राजनीति में सीनाजोरी तो गहना है


इन दिनों, राजस्थान के पूर्व मुख्य मन्त्री अशोक गेहलोत का एक वीडियो फेस बुक और वाट्स एप पर छाया हुआ है जिसमें गेहलोत कहते हुए नजर आ रहे हैं कि बिजली प्राप्त करने के लिए बनाए बाँधों का पानी सिंचाई के काम नहीं आएगा क्योंकि उसमें से ‘पॉवर’ तो रहेगा ही नहीं। गेहलोत की खूब हँसी उड़ाई जा रही है और गेहलोत के बहाने उनकी पार्टी और पार्टी नेताओं की खिल्ली उड़ाई जा रही है।

यह सब देखकर मुझे शुरु में ताज्जुब हुआ। क्योंकि हमारे यहाँ कहावत है कि कहनेवाला भले ही मूर्ख हो लेकिन सुननेवाला तो समझदार होता है। लेकिन जब जानबूझकर, दुराशयतापूर्वक, सोद्देश्य कोई झूठ परोसा जाता है तो फिर ऐसी कहावतें निरर्थक हो जाती हैं। तब कहनेवाला तो समझदार होता है लेकिन सुननेवाला मूर्ख हो जाता है। मजे की बात यह है कि झूठ फैलानेवाले भली प्रकार जानते हैं कि उनके झूठ का जीवन पानी के बुलबुले की तरह है। लेकिन जब दुष्प्रचार किसी झूठ को अभियान के तहत, सुनियोजित रूप से चलाया जाता है तो यह सीनाजोरी की गिनती में आता है। इस मामले में महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सीनाजोरी अनजाने में नहीं की गई। 

मूल वीडियो में अशोक गेहलोत कहते नजर आते हैं कि भाखड़ा बाँध के सन्दर्भ में तत्कालीन जनसंघ के लोग नेहरू को गालियाँ देते हुए यह बात कहते थे। गेहलोत की इस बात का मैं गवाह हूँ। फर्क इतना ही है कि वे भाखड़ा नागल बाँध का हवाला दे रहे हैं और मैंने इसे, मन्दसौर जिले के जनसंघियों से गाँधी सागर बाँध के सन्दर्भ में सुना था। इस बाँध का शिलान्यास नेहरूजी ने सात मार्च 1954 में किया था। मैं अपना माँ के साथ उस दिन वहाँ गया था। उस समय मैं सात बरस का था। इस बाँध से देश को, मुख्यतः मध्य प्रदेश और राजस्थान को बिजली और सिंचाई के लिए पानी मिलनेवाला था।  
गाँधी सागर बाँध का विहंगम दृष्य

गाँधी सागर बाँध पर स्थापित चम्बल की मूर्ति। बच्‍चे मध्य प्रदेश और राजस्थान हैं।

जनसंघ के लोग नितान्त राजनीतिक कारणों से इस बात का विरोध आम सभाओं में, अपने भाषण में भी करते थे और वही बात कहते थे जो अशोक गेहलोत को अपनी ओर से कहते बताए जा रहे हैं - बिजली निकल गई तो पानी में पॉवर नहीं रह जाएगा। 

लेकिन बात केवल ‘बिना पॉवरवाले पानी’ तक ही सीमित नहीं थी। वोट पाने के लिए तब विद्युतीकरण का भी विरोध किया जाताथा। 

मनासा विधान सभा क्षेत्र में एक पठारी इलाका है जिसे ‘कंजार्ड़ा पठार’ के नाम से जाना जाता है। मनासा से कंजार्ड़ा की दूरी करीब पचीस किलो मीटर होगी। इसके आसपास चौकड़ी, खेड़ली, बेसदा जैसे कुछ गाँव है। यह 1962 से 1967 के बीच की बात है। प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री सुन्दरलालजी पटवा तब मनासा के विधायक थे। 

कंजार्ड़ा पठार के लोग विद्युतीकरण की माँग करते थे। जवाब में लोगों को समझाया जाता था कि बिजली के करण्ट से लोग मर जाएँगे। तब जनसंघ के लोग मनासा-कंजार्ड़ा सड़क का भी विरोध करते थे। कहते थे कि सड़क बन जाने पर शहर के लोगों का गाँव में आना-जाना बढ़ जाएगा। वे शहरी लोग गाँव की बहन-बेटियों को छेड़ेंगे। सड़क की वजह से गाँव की समृद्धि शहरों में चली जाएगी। मेरी इस बात के गवाह अब भी उस इलाके में कुछ लोग मिल ही जाएँगे। 

