‘ढ’ को लेकर परेशान ‘ज्ञ’

अपने गुरु के प्रति आदर और कृतज्ञता भाव प्रकट करने हेतु छात्रों द्वारा सम्मान समारोह आयोजित करना कोई विशेषता या अनूठी बात नहीं होती। किन्तु यदि छात्र समुदाय की आयु 60 से लेकर 70 वर्ष हो तो? और अपने गुरु के सम्मान समारोह में शामिल होने के लिए कलेक्टर, न्यायाधीश, व्यापारी-व्यवसायी, छुट्टियाँ लेकर, अपना काम छोड़ कर सैंकड़ों मील की यात्रा कर पहुँचें तो? तब तो यह न केवल ही अनूठी और विशेष घटना है अपितु जिज्ञासा भी जगाती है।

ऐसी ही घटना अभी-अभी, 11 अक्टूबर को मध्य प्रदेश के खण्डवा में घटी। नायक थे - मध्य प्रदेश के एक जिला मुख्यालय नीमच निवासी, सेवा निवृत्त प्रोफेसर रतनलालजी जैन। यह उनका अभिलेखीय और औपचारिक नाम है। घर में तथा अन्तरंग हलकों में वे ‘पारस’ के नाम से पहचाने और पुकारे जाते हैं। वे 42 वर्ष पूर्व खण्डवा के नीलकण्ठेश्वर महाविद्यालय में पढ़ाया करते थे। 1958 से 1969 तक के ग्यारह वर्षों में उन्होंने खुद को मानो खण्डवा की मिट्टी में विसर्जित कर दिया। कुछ इस तरह कि घरवाले भयभीत हो गए - ‘कहीं पारस घर से कट नहीं जाए।’ वैसे भी, खण्डवा-नारायणगढ़ की दूरी लगभग सवा चार सौ किलोमीटर है। सो, बड़े भाई ने जोड़-तोड़ कर उनका स्थानान्तर, नारायणगढ़ से कोई साठ किलोमीटर दूर, रामपुरा महाविद्यालय में कराया। ‘पारस’ के साथ बड़े भाई जब रेल में बैठने लगे तो अपने प्रिय प्राध्यापक को विदा करने, खण्डवा स्टेशन पर, हिचकियाँ लेते जमावड़े को देख कर बड़े भाई को रोना आ गया और रोते-रोते ही बोले - ‘तेरा ट्रांसफर करवा कर मैंने अच्छा नहीं किया पारस! मैंने बड़ का झाड़ (वट वृक्ष) उखाड़ दिया रे।’

किन्तु ये सारी जानकारियाँ देना या कि जैन साहब का महिमा मण्डन करना मेरा अभीष्ट नहीं है। मैं उनसे 1969 में पहली बार मिला था - रामपुरा में। मैं तब, 1968 में वहाँ से स्नातक बन कर निकल चुका था और जैन साहब आये-आये ही थे। मुझे नहीं पता था कि वे दादा के प्रिय पात्र हैं। यह तो जैन साहब की संस्कारशीलता ही थी कि बिना कुछ बताए और पूछे उन्होंने मुझे अपने में समेट लिया। वह दिन और आज का दिन। जब भी उनसे सम्पर्क होता है, हर बार वे या तो कोई नई जानकारी देते हैं या कोई जिज्ञासा प्रस्तुत कर देते हैं। यह पोस्ट लिखने का कारण भी उनकी जिज्ञासा ही है।

मेरे कस्बे से मन्दसौर मार्ग पर, पचास किलो मीटर पर एक गाँव आता है - ढोढर। ग्रामीण वेश्यावृत्ति के प्रमुख केन्द्र के रूप में इस गाँव की पहचान है। कुछ दिन पहले जैन साहब का फोन आया - “क्यों रे! विष्णु, अपन तो एक ‘ढ’ के जरिए ही किसी का मजाक उड़ाते हैं। यहाँ तो दो-दो ‘ढ’ हैं! तुझे ढोढर के नामकरण का इतिहास पता है क्या?” मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं 1977 से रतलाम में हूँ किन्तु मेरा ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं। मैंने सकुचाते-सहमते हुए इंकार किया। जैन साहब बोले - ‘क्या विष्णु! तुझसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी। खैर! कोई बात नहीं। अब तलाश करके मुझे बताना।’ मैं राहत की साँस ले ही रहा था कि फिर उनका फोन आ गया। बोले - “यार मैंने तुझे बेकार ही डाँट दिया। यहाँ, अपने मनासा के पास एक तीर्थ स्थान है - ढंढेरी। उसमें भी दो-दो ’ढ’ हैं। रामपुरा आते-जाते, हर बार ढंढेरी मेरे रास्ते में आता था किन्तु मेरा ध्यान भी कभी इन दो ‘ढ’ पर नहीं गया। तेरा ध्यान भी ढोढर के दो ‘ढ’ पर नहीं गया तो मुझे अटपटा नहीं लगना चाहिए था। मेरी बात मन से निकाल देना पर ढोढर के नामकरण की तलाश जरूर करना। मैं भी ढंढेरी के नामकरण की तलाश कर तुझे बताऊँगा।” उनका मरहम लगाना मुझे अच्छा तो लगा किन्तु ताज्जुब भी हुआ - ‘ढ’ को लेकर कोई ‘विज्ञ’ इतना जिज्ञासु!

