तीस जनवरी की वह शाम

पुराने कागजों को टटोलते-टटोलते मुझे ‘दिनमान’ के 9 फरवरी 1969 अंक के पृष्ठ 9-10 की फोटो प्रतियाँ मिलीं। पढ़ते-पढ़ते मुझे रोमांच हो आया और यह ऐतिहासिक दस्तावजे आप सबके सामने रखने से खुद को नहीं रोक पाया। फोटो प्रतियाँ काफी धुंधली हो चुकी थीं। पढ़ने में मुश्किल हो रही थी। छपी सामग्री को यूनीकोड में बदलनेवाला आई2ओसीआर भी सहायक नहीं हुआ। फलतः पूरा लेख मुझे टाइप करना पड़ा। तनिक कठिनाई जरूर हुई, थकान भी लगी किन्तु ‘गाँधीजी का काम’ करने की बात मन में आते ही सब हवा हो गया। आशा है, मेरी यह कोशिश आपको भली लगेगी। साथवाला चित्र गूगल से लिया है। मूल लेख के साथ कोई चित्र नहीं था।   

(30 जनवरी, 1948 को गाँधीजी की हत्या का विवरण लगभग भुला दिया गया है। स्वाधीनता के बाद जन्मी पीढ़ी के लिए यह सारा वृत्तान्त करीब-करीब औपन्यासिक हो चुका है। उन दिनों की प्रमुख समाचार एजेंसी ‘युनाइटेड न्यूज ऑफ इण्डिया’ के संवाददाता श्री शैलेन चटर्जी ने, जो कि घटना-स्थल पर उपस्थित थे, ‘दिनमान’ के पाठकों के लिए गाँधीजी के पुण्य-स्मरण के बतौर समूची घटना का विवरण प्रस्तुत किया है। श्री शैलेन चटर्जी ने, जो कि आज-कल कलकत्ते के ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ के विशेष संवाददाता हैं, गाँधीजी के साथ नोआखाली और अन्य उपद्रवग्रस्त इलाकों का दौरा किया था और गाँधीजी को बहुत करीब से जाना था।)

जनवरी 30, 1948. दूसरे दिनों की तरह ही वह भी दिन था, किन्तु उस दिन की संध्या भयानक अन्धकार लेकर आयी। हमारे देश के इतिहास में ऐसी कोई अँधेरी शाम शायद ही इससे पहले आयी हो। बिड़ला भवन के प्रार्थना-मैदान की हरी घास पर महात्मा गाँधी की, गोलियों से बिंधी देह पड़ी हुई थी। आभा गाँधी और मनु गाँधी, जिनके कन्धों का सहारा लेकर बापू प्रार्थना के लिए जा रहे थे, रो रही थीं। कुछ ही मिनटों में बापू का जीवन-दीप बुझ गया और चारों ओर जैसे अन्धकार छा गया।

जिस तख्ते पर गाँधीजी सोते थे उसी पर उनको धीरे से लिटाया गया। उनके चेहरे को देखने से ऐसा मालूम होता था जैसे वह सो रहे हों। मुख पर शान्ति की ज्योति, जैसे कि वह जीवित हों।

आभा, मनु और अन्य आश्रमवासी उनके मस्तक के पास बैठ कर रो रहे थे। उनके पैर के पास एक सेवाग्रामवासी बैठा था। एक ओर पण्डित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और अन्य नेतागण बैठे थे। बापू के मस्तक के दाहिनी तरफ मैं भी बैठा था। सबकी आँखों में आँसू थे। सब फफक-फफक कर रो रहे थे। पण्डितजी बापू के पैर पकड़ कर रो रहे थे। कुछ देर बाद उन्होंने अपने आँसू पोंछे। शायद उन्होंने सोचा कि अगर वह रोये तो लाखों-करोड़ों लोगों के आँसू कौन पोंछेगा। सरदार पटेल उन को सांत्वना दे रहे थे। शोक-मग्न सरदार अटल थे। उनकी आँखों में आँसू नहीं थे। शायद गाँधीजी की वाणी कि ‘अश्रुपात करने से मृत देह वापस नहीं आती।’ उन को याद आ गयी। कमरे में, एक के बाद एक डॉक्टर आ रहे थे। वे गाँधीजी के शरीर की परीक्षा कर रहे थे। किन्तु सब ने सिर हिला कर संकेत किया कि सब कुछ समाप्त हो चुका है।

