गार्ड के डिब्बे में


नहीं जानता कि यह अनुभव जीवन में कितना काम आएगा या कितना महत्वपूर्ण होगा या कि अविस्मरणीय संस्मरण बन पाएगा भी कि नहीं। किन्तु लोगों के कहे बिना और लोगों को जताए बिना जन सामान्य के लिए काम करने वाले लोगों के प्रति मेरे मन में जो भावना उपजी वह निस्सन्देह अनूठी है।


मुझे दाहोद-भोपाल यात्री गाड़ी से उज्जैन जाना था। प्लेटफार्म पर पहुँचा तब भीड़ बिलकुल ही नहीं थी। किन्तु रेल के आते-आते दृश्य बदल गया। लगा कि एक रेल भर जाए, इतने यात्री तो रतलाम प्लेटफार्म पर ही खड़े हैं। रेल आई तो खचाखच भरी हुई। बैठने की जगह पाने की बात तो कल्पनातीत हो गई, डिब्बे में घुस पाना भी असम्भव लगने लगा। लगा कि मुझे अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ेगी। अचानक ही एक रेलकर्मी मित्र मिल गए। उन्हें खाचरौद जाना था। मेरी मुख-मुद्रा देख कर ही मेरी समस्या ताड़ गए। हँसकर न्यौता दिया -‘घबराइए मत। आपको जगह मिल जाएगी।’ मेरी आँखों में उभरे प्रश्न को पढ़कर बोले -‘अपन गार्ड के डिब्बे में चलेंगे।’ मैं निश्चिन्त तो हुआ किन्तु संकोच और जिज्ञासा से नहीं उबर पाया। रेलकर्मी मित्र मुझे इस दशा में देखकर, ठठाकर हँस पड़े। बोले-‘सोचना बन्द कीजिए और चलिए।’ हम दोनों गार्ड के डिब्बे के सामने पहुँचे। न उन्होंने कुछ कहा और न ही गार्ड ने कुछ पूछा। मित्र डिब्बे में चढ़ गए और मुझे आवाज लगाई। मैं ने आदेश का पालन किया। खुद को भला, समझदार और जिम्मेदार साबित करने के लिए मैंन गार्ड को अपना परिचय दिया। किन्तु यह क्या? मैं अपनी बात पूरी करता उससे पहले ही मुझे चकित करते हुए गार्ड हँसकर बोला -‘इसकी जरूरत नहीं। मैं आपको जानता हूँ। आपके घर आकर चाय पी चुका हूँ।’ मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया।

रेलकर्मी मित्र ने, डिब्बे के सामने वाले दरवाजे के पास वाली सीट पर मुझे बैठाया और खुद, डिब्बे के चैड़ाई वाले पिछले हिस्से में लगे, सनमायका के पटिये पर टिक गए। यह पटिया सामान रखने के लिए था।


गार्ड ने हम दोनों की ओर देखने की भी आवश्यकता अनुभव नहीं की। वह अपने काम में लगा हुआ था। दो रेलकर्मी प्लेटफार्म पर खड़े थे। एक के हाथ में एक रजिस्टर था और दूसरे के हाथ में कुछ कागज। गार्ड ने रजिस्टर में हस्ताक्षर किए। दूसरे से कागज लेकर उनकी पावती दी। इसी बीच एक और कर्मी आकर ढेर सारे खाकी लिफाफे और चमड़े के बेग (जैसे कि डाक घर में ‘पोस्ट बेग’ होते हैं) रख गया। एक आदमी आकर, बिना बोले, बिना कुछ पूछे- कहे, अखबार का एक बण्डल रख गया। गार्ड ने मेरे मित्र से कहा -‘एक डिब्बे की सील में कुछ गड़बड़ है। देख कर आता हूँ।’ मित्र ने कहा - ‘देख लो। मैं भी इसकी सूचना नागदा वाले को दे देता हूँ।’ गार्ड चला गया। कुछ ही क्षणों में मैंने गार्ड की सीटी की आवाज सुनी। गाड़ी चल दी। उधर, मित्र मोबाइल में व्यस्त हो गए। गाड़ी कोई तीस-पैंतीस मीटर सरक चुकी तब गार्ड चलती गाड़ी में चढ़ा। आते ही उसने अपना रजिस्टर खोला और उसमें कुछ लिखने लगा। नागदावाले से बात करते ही मित्र ने खाकी लिफाफों का बण्डल खोला। लिफाफे छाँट कर अलग-अलग ढेरियों में रखने लगे। मैंने पूछा-‘आप क्या करने लगे?’ बोले-‘रास्ते के स्टेशनों के लिए ऑफिस की डाक है। उसे स्टेशनवार जमा रहा हूँ। काम तो गार्ड सा’ब का है। उन्हें थोड़ी मदद हो जाएगी।’ लिफाफों के बाद उन्होंने चमड़े के बैग जमाए। इस बीच, प्लेटफार्म पार करते-करते गार्ड सा’ब लगातार हरी झण्डी दिखाते रहे। मुझे अजीब लग रहा था। दोनों में से कोई भी मेरा नोटिस नहीं ले रहा था। गार्ड का तो मैंने मान लिया कि वह व्यस्त था। किन्तु मित्र? वे भी व्यस्त हो गए?


