अथ अतिक्रमण आख्यान


भैयाजी के साथ यह बड़ा आराम है। वे पार्टी में हैं जरूर किन्तु उनका कोई हाईकामन नहीं। सो, हाईकमान को अपना फैसला जब और जो लेना हो ले लेगी, भैयाजी ने तो फैसला ले लिया। वे चुनाव लड़ेंगे ही।
चुनाव में कुछ ऐसी भी रस्में निभानी पड़ती हैं जिनकी न तो कोई उपयोगिता होती है न ही जिनमें किसी का विश्वास होता है। चुनाव घोषणा-पत्र जारी करना उनमें से एक है। बेफिकर होकर जारी कर दो। कोई नहीं पढ़ता। और पढ़ ले तो याद कौन रखता है? इस खानापूर्ति के लिए भैयाजी ने मुझे बुलवा भेजा। मैं शुरु होता उससे पहले भैयाजी ने समझाया - ‘देखो! मुद्दे तो सब रखना किन्तु इस तरह कि पढ़नेवाला उनका मतलब नहीं निकाल सके। अपने लिखे का मतलब अपने मनमाफिक निकालने की सुविधा अपने पास ही रहनी चाहिए।’
काम कठिन था। एकदम इंकार कर देने काबिल। किन्तु यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। अपनी सूझ-बूझ और क्षमता से जैसा भी बन पड़ा, लिख कर पेश किया। उम्मीद के खिलाफ भैयाजी ने बहुत ही ध्यान से उसे देखा ही नहीं, पढ़ा भी। मेरी ओर देखे बिना बोले-‘अच्छा है। लेकिन इसमें से अतिक्रमण हटाने वाली बात हटा दो।’ मैंने बुदबुदाते हुए कहा-‘किन्तु यह तो मूल समस्या है। इसे खत्म किए बिना सौन्दर्यीकरण, सुगम यातायात, सड़कों को उनके मूल चैड़े स्वरूप में लाना आदि काम कैसे हो सकेंगे?’ भैयाजी को अच्छा नहीं लगा। मुझ पर और मेरी बुद्धि पर तरस खाते हुए बोले-‘तुम बुद्धिजीवियों के साथ यही दिक्कत है। आदर्श बघारते हो, हकीकत बिलकुल नहीं समझते। पहले तो इसे घोषणा-पत्र में से हटाओ। फिर बताता हूँ।’ मैंने पालतु-पशु की तरह उनका कहा माना और टुकुर-टुकुर भैयाजी की ओर देखने लगा।
मेरी दशा देख भैयाजी हँस पड़े और उसके बाद उन्होंने मुझे ‘अथ अतिक्रमण कथा’ के रूप में अपनी बात कुछ इस तरह कही -
अतिक्रमण ऐसी मानवीय क्रिया है जो ईश्वरीय होने की बराबरी करती है। सच तो यह है कि ईश्वर और मृत्यु के बाद अतिक्रमण ही सबसे बड़ा सच है। यह सच्चा समाजवादी कारक भी है। छोटा-बड़ा, गरीब-अमीर, शहरी-ग्रामीण, हर जाति, समाज, वर्ग का आदमी इसे समान अधिकार से, समान प्रसन्नता से और समान एकाग्रता से करता है। इससे वही बच जाता है जिसे या तो यह करने का अवसर नहीं मिलता और यदि अवसर मिलता है तो करने का साहस नहीं जुटा पाता। वर्ना, इससे कोई नहीं बच पाता। इसके बारे में सबकी राय भी एक जैसी है। हर कोई इसके विरुद्ध चिल्लाता है, इसे हटाने की माँग करता है किन्तु साथ ही साथ चाहता और कोशिश करता है कि उसके द्वारा किए गए अतिक्रमण पर किसी की नजर न पड़े। इससे सबकी रोजी-रोटी चलती है। इसे करने वाला तो लाभान्वित होता ही है, इसे हटाने की मुहीम चलाने वाला भी लाभान्वित होता है। जैसे ईश्वर सत्य और जगत् मिथ्या है, वैसे ही अतिक्रमण सत्य और बाकी सब मिथ्या है। यह व्यक्ति के पौरुष भाव को भी तुष्ट करता है। वैसे देखो तो बलात्कार और अतिक्रमण में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु इसमें बलात्कार से अधिक सुख और सुरक्षा है। इसमें फरियाद करनेवाला, एफआईआर दर्ज करवानेवाला पक्ष नहीं होता क्योंकि सबके सब आरोपी होते हैं। इसमें बहुमत सदैव आपके साथ होता है। यह स्थायी है, जैसाकि पहले कहा, बिलकुल ईश्वर की तरह। इसे हटाने की मुहीम यदा-कदा चलती जरूर है किन्तु वह मुहीम ही अस्थायी होती है। आज चली, कल बन्द और अतिक्रमण फिर जस का तस।
एक बात और। यह भ्रम दूर कर लेना कि अतिक्रमण जमीन पर ही किया जाता है। यह तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किया जा सकता है, किया जाता है और किया जा रहा है। सो, कहाँ-कहाँ का अतिक्रमण हटाया जाए? अरे! अतिक्रमण तो पूजनीय क्रिया है-सबको काम दे, सबसे काम ले और सबको काम पर लगाए रखे। नेताओं के लिए तो यह सर्वाधिक मुफीद तत्व है। इसका कोई निदान नहीं सो प्रत्येक नेता इसे हल करने का आश्वासन पूरे आत्म विश्वास से देता रहता है। जानता है कि इस आश्वासन को याद भी नहीं करना पड़ेगा। यह तो ‘सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय’ क्रिया है। इसकी ओर तिरछी निगाह से देखकर पाप के भागीदरी मत बनो।
भैयाजी की बातें मुझे न केवल समझ में आ गई बल्कि साहस और स्फूर्ति का संचार भी कर गई। अपने घर के आगे, खाली पड़ी नगर निगम की जमीन मुझे बुला रही है।
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(मेरे कस्‍बे के नगर निगम चुनाव के सन्‍दर्भ में लिखी गई मेरी यह टिप्‍पणी, सम्‍पादित स्‍वरूप में दैनिक भास्‍कर, रतलाम में प्रकाशित हुई है।)
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1 comment:

  1. ांतिक्रमण की समस्या को बहुत रोचक ढंग से व्यंगात्मक लहज़े मे लिखा है। धन्यवाद शुभकामनायें

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