धर्मप्रिय बापू को गीता और रामायण बहुत ही प्रिय थे। उन्होंने अनेक बार कहा था कि अगर वह बीमार हो जाएँ तो उनको गीता, रामायण आदि से पाठ सुनाया जाये। यही उनके लिए एकमात्र औषधि थी। उनकी इस इच्छा के अनुसार बापू के सहयोगियों ने गीता, राम-धुन, रामायण पाठ शुरु कर दिया। गहरी वेदना में उन सबके कण्ठ अवरुद्ध हो रहे थे और अश्रु टपक रहे थे।

इस भयानक शोक में मुझे एक पत्रकार का कर्त्तव्य भी करना पड़ा। मैं उठ कर टेलिफोन के पास गया। हमारे ‘युनाइटेड प्रेस’ के इंचार्ज ने जब मुझसे यह सुना कि गाँधीजी को गोली मार दी गयी है तो उन्होंने विश्वास नहीं किया। वह बोले, ‘आप क्या कह रहे हैं? मुझे विश्वास नहीं होता कि बापू को कोई इस तरह मार सकता है। मेरी कुछ समझ में नहीं आता। और जोर से और ठीक-ठीक कहिए।’ किन्तु मैं क्या कहता? मेरा कण्ठ रुद्ध हो रहा था। जब मैं टेलिफोन करने जा रहा था अनेक भारतीय और विदेशी पत्रकार मुझे पूछने लगे, ‘महात्माजी कैसे हैं?’ मैंने उनको  कहा, ‘सब शेष हो चुका। बापू नहीं रहे।’

कमरे में वापस आ कर मैं बापू की देह के पास बैठ कर गीता आदि पाठ सुनने लगा। मेरे सामने वह छोटा टेबिल था जिस के ऊपर बापू के प्रिय ग्रन्थ - गीता, कुरान, बाइबिल और आश्रम भजनावली रखे थे। टेबिल के ऊपर बापू की छोटी पेंसिल, कागज, चिट्ठियाँ आदि पड़ी थीं। एक तरफ बापू के तीन बन्दर थे, जिन को कि वह अना गुरु मानते थे।

‘एकला चालो रे’: एकाएक कमरे का वातावरण फिर रुदन से भर गया। गाँधीजी के छोटे पुत्र देवदास गाँधी आये और बापू की देह के पास बैठ कर, उनके शरीर के चारों ओर हाथ रखा। फिर थोड़ी देर बाद वह धाड़ मार कर रो पड़े और उनकी मृत देह को बार-बार चूमने लगे। इस करुण दृश्य को देखकर सब रो पड़े। पण्डित नेहरू और सरदार पटेल ने देवदास को उठाया। फिर आचार्य कृपलानी, सुचेता कृपलानी, श्रीमती नन्दिता कृपलानी आदि अनेक लोग उस कमरे में एक के बाद एक आये। श्रीमती सुचेता कृपलानी और नन्दिता ने गाँधजी का प्रिय रवीन्द्र संगीत गाया। ‘जीवन जखन शुखाये जाय, करुणाधाराय एशो’। यह गीत गाँधीजी के उपवास के समय गाया जाता था। फिर उन्होंने गाया ‘जोदि तोर डाक शुने केउ न आसे तोबे एकला चालो रे।’

