कभी मैं भी वहीं खड़ा था जहाँ आज आप खड़े हैं

- न्यायमूर्ति एन. वी. रमना

(देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन. वी. रमना द्वारा 9 दिसम्बर 2021 को दिल्ली के ‘नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी’ में दिया 8वाँ दीक्षान्त भाषण।  अनुवादः प्रेरणा)

यह इस या उस साल के लिए नहीं, हर साल के लिए शाश्वत संकल्प है: ‘मैं चाहता हूँ कि आप अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता न करें!’

इस 68वें दीक्षान्त समारोह में मैं आपको एक बेहद चुनौतीपूर्ण, बौद्धिक उत्तेजना से भरपूर और अविश्वसनीय हद तक सन्तोषजनक पेशे का हिस्सा बनने पर बधाई देता हूँ। जस्टिस चागला के शब्दों में कहूँ कि ‘कानून का पेशा आजीविका का बड़ा ही उम्दा द्वार खोलता है। यह विद्वता भरा महान पेशा है पर आप हमेशा याद रखें कि यह एक पेशा है, व्यापार या व्यवसाय नहीं। दोनों के बीच गहरा और मौलिक भेद है। व्यापार में आपका एकमात्र उद्देश्य पैसा बनाना होता है जबकि कानून के पेशे में पैसा महज प्रासंगिक महत्व रखता है।’

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था कि युवा परिवर्तन के वाहक हैं। मुझे भी लगता है कि आधुनिक भारत का इतिहास इस देश के छात्रों और युवाओं की भूमिका को स्वीकार किए बिना अधूरा ही रह जाएगा। हमारे जागरूक और जिम्मेदार छात्रों ने कई सामाजिक परिवर्तनों और क्रान्तियों का सूत्रपात किया है और असमानताओं के खिलाफ आवाज बुलन्द की  है। वे युवक ही थे जो भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन  का चेहरा बने। सच तो यह है कि अक्सर हुआ   ऐसा ही है कि युवा आन्दोलनों द्वारा उठाए गए  सवालों को ही बाद में राजनीतिक दलों ने अपना सवाल बनाकर अपनाया है। 

शिक्षा का एक सामाजिक हेतु होता है जिसे  मैं समाज की जरूरतों को पूरा करने के मानवीय संसाधनों का विकास कहता हूँ। एक शिक्षित नागरिक किसी भी लोकतान्त्रिक समाज की सबसे बड़ी पूँजी होता है। युवाओं की सोच शुद्ध और ईमानदार होती है इसलिए वे सही मुद्दों पर लड़ने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं, अन्याय के विरोध की लड़ाई में हमेशा अगली कतार में होते हैं। 

यह कहने के बाद मैं यह भी कहना चाहूँगा कि पिछले कुछ दशकों में भारतीय छात्र समुदाय से कोई बड़ा नेता उभरा नहीं है। मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि उदारीकरण के बाद से ही सामाजिक सरोकारों में छात्रों की भागीदारी कम-से-कम होती गई है। ऐसा क्यों है? क्या आधुनिक लोकतन्त्र में छात्रों की भागीदारी का खास महत्व नहीं है? मैं ऐसा मानने को तैयार नहीं हूँ। यह बहुत जरूरी है कि आप वर्तमान में हो रहे विमर्श से गहराई से जुड़ें। यह तभी सम्भव है जब आप वर्तमान के सभी प्रवाहों पर एक स्पष्ट नजरिया रखते हों। समझदार, प्रगतिशील और ईमानदार छात्रों का सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करना जरूरी है। आपको सामाजिक नेता के रूप में उभरना चाहिए। आखिरकार, एक जागरूक, राजनीतिक सोच-समझ से युक्त युवा-संवाद ही इस राष्ट्र को गौरवशाली भविष्य की ओर ले जा सकता है। हमारे संविधान की भी यही दिशा है। छात्र समाज के अभिन्न अंग हैं। वे समाज से कट कर नहीं रह सकते। छात्र स्वतन्त्रता, न्याय, समानता, नैतिकता और सामाजिक सन्तुलन के संरक्षक हैं। उनके लिए अपनी यह गहन भूमिका निभाना तभी सम्भव है जब उनकी ऊर्जा को उचित दिशा मिले। पढ़े-लिखे युवा सामाजिक यथार्थ से अलग कैसे रह सकते हैं? जब वे सामाजिक-राजनीतिक रूप से जागरूक होंगे तो शिक्षा, भोजन, वस्त्र, स्वास्थ्य-सेवा, आवास आदि के बुनियादी मुद्दे राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में आने लगेंगे।