मैं फुर्सत में था। डिब्बे को देखने लगा। मुश्किल से पॉंच गुणा आठ फीट लम्‍बा-चौडा। डिब्बे के बीच में गार्ड का, पुराने जमाने का, लोहे का बड़ा बक्सा। (बाद में गार्ड ने बताया कि यह बक्सा गार्ड की पूरी गृहस्थी होती है।) दोनों दरवाजों के पास बैठने के लिए पटिया ठुकी एक-एक सीट। पटिए पर फोम जरूर लगा हुआ किन्तु बैठने के लिहाज से अत्यधिक असुविधाजनक। एक कोने में, कम से कम जगह घेर कर बनाया गया ‘सुविधा गृह’। चैड़ाई का शेष भाग दो हिस्सों में बँटा हुआ। एक भाग, डिब्बे की पूरी ऊँचाई तक आलमारी की शकल में जिस पर ताला लगा हुआ और ताले पर चपड़ी की मोटी सील। मालूम हुआ, इसमें आपात स्थिति वाला साज-ओ-सामान है। दूसरा हिस्सा, डिब्बे की लगभग आधी उँचाई में जिस पर जालीदार दरवाजा लगा हुआ-डॉग बॉक्स। यह यात्रियों के कुत्ते, बकरी जैसे पालतू जानवरों के लिए। अधिकतम दो जानवर रखे जा सकते हैं। छत पर एक पंखा और एक बत्ती। बस।


‘डूँगर दूर ती रण्यावरा नजराँ आवे’ (अर्थात्, पहाड़ दूर से ही सुन्दर दिखाई देते हैं।) वाली मालवी कहावत मेरे सामने सच साबित होती जा रही थी। मैं सोचता था कि सजी-धजी वर्दी वाले गार्ड को खूब आराम मिलता होगा, उसे कुछ नहीं करना पड़ता होगा, प्रत्येक स्टेशन पर उसकी खातिरदारी होती होगी आदि-आदि। किन्तु यहाँ वैसा कुछ भी नहीं था। कब खाचरौद आ गया और कब मेरे मित्र उतर गए, पता ही नहीं चला। इसी तरह गाड़ी नागदा पहुँच गई। मुझे आशा थी कि यहाँ चाय मिलेगी। किन्तु गाड़ी रुकते ही गार्ड अन्तर्ध्‍यान हो गया। मेरा डिब्बा गाड़ी के अन्तिम छोर पर। वहाँ तक कोई चायवाला आया ही नहीं। इस बीच रेल्वे सुरक्षा बल का एक वर्दीधारी जवान हाथ में रजिस्टर लिए डिब्बे में घुसा और गार्ड के बक्से पर लिखा गार्ड का नाम अपने रजिस्टर में लिख कर, जैसे आया था वैसे ही चला गया। उसने भी मेरा नोटिस नहीं लिया।