जैन साहब की यही बात बताने के लिए मैं यह सब लिख रहा हूँ। इस समय वे उम्र के 79वें वर्ष में चल रहे हैं। कैंसर की मेजबानी करते हुए पेट की शल्यक्रिया करवा चुके हैं। किन्तु चुपचाप नहीं बैठते। भाषण देना उनका ‘व्यसन’ है। वे बोलते हैं, खूब बोलते हैं और खूब अच्छा बोलते हैं। नीमच में और आसपास के गाँवों-कस्बों में उनके व्याख्यान आए दिनों होते रहते हैं। जहाँ एक बार गए तो मानो वहाँ से बार-बार निमन्त्रण मिलने की सुनिश्चित व्यवस्था कर आते हैं। और केवल बोलना ही क्यों? लिखना भी उनका समानान्तर व्यसन है। नीमच, मन्दसौर जिलों के स्थानीय अखबारों के लिए तो वे मानो सुनिश्चित लेखक हैं। किन्तु उन्हें सन्तोष मिलता है - सम्पादक के नाम पत्र लेखन में। किसी जमाने में ‘हिन्दी का मदरसा’ कहे जानेवाले और अपने ‘पत्र, सम्पादक के नाम’ स्तम्भ के जरिए ‘अलेखकों को लेखक बनानेवाले’ अखबार ‘नईदुनिया’ में, 1978 में उनका पहला पत्र छपा था। शोभा यात्राओं में सर पर गैस बत्ती ढोनेवाले बच्चों पर केन्द्रित इस पत्र का शीर्षक था - ‘अन्धेरे के माथे उजाले का बोझ।’ तब से लेकर अब तक कोई एक हजार पत्र तो ‘नईदुनिया’ में ही छप चुके हैं और अब तक बराबर छप रहे हैं। दूसरे अखबारों की गिनती अलग।

उनकी कुछ बातें मुझे लुभाती भी हैं और प्रेरित भी करती हैं। जैसे, किसी की खुशामद नहीं करना। 36 बरसों की नौकरी में लोगों के नमस्कार के प्रत्युत्त्र में हाथ जोड़ते-जोड़ते जैन साहब के हाथ दुख आए। किन्तु रामपुरा में नौकरी के दौरान जब क्षेत्रीय विधायक अहम् के टापू पर बैठ गया तो जैन साहब ने हाथ जोड़ने से दृढ़तापूर्वक इंकार कर दिया। विधायक ने अपनी हैसियत दिखाते हुए उनका तबादला, ढाई-तीन सौ किलोमीटर दूर, सेंधवा करा दिया। जैन साहब प्रसन्नतापूर्वक सेंधवा गए। वहीं से सेवा निवृत्त हुए और लौटे तो सेंधवा बस अड्डे पर वही खण्डवा रेल्वे स्टेशनवाला नजारा था।

आलोचकों, असहमतों का सम्मान करने की उनकी प्रवृत्ति भी मुझे लुभाती है। वे सहजता से कहते हैं - ‘पहली पंक्ति में रहोगे तो आलोचना, असहमति तो अनिवार्यतः झेलनी ही पड़गी। ये तो परस्पर प्राकृतिक और अनिवार्य पूरक हैं - सिक्के के दो पहलुओं की तरह। आपकी आलोचना करने का, अपनी भड़ास निकालने का यह अधिकार तो आपको उन्हें देना ही पड़ेगा।’


उनकी एक और बात जो हम सबके लिए ‘अनुकरणीय आदर्श’ होनी चाहिए - वे हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। उन्हें अनगिनत पत्र अंग्रेजी में लिखने पड़े किन्तु ऐसे प्रत्येक पत्र पर हस्ताक्षर हिन्दी में ही किए।


किन्तु, उम्र के इस मुकाम पर भी उनका जिज्ञासु और निरन्तर सक्रिय बने रहना मुझे सर्वाधिक लुभाता है।


काश! मैं जैन साहब का विद्यार्थी हुआ होता!

6 comments:

  1. सचमुच पारस हैं ऐसे गुरू! आभार!

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  2. जैन सर की बिटिया प्रीति मेरी सहपाठी थी. रामपुरा में कक्षा ५ तक हम साथ पढ़े है. पर मुझे ऐसा याद है कि वो मंदसौर भी रहे है.

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  3. जैन साहब को नमन. ढोढर पर क्या कुछ जानकारी मिली.

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  4. संस्‍कार तो आपको मिले ही.

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  5. बड़े दुर्लभ हैं ऐसे व्यक्तित्व, मेरा प्रणाम।

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