तब कंजार्ड़ा पठार पर पटवाजी और जनसंघ की तूती बोलती थी। पूरा इलाका मानो पटवाजी और जनसंघ की जागीर था। वहाँ के गाँवों में काँग्रेसी घुस नहीं पाते थे। मनासा विधान सभा क्षेत्र के मतदान केन्द्रों का क्रमांकन इसी इलाके से शुरु होता था और मतगणना के परिणाम मतदान केन्द्रवार घोषित होते थे। इन मतदान केन्द्रों पर काँग्रेस को मिलनेवाले मत दो अंकों में भी नहीं होते थे। मतगणना परिणामों की घोषणा की शुरुआत सदैव काँग्रेस की पराजय से  होती थी। 

लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि अपने गाँव में स्कूल खुलवाने की बात को लेकर चौकड़ी के सरपंच नानालाल धाकड़ (लोग उन्हें ‘नाना पटेल’ कहते थे।) पटवाजी से नाराज हो गए। वे आधी रात को, सदलबल दादा के पास आए। (दिन के उजाले में किसी काँग्रेसी के पास जाने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए।) दादा से सारी बात कही। दादा उन्हें लेकर भोपाल गए। द्वारका प्रसादजी मिश्र से मिलवाया। मिश्रजी ने कहा कि वे लोग यदि दादा की बात मानेंगे तो स्कूल खुल जाएगा। नाना पटेल ने वादा किया - ‘या नान्या की जिबान हे। बेरागीजी ने जीतई ने लऊँगा।’ (यह नानालाल की जबान है। बैरागीजी को जितवा कर लाऊँगा।) 

1967 के चुनाव में मिश्राजी ने पटवाजी के सामने दादा को मनासा से उम्मीदवार बनाया। मतगणना के नतीजे आए तो कंजार्ड़ा पठार के आँकड़े एकदम उल्टे हो गए। कंजार्ड़ा पठार ने पटवाजी से पीठ फेर ली। पटवाजी दस वर्ष से विधायक थे। वे हार गए। तकदीर ने उनके साथ नाइंसाफी यह की कि मन्दसौर जिले की सात सीटों में से हारनेवाले वे अकेले जनसंघी उम्मीदवार थे। इस नाइंसाफी की कसक तब कई गुना हो गई जब प्रदेश मे संविद सरकार बनी। पटवाजी यदि तब विधायक होते तो वे पहली ही किश्त में केबिनेट मन्त्री बनते।

मिश्राजी ने दादा को संसदीय सचिव बनाया। लेकिन किसी मुद्दे पर मिश्राजी और श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया में ठन गई। फलस्वरूप काँग्रेस के तीस-पैंतीस विधायकों ने दलबदल किया और प्रदेश मे गोविन्द नारायण सिंह के नेतृत्व में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार बनी। लेकिन यह सरकार दो साल भी नहीं चली। नई काँग्रेसी सरकार श्यामाचरण शुक्ला के नेतृत्व में बनी। शुक्लाजी ने दादा को राज्य मन्त्री बनाया।

दादा के राज्य मन्त्री बनने के बाद नाना पटेल की भावनानुसार स्कूल खुला। उसके बाद जल्दी ही कंजार्ड़ा को विद्युतीकृत करने की बात आई। कंजार्ड़ा का प्रतिनिधि मण्डल लेकर दादा श्यामाचरणजी से मिलने गए। वे दिल्ली के जाने के लिए हवाई अड्डे के लिए निकल चुके थे। दादा सबको लेकर वहाँ पहुँचे। विमान की सीढ़ियों पर बात हुई। विद्युतीकरण के आदेश के लिए उन्होंने कागज माँगा। किसी के पास नहीं था। प्रतिनिधिमण्डल में से किसी एक ने केवेण्डर सिगरेट का पाकेट निकाला और पाकेट के जिस हिस्से पर सिगरेटें रखी हुई थीं, वह आगे बढ़ा दिया। श्यामाचरणजी ने उसी के पीछे ‘कंजार्ड़ा की विद्युतीकरण योजना स्वीकार की जाती है।’ लिख कर दादा को थमा दिया।

