ये अनूठे ‘अपनेवाले’



‘आप तो अपनेवाले हैं’ जैसी ‘भावनात्मक भयादोहन’ (इमोशनल ब्लेकमेलिंग) करने वाली दुहाई देकर, अपनेवालों का, मुफ्तखोरी की सीमा छूने वाला, आर्थिक, सामाजिक शोषण करनेवालों को लेकर, 8 अगस्त 2008 की ये, अपने वाले शीर्षक मेरी पोस्ट डॉ.सत्यनारायण पाण्डे ने बरबस ही याद दिला दी। यह अलग बात है कि मैं उन विरले आपवादिक लोगों में से एक हूँ जिन्हें अपनेवालों को स्नेह, सहयोग, संरक्षण ‘अकूत’ मिला है। मैं तो जीवित ही ऐसे अपनेवालों की कृपा से रह पाया हूँ। मेरा, 1991 से लेकर अब तक का जीवन तो पूरी तरह से ‘उधार का जीवन’ ही है। अपनेवालों ने ही मुझे जीवित बनाए रखा हुआ है।

डॉक्‍टर पाण्डे मूलतः मन्दसौर जिले के गरोठ कस्बे के निवासी हैं। मेरे प्रति न केवल प्रेम अपितु आदर-सम्मान भाव भी रखते, बरतते हैं। मैं भी मूलतः मन्दसौर जिले से ही हूँ। किन्तु यह वैसा और उतना बड़ा कारण नहीं कि डॉ. पाण्डे मुझ पर इतनी स्नेह वर्षा करें। यह उनकी संस्कारशीलता ही है। यहाँ दिया गया चित्र उन्हीं डॉ. पाण्डे के परिवार का है।

अपने बेटे विपुल का बीमा कराने के लिए उन्होंने मुझे घर बलाया। विपुल ने अभी-अभी बी ई किया है। अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त एक भारतीय आई.टी. कम्पनी में उसका चयन हुआ है। उसी के ‘आय कर नियोजन’ के लिए डॉ. पाण्डे उसका बीमा करवा रहे थे।

निर्धारित समय पर मैं पहुँचा। पूरा परिवार मेरी अगवानी में उपस्थित था। मेरी योग्यता, पात्रता, अपेक्षा से कहीं अधिक ऊष्मापूर्ण आतिथ्य दिया। आहार को परास्त करता स्वल्पाहार। आकण्ठ तृप्ति ऐसी कि डकार को भी रास्ता नहीं मिला। मैंने कहा-‘मैं इस सबके लिए नहीं, बीमे के लिए आया हूँ।’ डॉ। पाण्डे सस्मित बोले-‘आप मुझे ही बता रहे हैं? आप भूल रहे हैं कि आप अपनी ओर से नहीं आए हैं। मैंने ही आपको बुलाया है।’ यह सब चल ही रहा था कि उनके एक ऐसे मित्र आए जो मुझे, बरसों से जानते थे।

मैंने कागज-पत्तर बिछाए। विभिन्न योजनाएँ बताईं। डॉ। पाण्डे ने मेरी सलाह चाही। मैंने अपनी पसन्द और उसकी विशेषताएँ, कमियाँ बताईं। जल्दी ही अन्तिम निर्णय ले लिया गया। विपुल के हस्ताक्षर करवाए, आवश्यक अभिलेख प्राप्त किए। सबसे महत्वपूर्ण बात थी - पहली किश्त की रकम का भुगतान। डॉ.पाण्डे ने चेक-बुक निकाली ही थी कि उनके साथी ने पूछा -‘दादा! आप कमीशन कितना देंगे?’ प्रश्न असुविधाजनक अवश्य था किन्तु नया और अनपेक्षित नहीं। किन्तु मैं कुछ बोलता उससे पहले ही डॉ. पाण्डे ने कोहनियों तक हाथ जोड़े और कहा -‘आपको इसलिए नहीं बुलाया है। कमीशन देने वाले ढेरों एजेण्ट चक्कर लगा रहे हैं। आपको खास तौर से बुलाया है। वह बात बाद में करेंगे। अभी तो आप चेक लीजिए।’ बात यहीं समाप्त हो गई। चेक लेकर, अपने कागज-पत्तर समेट कर मैं डॉ. पाण्डे की ओर प्रश्न-दृष्टि से देखने लगा। वे बोले-‘बाद में, फोन पर बात करेंगे।’ याने, अब मुझे वहाँ से चल देना चाहिए। वैसे भी बीमा एजेण्टों को ‘समझाइश’ दी जाती है कि नए बीमे का भुगतान मिलते ही जगह छोड़ देनी चाहिए। अधिक देर बैठ कर बातें करने लगे और इसी बीच बीमा कराने वाले का विचार बदल गया तो? ‘आत्म हत्या करने का और बीमा कराने का निर्णय एक जैसा है। टल गया तो टल गया।’ जैसे वाक्य हम बीमा एजेण्टों को प्रत्येक प्रशिक्षण शिविर में कहे जाते हैं। सो, मैं नमस्कार कर चला आया।

