कल मना मेरा वास्तविक हिन्दी दिवस


ये हैं जयन्तीलालजी जैन। मेरे कस्बे में, बैंक ऑफ बड़ौदा में प्रबन्धक के पद कार्यरत हैं। इनकी खूबी है कि ये अपनी ओर से बात नहीं करते। नमस्कार का जवाब देकर अपने काम मे लग जाते हैं। ये अपनी ओर से तभी बात करते हैं जब इन्हें आपके खाते से बैंक के लिए कोई वसूली करनी होती है। इसलिए मैं जब भी जाता हूँ तो भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे नमस्कार का जवाब देकर ये बस, मुस्कुराते हुए चश्मे के भीतर से मुझे झाँकते रहें।

मेरा खाता इसी बैंक में है, सो मुझे कभी-कभार इनके पास जाना ही पड़ता है। कल गया तो इस बार उल्टा हो गया। मैं नमस्कार करता, उससे पहले ही जैन साहब ने नमस्कार कर लिया। मुझे लगा, आज मेरे खाते से कोई ऐसी रकम निकाली जानेवाली है जो मेरा पूरा बजट गड़बड़ा देगी। अपने ईश्वर और कुल-पुरखों को याद करते हुए मैंने सहमते हुए, मरी-मरी आवाज में नमस्कार का जवाब दिया। मेरी दशा का नोटिस लिए बगैर जैन साहब बोले - ‘आज आपका काम बाद में। पहले मेरा काम।’ मैं फिर घबरा गया। जानता जो हूँ कि इनका ‘काम’ क्या होता है!

लेकिन निश्चय ही ईश्वर मुझ पर कृपालु था। हिन्दी में छपे दो कागज अपनी दराज से निकाल मेरे सामने रखते हुए बोले - ‘पहले जरा इसे देख लें।’ मँहगे, मोटे, सफेद झक् कागज पर यूनीकोड फॉण्ट में साफ-सुथरी छपाई में एक प्ररुप था। शीर्षक था - अग्रिम प्रस्ताव मूल्यांकन पत्रक। मैंने सरसरी तौर पर देखा। जी खट्टा हो गया। ढेरों अशुद्धियाँ थीं। अनुस्वार की अशुद्धियाँ सर्वाधिक थीं। जहाँ नहीं होना चाहिए, वहाँ अनुस्वार लगा था और जहाँ होना चाहिए था वहाँ नहीं था। मैंने पूछा - ‘क्या देखूँ? इसमें तो गलतियाँ ही गलतियाँ हैं।’ जैन साहब को मानो पता था कि मैं क्या कहनेवाला हूँ। अविलम्ब बोले - ‘हाँ। ये गलतियाँ ठीक करने के लिए ही आपको दिया है।’

यह तो मेरा मनपसन्द काम था और जैन साहब इसे अपना काम बता रहे थे! मैं भूल गया कि मैं जैन साहब के पास किस काम से गया था। अपनी पेन निकाल कर शुरु हो गया। अपने ज्ञानानुसार अशुद्धियाँ चिह्नित कर कागज जैन साहब को लौटाते हुए बोला - ‘आप ठीक समझें तो अशुद्धियाँ दूर करने के बाद एक बार फिर मुझे दिखा दें।’ अपने सामने रखे कागज एक ओर सरकाते हुए और अपने कम्प्यूटर टर्मिनल का की-बोर्ड खींचते हुए जैन साहब बोले - ‘आप अभी ही देख लीजिए।’ और वे गलतियाँ दूर करने में जुट गए।
कुछ ही क्षणों में नया प्रिण्ट आउट मुझे थमा दिया। मैंने देखा, मेरे द्वारा चिह्नित सारी गलतियाँ दूर कर दी गई थीं। मैंने कागज जैन साहब को लौटाया तो वे बोले - ‘यह फार्म मूलतः अंग्रेजी में है - एडवांस प्रपोजल वेल्यूएशन फार्म। हम लोग अब तक अंग्रेजी फार्म ही काम में ले रहे थे। मैंने सोचा क्यों न इसे हिन्दी में बना लूँ। सो बना लिया। और योग देखिए कि आप आ गए और इसे दुरुस्त कर दिया।’

