बापू, बारास्ता विजय माल्या

बापू के निजी उपयोग की तीन दुर्लभ वस्तुएँ अन्ततः भारत आ रही हैं।

आज सवेरे कोई पौने 6 बजे यह समाचार बुद्धू बक्से पर देखा था। उसके बाद से दिन भर प्रतीक्षा करता रहा कि इस पर राजनीति होती है या नहीं। नहीं हुई। अच्छा तो लगा ही किन्तु आश्चर्य भी हुआ। बस, केन्द्रीय मन्त्री अम्बिका सोनी को यह कहते देखा/सुना कि इन वस्तुओं को भारत लाने के लिए भारत सरकार ने विजय माल्या को सहयोग किया है।

वैसे, ये तीनों वस्तुएँ भारत नहीं भी लाई जातीं तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसके विपरीत, बापू की ऐसी वस्तुएँ तो दुनिया के सारे देशों में होनी चाहिए। बापू को केवल भारत तक सीमित रखे रहना हमारा मूर्खतापूर्ण दुराग्रह ही है। बापू तो एक ‘वैश्विक विचार’ है।

किन्तु हम ‘प्रतीकीकरण’ में भरोसा करने वाले समाज हैं। हम ‘होने‘ में नहीं, ‘दीखने‘ में भरोसा करते हैं। जीवित बापू की अपेक्षा मृत बापू हमें अधिक सुविधाजनक तथा अधिक लाभकारी होत हैं। जिस प्रकार हम ‘गीता की’ मानने की अपेक्षा ‘गीता को’ मान कर अहमन्य और आत्मसन्तुष्ट होते हैं उसी प्रकार ‘गाँधी की’ मानने की अपेक्षा ‘गाँधी को’ मानना हमें सारी दनिया के सामने धन्य मानने की गौरवानुभूति देता है।

यदि हम बापू की मानते तो प्रथमतः तो इन वस्तुओं के प्रति इतने आग्रही और सम्वेदी नहीं होते। किन्तु एक क्षण को मान लिया जाए कि ऐसे ‘वैश्विक विचार’ के मानवाकार को अपनी अगली पीढ़ियों को परिचित कराते रहने के लिए ये स्मृतियाँ इसी प्रकार सहेजी जानी चाहिएँ तो भी बापू की भावना की चिन्ता की जानी चाहिए थी।

बापू ने साध्य की शुध्दता का ही आग्रह नहीं किया। उन्होंने तो साधनों की शुध्दता का भी आग्रह किया। अशुध्द साधनोें से शुध्द साध्य की प्राप्ति के वे न केवल विरोधी थे अपितु विचार में भी इस बात के हामी नहीं थे। मुझे लग रहा है कि बापू के निजी उपयोगवाली इन स्मृति-वस्तुओं को भारत लाने के लिए अशुध्द साधन प्रयुक्त किया गया है।

विजय माल्या ख्यात उद्योगपति और व्यापारी हैं। बापू और बापू के विचारों के प्रति उनका आग्रह अथवा श्रध्दा का सार्वजनिक प्रकटीकरण आज तक हम लोगों ने नहीं देखा है। वे शराब के उत्पादक और व्यापारी हैं। मद्य निषेध बापू का प्रमुख विचार और आग्रह तथा सम्पूर्ण भारत में मद्य निषेध बापू का सपना था, यह हम सब जानते हैं। ऐसे में इस ‘शुद्ध साध्य’ के लिए विजय माल्या और चाहे जो हों, ‘शुद्ध साधन‘ तो बिलकुल ही नहीं है।

एक व्यापारी के प्रत्येक उपक्रम का अन्तिम साध्य केवल ‘लाभ’ होता है। भारत सरकार ने विजय माल्या का कितना और क्या सहयोग किया, यह तो अभी रहस्य बना हुआ है किन्तु साढ़े नौ करोड़ चुका कर विजय माल्या ने अरबों-खरबों का प्रचार तो हासिल कर ही लिया है। ‘लाभ लक्ष्यित’ एक व्यापारी को और चाहिए ही क्या?

विजय माल्या और किंगफिशर पर्याय हैं। किंगफिशर उनकी दारु का ब्राण्ड भी है और उनकी हवाई सेवा का भी। बुद्धू बक्से पर दारु के विज्ञापन वर्जित हैं। सो किंगफिशर नाम के सोड़े का विज्ञापन दिया जाता है। किन्तु छोटे पर्दे पर जैसे ही किंगफिशर नाम आता है सबको दारु की बोतल ही याद आती है।

तो क्या अब आने वाले दिनों में विजय माल्या उत्पादित दारु की बोतल के साथ बापू का, अर्द्ध निर्लिप्त नेत्रों और मोहक मुस्कान वाला चित्र देखने के लिए भी हमें तैयार हो जाना चाहिए?

विजय माल्या के माध्यम से बापू की स्मृति-वस्तुओं को भारत लाना त्रासदी है या विडम्बना?

