स्नेह के कस्तूरी-मृग

‘कॉमरेड’ याने श्री रमेश प्रसाद सक्सेना। रतलामी थे। सन् 2008 से भोपाली बने बैठे हैं। रतलाम में लायब्रेरियन थे। पढ़ने-लिखने की लत जन्मना रही। लायब्रेरियन होने ने इस लत को परवान चढ़ा दिया। म. प्र. तृतीय वर्ग कर्मचारी संघ के ऐसे किंवदन्ती पुरुष जिसने ‘घर फूँक तमाशा’ कर, संगठन को सदैव दिया ही दिया। संगठन के लिए किए गए हुए प्रत्येक हवन में, हर बार अपने हाथ जलाए। इतने कि म. प्र. तृतीय वर्ग कर्मचारी संघ की रतलाम जिला इकाई का इतिहास जब भी लिखा लाएगा, उनके विरोधी भी उनका उल्लेख करने को मजबूर होंगे। ‘कॉमरेड’ जब तक नौकरी में रहे, रतलाम जिले की ‘क्लास थ्री यूनियन’ के ‘पर्याय’ से कोसों आगे बढ़कर ‘दो जिस्म, एक जान’ की तरह रहे। 

मुझसे एक-दो नहीं, साढ़े दस बरस से अधिक बड़े हैं। इस मार्च में मैं अपने जीवन का 76वाँ बरस पूरा कर लूँगा और सितम्बर में वे अपना 87वाँ बरस पूरा कर लेंगे। लेकिन उम्र का यह अन्तर मुझे तभी महसूस होता है जब मैं उन्हें उनकी जन्म वर्ष-गाँठ पर बधाई देता हूँ। यह उनका ‘कॉमरेडी करिश्मा’ ही है कि वे उम्र का अन्तर अनुभव होने ही नहीं देते - केवल मुझे ही नहीं, मुझ जैसे हर एक को।

अपने पुराने कागजात खँगालते हुए मुझे उनका, सोलह बरस से अधिक पुराना, एक पत्र और जवाब में लिखा मेरा पत्र मिल गए। दोनों पत्र यूँ तो नितान्त निजी हैं लेकिन पत्रों को पढ़ते-पढ़ते लगा कि इनमें सकारात्मक सार्वजनिकता भी है। इसीलिए दोनों पत्र यहाँ दे रहा हूँ। (अपने पत्र में कॉमरेड द्वारा की गई मेरी मुक्त-कण्ठ प्रशंसा ने भी मेरे अवचेतन को इसके लिए उकसाया ही होगा।)

कॉमरेड लम्बे अरसे से गम्भीर बीमारियों से जूझ रहे हैं। जिस जीवट से वे बीमारियों से दो-दो हाथ कर रहे हैं, वह अद्भुत, अनूठा, अविश्वसनीय और ऊर्जादायी, प्रेरणादायी है। उनकी जगह मैं होता तो, यह पोस्ट लिखने के लिए शायद ही जीवित रह पाता। 

मेरी बातें आपको कोरी गप्प की तरह अविश्वसनीय लग सकती हैं। आप चाहें तो उनसे मोबाइल नम्बर 98275 33869 पर मेरी बातों की पुष्टि कर लें।

(दोनों पत्रों का अनूठापन यह है कि ये स्थानीय हैं। याने, हम दोनों ने रतलाम में ही रहते हुए एक-दूसरे को पत्र लिखे।) 

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कॉमरेड का पत्र, मेरे नाम -

प्रिय श्री विष्णुजी,

सादर नमन।

नहीं जानता, आपको कैसा लगेगा सम्बोधन ‘विष्णुजी’। मुझे अच्छा लगा और महसूस किया अपने आपको, आपके अधिक सन्निकट। अपनापन लगा उक्त सम्बोधन में।

आपका प्रेषित ‘जन्म दिन’ (वर्ष-गाँठ) सन्देश प्राप्त हुआ। उत्तर दे रहा हूँ एक दीर्घावधि अन्तराल के पश्चात्। बधाई सन्देश मेरे अन्तरतम को इतना पुलकित कर गया कि मैं लिख कर व्यक्त नहीं कर सकता। और वह भी प्रथम बार। सच मानिये, बहुत ही आनन्ददायी क्षण था वह जब आपके बधाई सन्देश का लिफाफा खोल कर पढ़ा। आपको इसके लिए साधुवाद एवं धन्यवाद।

आप जैसे मुखर वक्ता, सटीक टिप्पणीकार, संवेदनशील साथी के सानिद्य में खुशी के चन्द लमहे जीवन भर की धरोहर हो जाती है। मैं अपने आप को अत्यधिक गौरवान्वित एवं धनी व्यक्ति मानता हूँ, आप जैसा मित्र-सखा, दोस्त को पा कर।

आपसे बस यही अनुरोध है विष्णुजी कि आप यह स्नेह बनाये रखें। मैं तो प्रयास करूँगा ही कि इस स्नेह-धागे को मजबूत करता रहूँ।

विष्णुजी! मेरी जिन्दगी मेरे दोस्तों की ही देन है। इसमें जितनी भी अच्छाइयाँ हैं उसमें कहीं न कहीं, किसी न किसी दोस्त की छवि अंकित है। उन्हीं छवियों से प्रेरणा लेकर मैं आगे बढ़ा हूँ। सोचता हूँ, आपका सानिद्य पाकर मुझमें और मेरी वृत्तियों में, सोच में परिष्कार होगा।