‘एकला चालो’ गीत सुनकर मुझे बापू की कठिन नोआखाली यात्रा याद आ गयी। गाँधीजी नंगे पैर एक गाँव से दूसरे गाँव शान्ति की यात्रा कर रहे थे। बापू के बांगला सेक्रेटरी, अध्यापक निर्मल बसु, मैं और कुछ पत्रकार उनके साथ इस यात्रा में थे। भयानक शीत में बापू नंगे पैर खेतों में पैदल चलते थे। उनके कोमल पैरोें में काँटे चुभते और रक्त गिरता। फिर भी बापू रुकते न थे। मैं ने एक दिन यात्रा में बापू से पूछा - ‘बापूजी! आप इस ठण्ड में काँटों के बीच नंगे पैर क्यों चलते हैं?’ बापू हँस कर बोले - ‘मैं तीर्थ यात्रा में निकला हूँ। मन्दिर में सब नंगे पैर जाते हैं। इसीलिए मैं नंगे पैर जा रहा हूँ।’

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर रचित यह ‘एकला चालो रे’ संगीत गाँधीजी को इस थकेली यात्रा में प्रेरणा देता था। प्रतिदिन एक ग्राम से दूसरे ग्राम की यात्रा में हम सब ‘एकला चालो रे’ गाते थे।

फिर एकाएक कमरे की शान्ति भंग हो गयी। गाँधीजी की पुत्रवधू श्रीमती लक्ष्मी गाँधी और पौत्री-पौत्र तारा और मोहन जोर-जोर से विलाप करते हुए कमरे में आये। बापू के शरीर पर ढँकी हुई चादर उन्होंने उठायी। तीनों गोलियों के घावों से रक्त अब भी गिर रहा था। तीन साल का पौत्र गोपू सिसक रहा था। प्रतिदिन संध्या के समय बापू अपने प्यारे गोपू से खेला करते थे।

बेचैन भीड़: कमरे के बाहर बहुत भीड़ थी। दरवाजे के शीशे से मैं ने बाहर देखा, हजारों नर, नारी और बच्चे जनवरी के कठिन शीत में खड़े थे। सब बापू के दर्शन के लिए व्याकुल थे। हजारों कण्ठों से ‘गाँधीजी की जय’ ध्वनि से आकाश गूँज रहा था। हम सब ने बापू की देह को एक टेबिल पर रखा। फिर दरवाजा खोला गया। लोगों से विनती की गयी कि वह एक लाइन में चलें-बापू के दर्शन के लिए। किन्तु लोग पागल जैसे हो गये थे। दौड़ने लगे। भीषण गड़बड़ होने लगी। प्रत्येक व्यक्ति बापू के पैर छूना चाहता था। एक स्त्री रोती हुई जमीन पर बेहोश हो कर गिर गयी। इस गड़बड़ में असम्भव जानकर दरवाजा फिर बन्द कर दिया गया।

हम सब नेे फिर बापू की देह को उठा कर ऊपर के बरामदे में रखा। हजारों लोगों ने उनके दर्शन किये। फिर आकाश में ‘महात्मा गाँधी की जय’ से गूँज उठा। रात के दस बज चुके थे। बापू के शरीर को फिर उनके कमरे में लाया गया। देवदास भाई ने कमरे की बत्तियाँ बुझा दीं। कमरे में अँधेरा हो गया। बापू के सिर के पास एक प्रदीप जलाया गया। एक सिख सज्जन ग्रन्थ साहब का पाठ करने लगे।

रात के बारह बजे के करीब पण्डित नेहरू कमरे में फिर आये। उनके साथ श्रीमती इन्दिरा और श्री फिरोज आये। इन्दिराजी रो रही थीं। पण्डितजी, जो कि आज उपवास कर रहे थे, का चेहरा फीका पड़ गया था-ओठ सूख गए थे। उनको देखने से ऐसा प्रतीत होता था जैसे बापू की मृत्यु से इन छह घण्टों में ही वह वृद्ध हो गये। रोते-रोते उनकी आँखें सूज गयी थीं। देवदासजी से उन्होंने बापू के अन्तिम संस्कार के बारे में परामर्श किया। वह कमरे में ज्यादा देर तक न रह सके। बाहर जनता की भीड़ फिर बढ़ गई। उन्मत्त जनता, पण्डितजी के सिवाय उनको शान्ति और कौन दे सकता था? कमरे से बाहर जाने से पहले फिर एक बार उन्होंने बापू के शान्त चेहरे की ओर देखा। रूमाल से आँसू पोंछते हुए बाहर चले गये जहाँ कि हजारों लोग चिल्ला रहे थे -‘हम बापू के दर्शन करना चाहते हैं।’ तब रात का लगभग एक बज चुका था।