अचानक ही गार्ड की सीटी की आवाज आई और गाड़ी सरकने लगी। गार्ड, हरी झण्डी हिलाते-हिलाते, चलती गाड़ी में चढ़ा। प्लेटफार्म गुजरने तक इसी क्रिया में लगा रहा और फौरन ही अपने रजिस्टर में झुक गया। मुझे उबासियाँ और थकान आने लगी थी। मैंने बातों का सिलसिला शुरु किया। मुझे आश्चर्य हुआ कि अपना काम करते हुए गार्ड मेरी ओर देखे बिना ही मेरी प्रत्येक बात का उत्तर दे रहा है। उन्हेल स्टेशन पर जो कर्मचारी गार्ड के हस्ताक्षर लेने आया उससे गार्ड ने कहा -‘पलसोड़ावाले को चार चाय के लिए बोल देना।’ गाड़ी चली। गार्ड ने हरी झण्डी हाथ में ले ली। गाड़ी के प्लेटफार्म पार करते-करते, प्लेटफार्म पर मौजूद तीन अलग-अलग लोगों ने गार्ड से पूछा-‘पलसोड़ा में चाय भिजवाऊँ?’ गार्ड ने सबको एक ही उत्तर दिया -‘बोल दिया है।’
पलसोड़ा में चाय आई। कप का आकार देखकर समझ पड़ा कि गार्ड ने दो व्यक्तियों के लिए चार चाय क्यों बोली थी। गार्ड के बक्से पर चाय रखकर चायवाला चला गया। गाड़ी चल दी। ‘ऑल राइट’ (याने प्लेटफार्म पार करने तक हरी झण्डी दिखाना) सम्प्रेषित कर गार्ड ने, डॉग बॉक्स के ऊपर रखे अपने बेग से बिस्किट का पेकेट निकाला। बक्से पर रखे पुराने अखबार पर बिस्किट फैला कर निमन्त्रण दिया -‘लीजिए! चाय पीजिए।’ पहले ही घूँट ने समझा दिया कि गार्ड ने नागदा में चाय क्यों नहीं पी/पिलाई थी और यह कि रेल्वे की चाय कितनी बेकार बनती है। गार्ड ने बताया कि पलसोड़ा में रेल्वे का टी स्टाल नहीं है। स्टेशन के बाहरवाली चाय की दुकान से आई है। मेरी चाय समाप्त होने के चार गुना अधिक समय के बाद गार्ड की चाय समाप्त हो पाई। वह लगातार व्यस्त था।


ढाई घण्टों में 97 किलोमीटर की यात्रा पूरी कर गाड़ी उज्जैन पहुँची। गार्ड को भी उज्जैन ही उतरना था। उज्जैन आउटर पार करते ही गार्ड ने तेजी से लिखा पढ़ी पूरी की, रजिस्टर तथा अन्य सामान फटाफट बक्से में रखा। ताला लगाया। तब तक रेल प्लेटफार्म पर लग चुकी थी। गार्ड ने कहा-‘शाम को इसी गाड़ी से रतलाम लौटूँगा। आप भी इसी से लौटने की कोशिश कीजिएगा। तब बातें करेंगे। मैंने न्यौता स्वीकार किया। यात्रा के लिए धन्यवाद दिया।


गाड़ी से उतरा तो अनुभव हुआ कि पीठ बुरी तरह से अकड़ी हुई है। उतरने के बाद कुछ क्षणों तक शरीर को ऊँचा-नीचा करता रहा। किन्तु ढाई घण्टों की अकड़न कुछ पलों में कैसे दूर होती?


उज्जैन स्टेशन से बाहर निकला तो ढेर सारी जानकारियाँ मुझे समृद्ध कर चुकी थीं। सबसे पहली तो यह कि गार्ड की नौकरी वैसी और उतनी आरामदायक बिलकुल ही नहीं है जैसी कि मैं सोचे बैठा था। उसे तो सर उठाने की भी फुर्सत नहीं मिलती। वह या तो लिखता रहता है या फिर हरी झण्डी हिलाता रहता है। गार्ड को प्रत्येक स्टेशन पर गाड़ी के पहुँचने का समय अपने रजिस्टर में और प्रत्येक स्टेशन के रजिस्टर में लिखना होता है। रास्ते के स्टेशनों की डाक सौंपनी पड़ती है। सामने से आ रही प्रत्येक रेल को और रास्ते के रेल्वे केबिनों को हरी झण्डी बता कर ‘आल राइट’ संकेत देना पड़ता है। गाड़ी यदि सामान्य से अधिक समय तक किसी स्टेशन के आउटर पर खड़ी हो जाती लगे तो ‘वाकी टाकी’ या फिर मोबाइल के जरिए स्टेशन पर बात कर सिग्नल माँगना पड़ता है। जिन स्टेशनों पर गाड़ी प्लेटफार्म पर रूकने के बजाय बीच वाली पटरियों पर रुके, वहाँ, दोनों ओर देख कर यह सुनिश्चित करना होता है कि कोई यात्री (विशेषतः स्त्रियाँ, बच्चे और वृद्ध) रह तो नहीं गया है। रास्ते के स्टेशनों पर पदस्थ रेल कर्मियों के टिफिन पहुँचाने की सौजन्य सेवा करनी पड़ती है। किसी स्टेशन पर किसी का भुगतान करने की जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। रास्ते के एक स्टेशन पर एक बच्चे के पिता ने गार्ड को कुछ रुपये और अपने बच्चे का फोटो थमाया और कहा-‘उज्जैन में यह बच्चा आएगा। उसे रुपये दे देना।’ गार्ड ने इस सहजता से यह काम करना कबूल किया मानो यह उसका रोज का काम हो। ऐसे ही कुछ काम प्रत्येक गार्ड प्रतिदिन करता है।