अथर्व वेद और वेद व्यास (विष्णु पुराण) के उदाहरण मेरे लिए काफी प्रेरणादायी हैं। वैसे, मेरा भी प्रयास यही रहा है -

‘हम सबसे ऊपर हैं, व्योम झुकाने को,
हम सबसे नीचे हैं, नींव उठाने को,
हम सबसे आगे हैं, पाँव दुखाने को,
हम सबसे पीछे हैं, पाँव पुजाने को।

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गमों की आग में आँसू उबाल कर देखो।
खिलेंगे रंग, जरा डाल कर देखो।
तुम्हारे दिल की जलन भी जरूर कम होगी।
किसी के पाँव से काँटा निकाल कर देखो।

और अन्त में -

‘प्रसन्नता तो चन्दन है,
उसे, दूसरे के माथे पर लगाईये,
आपकी उंगलियाँ तो
अपने आप,
महकने लगेंगी।’

आपको पुनः धन्यवाद। मंगल कामनाएँ।

आपका अपना,
रमेश सक्सेना।





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मेरा पत्र, कॉमरेड के नाम -


29 सितम्बर 2006

माननीय श्रीयुत सक्सेना साहब,

सविनय सादर नमस्कार,

जितना अनपेक्षित आपको मेरा भेजा बधाई पत्र रहा होगा, उतना ही अनपेक्षित मेरे लिए आपका (बिना तारीख वाला और 28 सितम्बर 2006 को पोस्ट किया) पत्र रहा। पत्र क्या है, आनन्द-कोष है। पत्राचार का सुख ऐसे ही पत्रों से अनुभव किया जा सकता है। अभागे हैं वे लोग जो पत्राचार से दूर (और उसमें भी, आपसे पत्राचार से दूर) बैठे हैं।

मेरा घर का नाम ‘बब्बू’ है और मित्र मुझे ‘विश्न्या’ पुकारते हैं। ऐसे में ‘विष्णुजी’ तो बहुत-बहुत भारी है - चींटी पर पंसेरी जैसा। त्राहिमाम्! त्राहिमाम्! वैसे, आप मुझे दे ही तो रहे हैं, कुछ ले तो नहीं रहे! आपकी दी हुई हर चीज, हर बात सर माथे पर।

आपने चाहा भी तो क्या चाहा? वही ‘स्नेह’, जिसकी तलाश में मैं अहर्निश लगा रहता हूँ। आपका पत्र पढ़कर लगा कि यह ‘जीवन तत्व’ हममें से प्रत्येक के पास है लेकिन हम सब उससे बेखबर हैं और शायद इसीलिए मैं आपमें ‘स्नेह’ देखता हूँ और आप मुझमें। गोया, हम सब ‘कस्तूरी मृग’ हैं। आपके पत्र ने मुझमें छिपी उस बात से रु-ब-रु करा दिया जिसकी तलाश मैं खुद से बाहर कर रहा हूँ। आपने नया विचार दे दिया। इसका उपयोग मैं अपनी सुविधा से कर लूँ - यह अनुमति मुझे दीजिएगा। आपसे हुई इस प्राप्ति के लिए कोटिशः आभार। आप बहुत ही बढ़िया आदमी हैं और इसीलिए बहुत ही बढ़िया बात, अनजाने में ही आपने मुझे दे दी है। आपके पत्र से लगा कि ‘स्नेह’ भी ‘सुरसती के भण्डार’ की तरह ही है - ‘ज्यों खरचे, त्यों-त्यों बढ़े’ वाला। लेकिन, हम ‘स्नेहाकांक्षी’ तो बने रहते हैं और भूल जाते हैं कि हमें ‘स्नेहदाता’ भी बने रहना चाहिए। अरे! कॉमरेड! आपने बहुत ही बढ़िया बात मुझे थमा दी है। आपको जन्म-दिन की  बधाई भेजने का इतना शानदार-जानदार, अमूल्य प्रतिसाद मिलेगा - यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। कॉमरेड सक्सेना जिन्दाबाद। आप अपने लिए नहीं, हम लोगों के लिए जुग-जुग जीएँ और सदैव पूर्ण स्वस्थ बने रहें - ईश्वर से यही याचना है।

आपने बहुत ही सुन्दर काव्य पंक्तियाँ मुझे उपलब्ध कराई हैं। आपकी इस पूँजी का उपयोग मैं अपनी दुकानदारी बढ़ाने में करूँगा। इस हेतु अतिरिक्त धन्यवाद।

‘मैं तो प्रयास करूँगा ही कि इस स्नेह को मजबूत करता रहूँ’ - आपका यह आश्वासन जिन्दगी जीने के लिए ललक पैदा करता है। इसमें इतना और जोड़ लीजिएगा कि यदि कभी मैं प्रमादवश भी अनपेक्षित व्यवहार कर बैठूँ तो भी कृपया अपना स्नेह मुझे प्रदान करते रहिएगा।

कृपा बना रखिएगा। परिवार में सबको मेरी ओर से सादर, यथायोग्य अभिवादन अर्पित कीजिएगा।

स्नेहाकांक्षी,
विष्णु बैरागी

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