हाँ, भ्रष्ट प्रधानमन्त्री चलेगा

मँहगाई दूर करने के लिए हमारे पास कोई जादुई चिराग नहीं है - वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी का यह वक्तव्य आज अखबारों में देखा। उससे पहले कल छोटे पर्दे पर, यही सब कहते हुए उन्हें देखा भी। ऐसा कहनेवाले वे पहले केन्द्रीय मन्त्री नहीं थे। शरद पँवार पहले ही यही सब कह चुके थे - शब्दावली भले ही थोड़ी अलग थी।

प्रणव मुखर्जी जब यह कह रहे थे तो मैं बड़े ध्यान से उनकी मुख-मुद्रा देख रहा था। उनके चेहरे पर चिन्ता, उलझन, झुंझलाहट या शर्म की तो बात ही छोड़ दीजिए, झेंप जैसे किसी भाव की एक लकीर भी नजर नहीं आ रही थी। बड़ी सहजता, साहस और सम्पूर्ण आत्म विश्वास से यह सब ऐसे कह रहे थे जैसे इन बातों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं है। कुछ इस तरह से कह रहे थे मानो किसी का सन्देश देश के लोगों को सुना रहे हों जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें सुनते हुए गोपियों को सन्देश देने वाले उद्धव याद आ रहे थे।

यह कैसा बदलाव है? नेता पहले भी होते थे (अपितु, पहलेवाले नेताओं में से कई नेता तो अभी भी कुर्सियों में बैठे हैं), चुनाव पहले भी होते थे, चन्दा पहले भी लिया जाता था और चन्दा देनेवालों के काम पहले भी किए ही जाते थे। लेकिन तब नेता ऐसे अनुत्तरदायी, सीनाजोर, निस्पृह, निर्लज्ज नहीं हुआ करते थे। नागरिकों की तकलीफें उन्हें असहज कर देती थीं। जिनसे चन्दा लिया करते थे, उन्हें मनमानी करने की छूट नहीं देते थे। उन्हें केवल दिखावे के लिए नहीं, सचमुच में गरियाते, धमकाते थे और जरूरी होता था तो उन पर कार्रवाई भी करते थे। चन्दा देनेवाला निश्चिन्त नहीं हो जाता था। डरता रहता था कि यदि उसने ‘अति’ की तो बख्शा नहीं जाएगा।

मैं अतीतजीवी नहीं। किन्तु आज सब कुछ एकदम उल्टा (या कि पहले जैसा सब कुछ अनुपस्थित) देख कर बीता कल अनामन्त्रित अतिथि की तरह आ बैठ रहा है। जो कल तक चन्दा देते थे, आज विधायी सदनों में बैठे हैं और अपने अनुकूल नीतियाँ बनवा रहे हैं, निर्णय करवा रहे हैं। अब वे अनुरोध नहीं करते, इच्छा-पूर्ति न होने पर निर्देश दे रहे हैं। मन्त्री उनके कारिन्दों की तरह अनुज्ञावर्ती बने हुए हैं।

मेरे पुलिसिया मित्र कहते हैं - पुलिस काम नहीं करती, पुलिस का ‘जलवा’ काम करता है। ‘जलवा’ याने वर्दी। बिना वर्दीवाला पुलिसकर्मी पिट जाता है और वर्दीवाला एक पुलिसकर्मी सैंकड़ों की भीड़ की पिटाई कर देता है। इसी तरह सरकार नहीं चलती। सरकार का जलवा चलता है। लेकिन जलवा हो तो चले! सबका पानी उतर गया है।

ऐसा क्यों न हो? पहलेवाले नेताओं मे आत्म बल और नैतिक बल होता था। उन्हें आम आदमी की तकलीफें खूब अच्छी तरह मालूम होती थीं। वे आम आदमी के बीच से जो आते थे! आज तो हमारी संसद में लगभग आधे सदस्य करोड़ोंपति और कुछ अरबपति हैं। जिन्हें छूने के लिए लू के झोंके को पसीना आ जाए, वे उन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो बीस रुपये रोज भी बमुश्किल हासिल कर पा रहे हैं! हमारा प्रधानमन्त्री ‘निर्वाचित जन प्रतिनिधि’ नहीं है। उसे पता ही नहीं कि दिहाड़ी मजदूरी हासिल करने के लिए मजदूरों की मण्डी में कितनी मारामारी बनी हुई है। हमारा प्रधानमन्त्री राज करता हुआ नहीं, देश को ‘मेनेज’ करता हुआ दिखाई दे रहा है - किसी वेतन भोगी कर्मचारी की तरह। मैं खुद कहता रहा हूँ (और इस क्षण भी विश्वास करता हूँ) कि ईमानदारी आदमी को अतिरिक्त नैतिक बल देती है। लेकिन हमारे प्रधानमन्त्री की ईमानदारी को उनके सहयोगी मन्त्रियों ने जिस तरह अप्रभावी और निरर्थक साबित कर दिया है वह देख कर कहने को जी करता है - प्रधानमन्त्रीजी! आपकी ईमानदारी तो अब चाटने की चीज भी नहीं रह गई है। आपकी जिस ईमानदारी से, आपके सहयोगियों में भय पैदा हो जाना चाहिए था उससे तो अब आपके प्रति आदर भाव भी पैदा नहीं हो रहा।

