व्यंग्यकार का काम


ईश्वर ने आपको सोचने, विचारने और समझने की शक्ति दी है। प्रभु ने आपको करुणा दी है, बुद्धि दी है और विवेक दिया है। इन सभी शक्तियों का उपयोग कब करते हैं, यह प्रश्न यदा-कदा आपके मन में भी उठता है। पता नहीं आप स्वयम् को क्या और कैसा उत्तर देते होंगे। इन शक्तियों का उपयोग, दुरुपयोग, सदुपयोग सर्वत्र होता है, किन्तु सबसे पहले इन उपयोंगों का उपयोग करता कौन है? आप किसी संकोच में मत पड़िये। उत्तर मैं ही दे देता हूँ। 

इन उपयोगोें का सबसे पहला प्रयोग करता है हमारा कोई न कोई व्यंग्यकार। व्यंग्यकारों में भी वह व्यंग्यकार जिसके हाथ में सरस्वती ने कलम दी हो। और, मैं बार-बार कहा करता हूँ कि भारत में करोड़ों देवी-देवता हैं पर उनमें मात्र एक देवी ऐसी है जो किसी को क्षमा नहीं करती। उस देवी का नाम है सरस्वती। 

सच मानिये, सरस्वती किसी को क्षमा नहीं करती। उसके दण्ड के प्रमाण मुझसे अधिक आपके आसपास घूमते-फिरते रहते, बोलते और तरह-तरह के व्यवहार करते शरीरधारी प्राणी जिन्हें आप ‘मनुष्य’ कहते हैं, वे हैं। आपकी सामान्य नजर से वे बच सकते हैं पर सरस्वती की दृष्टि से वे नहीं बच सकते। एक छोटा सा किन्तु शाश्वत उदाहरण स्वयम् आपके अपने शरीर पर उपस्थित है, उसे देखें। 

आपके शरीर पर निर्माता ने दो चीजें ऐसी दी हैं जिनका दुराग्रह, जिनका हठ, जिनकी जिद आप खुद कभी सहन नहीं करते। ज्यों ही वे जिद पर आते हैं, आप उन्हें ठीक कर देते हैं। वे दो चीजें हैं - आपके नाखून और आपके बाल। वे हमेशा बढ़ते रहने की जिद करते रहते हैं। ज्यों ही आपको लगता है कि ये अपनी जिद में अपनी हद से आगे बढ़ रहे हैं, आप खुद उन्हें काट देते हैं। उनकी, बढ़ने की प्रक्रिया को नहीं रोकते लेकिन उन्हें अपनी हद में रखते हैं। यह है आपकी सुप्त और गुप्त सरस्वती का सौन्दर्य-बोध जो आपके हाथ में धारदार शस्त्र थमा देता है। आपका सौन्दर्य-बोध आपको चौकन्ना और सतेज, सक्रिय रखता है। जो कट जाता है, वह छँट जाता है। 
हमारे सामाजिक जीवन में यही काट-छाँट करता है हमारा व्यंग्यकार। उसे समाज में रहनेवाली घटत और बढ़त, दोनों की जानकारी हो जाती है। बस, वह अपने एकान्त में अपनी करुणा, अपनी बुद्धि, अपने विवेक, अपने सोच, अपने विचार और अपनी समझ से यथासमय पूछताछ करता है और काट-छाँट में सक्रिय हो जाता है। तब वह उपदेशक नहीं अपितु एक सामाजिक शल्यक्रिया का नायक बन कर समाज को अपनी हद, अपनी सीमा और अपने दायित्व से अवगत रखता है।

अवांछित को वांछित बनाना उसका काम नहीं है किन्तु अवांछित को अपनी भाषा में यह समझा देना उसका काम जरूर है कि जिससे अवांछित यह समझ जाये कि कोई उसे देख रहा है। 

बस।

-बालकवि बैरागी
रक्षा बन्धन, 2014
-----

श्री भगवती प्रसाद गेहलोत (मन्दसौर, म. प्र.) के व्यंग्य संग्रह ‘राहत मिली रे भैया’ की भूमिका का अंश। 
दादा का पत्र भी श्री गेहलोत की फेस बुक वाल से साभार।
-----

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.