‘मंगते से मिनिस्टर’ की अन्तर्कथा

यह मेरी, 22 अक्टूबर 2019 को, फेस बुक पर प्रकाशित हुई पोस्ट है। आज श्री राजशेखरजी व्यास ने इसे, दो बरस पहले की याद के रूप में साझा किया। उसका नोटिफिकेशन आया तो यह पोस्ट फिर से देखी तो लगा कि दादा की अप्रकाशित आत्म-कथा ‘मंगते से मिनिस्टर’ को लेकर और हमारे परिवार की भिक्षा-वृत्ति को लेकर इसमें कुछ ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियाँ हैं जिन्हें ‘नेट’ पर सुरक्षित किया जाना चाहिए। मेरे ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी कहते हैं कि ब्लॉग के जरिए ‘नेट’ पर दी गई सामग्री ‘ब्रह्म’ की तरह अजर-अमर-अनश्वर हो जाती है। इसी धारणा के आधार पर यह पोस्ट यहाँ दे रहा हूँ ताकि सन्दर्भ की आवश्यकता होने पर आसानी से हासिल की जा सके।

दादा श्री बालकवि बैरागी के चाहनेवाले, प्रशंसक सचमुच में अनगिनत हैं। देश-विदेश में फैले इन आत्मीयों के पास दादा से जुड़े किस्से भी अनगिनत हैं। सबके अपने-अपने संस्मरण हैं जिनके जरिये वे समय-समय पर दादा के प्रति अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं। इन संस्मरणों, यादों के माध्यम से दादा के व्यक्तित्व और कृतित्व के जाने-अनजाने पक्ष सामने आते रहते हैं।

इसी क्रम में दादा की आत्मकथा को लेकर विभिन्न जानकारियाँ सामने आ रही हैं। इनमें से अधिकांश जानकारियाँ या तो आधी-अधूरी हैं या सुनी-सुनाई।

कुछ ऐसी ही स्थिति मुझे श्रीयुत जयप्रकाशजी मानस Jayprakash Manasकी, 17 अक्टूबर 2019 की, ‘अपने दिनों को मैं कभी नहीं भूला’ शीर्षक पोस्ट में और पोस्ट पर आई श्री राजशेखरजी व्यास Rajshekhar Vyasकी टिप्पणी में नजर आई। मानसजी की पोस्ट की लिंक टिप्पणी में दे रहा हूँ।

मानसजी की पोस्ट में दिए ब्यौरों से ध्वनित होता है मानो मेरी माँ (मेरी माँ का नाम पोस्ट में दापू बाई लिखा है जो वास्तव में धापू बाई है) ने दादा को किसी प्रसंग या अवसर पर कटोरा भेंट किया जो दादा के लिए ‘बड़ी चीज’ और उनके जीवन का ‘पहला खिलौना’ था।

बातें तो सच हैं लेकिन ‘कहन’ के अन्तर ने समूचा चित्र बदल दिया।

दादा ने विपन्नता के चरम को जीया। अपनी विपन्नता का उल्लेख वे कुछ इस तरह करते थे - ‘मेरी माँ ने मुझे सबसे पहला जो खिलौना दिया, वह था - भीख माँगने का कटोरा जो हमारे परिवार की आजीविका का साधन था।’ मुझे लगता है, मानसजी के पोस्ट के उद्धरण में और दादा की इस बात में यथेष्ट अर्थान्तर है।

इसी तरह इस उद्धरण में कहा गया है - ‘पिताजी द्वारकादासजी अपंग थे। माँ उन्हें लाठी के सहारे भीख माँगने निकलती थी। पिताजी सारंगी बहुत बढ़िया बजाते थे। वो बजाते, मैं और माँ गाते और घर-घर भीख माँगते।’ इस अंश में वर्णित सारे तथ्य सही हैं किन्तु उनकी प्रस्तुति सर्वथा काल्पनिक है। यह विवरण पढ़ते-पढ़ते आँखों के सामने चित्र बनने लगता है जिसमें एक अपंग आदमी, अपनी पत्नी का सहारा लिए, सारंगी बजा रहा है और उसकी पत्नी और बेटा गा-गा कर संगत करते हुए भीख माँग रहे हैं। ऐसा लगता है, किसी ने, विवरण को प्रभावी बनाने की सदाशयता से तथ्यों को अपनी कल्पना से एक सिलसिला दे दिया।