उज्जैन में मैं अपने मुकाम पर पहुँचा तो बड़ी देर तक वहाँ हो कर भी वहाँ नहीं हो सका। मेरी यात्रा निरापद, सुरक्षित और सुनिश्चत पूरी हो, इसके लिए इस गार्ड जैसे कितने लोग, चुपचाप लगे रहते हैं? न मैं उनसे कुछ कहता हूँ और न ही वे मुझसे कुछ पूछते हैं। वे सब न हों तो मेरी यात्राओं की नियती क्या हो? ये तमाम लोग कितनी असुविधाएँ झेल कर मेरी यात्रा सुविधाजनक बनाते हैं-इस पर मैंने कभी नहीं सोचा। यदि गार्ड के साथ यह यात्रा नहीं की होती तो शायद कभी नहीं सोचता।


मेरे गार्ड दोस्त! शुक्रिया। मुझे अपने साथ यात्रा करने की अनुमति देकर तुमने मुझे, खुद से आगे बढ़कर किसी और के बारे में सोचने की बुद्धि दी। मैं वादा करता हूँ कि मेरा सोचना अब केवल मुझ तक सीमित नहीं होगा और न ही यह सोचना रुकेगा। तुम्हारे कारण मैं अब शायद तनिक कम स्वार्थी हो सकूँ।


फिर से शुक्रिया दोस्त!

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8 comments:

  1. बहुत अच्छा ,रोचक संस्मरण | सच है की लोग दूर से
    देखकर विचार बना लेते हैं जबकि सच्चाई कुछ और
    होती है

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  2. यह संस्‍मरण बहुत ही अच्‍छा लगा, गार्ड मित्र की कर्तव्‍यपरायणता को आपने जिस सच्‍चाई से हम सब से रूबरू कराया, उसके लिये आभार

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  3. बहुत सुन्दर संस्मरण, मगर यह भी सोचने वाली बात है की ऐसे लोग होते कितने है आजकल, या फिर चूँकि वह गार्ड आपको जानता था, अगर न जानता तो क्या उसका वही बर्ताव आपके साथ रहता ? बहुत से प्रश्न है ! हां यह सच कहा आपने की दूर के ढोल सुहावने लगते है !!

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  4. यह संस्मरण बड़ी अच्छी लगी. मन को छु गयी. .

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  5. कभी हमारी नौकरी देखेंगे तो वह और झमेलेवाली लगेगी। दूर से सब साहबी लगता है! :-)

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  6. बहुत रोचक और सार्गर्भित संस्मरण है। धन्यवाद और शुभकामनायें

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  7. हर जिम्मेदारी का काम ऐसा ही होता है।

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  8. अब समझ मे आया की गार्ड को 'गार्ड' क्यों कहा जाता है. मजे की बात ये है की रेलवे एक तरफ तो चलती ट्रेनों मे इन्टरनेट देने के बारे मे सोच रही है लेकिन आज भी गार्ड और टिकिट परीक्षक वो ही पुराने कागज़ भरते रहते है जो आज से सालो पहले भरा करते है. सरकार मे तकनीक को अपनाने की तकनीक कब आएगी इसका उत्तर किसी के पास नहीं है. तब तक गार्ड साहब कागज़ भरते रहिये और हम गार्ड के सहारे चलते रहिये. सुंदर शब्द चित्र बैरागी साहब.

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