे भी हैरत में पड़ गए। उन्होंने भी अपनी सूझ-समझ के मताबिक मशीन को टटोला, मेरी पास बुक ‘स्लॉट’ में डाली। किन्तु कोई हलचल नहीं हुई। सज्जन ने कहा कि कभी-कभी अचानक लिंक टूट जाने से या सर्वर में समस्या आ जाने से ऐसा हो जाता है। थोड़ी देर मे अपने आप ठीक हो जाएगा। मैं करीब बीस मिनिट वहाँ रुका रहा। फिर थक कर लौट आया। 

मैं गुरुवार 15 नवम्बर की रात फिर गया। लेकिन दोनों मशीनें पूर्ववत निश्चल, निष्क्रिय खड़ी थीं। शुक्रवार 16 नवम्बर की रात को फिर देहलीज पर मत्था टेका। लेकिन देवियाँ नहीं पिघलीं। शनिवार 17 नवम्बर को मैंने फेस बुक पर दो पोस्टों में अपनी व्यथा-कथा सार्वजनिक की। कुछ टिप्पणियाँ आईं। एक-दो ने बैंक की व्यवस्था को कोसा। बाकी  सबने एक भाव से नेट बैंकिंग अपनाने की सलाह दी। शनिवार की मेरी दूसरी पोस्ट पर मेरे प्रिय मित्र श्री राधेश्यामजी सारस्वत ने ढाढस बँधाया कि शनिवार को यदि पास बुक नहीं छपे तो सोमवार को वे हर हालत में मेरी पास बुक छपवा देंगे। सारस्वतजी बड़े प्रेमल व्यक्ति हैं। वे कलेक्टोरेट में सेवारत हैं और मेरी सहायता करने के अवसर तलाश करते रहते हैं।

इन चार दिनों (14 से 17 नवम्बर) में श्रीमतीजी ने अपने पास बुक प्रेम के अधीन मुझे उलाहने देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर उलाहने का अन्त एक ही वाक्य से हुआ - ‘आपसे इतना सा काम भी नहीं होता? हुँह!’

शनिवार को भी मशीनें बन्द की बन्द ही मिलीं। रविवार को मैंने सारस्वतजी को फोन किया - ‘पास बुक कहाँ पहँचाऊँ?’ उन्होंने कहा कि वे सोमवार सुबह मेरे घर आकर पास बुक ले लेंगे। सोमवार सुबह दस बजे वे आए। पास बुक ली। चले गए। ग्यारह बजते-बजते उनका फोन आया - ‘सर जी! पास बुक छप गई। फोटू वाट्स एप कर रहा हूँ।’ शाम को वे घर आकर पास बुक दे गए। (यह पूरा किस्सा फेस बुक पर मेरी वाल पर 17 और 19 नवम्बर को विस्तार से दिया हुआ है।)

बात यहीं खतम हो जानी चाहिए। लेकिन यह ब्यौरा तो मेरी मूल बात की भूमिका है। मेरी बात तो यहीं से शुरु होती है। 
जैसा कि मैंने कहा है, सत्रह नवम्बर की मेरी दोनों फेस बुक पोस्टों पर और काम हो जाने के बाद 19 नवम्बर वाली फेस बुक पोस्ट पर आई टिप्पणियों में दो-एक मित्रों ने ही बैंक के प्रति खिन्नता जताई। बाकी सबने मुझे ई-बैंकिंग और/या नेट बैंकिंग अपनानेे की न केवल सलाह दी अपितु इसके फायदे भी समझाए। मेरे ऐसा न करने पर दो-एक कृपालुओं ने तो यथेष्ठ खिन्नता भी जताई।

मैं भली प्रकार जानता हूँ कि इन सारे मित्रों ने मेरी चिन्ता करते हुए, मुझे कष्ट न हो, बैंक पर मेरी निर्भरता समाप्त करने के लिए मुझे यह नेक सलाह दी। लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि समुचित सेवाएँ न देने के लिए इनमें से किसी ने बैंक की आलोचना करना तो दूर, बैंक का नाम भी नहीं लिया।

यह, व्यवस्था के प्रति हमारी हताशाभरी उदासीन मानसिकता का नमूना है। हमने व्यवस्था के सामने घुटने टेक दिए हैं। हमने मान लिया है कि अपने ग्राहकों के साथ बैंक का व्यवहार तो ऐसा ही रहेगा। न तो वह सुधरेगी न ही हम उसे सुधार सकेंगे। यह हमारी हताशा का चरम है कि उसे सुधार की, उसके दुरुस्त होने की बात ही हमारे मन में आनी बन्द हो गई है। मुझे नेट/ई-बैंकिंग अपनाने की सलाह देते हुए मेरे तमाम कृपालु मित्र यह याद ही नहीं रख पाए कि बैंक अपने ग्राहकों को पास बुकें जारी कर रहा है और उन्हें छापने के लिए मँहगी स्वचलित मशीनें लगवाए चला जा रहा है। जाहिर है कि बैंक स्वीकार कर रहा है कि ग्राहक को यह सेवा देना अभी भी उसकी जिम्मेदारियों में शामिल है। लेकिन हमने हार मान ली है। क्रूर व्यवस्था से परास्त होना हमने अपनी नियती मान ली है। एक दुःखी उपभोक्ता के समर्थन में खड़े होने के बजाय सब उसे समझा रहे हैं - 
‘खुुुद ही सुधर जाओ भाई!’ 

