मुम्बई में जावरा का ओटला

मुम्बई में आवास समस्या की विकरालता जताने-बताने के लिए बरसों से कहावत सुनता आ रहा हूँ - मुम्बई में खाने को रोटला मिल जाता है पर सोने को ओटला नहीं मिलता । देश के बाकी हिस्सों का तो पता नहीं लेकिन मालवा के गाँव-गाँव में यह कहावत सुनने को मिलती है ।

लेकिन यहाँ बात मुम्बई के ओटले की नहीं, जावरा के ओटले की है । ‘पाँखी की छुट्टियाँ’ शीर्षक वाली मेरी पोस्ट (12 जून 2008) में मालवी का एक शब्द ‘खेंच’ पढ़कर, मुम्बई में रह रहे नितिन भाई ने 12 जून की रात को ही मुझे एक कविता ई-मेल की ।

नितिन भाई याने श्री नितिन वैद्य । मुम्बई में दादा भाई नौरोजी मार्ग स्थित भारतीय जीवन बीमा निगम की शाखा के शाखा प्रबन्धक । उम्र 42 वर्ष । याने मेरे छोटे भतीजे गोर्की से भी छोटे । उन्हींने मुझे सन् 1991 में भाजीबीनि की एजेंसी दी । तब नितिन भाई विकास अधिकारी हुआ करते थे और नए बीमा एजेण्ट बनाना उनकी नौकरी का एक मात्र काम हुआ करता था । वे मेरी विपन्नता के चरम दिन थे । मैं एक बार फिर भिक्षा वृत्ति की कगार पर खड़ा था । ऐसे में इस एजेंसी ने वह सब कुछ और इतना कुछ दिया कि मैं अशिष्टता बरतने का मूर्खतापूर्ण दुस्साहस करने की स्थिति में आ गया । जब भी कोई अवसर आता है, मै बार-बार कहता हूँ (और मेरे इस बार-बार कहने पर नितिन भाई हर बार संकुचित और असहज हो जाते हैं) - नितिन भाई के पैरों चल कर रोटी मेरे घर आई ।

वही नितिन भाई, पदोन्नति लेकर सहायक शाखा प्रबन्धक (विक्रय) बने । यह पदोन्नति लेने वाले विकास अधिकारी को, एल आई सी हलकों में असफल, नासमझ, अमहत्वाकांक्षी और मुश्किलों से जल्दी घबरा जाने वाला आदमी माना जाता है । विकास अधिकारी की आय, उसके नियन्त्रक ब्रांच मैनेजर के वेतन से कहीं अधिक (बहुत ही अधिक) होती है । वह ऐसा अधीनस्थ होता है जिसकी आय से उसका नियन्त्रक ईर्ष्या करता है और इस ईर्ष्या को सामान्यतः प्रत्येक ब्रांच मैनेजर कम से कम एक बार तो अत्यन्त शालीनता से प्रकट कर ही देता है । इस सबके बावजूद नितिन भाई ने पदोन्नति ली और सहा. शाखा प्रबन्धक से शाखा प्रबन्धक बनने के लिए न्यूनतम अनिवार्य अवधि पूरी होते ही शाखा प्रबन्धक बन गए । इस हैसियत में उनकी पहली ही पदस्थापना मुम्बई (शिवरी) में हुई । बाद में वे दादर स्थित शाखा के प्रबन्धक बने और अभी-अभी दादा भाई नौरोजी मार्ग वाली शाखा के प्रबन्धक तैनात किए गए है । विकास अधिकारियों की अपनी बैच में वे प्रथम और अब तक के एकमात्र ऐसे विकास अधिकारी हैं जो इस पायदान तक पहुँचा है । उनकी पहली पदोन्‍नति के समय उन पर हंसने वाले आज मुंह छिपाने के लिए कोने तलाशते हैं । उनकी शाखा में 19 विकास अधिकारी और लगभग 650 एजेण्ट हैं । चालू माली साल के लिए उनकी शाखा का व्यावसायिक लक्ष्य 40 करोड़ रूपयों की प्रथम प्रीमीयम (नए बीमा प्रस्ताव के साथ जमा की जाने वाली प्रीमीयम को प्रथम प्रीमीयम कहा जाता है) और 23,000 पालिसियाँ है । सवेरे 8 बजकर 20 मिनिट तक उन्हें हर हाल में घर से निकल जाना होता है और वापसी कभी भी रात पौने दस बजे से पहले नहीं होती । घर से ब्रांच आफिस तक की यात्रा वे कार से करते हैं लेकिन बकौल नितिन भाई इस पूरी यात्रा में उनका गाँव प्रतिदिन उनके साथ चलता है । मुम्बई में उन्हें चौथा साल है लेकिन बाँध पाना तो कोसों दूर रहा, मुम्बई अब तक उन्हें न तो आकर्षित कर पाया न ही प्रभावित । मुम्बई में रहने का ठसका अब तक उनके व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बन पाया । गोया, मुम्बई में रहकर भी वे अपने गांव में ही रह रहे हैं ।