मैं आ तो गया किन्तु मन में उलझन बनी हुई थी-वह खास बात क्या होगी जिसे डॉक्‍टर पाण्‍डे ने आमने-सामने नहीं कही? प्रश्न एक और सम्भावित उत्तर असंख्य, किन्तु एक पर भी विश्वास नहीं होता। झुंझलाकर खुद से कहा-‘क्यों पेरशान हो रहे हो? इस सवाल को निकाल फेंको अपने मन से। डॉ.पाण्डे जब कहेंगे तभी तो मालूम हो सकेगा?’ अपने इस ‘विवेकी परामर्श’ पर मुझे प्रसन्न होना चाहिए था। किन्तु नहीं हो सका क्योंकि प्रश्न मन से निकल ही नहीं

धैर्य की अच्छी-खासी परीक्षा हो गई तब आया डॉ. पाण्डे का फोन। उन्होंने जो कुछ कहा वह सब मेरे लिए कल्पनातीत था। उनकी कही ‘खास बात’ के सामने, कमीशन की रकम का बड़े से बड़ा आँकड़ा भी क्षुद्र ही नहीं, हेय और त्याज्य बन जाए। उन्होंने कुछ ऐसा कहा-‘आप मेरे अपने इलाके के हैं और उम्र में मुझसे बड़े हैं केवल यही कारण नहीं है। आपकी जीवन शैली और जीवन दर्शन मुझे भाता है। आप जिस तरह से जोखित लेते हैं और अपने जीवन मूल्यों के लिए कीमत चुकाते हैं, वह सब मुझे न केवल अच्छा लगता है बल्कि यह भी लगता है कि हम सबने भी ऐसा ही करना चाहिए। अब, यदि वह सब नहीं कर पाएँ तो क्या किया जाए? तब यही किया जाए कि जो लोग वाजिब बातों के लिए कीमत चुका रहे हैं, उनके साथ खड़ा हुआ जाए, उनकी मदद की जाए, उन्हें ताकतवर बनाया जाए ताकि वे अच्छे बने रह सकें। मुझे मालूम है कि कमीशन की रकम अच्छी-भली है और मुझे जैसे मध्यमवर्गीय व्यक्ति को ललचाने के लिए पर्याप्त है। किन्तु वह इतनी बड़ी भी नहीं कि आत्मा की बोलती बन्द कर दे। मैं आपको कैसे समर्थन दूँ, कैसे आपके साथ खड़ा रहूँ, कैसे आपको ताकतवर बनाऊँ-यह सवाल मेरे मन में लगातार उठता रहता है। ऐसे में जब विपुल का बीमा कराने का विचार आया तो लगा कि यही वह मौका है जब मैं वह सब कर सकूँ जो मैं आपके लिए सोचता रहा हूँ। इसीलिए आपको खास तौर पर बुलाया। मुझे यह परेशानी नहीं है कि कमीशन की रकम कितनी बड़ी या छोटी है। मुझे इस बात की खुशी है कि मैं आपकी सहायता करने का अवसर पा सका। यह सब आपके सामने कह पाना सम्भव नहीं था इसलिए उस वक्त चुप रहा। अब फोन पर कह रहा हूँ। मेरी भावनाओं को समझने की कोशिश कीजिएगा और कमीशन की रकम वापसी की बात भूल जाइएगा।’

