जब



जब
शब्द खो दें अर्थ
वाक्य खो दें व्यंजना
अभिधा और लक्षणा
हो जाएँ निरर्थक।

व्यवस्था खो दे चरित्र
तब मेरे मित्र!

लोकतन्त्र हो जाता है लिप्सा की मण्डी
पदासीन लगने लगते हैं
पाखण्डी।

तब
आप और हम
हवा में करते रहते हैं
प्रहार।

किन्तु यह प्रहार 
करें किस पर?
क्या, चाहे जिस पर?
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(साप्ताहिक आउटलुक के 14 से 20 जनवरी 2003 के अंक में प्रकाशित)

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