रावण के दरबार मे अंगद चारों कोने चित

नाम तो उनका कन्हैयालाल शर्मा था लेकिन ‘लोक’ का परचून-दुकानदार, मानो शकर या चाय-पत्ती की तरह इस नाम को भी पुड़िया में बाँधकर, खपरेल में छुपाकर भूल गया और वे पूरे गाँव के “काना मा’राज” बन गए। 

काना मा’राज मस्तमौला आदमी थे। अखाड़े के पहलवान। अपनी गृहस्थी, अपनी दुकान और अखाड़ा - यही उनकी दुनिया थी। अपने रास्ते जाना, अपने रास्ते आना। सन्तोषी जीव। गणेशपुरा गली में उनकी, सिलाई की छोटी सी दुकान थी। उनके मिजाज से मेल खानेवाले अहानिकारक लोगों का अड्डा था उनकी दुकान। ये सब अड्डेबाज दुकान की रग-रग से और ग्राहकों से इतने वाकिफ रहते थे कि काना मारा’ज की गैरहाजिरी में आए किसी भी ग्राहक को कभी निराश नहीं लौटना पड़ता था। इनका व्यवहार और दुकान पर इनकी मौजूदगी कभी-कभी जिज्ञासा पैदा कर देती थी कि दुकान पर परमानेण्ट कौन है - काना मारा’ज या ये अड्डेबाज?

दुकान का काम काज बहुत ही शान्तिपूर्वक चलता रहता था। कभी हल्ला-गुल्ला नहीं सुना गया। मित्र मण्डल अपनी बातों में मशगूल रहता और काना मा’राज चुपचाप कैंची चलाते रहते या सिलाई मशीन। वे किसी बात में शरीक नहीं होते। उनकी शिरकत के लिए मित्र मण्डली को तनिक अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती। दो-तीन बार जोर से बोलकर या पटिया ठोक कर काना मारा’ज का ध्यानाकर्षित करना पड़ता। ऐसी स्थिति में काना मारा’ज चौंक कर पहले अपनी आँखें उठाते, फिर हाथ का काम रोक कर गरदन उठाते। बोलते कुछ नहीं। भौंहें और गरदन उचका कर पूछते - ‘क्या बात है? फिर से बोलो।’ दरअसल काना मारा’ज की ‘कानाखेड़ी उजाड़’ थी। याने, वे कम सुनते थे। उनसे बात करने के लिए जोर से बोलना पड़ता था। इतने जोर से कि आसपास के दो-दो घरों तक सुनाई पड़ जाए।

इन्हीं काना मारा’ज को एक मनचले अड्डेबाज ने गले-गले तक विश्वास दिला दिया कि वे बहुत अच्छे अभिनेता हैं और उन्होंने रामलीला में अपनी प्रतिभा दिखानी चाहिए। उसने हैरत से कहा (और जाहिर है कि जब काना मारा’ज को कहा तो आधे मोहल्ले को जबरन सुनना पड़ा) कि रामलीला के डायरेक्टर को तो खुद काना मारा’ज के पास आकर प्रार्थना करनी चाहिए थी। वह अब तक नहीं आया इसका मतलब है कि उसने जानबूझकर काना मारा’ज की प्रतिभा की बेइज्जती की है। काना मारा’ज ने मशीन के पायदान से पैर उठाए, हाथ से मशीन का पहिया रोका और हैरत और अविश्वास से अपनी प्रतिभा का बखान सुना। एक पल उसे घूरा और पहलवानी सुरों में पूछा - ‘हें! सच्ची?’ काना मारा’ज ने अड्डेबाज को अंगुली थमा दी थी। उसने पहुँची पकड़ ली और काना मा’राज ने पल भर में खुद को जन्मजात प्रतिभावान कलाकार मान लिया।