यह सब याद करते हुए मुझे दुष्यन्त कुमार याद आ गए। बरसों-बरस पहले वे कह गए हैं -

न हो कमीज तो घुटनों  से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए

जहाँ हमें रीढ़ की हड्डी तानकर खड़े होना चाहिए वहाँ हम विनयावनत हो खुद को बदल लेते हैं। व्यवस्था को और चाहिए ही क्या?

हम (इस ‘हम’ में मैं भी शरीक हूँ) दुष्यन्त कुमार के ये ही ‘मुनासिब लोग’ हैं।
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मेरी छपी हुई पास बुक देने के लिए मेरे घर आए श्री राधेश्यामजी सारस्वत। 
भगवान इनका भला करे। 

7 comments:

  1. कल्पना करें कि बैंक में भी आप जैसे ही कर्मचारी हैं ,जो कम्प्यूटर सीखना ही नहीं चाहते ,तो सेवा कैसी होगी ,वैसी ही है ,अन्य संस्थाओं में भी यही लोग हैं ,
    आप इतना बड़ा आलेख लिख सकते हैं पर दोनो पुत्रों से यह कार्य नहीं सीख सकते ,सताते बैंक ही नहीं अन्य बेसब्री शाखाएँ जहाँ सरकार ने पेन्शन का बोझ डाला है
    बिना किसी अतिरिक्त भुगतान के (क्योंकि ट्रेज़री सेवाओं का बुरा हाल था ) उन सभी शाखाओं का यही हाल है ,दिल्ली में MCD की पेन्शन PNB में हैं
    वहाँ ये लोग अशिक्षित भी हैं ,कार्य इतना अधिक है और उनके वार्षिक लक्ष्य में इन खाता धारकों का योगदान शून्य है तो बैंक कर्मचारी भी उतने ही त्रस्त हैं न सरकार में दम हैं न प्रबंधन में ,आप के लिए तथा भाभीजी के लिए , आपकी न सीखने की ज़िद के बाद एक ही ऑप्शन है आप ,ecs माध्यम से धन दूसरी खाते में डलाने की अड्वाइस दे दें अथवा SMS सेवा ले लें ९९ या १५० रुपए वार्षिक लगेंगे किंतु तत्काल SMS भाभीजी के फ़ोन पर आएगा ,यह फ़्रॉड रोकने भी मदद करता है ,एक चपरासी के खाते से अचानक पैसे निकालने लगे ,उसने SMS के कारण तुरंत बैंक की हेल्प लाइन पर सूचना दी ,बैंक भी कुछ नहीं कर पाया ,और पैसे निकालते रहे ,
    बैंक को समय से सूचना दे देने के कारण सारे पैसे बैंक ने चुकाए ,क्षमा सहित

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    1. 🙏👍 सिक्के के दूसरे पहलू को स्पष्ट करने के लिये आपका धन्यवाद!

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  2. Lekin isme koi sanshay nhi hai ki baink sukha me ghuste hi aap tanaav me aane lagte hai a to koi adhikari sahi varta kart hai.na bijli jimmedari leta hai. Mera anubhav bhi kuch aisa hi raha hai.aur yadi aapka kaam safalta se hona hai to aapka vyaktitva prabhav wala and banakar hona chahiye.

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  3. जब निजी बैंक अपनी प्रक्रिया को सरल बना सकते हैं तो सरकारी बैंक अपनी प्रक्रिया को सुगम क्यों नहीं बना सकते हैं यह भी तो एक प्रश्न है

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  4. 13 वर्ष भारत के तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ बैंक में नौकरी करते हुये यही पाया कि भारतीय संस्थानों में 'भाजी-खाजा-समाजवाद' का बोलबाला है। काम करने का इंसेंटिव भी नहीं, और काम न करने का दण्ड भी नहीं। बल्कि काम करने में खतरा यह है कि आपके हस्ताक्षर किसी न किसी केस में आपको सच्चे या झूठे फंसवाने की क्षमता रखते हैं क्योंकि अदालत में सीबीआई, पुलिस, वकील, और तमाम अन्य महामहिमों की अक्षम फौज का भी समाजवाद में पूरा यक़ीन है। ऐसे में "बने रहो येड़ा, खूब खाओ पेड़ा" वाली मनोवृत्ति ही मौज करती रही है। दुर्भाग्य है कि स्वतंत्र नव-भारत में प्रशासन कभी भी कहीं भी नहीं रहा, न हमारे रहनुमा इसकी आवश्यकता को समझ सके। टीएन सेशन, खैरनार, केपीएस गिल, जैसे एकाध चने कितने भाड़ फोड़ेंगे, और कब तक? भारत का दुर्भाग्य है कि यहाँ का सामान्यजन गुणवत्ता के पीछे लट्ठ लेकर पड़ा रहता है। वे हिंसा का विरोध भी तब तक नहीं करते जब तक कोई उसे "ब्राह्मणवादी हिंसा" न कहे। अपना दुश्मन आप बने समाज का कोई इलाज नहीं होता :(

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  5. सत्ता का चरित्र कभी नही बदलता सिर्फ चेहरे बदलते हैं

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  6. एक ऋण प्राप्त करने के लिए, एक बैंक एटीएम कार्ड प्राप्त करें और कम से कम 7 दिनों में प्राप्त करें!

    देखो यह कैसे काम करता है!
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