इसके बाद वही हुआ जिसके लिए मैं ‘बदनाम’ हूँ। मेरा गला रुँध चुका था, इतना कि डॉ. पाण्डे को धन्यवाद दे पाना भी सम्भव नहीं हो पाया। खुद डॉ.पाण्डे उधर भावातिरेकी हो गए थे। साफ लग रहा था कि वे जल्दी से जल्दी अपनी बात समाप्त करना चाह रहे हैं। बात जल्दी ही समाप्त हो भी गई किन्तु ऐसा पहली बार हुआ कि फोन के दोनों छोरों पर बात करने वालों ने नमस्कार किए बिना बात बन्द कर दी।

मुझसे कमीशन न लेने के मामले में डॉ. पाण्डे न तो अकेले हैं और न ही पहले। डॉ. सुभेदार दम्पति तो मुझे घर आकर ऐसे झनझना गए कि लगभग ग्यारह वर्ष बाद भी वह जस की तस बनी हुई है। ऐसे कृपालुओं की सूची बनाना मुझे थका देगा। जितना स्नेह, सहयोग, संरक्षण मुझे मिला है उतना क्या किसी बीमा एजेण्ट को मिला होगा और मिलेगा? किन्तु डॉ. पाण्डे ने जो कुछ कहा उसने मुझे विगलित और विचलित कर दिया। इतना कि गंगा जल जैसा पावन और हिमालय को बौना करने वाला यह शुभ्र, धवल, ज्वाजल्य संस्मरण लिखने के लिए सहज होने में मुझे पूरे नौ दिन लग गए।

जब डॉ. पाण्डे यह सब कह रहे थे तो मुझे मेरे अग्रजवत एक कृपालु की याद आती रही जिन्होंने अपने बेटे का बीमा मुझसे केवल इसलिए नहीं करवाया क्योंकि वे मुझे कमीशन माँग नहीं पाते। उन सज्जन की धन-सम्पन्नता के सामने डॉ. पाण्डे तो बैरागी से भी गये बीते हैं। शायद ऐसे ही प्रसंगों पर पैसे की व्यर्थता और क्षमताविहीनता को बोध होता है।

डॉ. पाण्डे को धन्यवाद दे पाना मेरे लिए अभी भी सम्भव नहीं हो पाया है। उन्हें पत्र लिखना चाहा। किन्तु पाँच बार ऐसा हुआ कि लिखना शुरु किया और लिख नहीं पाया। एक बार फोन पर बात अवश्य की किन्तु वह कुछ भी नहीं कह पाया जो कहना चाहता था। ‘बड़ा होना अच्छा है किन्तु बड़प्पन उससे भी अच्छा है’ वाला मुहावरा अब तक पढ़ा और सुना ही था, साकार होते देखने के प्रसंग आपवादिक ही आए। यह उन सबमें प्रमुख हो गया।अभी भी तय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या कहूँ। यही कह पा रहा हूँ कि डॉ.पाण्डे जैसे संरक्षक प्रत्येक व्यक्ति को मिले और ईश्वर, मुझ जैसा बड़भागी प्रत्येक को बनाए।

धन-सम्पत्ति के लिए बेटे द्वारा माँ-बाप की हत्या कराने की सुपारी देने वाले समय में समूचा प्रसंग बिलकुल ही ‘फिट’ नहीं बैठता। सरासर झूठ लगता है। ऐसे में मोबइल नम्बर 94250 91185 पर डॉ.पाण्डे से बात कर तसल्ली की जा सकती है।

(चित्र में बांये से - विपुल पाण्डे, डॉक्टर पाण्‍‍डे, श्रीमती विमला पाण्‍‍डे औ‍र प्रांजलि पाण्‍डे)

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3 comments:

  1. Bairagiji,namaskaar.
    aap kaise hai?
    kya aajkal aapko mere cartoons achchhe nahin lag rahe.aapki bahut lambe arse se tippani nahin aayi.Aapki pratikriya ka intezaar rahega.

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  2. आज की दुनिया में डॉ.पाण्डे जैसे लोग कम ही मिलेंगे। आप को ऐसे लोगों का सानिध्य प्राप्त है। आप भाग्यशाली हैं।

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  3. समाज में आज भी भले व भावुक लोग ही ज़्यादा हैं..पांडे जी अपवाद नहीं हैं. आपको एसे लोगों का सानिध्य मिलता है, यह सौभाग्य की बात है.

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