बरसों पहले दो स्थितियों का वर्णन पढ़ा था। पहली - मेरा राजा ईमानदार, चरित्रवान, कर्मठ, सादा जीवन जीनेवाला, दयालु और निष्पक्ष है। किन्तु मेरे देश के लोग बेहद गरीब हैं, भ्रष्टाचार, गरीबी, मँहगाई, अन्याय, सरकारी अत्याचारों से बेहाल हैं। दूसरी स्थिति - मेरा राजा बेहद भ्रष्ट, बेईमान, चरित्रहीन, विलासी, लम्पट, धूर्त और खर्चीली जिन्दगी जीता है। किन्तु मेरे देश में गरीबी नहीं है, लोग भूखे नहीं सोते, रोटी-कपड़ा-मकान की समस्या नहीं है, लोग चैन की नींद सोते हैं, चारों ओर अमन-चैन है।

अब तो यही कहने को बचा है कि माननीय प्रधानमन्त्रीजी! आपकी व्यक्तिगत ईमानदारी का वांच्छित प्रभाव कहीं नहीं हो रहा है और उसका कोई राष्ट्रानुकूल परिणाम तो मिल ही नहीं रहा है। आपकी ईमानदारी देश पर भारी पड़ रही है।

हमें परिणामदायी प्रधानमन्त्री चाहिए। आपकी ईमानदारी यदि जनहितैषी अपेक्षित परिणाम देने में सहायक नहीं होरही है तो कृपया भ्रष्ट हो जाईए। हमें चलेगा।
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11 comments:

  1. "‘जलवा’ काम करता है"
    सच है कि जलवा काम करता है, पर जलवागर कभी किसी खास पद, पार्टी, परिवेश,रसूख पर निर्भर नहीं रहते। गांधी,आज़ाद, भगतसिंह, लोहिया, जयप्रकाश जैसे लोगों की तवारीखी जलवागरी किसे याद न होगी?


    बढ़िया आलेख।

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  2. @ अजित वडनेरकर


    नहीं अजित भाई! नहीं। भले ही मैंने आवेश में यह सब कहा/लिखा। किन्‍तु भ्रष्‍टाचार की पैरवी तो किसी भी दशा में उचित नहीं। मुझे लग रहा है कि मैं कुण्ठित न हो जाऊँ।

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  3. नहीं मिलेगा। जनता अभी इसी व्यवस्था में खुश है।

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  4. जब गली के कुत्ते पागल हो जाये तो गली वालो को ही काटने लगे तो उन्हे जहर दे दिया जाता हे, यह नेता हमारे ही टुकडो से इस नेता की कुर्सी पर बेठे हे, अब जनता को यह फ़ेंसला करना हे कि पागल कुत्तो से बार बार कटवाना हे या इन्हे मार भगाना हे, ताकि भाविष्या मे अन्य कुत्तो को यह दोरा ना पडे, या इन को भोंकते रहने देना हे

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  5. अमेरिकी राष्ट्रपति से लेकर भारतीय मंत्री यही चाहते हैं कि वे अमीर रहें और जनता के पास प्याज़ खरीदने के लिए भी धन न रहे। अगर इस बाजारी लोगों के पास धन आ गया तो बाज़ार के दाम आसमान छूने लगेंगे :(

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  6. ईमानदारी आदमी को अतिरिक्त नैतिक बल देती है।
    ईमानदारी हो तब तो नैतिक बल की बात हो| आजकल के नेता तो नैतिक कमजोरी को ईमानदारी कहने लगे हैं|

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  7. @ राजीव कुमार कुलश्रेष्‍ठ

    राजीवजी, कोटिश: धन्‍यवाद। आपने यह सेवा शुरु की और मेरा ब्‍लॉग भी जोड दिया।

    मुझे तकनीकी जानकारी बिलकुल नहीं है। यह सेवा निरन्‍तर बनाए रखने के लिए मुझ जैसा काम निस्‍संकोच बताइएगा। आपके लिए उपयोगी होने का अर्थ है, खुद के लिए उपयोगी होना।

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  8. कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
    माफ़ी चाहता हूँ

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  9. bahut hi tathyapark aur yathartvadi vichar. AAp imandar hai pr bhrst prabhamandar ke beech aapki imandari ka prkash timtimatey jugnu ke praksh se bhi km hain ....manniya pradhanmantri ji .. krpya bhrst bn jaiye kintu apna mantrimandal imandarr aur jawabdeh logo se bibhusit kijiye. chlega..

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