मैं अचकचा गया। जैन साहब से यह सुनने की आशा मुझे सपने में भी नहीं थी। मैंने दोनों कागजों को एक बार फिर ध्यान से देखा। व्याकरणगत और वाक्यरचनागत कोई अशुद्धि नहीं थी। सारी बातें बिना किसी भ्रम के, साफ-साफ समझ में आ रही थीं। मैंने पूछा - ‘आपने पहले भी कभी ऐसा काम किया है?’ जैन साहब बोले - ‘नहीं। पहली ही बार कोशिश की है।’ मैंने प्रश्न किया - ‘यह आपको क्यों सूझा?’ जैन साहब ने सहज भाव से कहा - ‘ग्राहक को पता होना चाहिए कि हम उससे किस बात पर हस्ताक्षर करवा रहे हैं। अंग्रेजी जाननेवाले हमारे ग्राहक तो इक्का-दुक्का ही हैं। सब के सब हिन्दीवाले ही हैं। मुझे लगा कि हम सारी बातें तो हिन्दी में करते हैं, हिन्दी में ही ऋण योजना और इसकी शर्तें समझाते हैं। तो क्यों नहीं यह सब हिन्दी में हो? सो, मैंने यह कर लिया।’

मैंने जैन साहब को प्रणाम किया - मन ही मन नहीं, साक्षात्। कहा - ‘आप जैसा सब सोचने लगें तो हमारे सारे कष्ट दूर हो जाएँ। आपने ग्राहक की चिन्ता की और इस बहाने आपने हिन्दी की सेवा कर ली। भगवान आपका भला करे।’

जैन साहब बोले - ‘अरे! आप कैसी बातें करते हैं? हम तो रोटी ही हिन्दी की खा रहे हैं। ग्राहकों से हमारा सारा व्यवहार हिन्दी में ही हो रहा है। मैंने हिन्दी की कोई सेवा-वेवा नहीं की। मैंने तो अपने ग्राहकों की और अपने बैंक की चिन्ता की। हाँ, यह बात जरूर है कि मेरी चिन्ता दूर करने का एकमात्र उपाय और औजार हिन्दी ही हो सकती थी। सो, मैंने वही किया।’ मैंने पूछा - ‘इसके लिए आपको बैंक की ओर से कोई पुरुस्कार या प्रशंसा मिलेगी? आपकी सेवा पुस्तिका में इसका कोई उल्लेख होगा?’ जैन साहब निर्विकार भाव से बोले - ‘इस सबके लिए मैंने यह नहीं किया। मैंने तो अपनी नौकरी का फर्ज समझ कर ही यह किया।’ मेरे पूछने पर वे उत्साह से बोले - ‘आज आपने उत्साह बढ़ाया और हौसला बँधाया है तो अब तो आगे भी ऐसा काम करता रहूँगा।’

मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। यह सब करना जैन साहब की जिम्मेदारी में नहीं था। इसके बिना भी वे अपनी नौकरी आराम से करते रह सकते थे। लेकिन उन्हें अपने ग्राहकों की चिन्ता हुई, अपनी भाषा की चिन्ता हुई।

मैं जैन साहब को धन्यवाद देकर लौटा तो लगा - दुनिया के सबसे बड़े मूक हिन्दी सेवी से मिलकर लौट रहा हूँ। मेरा हिन्दी दिवस तो यथार्थतः कल ही मना।’
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6 comments:

  1. ऐसे निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले कम ही है. जैन साहब को नमन. अच्छा लगा जानकर.

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  2. Really you and Jain sir both are great. Creative posy. Thanks

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  3. आपका हिंदी दिवस सचमुच ही बड़ा दिलचस्प रहा. बधाई.

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  4. बहुत अच्छा लगा हिन्दी के एक मूक सेवक के बारे में जानकर।

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  5. बहुत अच्छा लगा, इस बेंक की तरह बाकी कार्यलाय भी ऎसा ही सोचे, ओर सभी लोग भी अग्रेजी की जगह हिन्दी मे ही आपस मे बात चीत करे, तो समझो हम आजाद हो गये हे, धन्यवाद इस बहुत सुंदर जानकारी के लिये

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  6. बहुत सुन्दर, बधाई!

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