लेकिन आदेश जितनी आसानी से मिला, विद्युतीकरण उतना आसान नहीं था। तब मनासा में श्री किशोर कुमार सक्सेना म.प्र.वि.मं. के सहायक यन्त्री थे। दादा ने यह काम उन्हें सौंपा। तब मनासा-कंजार्ड़ा के बीच सड़क नहीं थी। सक्सेनाजी ने समस्या बताई - पचीस किलो मीटर दूर तक खम्भे कैसे पहुँचाएँ? बात कंजार्ड़ावालों तक पहुँची तो खम्भे पहुँचाने की जिम्मेदारी उन्होंने ले ली। कंजार्ड़ा के लोगों ने उम्मीद से बहुत कम समय में सक्सेनाजी के बताए मुताबिक खम्भे डलवा दिए।

लेकिन दुष्प्रचार की मुहीम थमी नहीं थी। खम्भे गाड़ने के लिए गड्ढे खुदना शुरु हुए ही थे कि जनसंघी खेमे से बात चली - ‘गाँव को कीला (मन्त्रबिद्ध किया) जा रहा है। गाँव की लक्ष्मी रूठ जाएगी।’ इस बात से पार पाने में सबको पसीना आ गया। लेकिन सक्सेनाजी ने काम रुकने नहीं दिया। उन्होंने और उनके लोगों ने दिन को दिन नहीं समझा और रात को रात नहीं। जो काम कम से कम छः महीनों में होता, वह तीन महीनों से कम में कर दिया।

वह सन् 1970 था या 1971, यह तो मुझे याद नहीं। लेकिन तारीख मुझे खूब अच्छी तरह याद है - 26 जनवरी। उस दिन कंजार्ड़ा में बिजली का बटन दबना था। मैं उस समारोह का प्रत्यक्षदर्शी हूँ। कंजार्ड़ा गाँव के बाहर बने, हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्रांगण में समारोह हुआ था। केवल कंजार्ड़ा गाँव के ही नहीं, आसपास के दसियों गाँवों के लोग वहाँ मौजूद थे। रंग-बिरंगी पगड़ियों और लुगड़ों से पूरा परिसर इन्द्रधनुष को टक्कर दे रहा था। औरतें मंगल बधावे गा रही थीं। हर कोई उत्सुक और विगलित था। दादा मुख्यतः मौजूद थे। जैसे ही बटन दबा, मानो वहाँ मौजूद तमाम लोगों में करण्ट दौड़ गया। ‘जय हो’ और ‘जिन्दाबाद’ के नारों ने मानो आसमान फोड़ दिया। हर कोई एक दूसरे को बाँहों में भर बधाइयाँ दे रहा था। औरतें दादा की बलैयाँ ले रही थीं और दादा धार-धार रोए जा रहे थे।

उस समारोह में दादा ने सक्सेनाजी सहित, विद्युत मण्डल के तमाम लोगों को कंजार्ड़ा और आसपास के गाँवों की ओर से साफे बँधवा कर सम्मानित करवाया। समारोह के लिए जितनी मालाएँ आई थीं, दादा ने वे सब की सब सक्सेनाजी को पहनवाईं। गाँव लोगों ने सक्सेनाजी को नोटों की माला पहनाई। माला में पिरोए नोटों की रकम पचास रुपये थी। उन दिनों यह बड़ी रकम थी। मजदूर को सवा रुपया मजदूरी मिलती थी। सक्सेनाजी ने वह रकम वहीं की वहीं अपने साथी श्रमिकों मे बँटवा दी। हर कोई विगलित, रोमांचित और पुलकित था। वैसा लोकोत्सव मैंने उसके बाद से अब तक कहीं नहीं देखा। सक्सेनाजी समारोह का वर्णन आज भी इस तरह करते हैं मानो वे अभी भी कंजार्ड़ा में, समारोह में ही हों। वे भोपाल में बस गए हैं। जिसे इस बारे में और कुछ जानने की उत्सुकता हो वह उनसे मोबाइल नम्बर 99774 07468 पर उनसे बात कर ले।


किशोर कुमारजी सक्सेना

यह किस्सा मुझे अशोक गेहलोत के वीडियो ने याद दिला दिया। भाई लोग जस के तस बने हुए हैं। तनिक भी नहीं बदले। आगे भी शायद ही बदलें। 

राजनीति में सीनाजोरी गहना बन चुकी है।
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1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-06-2018) को "छन्द हो गये क्ल्ष्टि" (चर्चा अंक-2997) (चर्चा अंक-2989) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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