या त्रासद विडम्बना?

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9 comments:

  1. सब साले ढोंगी है, काम किसी का भी इंसानॊ जेसा नही दिखाव देवतओ जेसा..... लेकिन अब जनता सब जानती है.
    आप ने बहुत ही सटीक लिखा.
    धन्यवाद

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  2. दूसरों की खुशी में ताली पीटने वालों के इस देश में हर मौके पर बधावे गाने की कुछ ऎसी प्रथा सी चल पड़ी है कि हर एक बिना सोचे - समझे जयगान में मशगूल हो गया है । गाँधी दर्शन को तिलाँजलि दे चुके देश में इन फ़ूटॆ ठीकरों का क्या काम ...? गाँधी के जीवन दर्शन पर चलकर समाज को बहुत कुछ दे सकने वाले हाशिये पर फ़ेंक दिये गये हैं और गाँधीगीरी का स्वाँग करने वाले संसद के गलियारों में घुसपैठ की जुगत भिड़ाने में लगे हैं । इस देश को ज़िन्दा गाँधी की नहीं उनके प्रतीकों को सहेज कर मन ही मन अपने को धन्य मानने की आदत सी हो गई है । वैसे भी हमें महान आत्माओं का अनुसरण करने की बजाय उनके पुतलों को एक खास दिन झाड़ - पोंछ कर फ़ूलमाला पहनाना ज़्यादा रास आता है । हम भगवान को अपने आचरण अपने अंतःकरण में बिठाने की बनिस्पत चौराहों ,चबूतरों ,मढियाओं ,मंदिरों में सजाकर सारे पाखंड करना पसंद करते हैं । इतने ढोंगों में ये एक धतूरा और सही ...।बापू हम शर्मिंदा हैं अपने नाकारापन पर ,अपने कुकर्म पर । जो गाँधी जीवन भर शराबबंदी का नारा देते रहे ,संघर्ष कर शराबबंदी लागू कराई आज उन्हीं की धरोहर को बचाने के लिए शराब किंग ’ किंग फ़िशर’ के मालिक विजय माल्या का शराब से कमाया पैसा ही काम आया । वाह री सरकार , वाह रे हमारी गाँधी दर्शन की समझ । जय हो ,जय हो ...।

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  3. आपने बिलकुल सच लिखा ,
    पर सच हमेशा कड़वा होता है बहुतों का मुंह बिगड़ गया होगा .पर जैसा कि बापू ने कहा हमेशा सच कहो ,आपने कहा -बधाई.

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  4. बहुत सही लिखा ,सब नाटक है , नाटक के सिवा कुछ भी नहीं ।

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  5. वस्तुओं का महत्व समझने वाले व्यक्ति बापू की वस्तुओं को खरीद सकते हैं। उन का अनुसरण कर नहीं सकते।

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  6. खैर, उनसे जुड़ी वस्तुओं की खरीद फरोक्त तो एक नाटक ही है..सब अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं.

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  7. किसी के प्रति सच्‍ची श्रद्धांजलि उनके विचारों और भावनाओं का कद्र करने से होती हैं ... बापू की इन वस्‍तुओं का वापस लाया जाना तब अच्‍छा माना जा सकता था ... जब उन्‍होने अपने जीवन में इन सब वस्‍तुओं को महत्‍व दिया होता ... उन्‍होने तो खुद कई बार अपनी वस्‍तुओं को बेचकर उन पैसों से जनता के लिए कल्‍याणकारी कार्य किए थे ।

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  8. भारत में ये स्मृति चिन्ह आये मैं इससे बहुत खुश हूँ । गांधी जी के विचार के सामने ये वस्तुइं कुछ भी नहीं मैं सहमत हूँ आपसे । शुद्ध अशुद्ध, प्रेम भाई चारा , ईष्या द्वेष इत्यादि विचार गांधी जी ने दिये इन विषयों पर । गांधी जी शराब के विरोधी थे सही है साथ गांधी जी ने ये भी कहा कि आदमी से द्वेष न रखों उसके कर्मों से रखो ।

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  9. जो बापू के विचारों ( मद्य-निषेध ) का विरोधी हो , वह चाहे जो हो , गांधीवादी नहीं हो सकता .यदि
    किसी भी वर्ष की देश भर के शराब ठेकेदारों की सूची प्रकाशित हो तो बापू के मद्यनिषेध और साधन-
    शुचिता के ढिंढोरचियों / नक़ाबपोशों के चेहरों से गांधीवादी होने का नकाब उतर जाएगा .
    " सच कहता हूँ बापू ! गर तुम आज जिंदा होते ,
    परायों की नहीं , अपनों की निंदा ढोते ,
    भूल जाओ राजघाट पर रामधुन,सांप्रदायिकता झलकती है इसमें ,
    देखकर अपनों की करतूतें , खुद पर शर्मिंदा होते ! "

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