जलजजी का नम्बर

टेलीफोन का चोंगा थामे, मैं यद्यपि शून्य में देख रहा था लेकिन सच तो यह था कि मैं खुद से नजरें चुरा रहा था । उधर, टेलीफोन पर दूसरी ओर, जुझारसिंहजी भाटी भी निश्चय ही उस स्थिति में रहे होंगे क्‍योंकि हम दोनों चुप थे और फोन पर बीहड़ का सन्नाटा सीटियाँ बजा रहा था । बात ही ऐसी हो गई थी । कहते समय खुद भाटीजी ने नहीं सोचा होगा कि वे ऐसी बात कह जाएँगे । लेकिन बात ऐसी ही हो गई ।

भाटीजी को जलजजी का फोन नम्बर चाहिए था । उन्होंने पूरे विश्वास से मुझे फोन किया था । मेरे पास जलजजी का नम्बर था तो लेकिन मुझे भली प्रकार मालूम था कि वह बदल गया है । वास्तविकता बताते हुए मैंने भाटीजी को जलजजी का पुराना नम्बर दिया और कहा कि नया नम्बर तलाश कर बताता हूँ । भाटीजी के फोन बन्द करते ही मैंने भैया साहब (श्री सुरेन्द्रकुमारजी छाजेड़) को फोन लगाया । उन्होंने बताया- जलजजी का वर्तमान नम्बर २६०९११ है । मैंने फौरन भाटीजी को यह नम्बर दिया । लेकिन डेढ़ मिनिट में ही उनका फोन आ गया । कह रहे थे कि यह नम्बर भी जलजजी का नहीं है । अब मैं निरूपाय था । क्षमा माँगी और कहा कि जलजजी का नम्बर वे तलाशें और मुझे भी बताएँ । लेकिन बात यहीं समाप्त् नहीं हुई । भाटीजी ने कहा- ''क्‍या हालत हो गई है ! अपने पास अवांछित ऐसे-ऐसे लोगों के नम्बर मिल जाएँगे जो पुलिस के लिए वांछित हैं । लेकिन जलजजी जैसे लोगों के नम्बर नहीं मिलेंगे ।'' वे सपाटे से कह तो गए लेकिन कहते ही वे चुप हो गए और सुनते ही मैं । मुझे लगा- अपने स्नानागार में मैं निर्वस्त्र स्नान कर रहा हूँ और किसी ने अचानक ही किवाड़ की बारीक झिर्री से मुझे देख लिया है और मुझे लगा कि सारी दुनिया ने मेरी नंगई देख ली । भाटीजी को मैं देख तो नहीं पा रहा था लेकिन उनकी भारी साँसें उनकी हकीकत बयाँ कर रही थी ।

हम एक भद्र, साफ-सुथरा, सज्जनों से सजा हुआ ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें एक भी दुष्ट व्यक्ति नहीं हो । लेकिन सज्जनों के प्रति हमारा दृष्टिकोण और व्यवहार सर्वथा प्रतिकूल रहता है- उदासीन अथवा उपेक्षा भरा । हम खुद से अधिक भद्र और सज्जन अन्य किसी को मानते ही नहीं । इसीलिए समाज की शुचिता का पोषण कर रहे सज्जनों, साधु-पुरूषों, प्रबुद्धों की हम लेश मात्र भी परवाह नहीं करते । शायद इसलिए कि वे सज्जन हैं । वे सज्जन हैं इसलिए उनसे कोई खतरा नहीं । जब उनसे कोई खतरा नहीं तो उनसे डरने की क्‍या जरूरत ? और जब उनसे कोई डर है ही नहीं तो उनकी पूछ-परख क्‍या करना और क्‍यों करना ? इसीलिए हम पूछ-परख उनकी करते हैं जो हमें नुकसान पहुँचा सकते हैं और जिनसे हम भयभीत रहते हैं। बकौल तुलसीदासजी - भय बिन होत न प्रीति । सज्‍जनों की याद (और उनकी अहमियत भी) हमें इन्हीं खरतनाक लोगों के कारण आती है । इन खतरनाक लोगों से अपने को बचाने की कोशिशों के दौरान हम `हनुमान चालीसा' का पाठ करते हुए तय करते हैं कि हम सज्जनों की पूछ परख करेंगे । लेकिन जैसे ही ये खतरनाक लोग और इनसे उपजा खतरा टला कि सज्जनों की पूछ परख करने का हमारा फैसला काफूर हो जाता है। अब सज्जनों से क्‍या मिलना और उनकी पूछ-परख क्‍या करना ?

