आगत की आहट

दो दिनों से मैं हतप्रभ और चकित हूँ। हम हमारी राजनीति को किस दिशा में ले जा रहे हैं और कहाँ पहुँचाना चाहते हैं?

संजय दत्त को चुनाव लड़ाने की घोषणा न केवल सहजता से अपितु अतिरिक्त आत्म विश्‍वास से ऐसे गर्वपूर्वक की जा रही है मानो दे”ा पर ‘महत् उपकार’ किया जा रहा हो। और संजय के चुनाव न लड़ने की दशा में नम्रता को चुनाव लड़ाने का भरोसा ऐसे दिया जा रहा है मानो किसी बड़ी-गम्भीर हानि से बचा लिए जाने की सूचना दी जा रही हो।

उधर अम्बानी और मित्तल परामर्श दे रहे हैं-मोदी को प्रधान मन्त्री बनाया जाए। मोदी को प्रधान मन्त्री बनाए जाने पर किसी को ऐतराज नहीं हो सकता किन्तु परामर्श देने वालों के दुस्साहस भरे आत्म-विश्‍वास पर आक्रोश आता है।

हमने लोकतान्त्रिक संसदीय शासन पध्दति स्वीकार की हुई है। नाम से ही स्पष्‍ट है कि हमारी शासन पध्दति 'लोक आधारित, लोक केन्द्रित और लोक लक्ष्यित' है। इसका क्रमिक सत्य यही है कि हमारे राजनेताओं (शासकों) को ‘लोक’ की रग-रग की जानकारी होनी चाहिए। इसीलिए हमारी अलिखित परम्परा रही है कि निर्वाचित जन-प्रतिनिधि ही हमारा प्रधान मन्त्री हो। इस परम्परा का खण्डन मनमोहनसिंह के प्रधान मन्त्री बनने से प्रारम्भ हुआ अवयय है किन्तु लगता नहीं कि ‘यह खण्डन’ परम्परा बन पाएगा।

संजय दत्त, अम्बानी, मित्तल और इनके जैसे लोग ‘लोक’ का मर्म और महत्व क्या जानें? 'ओस' का नाम सुनकर जिन्हें जुकाम हो जाए, वे लोग शासक बनेंगे तो देश की दुर्दशा भी अकल्पनीय होगी। जिस देश की 34 प्रतिशत जनसंख्या घोषित रूप से गरीबी रेखा के नीचे जी रही हो और 80 प्रतिशत लोग 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रहे हों वहाँ अम्बानी-मित्तल की सिफारिश पर कुर्सियों पर बैठने वाले और संजय दत्त जैसे, अवास्तविक जीवन जीने वाले लोगों से ‘गरीब के पैर में फटी बिवाई’ की बात करने और सुनने की कल्पना ही बेमानी होगी।

बम्बईया अभिनेताओं की अब तक की राजनीतिक भूमिका सर्वथा निराश करने वाली ही रही है। अमिताभ बच्चन से लेकर गोविन्दा तक का कोई योगदान अनुभव नहीं होता। दक्षिण भारतीय अभिनेताओं के सामने ये अभिनेता ‘पिद्दी और पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं हैं। एन.टी.रामाराव से उनके एक प्रशंसंक ने पूछा था कि उनके अभिनय से उसे (प्रशंसक) क्या हासिल है? उत्तर में एनटीआर ने तेलुगुदेशम बना कर सफल राजनीतिक पारी खेली। मुम्बईया अभिनेताओं के पास इस बात को कोई जवाब नहीं है कि वे राजनीति में किस उद्देश्‍य से आए हैं।

पहले ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगा था जो ‘गरीब हटाओ’ में बदलता अनुभव होने लगा था। अब तो लग रहा है कि ‘गरीब को मारो‘ वाली दिशा में हमारी राजनीति अग्रसर हो रही है।
संजय गाँधी के जमाने में कांग्रेस में ‘छाताधारी उम्मीदवार’ (कमलनाथ इस ‘हरावल दस्ते’ के सबसे पहले और सबसे आगे वाले ‘सिपाही’ थे) उतरने की शुरुआत आज ‘समाजवादी पार्टी’ पर अमरसिंह जैसे दलाल के कब्जे तक पहुँच गई है।

आसार अच्छे नहीं हैं।

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12 comments:

  1. हम इन फालतू लफड़ों में पड़ कर अपना बी.पी. नहीं बढ़ाना चाहते. संजू बाबा की आप ही फिकर करो. अपने पास टेम नहीं है.