शाम को दुकान मंगल कर काना मा’राज सीधे अखाड़े में जाया करते थे और सौ-पचास मुद्गर घुमा कर और कुश्ती के दो-चार जोर कर घर पहुँचते थे। लेकिन उस दिन काना मा’राज सीधे घर पहुँचे। हाथ-पाँव धोकर, भोजन-प्रसादी पाकर सीधे रामलीला के अड्डे पर पहुँचे। सबने गर्मजोशी से काना मा’राज का स्वागत तो किया लेकिन पूछ-परख नहीं की। रस्म अदायगी के लिए ‘और कैसे काना मा’राज? आज किधर रास्ता भूल गए?’ भी नहीं पूछा। सब अपनी-अपनी तैयारी में लगे हुए थे। काना मारा’ज को अड्डेबाज की बात याद आ गई - ‘सबने जानबूझकर प्रतिभा की उपेक्षा की है।’ उन्होंने एक पल भी जाया नहीं किया। सीधे निर्देशक से बोले - ‘मुझे पार्ट दो।’ पार्ट याने भूमिका। निर्देशक ने नोटिस नहीं लिया। बिना देखे ही ‘कोई पार्ट-वार्ट नहीं है।’ कहा और अपने काम पर लग गया। उसने ध्यान ही नहीं दिया कि काना मारा’ज को सुनाने के लिए जोर लगाना पड़ता है। काना मा’राज का पहलवान जाग गया। एक तो बहरा आदमी वैसे ही कुछ ज्यादा जोर से बोलता है। उस पर, यहाँ तो अनदेखी-अनसुनी कर दी गई थी! ठेठ पहलवानी अन्दाज में काना मा’राज ने हाँक लगाई - ‘सुना नहीं? मैंने कहा, मुझे पार्ट दो।’ इस बार निर्देशक ने ही नहीं, मौजूद सबने सुना और सहम कर सुना। काना मा’राज की शकल देखकर निर्देशक का निर्देशकपना उड़न-छू हो गया। स्थिति समझने में सबको कुछ पल लगे और जब समझे तो सब दहशतजदा हो गए। काना मा’राज और एक्टिंग! कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देनेवाली थी। लेकिन जिस युद्ध मुद्रा में काना मा’राज खड़े थे उससे साफ लग रहा था कि वे एक्टिंग करके ही मानेंगे। निर्देशक ने घिघियाते हुए पहले तो समझाने की असफल कोशिश की और जब समझ आ गया कि वह कुछ भी कर ले, काना मा’राज को नहीं समझा सकेगा तो उपाय की तलाश शुरु हुई। 

किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। इस पल का अन्देशा तो किसी को नहीं था। क्या किया जाए? इधर सब को समय चाहिए था और उधर भुजाओं की मछलियाँ उचकाते हुए पहलवान घोड़े पर घर लिए खड़ा था - पार्ट चाहिए और आज रात की रामलीला में ही चाहिए। ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ की स्थिति बनी हुई थी। निर्देशक हाँ करे तो रामलीला अपाहिज हो और ना करे तो पता नहीं कौन-कौन अपाहिज हो जाए! निर्देशक की अकल सैर-सपाटे पर चली गई। आखिकार एक सुझाव आया - ‘आज रावण-अंगद संवाद है। काना मा’राज को रावण का दरबारी बना दिया जाए। संवाद कुछ बोलना नहीं है। रावण जब अंगद का पाँव डिगाने के लिए दरबारियों को कहेगा तब काना मारा’ज भी पाँव डिगाने का अभिनय कर लेंगे।’ बात सबको जँच गई। काना मा’राज को उनका, बिना संवाद का पार्ट समझाने में निर्देशक का पुनर्जन्म हो गया। काना महाराज सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गए। निर्देशक ने उन्हें मेकअप मेन के जिम्मे कर दिया।