मेरे पिताजी सारंगी सचमुच में बहुत बढ़िया बजाते थे। मेरी माँ घर-घर जाकर रोटियाँ माँगती थी। कभी-कभी दादा भी उनके साथ जाते थे। लेकिन ये सारी बातें अलग-अलग समय पर, अलग-अलग घटती थीं। मनासा के कुछ कृपालु श्रेष्ठि परिवार अपनी धार्मिकता के अधीन मेरी माँ को रोटियाँ देते थे। ये घर गिनती के थे। माँ इन्हीं घरों पर जाकर रोटी माँगती थी। ये परिवार भी मेरी माँ की प्रतीक्षा करते थे और यथासम्भव गरम-गरम रोटी देने की कोशिश करते थे। पिताजी का सारंगी बजाना और मेरी माँ का भीख माँगना सर्वथा भिन्न-भिन्न सन्दर्भों की, भिन्न-भिन्न बातें हैं। पिताजी ने सारंगी वादन कस्बे के संगीत जलसों में और मन्दिरों में किया। मौज में आकर, घर के बाहर चबूतरे पर बैठकर प्रायः ही सारंगी बजाया करते थे। सड़कों पर कभी भी सारंगी वादन नहीं किया। भीख माँगने के निमित्त तो कभी नहीं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि भीख माँगने के लिए ये तीनों कभी एक साथ निकले हों।

नवीं कक्षा की पढ़ाई के लिए दादा, रामपुरा में भर्ती हुए थे। मनासा-रामपुरा की दूरी, जैसाकि मानसजी की पोस्ट में बताया गया है, 20 मील, याने कि 32 किलो मीटर है। दादा के पास बस किराए के पैसे कभी नहीं रहे। वे प्रति सोमवार सुबह रामपुरा के लिए पैदल निकलते और प्रति शनिवार रामपुरा से मनासा के लिए पैदल लौटते। इस पदयात्रा के दौरान भीख माँगने की बात सही नहीं है।

दादा 1967 में विधायक और 1969 में राज्य मन्त्री बने। उससे काफी पहले, दादा ने माँ का रोटियाँ माँगना छुड़वा दिया था। इसके लिए दादा को घर और बाहर, दोनों स्तर पर संघर्ष करना पड़ा। माँ रोटी माँगना छोड़ना चाहती थी लेकिन पिताजी इसे हमारे परिवार का धर्म मानते थे। दादा को सचमुच में धरना देना पड़ा था। लेकिन जिन घरों से माँ रोटियाँ माँग कर लाती थी, उन श्रेष्ठि परिवारों ने भी दादा पर दबाव बनाया। कहा कि दादा उन्हें धर्मपालन करने और पुण्य लाभ अर्जित करने से वंचित कर रहे हैं। तब दादा ने जो जवाब दिया था, उसका कोई उत्तर उन परिवारों के पास नहीं था। दादा ने कहा था कि यदि वे सचमुच में धर्मपालन कर पुण्य अर्जित करना चाहते हैं तो वे सब हमारे घर आकर रोटियाँ दे जाएँ।

इसके बाद से माँ का रोटी माँगना बन्द हो गया। मुझे खूब अच्छी तरह याद है, उस दिन मेरी माँ बिलख-बिलख कर रोई थी। बड़ी देर तक रोती रही थी। उसके आँसू थम नहीं रहे थे और हिचकियाँ बन्द नहीं हो रही थीं। उस दिन मेरी माँ ने दादा को एक-एक पल में हजारों-हजारों बार असीसा था। बार-बार कह रही थी - ‘नन्दा! तूने मेरा जनम सुधार दिया।’ इस समय जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ तब मेरी आँखे बह रही हैं। टाइप करने में मुझे बहुत ज्याद असुविधा और तकलीफ हो रही है।

मानसजी द्वारा उद्धृत आलेख की यह सूचना भी सही नहीं हैं कि दादा के सांसद बनने के बाद भी मेरी माँ पड़ोसियों के यहाँ अनाज बीनती थी। दादा ने माँ को सारे कामों से मुक्ति दिला दी थी। घर के दैनन्दिन कामों के सिवाय माँ को कोई काम नहीं रह गया था। वस्तुतः विधायक बनने के कुछ बरस पहले से ही दादा ने (कवि सम्मेलनों की आय से) आय-कर चुकाना शुरु कर दिया।

यह बात बिलकुल सच है कि दादा अपने कपड़े नहीं खरीदते थे। मंच हो या निजी चर्चाएँ, दादा इस बात का उल्लेख करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। दादा की इस मनःस्थिति की जानकारी सार्वजनिक हो चुकी थी जिसके चलते उनके चाहनेवाले, दादा के माँगे बिना ही उन्हें खादी खरीद कर देने लगे थे। लेकिन जब भी उन्हें कपड़ों की आवश्यकता होती वे निस्संकोच माँग लेते थे। लोग पूछते थे - ‘आप ऐसा क्यों करते हैं?’ दादा ठहाका लगा कर जवाब देते - ‘इससे मेरा दिमाग दुरुस्त रहता है।’