मैं चाहता हूँ कि आप इन सच्चाइयों पर विचार करें: हमारी आबादी का लगभग एक चौथाई हिस्सा आज भी बुनियादी शिक्षा से वंचित है। विश्वविद्यालय के छात्रों के आयु-वर्ग के लोगों में से केवल 27 प्रतिशत विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए नामांकन कर पा रहे हैं। डिग्री और खिताबों के साथ आप जब भी इन संस्थानों से निकलें, अपने देश-दुनिया की इन सच्चाइयों को न भूलें। आप आत्मकेन्द्रित नहीं रह सकते हैं। संकीर्णता और पक्षपात को अपनी राष्ट्रीय सोच पर हावी न होने दें। इससे अन्ततः हमारे लोकतन्त्र और हमारे राष्ट्र की प्रगति को ही ठेस पहुँचेगी।

आज का युवा आदर्श और महत्वाकांक्षा से प्रेरित है। महत्वाकांक्षा के बिना आदर्श फलविहीन होता है; आदर्श के बिना महत्वाकांक्षा खतरनाक होती है।  आपके सामने चुनौती यह है कि कैसे इन दोनों को सही अनुपात में मिलाएँ और अपने देश को एक शक्तिशाली और सौहार्दपूर्ण राष्ट्र के रूप में उभारें। मेरी पीढ़ी के सामने चुनौतियाँ कुछ अलग थीं। स्कूल-कॉलेज में औपचारिक शिक्षा पाने की जद्दोजहद के अलावा तब की कठिन परिस्थितियों ने हमें कई मूल्यवान सबक सिखाए। इसलिए जब हमने आजीविका की तलाश में कॉलेज छोड़ा तो यह अचानक हुआ कोई हादसा नहीं था। समाज में प्रयोग करने, काम करने, खेलने और सीखने की आजादी हमारे पास थी। आज मैं जो देख रहा हूँ और जिसे मैं दुर्भाग्य मानता हूँ, वह यह है कि आप लोग पेशेवर पाठ्यक्रमों पर ज्यादा ध्यान देते हैं जबकि मानविकी और प्राकृतिक विज्ञान जैसे विषयों की खतरनाक उपेक्षा हो रही है। अधिक कमाई और लाभदायक रोजगारों की तरफ जाने की चिन्ता में बच्चों को निजी आवासीय स्कूलों और कोचिंग केन्द्रों में निर्वासित-सा कर दिया जाता है। उन्हें जेल सरीखा दुर्भाग्यपूर्ण माहौल मिलता है। घुटन से भरे ऐसे वातावरण में बच्चों का समग्र विकास सम्भव ही नहीं है। दूसरी कठोर वास्तविकता यह है कि पेशेवर विश्वविद्यालयों में प्रवेश के बाद भी उन्हें बन्द कमरों में ही ज्ञान मिलता है। मुझे नहीं मालूम कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है लेकिन कमरे के बाहर की दुनिया से वे अन्त तक अनजान ही रह जाते हैं।