काना मा’राज की वजह से उस दिन रामलीला तय समय से लगभग आधा घण्टा देरी से शुरु हुई। जल्दी ही रावण-अंगद संवाद का दृष्य आ गया। भारी-भरकम शरीर वाले ओंकार सोनी रावण बने हुए थे। उन्हें हम सब ‘ओके बॉस’ कहते थे। अंगद ने रावण के दरबार में चुनौती पेश की - ‘यदि तेरा कोई दरबारी मेरा पैर हिला देगा तो मैं माता जानकी को यहीं हार कर चला जाऊँगा।’ रावणने अपने दरबारियों को हुकुम दिया - ‘मेरे वीरों! जाओ! इस बन्दर का पाँव उखाड़ फेंको।’ रावण का आदेश होते ही नेपथ्य में हरमोनियम-तबला, घब्बड़-धब्बड़ बजने लगे। दरबारी एक के बाद एक आते गए और अंगद का पैर उठाने में असफल होने का अभिनय करते हुए लौट गए। दरबारियों के असफल होने का एक राउण्ड पूरा हुआ तो अंगद ने कहा - ‘हे! रावण! एक बार और कोशिश कर ले!’ रावण ने फिर हुकुम दिया। हारमोनियम-तबला फिर धब्बड़-धब्बड़ बजने लगे। दरबारी एक के बाद एक फिर आने लगे। इस बार, जैसे ही काना मा’राज ने असफल होने का अभिनय किया वैसे ही अंगद ने अट्टहास करते हुए रावण को ललकारा - ‘हा! हा!! हा!!! रावण! तेरे दरबार में एक भी वीर ऐसा नहीं है जो मेरा पैर डिगा दे।’ ललकार इतनी बुलन्द थी कि काना मा’राज नहीं चाहते तो भी सुननी पड़ती। उन्हें सुनाई पड़ी और सुनते ही उनका पहलान जाग गया। उन्होंने गर्दन उठा कर अंगद को देखा और बोले - ‘अच्छा! तू मुझे चेलेंज दे रहा है? काना मा’राज को चेलेंज दे रहा है? ले! येल्ले!’ और उन्होंने अपनी पूरी ताकत से अंगद को धोबी पाट दे मारा। अंगद स्टेज पर चारों कोने चित। मंच पर भगदड़ मच गई। ओके बॉस - ‘अरे! अरे! काना मा’राज! ये क्या कर रहे हो यार! ये तो अंगद है! ये तो अंगद है!’ समूचा श्रोता समुदाय हँस-हँस कर बेहाल। प्राम्पटर हक्का-बक्का निर्देशक का मुँह देखे और निर्देशक! उसकी शकल देखने काबिल। उससे न हँसा जाए और न रोया जाए। और काना मा’राज! वे विजयी मुद्रा में स्टेज के बीचों-बीच खड़े हो, दोनों हाथ जोड़कर श्रोताओं के प्रति आभार जता रहे थे। उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था कि उन्होंने नई रामायण लिख दी है।

इसके बाद अब क्या कहना-सुनना और क्या लिखना। उस दिन की रामलीला इस मुकाम पर समाप्त हो गई। अगले दिन काना मा’राज की दुकान पर भीड़ ही भीड़। जो भी आए, काना मा’राज को समझाए - ‘ऐसा नहीं करना चाहिए था। क्यों गुलाटी खिला दी अंगद को?’ काना मा’राज का एक ही जवाब रहा - ‘देखो उस्ताद! अंगद हो या कोई भी! पेलवान को चेलेंज मिलेगा नी, तो ये ऽ ई ऽ ज होगा। अगले साल अंगद को पेले से ई समझा देना।’
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4 comments:

  1. हाहाहा... सवादे ई आई गवा.

    आइयेगा शून्य पार 

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (02-10-2019) को    "बापू जी का जन्मदिन"    (चर्चा अंक- 3476)     पर भी होगी। --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  3. बहुत-बहुत धन्यवाद। कृपा है आपकी।

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  4. वाह बहुत खूब हास्य बिखेरा कथा माध्यम से ।

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