पाखण्ड याने आचरण से प्रतीक तक की यात्रा

यह ऐसा रोचक अनुभव रहा जो निराशाजनक भी था और असहज कर देनेवाला भी।

मुझे और मेरी उत्त्मार्द्ध को, देहरादून एक्सप्रेस से, शामगढ़ से रतलाम आना था। हम लोगों के पास स्लीपर श्रेणी के टिकिट तो थे किन्तु हमारा आरक्षण नहीं हुआ था। हमारे नाम प्रतीक्षा सूची में थे। ऐसे में हमने वही किया जो हम जैसे तमाम लोग करते हैं। हम लोग स्लीपर डिब्बे में चढ़ गए, इस शुभेच्छा से कि कोई न कोई तो हमें बैठने की जगह दे ही देगा। ऐसा हुआ तो अवश्य किन्तु, जैसा कि मैंने अभी-अभी कहा है, ऐसे अनुभव सहित जो निराशाजनक भी था और असहज कर देनेवाला भी।
डिब्बे में भीड़ की बात तो दूर रही, हमारे सिवाय अनारक्षित यात्री एक भी नहीं था। यह देखकर, जगह मिलने की मेरी आशा, पहले ही क्षण विश्वास में बदल गई। यात्रियों को देखकर मेरे विश्वास को प्रसन्नता का साथ भी मिल गया। लगभग 50-55 ऐसे यात्री थे जो शान्ति-कुंज (हरिद्वार) से लौट रहे थे। चारों ओर, पीताभ पृष्ठ भूमि पर गेरुए रंग में छपी इबारतोंवाले, गायत्री परिवार के झोले और यात्रियों के हाथों में, गायत्री परिवार प्रकाशन की गुजराती पत्रिकाएँ नजर आ रही थीं। इस दल में महिलाएँ अधिसंख्य थीं - चालीस से अधिक। शेष पुरुष और बच्चे थे। सबके सब गुजरात निवासी। गुजरात निवासियों की जग प्रसिद्ध दयालुता और सहृदयता से मैं अनेकबार उपकृत हुआ हूँ। सो, मेरी बाँछे ऐसी खिलीं कि बन्द होने का नाम नहीं ले रही थीं। पहली बात जो मन में आई वह यह कि बैठने की सुविधा तो मिलेगी ही, मीठे व्यवहार और पारिवारिकता के पर्याय समाज के धार्मिक लोगों का सामीप्य भी मिलेगा। सोने पर सुहागा। गोया हम लोगों की तो लॉटरी ही खुल गई थी।


किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जल्दी ही सब कुछ निराशा में बदल गया। बैठने की जगह देने के हमारे प्रत्येक अनुरोध को वितृष्णापूर्वक, तिरस्कृत और अस्वीकार कर दिया गया। मुझे न सही, मेरी उत्त्मार्द्ध को तो बैठने की जगह देने के मेरे अनुरोध को भी इसी शैली में लौटा दिया गया। यह सब हुआ सो तो ठीक किन्तु ऐसा करने के लिए जो आचरण किया गया उसने मेरा ध्यानाकर्षित किया।

तीन की बर्थ पर कोई चौथा न बैठ जाए, यह सावधानी बरतते हुए महिलाएँ अधिक खुल कर बैठ रही थीं। डिब्बे में दौड़ भाग कर रहे बच्चों को डाट डपटकर अपनी जगह पर बैठने को कहा जा रहा था। जो बच्चे अपने स्थान पर बैठ कर मस्ती कर रहे थे, उन्हें आँखें तरेरकर समझाया जा रहा था कि वे जगह खाली न रखें वर्ना ‘कोई’ बैठ जाएगा। समूह चर्चा में भाग लेने के लिए, अपनी जगह से उठकर, पास वाले खाँचे में जानेवाले यात्री की खाली जगह को भरने के लिए महिलाएँ जबरन ही अधलेटी होने लगीं। बाजू वाली (साइड) बर्थ से जैसे ही कोई महिला उठकर अन्यत्र जाती, दूसरी महिला फौरन ही लेट जाती। ऐसी ही एक बैठक थोड़ी देर के लिए खाली हुई तो समूह के एक अधेड़ पुरुष यात्री ने मेरी उत्त्मार्द्ध को बैठने का कहा। यह सुनते ही, बैठी हुई दूसरी महिला ने उन्हें ‘केम गोविन्द भाई! तमे शूँ करो छो?’ कह कर डपटा और फौरन ही लेट गई। 6-6 बर्थों के खाँचे में 8-8, 10-10 महिलाएँ बैठकर बातें कर रही थीं किन्तु उनके वहाँ जाने से खाली हुई एक भी सीट खाली नहीं रहने दी जा रही थी। सब कुछ बड़ी सावधानी से और यत्नपूर्वक किया जा रहा था।


शुरु-शुरु में हमें गुस्सा आया, फिर यह गुस्सा ताज्जुब में बदला और यह सब देख-देख कर हम दोनों को अन्ततः हँसी आने लगी। हमें जगह न देने के लिए महिलाओं द्वारा किए जा रहे उपाय हमारे लिए मनोरंजन का साधन बन रहे थे। हमें बैठने की सुविधा से वंचित करने के लिए वे सब महिलाएँ खुद कितने कष्ट उठा रही थीं?