सत्ता और जिम्मेवारी पर मेरी ये सामान्य टिप्पणियां आज अधिक प्रासंगिक हैं क्योंकि अब आप सब स्नातक बन रहे हैं। आप सबकी अब समाज के प्रति विशेष जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों की बात आती है तो मैं कुछ उन बातों की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूँगा जो मुझे थोड़ी परेशान करने वाली लगती हैं। देश में राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों की स्थापना के पीछे कल्पना तो यह थी कि कानूनी  शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो ताकि हम बेहतर  प्रशिक्षित कानूनी पेशेवरों को तैयार कर सकें।  हालाँकि मुझे यह भी मानना होगा कि ऐसी कल्पना थी या नहीं, इसका कोई आधिकारिक  दस्तावेज नहीं है। अब आप देखिए कि विधि विश्वविद्यालयों के अधिकांश छात्र कॉर्पाेरेट लॉ फर्मों में पहुँच जाते हैं। मैं जानता हूँ कि ऐसी विधि कम्पनियां देश के कानूनी परिदृश्य का अभिन्न अंग हैं लेकिन कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी कम्पनियों की तुलना में न्यायालयों में अभ्यास करने वाले वकीलों की संख्या बढ़ती नहीं है। शायद यही वजह है कि राष्ट्रीय कानून विश्वविद्यालयों को खास वर्ग का, ‘एलीट’, देश की सामाजिक वास्तविकताओं से कटा हुआ, संभ्रान्त वर्ग का माना जाता है। मैं आपसे कहूँगा कि आप याद रखें कि प्रारम्भिक अवस्था में एक वकील के रूप में समाज के हर वर्ग से आपका ऐसा सरोकार बनता है जो किसी कॉर्पाेरेट लॉ फर्म में कार्म करने से कभी नहीं बन सकता है।

समाज से सरोकार इसलिए जरूरी है कि तभी, और केवल तभी, आप उन बातों के लिए समयनिकालेंगे और विशेष प्रयास जिनके बारे में आप तीव्रता से महसूस करते हैं। तभी आपसामाजिक मुद्दों की लड़ाई अदालतों में लड़ पाएँगे। अदालत में न्याय व समाधान खोजनेवाले वकीलों की संख्या बढ़े, यह समय की माँग है और इस बारे में सामूहिक चिन्तन जरूरी हो गया है। मैं इस पेशे व सवाल से जुड़ सभी तबकों से आग्रह करता हूँ कि वे इस समस्या पर विचार करें और इसका समाधान खोजें। वकील सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वास्तविकताओं से मुँह नहीं मोड़ सकते। हर वकील संसाधनों से घिरा, दुनिया भर की जानकारियों से लैस एक विशिष्ट व्यक्ति है जिसे अनुकूल परिस्थितियाँ मिली हुई हैं। सुविधा का जीवन चुनना गलत नहीं है लेकिन क्या उस राष्ट्र का कोई भविष्य है जिसके युवा राष्ट्रसेवा का जीवन नहीं चुनते हैं? आपको सोचना होगा।

सामाजिक संवर्धन और परिवर्तन की दिशा में आपकी क्या भूमिका हो सकती है, ऐसे चिन्तन से ही चरित्र मजबूत और दृढ़ होता है। सामाजिक असमानताओं को हम पहचानें और फिर खुद से सवाल करें: ‘क्या मैं इसके समाधान का हिस्सा बन सकता हूँ?’ वैसे तो सभी जगह, लेकिन मैं कहूँगा कि खासतौर पर भारत जैसे देश में आपको सामाजिक आर्टिटेक्ट होने की जरूरत है। कानूनी पेशे को अधिकतम लाभ की नजर से नहीं, सेवा की नजर से देखिए। कोर्ट और कानून के प्रति अपने कर्तव्य को याद रखें। इस पवित्र कार्य को अत्यन्त ईमानदारी और सम्मान के साथ करें।

