मैं और मेरी घबराहट


बारहवीं कक्षा में पढ़ रहे एक बच्चे ने कल मुझे व्याकुल कर दिया। परिचित परिवार की बच्ची कोई पाँच दिन पहले डेंगू का शिकार हो गई। मैं कुशल क्षेम पूछने गया। बच्ची का बड़ा भाई हमारी सेवा में उपस्थित था। वह मेरे कस्बे के सबसे मँहगे प्रथम पाँच स्कूलों में से एक का विद्यार्थी है। बच्ची लगभग पूर्ण स्वस्थ हो गई थी। इतनी कि मेरे प्रश्न - ‘कैसी तबीयत है?’ के उत्तर में उसने प्रति प्रश्न किया-‘मेरी तबीयत खराब हुई ही कब थी?’ हमारे लिए दीपावली की मिठाई लेकर भी वही आई थी। जाहिर है कि उसकी तबीयत को लेकर पूछताछ की सम्भावनाएँ शून्य हो चुकी थीं। मैं उसके भाई से बातें करने लगा।
हमारी बातें कुछ इस तरह हुईं-
‘कौन सी कक्षा में पढ़ रहे हो?’
‘ट्वेल्थ में।’
‘कौन से स्कूल में?’
उसने अपने स्कूल का नाम बताया।
मैंने कहा-‘यह तो रतलाम के सबसे मँहगे स्कूलों में से एक है!’
‘हाँ। है तो।’
‘स्कूल एक पाली में लगता है या दो पालियों में?’
‘पाली बोले तो?’
‘पाली याने शिट।’
‘सिंगल शिट में।’
‘तुम्हारी कक्षा में कितने बच्चे हैं?’
‘फॉर्टी फाइव।’
‘प्रयोगशालाएँ कैसी हैं?’
‘यू मीन लेब्स?’
‘हाँ।’
‘फण्टास्टिक। वेल इक्यूप्ड।’
‘स्कूल में लायब्रेरी है?’
‘हाँ।’
‘तुम दिन में कितनी देर वहाँ बैठते हो?’
‘एक सेकण्ड भी नहीं।’
‘लायब्रेरी का पीरीयड नहीं है क्या?’
‘नहीं।’
‘तुम अपनी ओर से लायब्रेरी नहीं जाते?’
‘नहीं जाता।’
‘टीचर कुछ कहते नहीं?’
‘टीचर क्या कहेंगे? लायब्रेरी कभी खुलती ही नहीं।’
‘टीचर भी लायब्रेरी नहीं जाते?’
‘नहीं जाते। कैसे जाएँ? मैंने बताया ना, लायब्रेरी खुलती ही नहीं।’
‘तुम और तुम्हारे साथी, अपनी कोर्स की किताबों के अलावा कौन-कौन सी किताबें पढ़ते हो?’
‘कोई नहीं।’
‘तुम भी नहीं पढ़ते?’
‘नहीं।’
‘क्यों?’
‘मुझे शौक नहीं?’
‘अखबार पढ़ते हो?’
‘नहीं।’
‘याने तुम्हें पता नहीं होता कि दुनिया में क्या हो रहा है।’
‘असेम्बली में डेली न्यूज और था थॉट बताया जाता है।’
‘टीवी पर खबरें देखते हो?’
‘नहीं। इट्स बोरिंग एण्ड यूजलेस। वेस्टेज ऑफ टाइम।’
सवाल-दर-सवाल मेरी जबान लड़खड़ाने लगी थी, आवाज धीमी और साँसें भारी होने लगी थी। मेरी हिम्मत जवाब दे गई। और कुछ पूछना या आगे बात कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हुआ।
मुझे याद आने लगा कि हमारे लिए प्रतिदिन लायब्रेरी जाना अनिवार्य होता था। जो इसमें चूक जाता, उसे सजा मिलती। हमारी बातों का सत्यापन करने के लिए ‘सर’ कभी-कभी हमारे बस्ते खँगाल कर लायब्रेरी से इश्यू कराई गई पुस्तक का भौतिक सत्यापन करते थे। हमारे लायब्रेरियन पाँचाल सर कभी स्कूल से बाहर मिल जाते तो लोगों को बताते कि कौन लड़का नियमित रूप से लायब्रेरी आता है और कौन लड़का सबसे ज्यादा पुस्तकें इश्यू कराता है।
बच्चे की बातों ने मेरी यादों में मानो ‘सम्पुट’ लगा दिया।
मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि मुझे किस बात से अधिक घबराहट हो रही है-बच्चे के जवाबों से या अपनी यादों से?
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6 comments:

  1. उसे अभी प्रतियोगिता में उतरना है। वह दुनिया से गाफिल है। जब पता लगेगा बहुत देर हो चुकी होगी। क्यों लोगों में उदात्तता नहीं आती? उस का जवाब मिल गया। घबराने की जरूरत नहीं है। ऐसे महंगे स्कूल बहुत कम हैं हिन्दुस्तान में।

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  2. आज की शिक्षा बच्‍चों को रट्टू तोता बना डालती हैं .. सिर्फ अंग्रेजी बोलना और तकनीकी ज्ञान ले लेना .. जिससे आनेवाले जीवन में उसे किसी कंपनी में काम मिल जाए .. अपने और अपने परिवार के जीवन यापन की कोई चिंता न रहे .. इन्‍हें बाकी दुनिया की फिक्र करने की क्‍या चिंता है !!

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  3. संवाद का अद्भुत प्रस्तुतीकरण । घबड़ाहट का रचनात्मक हल निकालना ही होगा । भविष्य के लिए । आभार ।
    - अफ़लातून

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  4. हम द्विवेदी जी का समर्थन करते हैं. आजकल बात बात पर आप घबराने लगे हैं, इससे हमें घबराहट होने लगी है. भगवान् आपको शक्ति दे.

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  5. aapko ghabarata dekha me bhi ghabhara jata hoon....

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  6. बच्चे के सम्वाद यथार्थ है. सत्य यही है और शायद आज के सत्य से घबराहट होती ही है

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