मन में घुमड़ रही इन बातों के बीच ही मैंने भाटीजी से कहा - ''आप भी याद करें और मैं भी याद करूँ कि बिना किसी काम के, केवल मिलने के लिए और मिलकर अपना आदर-भाव प्रकट करने के लिए अपन जलजजी या जलजजी जैसे किसी व्यक्ति से अन्तिम बार कब मिले थे ? '' हम दोनों के पास कोई जवाब नहीं था । एक बार फिर हम दोनों खुद से नजरें बचा रहे थे ।

हम सब यह कहते नहीं अघाते कि जो समाज सज्जनों का सम्मान और दुर्जनों का धिक्‍कार नहीं करता वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता। लेकिन यह कहते समय हम, यह नेक काम करने का जिम्मा, खुद को छोड़कर बाकी सब पर डाल देते हैं । इसीलिए न तो कोई सज्जन दैनन्दिन लोक आचरण में सम्मानित हो रहा है और न ही किसी दुर्जन को धिक्‍कारा जा रहा है। नतीजतन, हम सबकी डायरियों में बाकी सबके फोन नम्बर मिल जाएँगे। नहीं मिलेंगे तो बस, `जलजों' के नम्बर नहीं मिलेंगे। लिखकर करना भी क्‍या ? जब भी हमें अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए इनकी आवश्यकता होगी, थोड़े हाथ-पाँव मार कर उन्हें तलाश कर लेंगे, अपने आयोजन में इन्हें `शोभा की वस्तु' की तरह बुला लेंगे और इनका उपयोग हो जाने पर इन्हें एक बार फिर भूल जाएँगे । ये बेचारे तनिक भी बुरा नहीं मानेंगे। बुरा मान भी लेंगे तो हमारा क्‍या बिगाड़ लेंगे ? भला किसी सज्जन ने आज तक किसी का कुछ बिगाड़ा है? बिगाड़ भी नहीं सकता । बेचारा अपनी सज्जनता का शिकार है ।

भाटीजी ने और मैंने भारी मन से, ग्लानि भाव और अपराध बोध की शिला से लदी आत्मा से अपने-अपने फोन के चौगे रखे । मैं लगभग आत्मबलविहीन हो चला था । लम्बी साँसें लेकर ठण्डा पानी पीया । खुद को तनिक सामान्य बनाया और टेलीफोन डायरी में जलजी का नम्बर लिखा- २६०९११ (उनका नम्बर यही है) ।

आप भी अपनी-अपनी टेलीफोन डायरी के पन्ने पलटिएगा । प्रत्येक शहर में एक-दो नहीं, कई `जलजजी' होंगे और ताज्जुब नहीं कि सबके सब लोक-उपेक्षा के शिकार होंगे, उनके नम्बर अपनी डायरी में लिखिएगा । उनसे मिलने का जतन कीजिएगा । ऐसे लोग हमारे खालीपन को भरते हैं, हमें हौसला देते हैं । उन्हें सम्मानित करने के लिए नहीं, अपना आत्म बल बढ़ाने के लिए उनसे मिलिएगा । ऐसे लोग हमारी शोभा, हमारी ताकत तो हैं ही, हमारी जिम्मेदारी भी हैं।

(श्रीजयकुमार 'जलज', रतलाम के शासकीय कला - विज्ञान के सेवा निव़त्‍त प्राचार्य हैं । वे भाषाविद और बहुत अच्‍छे कवि हैं ।)

1 comment:

  1. जलज जी को मेरा प्रणाम कहियेगा और कहियेगा कि सीहोर में लोग उनको शिद्दत से याद करते हैं । वे सीहोर में अपनी जो छाप छोड़ कर गए हैं वो अभी भी कायम है आपकी बात हो तो बताइयेगा कि वरिष्‍ठ कवि और उनके मित्र श्री नारायण कासट चलाचली की वेला में हैं । कवि श्री मोहन राय जा चुके हैं । आप ज्‍रूर बताइयेगा कि लोग उनको याद करते हैं

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