राजशेखरजी की यह जानकारी सही नहीं है कि दादा ने अपनी आत्म-कथा नहीं लिखी। सच तो यह है कि राजशेखरजी की इस टिप्पणी ने मुझे विस्मित किया। राजशेखरजी का जिक्र दादा के मुँह मैंने अनेक बार सुना है। जिस आत्मीयता और प्रेम भाव से वे राजशेखरजी का जिक्र करते थे उससे मेरी यह धारणा इस क्षण भी बनी हुई है कि राजशेखरजी दादा के ‘प्रियात्मन’ रहे हैं।

दादा ने अपनी आत्म-कथा लिखी थी। उसका शीर्षक ‘मंगते से मिनिस्टर’ भी उन्होंने ही दिया था। मैं उनकी आत्म-कथा लेखन का साक्षी रहा हूँ। दादा ने अपनी यह आत्म-कथा बिना किसी कागजी तैयारी के लिखी थी। वे टाइप रायटर पर कागज चढ़ाते और शुरु हो जाते। वे इस तरह टाइप करते मानो सब कुछ उन्हें मुँह जबानी याद हो। इसके लिए उन्होंने कभी ‘रफ वर्क’ नहीं किया, टिप्पणियाँ याकि नोट्स नहीं लिखे। टाइप करने के बाद उसे जाँचते और आवश्यक होने पर हाथ से सुधार करते। लेकिन ऐसे सुधार भी नाम मात्र के ही होते।

यह आत्म-कथा उन्होंने राइस पेपर पर, चार प्रतियों में टाइप की थी। पंचशील प्रिण्टिंग प्रेस के मालिक बापू दादा जैन ने उसकी नीले रंग की क्लाथ बाइण्डिंग कराई थी। ठीक-पृष्ठ संख्या तो मुझे अब याद नहीं किन्तु अच्छी-खासी, मोटी पाण्डुलिपि थी। मैं अनुमान करता हूँ कि ढाई सौ पृष्ठ तो रहे ही होंगे।

उनकी प्रबल इच्छा तो थी कि उनकी आत्म-कथा प्रकाशित हो। किन्तु प्रकाशकों के चक्कर काटना उनकी प्रकृति में नहीं था। उनके मित्रों ने ही इसके लिए कोशिशें की। कम से कम तीन प्रकाशकों से उनकी बात हुई। इन तीनों मुलाकातों का मैं प्रत्यक्षदर्शी हूँ। यह संयोग ही था कि तीनों को ‘मंगते से मिनस्टिर’ के वे अंश असुविधाजनक लगे थे जिनमें दादा ने डी. पी. मिश्रा सरकार गिराने के लिए श्रीमती विजयालक्ष्मी सिन्धिया की भूमिका का ब्यौरा बहुत बारीकी से और बहुत विस्तार से दिया था। प्रकाशकों का कहना था कि ये ब्यौरे मानहानि के दायरे में आ सकते हैं और यदि श्रीमती सिन्धिया ने मुकदमा लगा दिया तो उनकी (प्रकाशकों की) मुश्किल हो जाएगी। वे इस ब्यौरे को निकलवाना चाहते थे। लेकिन दादा ने हर बार इंकार कर दिया और कहा कि किताब यदि छपेगी तो इसी मूल स्वरूप में छपेगी। फलस्वरूप किताब छपी ही नहीं। यह शायद ऐसी बिरली किताब होगी जो छपी तो नहीं लेकिन जिसका जिक्र व्यापक स्तर पर इस तरह हुआ मानो छप गई हो और लोगों ने पढ़ ली हो। बहुत बाद में दादा ने इसी शीर्षक से एक लेख जरूर लिखा था लेकिन मानसजी की पोस्ट में उद्धृत आलेख, दादा के उस लेख का हिस्सा नहीं है।

राजशेखरजी की यह बात सौ टका सही है कि दादा ने इसका दूसरा भाग लिखने से पहले ही इसका नामकरण ‘मन्त्री से मनुष्य’ कर दिया था। यह किताब लिखी ही नहीं गई।

प्रेमी लोग दादा को जिस श्रद्धा और आदर-भाव से याद करते हैं वह देख-देख कर मैं हर बार विगलित होता हूँ और इन सबको प्रणाम करने के लिए मेरे हाथ अपने-आप जुड़ जाते हैं, माथा झुक जाता है। यह सब देख-देख कर मुझे प्रायः ही लगता है हम लोग तो केवल कहने भर को दादा के परिजन हैं। वास्तविक परिजन तो वे ही हैं जो निस्वार्थ भाव से, आदर-श्रद्धा से दादा को अपने अन्तर्मन से याद करते हैं। हमसे पहले वे सब ही दादा के परिजन हैं और उन्हीं का दादा पर पहला हक है। हम परिजनों से पहले।
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Neerja Bairagi, Lalit Bhati और 165 अन्य लोग
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1 comment:

  1. मानसजी की पोस्‍ट की लिंक
    https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10219621182137636&id=1158574876

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