कोई आधा-पौन घण्टे में ही हमें स्पष्ट हो गया कि रतलाम तक की यात्रा हमें खड़े-खड़े ही करनी थी। फिर भी हम इस बात के लिए उन्हें मन ही मन धन्यवाद दे रहे थे कि डिब्बे में हमारी उपस्थिति पर वे आपत्त् िनहीं उठा रहे थे। हम ईश्वर को भी धन्यवाद दे रहे थे कि हम कम से कम इतने आराम से तो खड़े हैं कि हाथ-पाँव फैला सकें और डिब्बे में आ रही हवा का आनन्द ले सकें।


किन्तु आश्चर्य अभी शेष था। बगल (साइड) की ऊपरी बर्थ पर लेटे हुए एक वृद्ध सज्जन ने, अपने बेटे-बहू को निर्देशित किया कि वे तनिक खिसक कर हम दोनों को बैठने के लिए जगह दें। उनके बेटे-बहू अपने दो बच्चों के साथ आमने-सामने बैठे थे। उन्होंने बिजली की चपलता बरतते हुए अपने पिता के निर्देशों का पालन किया। हम दोनों के लिए भरपूर जगह बनाई और हमसे बैठने का अनुरोध किया। हमें अच्छा तो लगा किन्तु आश्चर्य भी हुआ। यह जगह हमें भी नजर तो आ रही थी किन्तु हमारे साथ अब तक जो गुजरी थी, उससे सबक लेकर हमने इस परिवार से जगह देने के लिए अनुरोध नहीं किया था। मुझे ‘माँगे से भीख नहीं मिलती, बिन माँगे मोती मिल जाते हैं’ वाली उक्ति याद आ गई। उन बुजुर्ग को और उनके बच्चों को धन्यवाद देते हुए हम बैठ गए। शुरु में तो सकुचा कर बैठे किन्तु धीरे-धीरे पसर गए। तीन घण्टों की यात्रा में से कोई दो-सवा दो घण्टों की यात्रा हमने भरपूर आराम से की। उतरते समय हम दोनों ने, हमें जगह देने के लिए उन सबके प्रति आभार प्रकट करते हुए फिर धन्यवाद दिया।

साथ-साथ बैठकर बातों ही बातों में मालूम हुआ कि हमें जगह देनेवाला परिवार, मुसलमान परिवार है। वे लोग रुड़की से बैठे थे और मुम्बई जा रहे थे। यह उनकी धार्मिक यात्रा थी। वे हाजी बन्दर की मस्जिद जा रहे थे। इस परिवार के पास किसी भी प्रकार का ऐसा कोई भी उपकरण नहीं था जो इनकी या इनकी यात्रा की धर्मिकता प्रकट करता हो।


मेरे इस अनुभव को किसी पर टिप्पणी न समझा जाए। आप यदि अपने स्तर पर कोई अर्थ निकालें तो यह आपकी इच्छा, आपकी सुविधा और आपका अधिकार। किन्तु धार्मिक सन्दर्भों से परे, यह कहने से नहीं रुका जा रहा कि महिलाओं को आज भी सर्वाधिक उपेक्षा, सर्वाधिक असहयोग महिलाओं से ही झेलना पड़ रहा है।

और यह भी कि धर्म हमारे आचरण से प्रकट होता है, उपकरणों से नहीं। आचरण को जब प्रतीकों में बदला जाता है तो उसका एक ही नाम होता है - पाखण्ड।

6 comments:

  1. आप जैसा सक्रिय कर देने वाला कारक पाकर उन्‍हें भी मजा आया होगा, वरना बेमजा सी, बिना उठा-पटक के रह जाती उनकी यात्रा.

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  2. सफर में कई तरह के लोग मिलते हैं, कुछ सहज कुछ असहज। आप को एक ही डिब्बे में दोनों किस्म के लोग मिल गये :)

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  3. असहजता को सहजता से लिया है,
    चरितार्थ 'नाम' अपना किया है,
    कुशलता से टटोला सब के मन को,
    बड़ा रोचक ये संस्मरण दिया है.

    http://aatm-manthan.com

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  4. kaka sa, teerth yatra ka dhong... aur dharma dono alag vishay hai.. aajkal dhrama ke nam jo dhong chal raha hai... uska live show aapne dekha, sath hi aapko jagah dene wale muslim parivar ko to HAJ ka punya mil gaya.. unki dharmik yatra safal ho gai. yatra ke anubhav sajha karne par dhanyawad..

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  5. खराब अनुभव रहा आपका, पढकर दुख हमें हुआ। मगर अच्छों-बुरों का प्रतिशत रेल के अन्दर भी उतना ही निकला जितना बाहर है। और, यह राज्यवार प्रोफ़ाइलिंग तो कभी काम नहीं आती।

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  6. पढ़कर क्रोध भी आया और मन भी दुखी हुआ। वैसे अच्छे व्यक्ति सारी सीमाओं से ऊपर उठकर होते हैं।

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