यह सब इसलिए कि नितिन भाई मूलतः जावरा के रहने वाले हैं । पुराने लोग जावरा को डाक्टर कैलाशनाथ काटजू के गृह नगर के रूप में और आज के लोग हुसैन टेकरी के कारण जानते है । यह रतलाम जिले का प्रमुख बड़ा कस्बा है और यहाँ के लोगों को मोगरे (मोतीया) का शौक ‘व्यसन’ की सीमा तक है । नितिन भाई के पिताजी श्रीयुत डाक्टर सुधाकर वैद्य जावरा के सर्वाधिक लोकप्रिय डाक्टर हुआ करते थे । अल्पायु में हुई उनकी अकस्मात, असामयिक मृत्यु ‘वैद्य परिवार’ के लिए जितनी मारक और अपूरणीय क्षति बनी, जावरा के लोगों के लिए उससे अधिक पीडादायक और अपूरणीय क्षति रही । डाक्टर सुधाकर वैद्य जावरा के किंवदन्ती पुरूष हुआ करते थे । वे उन बिरले लोगों में थे जो डाक्टर भी अच्छे थे और इन्सान भी अच्छे थे ।
नितिन भाई अपने परिवार के बड़े बेटे हैं । उनका लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई जावरा में ही हुई । जावरा से उनका सम्बन्ध आज व्यवहारतः शून्यप्रायः है लेकिन जो मिट्टी खून बन कर नसों में बह रही हो उसे तो कोई चाह कर भी नहीं भुला सकता । नितिन भाई के साथ या तो यह सब शायद सामान्य से कुछ अधिक हो रहा है या फिर उनका राडार अतिरिक्त संवेदनशील है ।

सो, एक मालवी शब्द ‘खेंच’ ने नितिन भाई के, जावरा के समूचे काल खण्ड को मानो पुकार लिया । उन्होंने जो कविता मुझे भेजी उसे वे (और आप भी) भले ही कविता कहें, मानें लेकिन मुझे तो उस सबमें कविता कहीं नजर नहीं आई । नितिन भाई कवि हैं भी नहीं और यदि हैं भी तो उतने ही जितना कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी कवि होता ही है । इस मायने में जरूर नितिन भाई कवि माने जा सकते हैं । बीस पंक्तियों वाली इस कविता में साहित्यिक अनुशासन पूरी तरह से लापता है । इसमें यदि है तो नितिन भाई की आत्मा की पुकार है - अपनी मिट्टी को सम्बोधित । कविता इस प्रकार है -

बसे हुए हो मेरे मन में तुम, ओ ! मेरे गाँव

मन को ठण्डक देने वाली, वो पीपल की छाँव

वो अपनों से मिलना, बेबात मुस्कुराना

नहीं चाहिए होता था खुश होने का बहाना

लड़कपन के वो दिन और वे कच्ची यादें

अब तक परेशान करते हैं, तब किए गए वादे

वो ओटलों पर बैठना और गप्पें लगाना

सरे शाम हुए झगड़ों को सुबह होते भूल जाना

धड़-धड़ दौड़ती और धूल उड़ाती वो बैलगाड़ी

जीवन की दौड़ में कभी अगाड़ी, कभी पिछाड़ी

ढोलक की थाप पर बहते, सरसराते वो झरने

कौन था वहाँ पराया ? सब तो थे अपने

याद तो तब आए जब भूलूँ वो जमाना

ढूँढता रहता हूँ, तुम तक आने का कोई बहाना

‘दो जून की जुगाड़’ में कट जाएगा यहाँ जीवन

बेशक हूँ शहर में, तुम्हारी गलियों में है मेरा मन

नितिन भाई को एलआईसी ने मुम्बई में अच्छा भला ‘ओटला’ (फलेट) दे रखा है और ‘रोटला’ तो उन्हें हर महीने मिल ही जाता है । लेकिन मन जहाँ उन्मुक्त और निर्बन्ध भाव से उजागर किया जा सके, उस 'ओटले' की तलाश की अतृप्त प्यास से उपजी अकुलाहट नितिन भाई को आज भी जावरा में ही बनाए हुए है ।

नितिन भाई की यह कविता उनके मन में बसे गाँव की तरह ही अनगढ़ है और यही इसकी सुन्दरता है । साहित्यिक पैमानों पर इसे आसानी से खारिज किया जा सकता है लेकिन इसमें भीगी-भीगी ठण्डक देने वाला खड़ा पीपल, ओटलों पर चल रही गप्पों का कोलाहल, दौड़ती बैलगाड़ी की धूल में अटे बच्चे, गूँजती ढोलक की थापें याने कि निर्दोष-अबोध बचपन का पूरा का पूरा गाँव जो बसा है उसे खारिज कर पाना बड़े से बड़े समीक्षक-आलोचक के लिए दुःसाध्य ही नहीं, खुद के प्राण हर लेने वाला असम्भव उपक्रम होगा ।

मन की बस्तियाँ उजाड़ने का हथियार भगवान ने किसी को नहीं दिया । ईश्वर की यही नेमत अपनी पूरी ताकत से इस कविता में और ऐसी प्रत्येक अनगढ़ कविता में हमें मिलती रहेगी ।

1 comment:

  1. हुज़ूर आपका कंटेट अच्छा होता है लेकिन उसकी लम्बाई पूरा रस ख़त्म कर देती है.ब्लॉग पर लम्बी सामग्री अछूती रह जाती है.

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