कुछ न कह कर सब कुछ कह जाना

कुछ  कहूँ, उससे पहले यह वीडियो अंश देखिए। यदि पहले देख चुके हैं तो एक बार फिर देखिए, ध्यान से।
 
 
 
यह वीडियो अंश मैंने फेस बुक पर, एक ‘फेस बुक मित्र’ से साझा किया था और इसका शीर्षक दिया था - “यह कला भी है और करिश्मा भी। अद्भुत है यह।”
 
इस पर, जैसा कि फेस बुक का चलन है, कुछ लोगों ने इसे ‘लाइक’ किया तो कुछ लोगों ने टिप्पणी करने की रस्म अदायगी की।
 
किन्तु एक टिप्पणी सबसे अलग हटकर थी। यह टिप्पणी थी श्री मंसूर अलीजी हाश्मी की। ब्लॉग की दुनिया मे हाश्मीजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। गिनती के शब्दों में, बारीकी से अपनी बात कहने की जो महारत हाश्मीजी के पास है, वह मुझे आज के हिन्दी और उर्दू जगत में (मुझे उर्दू की समझ शून्यवत है किन्तु जितनी भी है, उसी के आधार पर कहने दें कि) कोसों दूर तक नजर नहीं आई। उनकी प्रत्येक प्रस्तुति मुझे ‘बिहारी’ के ‘सतसैया के दोहरे’ याद दिला देती है। मेरा बस चले तो मैं उन्हें हिन्दी साहित्य के, श्रृंगार रस के कवियों के वर्ग में शामिल करा दूँ।
 
इस पोस्ट का आनन्द लेने के लिए अब आप, वीडियों अंश, हम दोनों की उम्र और मेरा कुलनाम ‘बैरागी’ अवश्य ध्यान में रखिएगा। मैं इस समय अपन अवस्था के  66वें वर्ष में चल रहा हूँ। उम्र के लिहाज से हाश्मीजी मुझसे कम से कम एक वर्ष छोटे हैं।
 
इन्हीं हाश्मीजी ने, उपरोक्त वीडियो अंश पर यह टिप्पणी की - 
 
“बैरागी”! देखो कैसा करिश्मा दिखा गए!!
खोटी “चवन्नियों” को भी कैसे चला गए!!
नाज़ुक कटि से काम ये कैसा करा गए!
वाह! भई कला के नाम पे “क्या-क्या” दिखा गए!!
 
हाश्मीजी की नजर के मुकाम का अनुमान लगा लेता तो भला उनमें और मुझमें फर्क ही क्या रह जाता? सो, अपनी ‘समझ और दूर-दृष्टि की निरक्षरता‘ कबूल करते हुए मैंने प्रति-टिप्पणी कर पूछा -
 
“मैं तो वही देख पाया जो इस वीडियो क्लिप में नजर आया। आपकी बात पढ़कर जानने को जी मचल रहा है कि आपकी पारखी नजरों ने ‘क्या-क्या’ देख लिया। कहते हैं, आनन्ददायक बातें बाँटने से आनन्द में गुणात्मक वृध्दि होती है। उम्मीद है, आनन्द बाँटने में आप न तो कंजूसी करेंगे और न ही देर। सारी दुनिया आपका इन्तजार, बेकरारी से कर रही है।”
 
अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त,  कैमरा कलाकार श्री नवल जायसवाल (भोपाल) ने, बरसों पहले, अपनी पारदर्शियाँ (ट्रांसपरेसियाँ) (फोटोग्राफी का वह ‘ट्रांसपरेसी युग’ था) दिखाते हुए कहा था - ‘कलाकार की सफलता वह होती है कि अनावृत्त देह प्रस्तुत नहीं करे किन्तु दर्शक खुद-ब-खुद, अनावृदेह देख ले।’ हाश्मीजी की टिप्पणी ने मुझे बरबस ही नवल भाई की वह टिप्पणी याद दिला दी। 
 
कुछ भी नहीं कहे बगैर सब कुछ कह जाना, भाषा का वह कौशल और विशेषज्ञता होती है जो या तो ईश्वर प्रदत्त होती है या फिर बरसों की कठोर-अनवरत-साधना का हासिल। हाश्मीजी की जवाबी टिप्पणी आपको निश्चय ही इसी की उत्कृष्ट मिसाल लगेगी  -
 
“खाई” जो इक तरफ थी तो “पर्वत” थे दूजी ओर,
अब क्या कहें जो आप ही करना न चाहें गौर ?
 
इस टिप्पणी का आनन्द तो अपनी जगह है ही, बात कहने का सलीका क्या होता है - यह आनन्द भी हाश्मीजी प्रदान करते हैं।

लेकिन मैं भी भाषा का आनन्‍द लेने  के अवसर का लाभ उठाने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ। 'मन्‍सूर' का अर्थ हाश्‍मीजी ने बताया - जिसे जीत (विजय) सौंप दी गई हो। अब आप ही मुझ पर दया कीजिए कि मैं 'बैरागी' तो 'चवन्नियॉं' ही गिनता रह गया और 'मन्‍सूर' ने 'न जाने क्‍या-क्‍या' अपनी जीत में शामिल कर लिया।
 
भाषा की शालीनता बनाए रखते हुए अपनी बात खुल कर कह देने की, हाश्मीजी की इस महारत पर मैं तो बलिहारी।
 
सौ-सौ सलाम आपको हाश्मीजी।

(इस पोस्‍ट में प्रयुक्‍त वीडियो अंश किसी व्‍यापारिक/व्‍यावसायिक/आर्थिक लाभ के लिए प्रयुक्‍त नहीं किया गया है। यदि आपत्ति हो तो सूचित करें, इसे तत्‍क्षण ही हटा लिया जाएगा।)



8 comments:

  1. तारीफे काबिल है हाशमीजी की नज़र
    वर्ष की सांध्यबेला पर सुंदर प्रस्तुति
    नववर्ष की हार्दिक बधाई।।।

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  2. नव वर्षकी ढेर सारी मंगलकामनायें।

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  3. बूढ़ा भी होके बन्दर भूले न अपनी दौड़,
    होती है जब 'नुमाईशे' आताहै उसको ज़ोर,
    'बैरागी' को जो 'राग' में देखा तो फिर 'मियाँ',
    फ़ौरन ही साथ हो लिए 'चिल्ले' को अपने तोड़.
    http://aatm-manthan.com

    नव वर्ष की हार्दिक बधाई, शुक्र है दिनेश राय जी ने सस्ते में छोड़ दिया !

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  4. पहले कला को देखों
    फिर कलाकार को ।
    बोनस मे भी कुछ मिलता है,
    नयनसुख ही मत बने रहो ।

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  5. नववर्ष की शुभकामनायें।

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  6. कला के नाम पर कलाकारी चल रही है।

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  7. आपकी यह पोस्ट नव वर्ष की सौग़ात लगी। कमाल लिखते है आप भी। धन्यवाद

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