कानून की शिक्षा की तीन मुख्य भूमिकाएँ है: एक है, कानून के छात्र के रूप में, दूसरी है कानून के पेशेवर के रूप में और तीसरी है वास्तविक जीवन में। मैं नहीं चाहता के कि इस खूबसूरत कैंपस को छोड़ने के बाद, बाहर के हालात देख कर हक चौंक जाएँ। इसलिए बताना चाहता हूँ कि फिल्मों में जैसे कोर्ट दिखाए जाते हैं, कोर्टों में जैसे झगड़े दिखाए जाते हैं, वह असलियत नहीं है। तंग कमरे, टूटी कुर्सियों पर बैठे न्यायाधीश, स्टेनो, क्लर्क आदि तथा असुविधाओं से भरे उनके कार्यालय, नदारद टॉयलेट अदि हमारी व्यवस्था की आम तस्वीर है। इस पेशें में ग्राहक आपकी तलाश करते नहीं आएँगे। सफलता आसानी से आपके दरवाजे पर दस्तक नहीं देगी। आपको धैर्य के साथ आगे बढ़ना होगा। पेशेवर जीवन की आपकी शुरुआत के मौके पर मैं आपको आतंकित नहीं करना चाहता लेकिन सावधान भी न करूँ, यह ठीक नहीं होगा। मैं चाहता हूँ कि आनेवाले दिनों से आप परिचित रहें, उसमें छिपी चुनौतियों के लिए आप तैयार रहें। मुझे विश्वास है कि आप इन शुरुआती कठिनाइयों से पार पा लेंगे। लेकिन मैं यह भी चाहता हूँ कि आप इस परिसर के बाहर की वास्तविकता का सामना करते समय यह भी ध्यान रखें कि आपने यहाँ जो सिद्धान्त सीखे, जिन विचारों का बीजारोपण यहाँ हुआ, उन सबको साथ ले कर ही चलना है और बाहरी वास्तविकताओं का मुकाबला करना है। मौजूदा हालात का कोई अधिक अच्छा व रचनात्मक हल खोजना है आपको। मैं जरूर चाहता हूँ कि आप दुनिया की कठोर वास्तविकताओं से रू-ब-रू हों और लाखों लोगों के दुख के प्रति संवेदनशील बनें। मैं चाहता हूँ कि आप अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता न करें।

इस पेशे में प्रवेश करते ही आप संविधान की शपथ लेंगे। संविधान को बनाए रखने का गम्भीर कर्तव्य आपके कन्धों पर आ जाएगा। आप सभी जानते हैं कि कानून का शासन सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता अनिवार्य है। तो कैसे भी मुश्किल समय में यह नहीं भूलना कि आप कानून के पहरेदार हैं और इस नाते मुश्किल-से-मुश्किल समय में भी इस संस्था की रखवाली आपको करनी है। आपको हमेशा न्याय व न्यायपालिका पर हर सम्भावित हमलों के बारे में सतर्क रहना चाहिए। संविधान के प्रति यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है। इस पेशे में आते ही देश के लोकतान्त्रिक भविष्य से आप जुड़ जाते हैं।  वह आपके हाथों में आ जाता है। आप अपनी जो भी राय लिखेंगे, नीतियाँ गढ़ेंगे, कोर्ट में सिफारिशें  करेंगे और मुकदमा पेश करेंगे, तब जैसी नैतिकता निभाएँगे, उन सबका दूरगामी परिणाम होगा। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ। केनेडी की वह प्रसिद्ध उक्ति आप याद रखें: ‘यह न पूछें कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है। बताएँ कि आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं?

मैं आप सबको बताना चाहता हूँ कि न्याय के इस पेशे और भारत के व्यापक समाज के लिए आपका महत्वपूर्ण योगदान होने जा रहा है। कभी मैं भी वहीं खड़ा था जहाँ आज आप खड़ा हैं। मैं आपमें से प्रत्येक को बधाई देता हूँ और मैं आपके भविष्य के सभी प्रयासों में आपकी सफलता की कामना करता हूँ। भगवान आपका भला करे। आपका जीवन सुखी और सार्थक बने।

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   (‘गांधी-मार्ग’ के, जनवरी-फरवरी 2022 अंक से साभार।)



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