दिल्ली की, जनवरी की भीषण ठण्डी रात बापू के शरीर को कैसे स्नान कराया जाये? उनके शरीर को स्नान घर में ले जाया गया और उसी तख्ते पर लिटाया गया जिस पर बैठ कर बापू रोज नहाते थे। हरिराम भाई ने उनकी रक्त-स्नात चादर उठायी। नियम-पालन के लिए उनको स्नान कराया गया। मैं ने गोली के तीन दाग उनके शरीर पर देखे। दो गोलियाँ उनके शरीर को भेद कर बाहर चली गई थीं। एक गोली शरीर में रह गयी थी। उस समय भी गोली के तीनों दागों से रक्त-स्राव हो रहा था। इस दृश्य को देखकर मेरा सिर चक्कर खाने लगा। कुछ देर के लिए मुझे चारों ओर अन्धकार दिखायी देने लगा। शरीर से रक्त धोने के बाद उनको गंगा जल से स्नान कराया गया। 

फिर बापू को कमरे के बीच एक नयी धोती पहना कर, तख्ते पर लिटाया गया। गले में एक रुद्राक्ष की माला पहनायी गयी। मस्तक पर चन्दन और कुंकुम का तिलक लगाया गया। हम सबने मिल कर उनके शरीर को गुलाब के फूलों से, जो कि इन्दिराजी और फिरोज भाई लाये थे, सजाया। उनके सिरहाने महिलाओं ने फूल से ‘राम-नाम’ लिखा। कमरे में चारों ओर अगर-धूप सुलगाया गया।

कर ले सिंगार...: गाँधीजी प्रतिदिन साढ़े तीन बजे सवेरे उठ जाते थे और प्रातः प्रार्थना में लीन हो जाते थे। उस दिन ठीक साढ़े तीन बजे प्रातःकाल हम सबने प्रार्थना शुरु की। बौद्ध धर्म, कुरान, गीता, उपनिषद और जेदामेस्ता से पाठ हुआ। एक भजन रोज की तरह गाया गया। जब यह करुण भजन गाया जा रहा था, सब रोने लगे। कुछ कमरा छोड़ कर, बाहर जा कर चिल्ला कर रोने लगे। भजन के बोल इस प्रकार थे -

कर ले सिंगार चतुर अलबेली,
(तुझे) साजन के घर जाना होगा
मिट्टी उढ़ावन, मिट्टी बिछावन
मिट्टी में ही मिल जाना होगा
नहा ले, धो ले, शीश गुंथा ले
वापस फिर नहीं आना होगा।

भजन के बाद ‘रघुपति राघव राजा राम’ धुन गायी गयी। धीरे-धीरे उजाला हो गया। सूर्य की पहली किरण ने कमरे में प्रवेश किया। साथ ही उस समय रात्रि का अवसान हुआ। कितनी वेदना में, कितने आँसुओं के साथ वह रात बीती! बापूजी के साथ घूमते हुए इतनी भयानक दीर्घ रात्रि मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। रात चली गयी किन्तु फिर भी मुझे दिन के उजाले में भी अन्धकार ही नजर आ रहा था।

कमरे के बाहर लाखों-लाखों लोग, स्त्री-पुरुष और बच्चे आसमान गुँजा रहे थे - ‘महात्मा गाँधी की जय’, ‘गाँधीजी अमर हैं। गाँधीजी के शेष दर्शन के लिए वे सब आये थे। सारी रात वे भयानक ठण्ड में खड़े रहे - महज बापू के दर्शन के लिए रोते हुए हजारों लोगों ने बापू के शरीर पर फूल-मालाएँ चढ़ायीं। मृत्यु के कई घण्टे बीत चुके थे फिर भी गाँधीजी के मुँह पर एक अपूर्व ज्योति थी - शान्ति और क्षमा का भाव उनके मुख पर अंकित था।

-----


No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.