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  2. मैं यह जानकर हतप्रभ हूँ कि आप दो दिन पहले तक हतप्रभ नहीं थे !

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  3. अम्बानी और मित्तल लोक का मर्म और महत्व क्यों नहीं जान सकते? आप कैसे कह सकते हैं कि ओस का नाम सुनकर इन्हें जुकाम हो जायेगा? क्या पैसा कमाने की अक्ल रखने वाला आदमी अछूत होता है?

    देश की जैसी दुर्दशा को कांग्रेसी दुराचारियों और भ्रष्टाचारियों ने की है उससे अधिक तो कोई भी नहीं कर सकता.

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  4. आप की बात सही है। पर मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने की बात पर टिप्पणी कुछ लोगों को चुभती है। हम तो कहते हैं अनिल अंबानी, टाटा वगैरह खुद क्यों नहीं राजनीति के मैदान में खुल कर नहीं आते। वे शायद मोदी से अधिक अच्छा प्रबंधन कर पाएँ?

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  5. आप की बात सही है।

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  6. कुछ दिन और बैठकर देखना ही होगा कि राजनीति किस दिशा में और किस हद तक जाएगी.....वैसे भी बिना चरम पर पहुंचे किसी समस्‍या का कोई हल नहीं निकलता।

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  7. विष्णु जी ..जिन स्थितियों से जूझते हुए हम प्रजातंत्र की संचालक राजनीति मैं खराबियां खोजतें हैं बहुधा वे सत्ता और शक्ति और अब कहें की ग्लेमर के साथ जल्दी -जल्दी अपने अर्थ भी बदल कर सामने आ रहें हैं हमारी आजादी जिसका सबसे अधिक दुरूपयोग हमारे नेताओं ने किया ...उन्हें आज भी नही मालुम की आजादी का मतलब आदर्शों और मूल्यों के लिए लड़ने का एक अवसर भी है व्यक्तिगत स्वार्थ से उठकर भ्रष्टा चार और खुदगर्जी से हटकर ....इन पर लिखना सोचना ...बेकार ...पर जरूरी भी ....आपकी बात से सहमत भी हूँ की बच्चन हो या गोविंदा,राज बाबर ये सब नाचने वालें हैं ....देश को कया संभलेंगे,...अब अमर सिंग ने शगूफा छेडा है

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  8. ये लोग बाज़ारवाद की उपज है . धीरूभाई किसी बिजनेस स्कूल मे गये बिना केवल एक सफल
    व्यापारी बने . ये प्रबंधन की डिग्रियों वाले लोग देश को बाज़ार की तरह चलना चाहते है , लोक
    का दोहन / शोषण करना चाहते है . टी. आर. पी . आधारित फ़ैसले लेने वालों को लोक-मन की
    थाह न ही है . 22 जुलाई , '08 के शक्ति - परीक्षण न सौदेबाज़ों के मुगालते बढ़ा दिए है . इन्हे
    यह एहसास करने की आवश्यकता है की एक अमरसिंग सारा हिन्दुस्तान नही है .

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  9. sir, aap eise muddo me na pade.. Kisi ke kahane se koi PM nahi ban jayega... Aap ke ek sher hai..
    rakibo ne ja ja kar rapat likhai thane mei..
    Akbar naam leta hai Kuda ka is jamane mei..

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  10. चुनावी मौसम गर्माने दें। बहुत नसीहत देयक सामने आयेंगे!

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  11. वैसे तो सनातन काल से सफल शासक ओस से जुकाम खाता आया है. कुशल प्रबंधक को पसीना बहाने की जरुरत नहीं बल्कि अन्यों के द्वारा बहाये गये पसीने और उससे प्राप्त अनुपातिक रिटर्नस के संतुलन को बनाये रखने की आवश्यक्ता है.

    आपके द्वारा चिन्तन में शामिल बाकी अन्य आधारों पर-नो कमेंटस.

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  12. आपराधिक राजनीति के दलाल-पथ के कार्पोरेट ब्रोकर से आप और क्या उम्मीद कर सकते है?

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