बीबीसी: बगलगीर से बैरन


निर्भीक, स्वतन्त्र पत्रकारिता की बात जब भी होती है, बीबीसी का नाम जरूर लिया जाता है। बीबीसी, बिटेन की जनता द्वारा वित्तपोषित संस्थान् है। यह सरकार से नियन्त्रित नहीं होती। निस्सन्देह, सरकार की चिन्ता तो करती ही होगी लेकिन कहा जाता है कि जब भी ब्रिटेन  और सरकार में से किसी एक को चुनना होता है तो यह ब्रिटेन को चुनती है, सरकार को नहीं। शायद इसीलिए ब्रिटेन के लोग भी अपने इस संस्थान् पर नजर भी रखते हैं और इसकी चिन्ता भी करते हैं।

इन दिनों भारत में बीबीसी की धूम मची हुई है। इसी धूमधाम के बीच मुझे दो किस्से याद आ रहे हैं।

आपातकाल के दौर में इन्दिरा सरकार ने न केवल सूचना-संचार माध्यमों को जकड़ लिया था अपितु सेंसरशिप भी लगा दी थी। वही छपता था जो सरकार को सुहाता था। आकाशवाणी सरकारी भोंपू बन कर सर्वथा अविश्वसनीय बन कर रह गया था। अपने देश के समाचार जानने के लिए पूरा देश बीबीसी पर ही निर्भर हो गया था।

लेकिन अन्ततः इन्दिराजी को आपात काल हटाना पड़ा। 18 जनवरी को उन्होंने लोक सभा चुनावों की घोषणा की। गैर काँग्रेसी दलों ने अपने सारे मतभेद भुलाकर ‘जनता पार्टी’ बना ली। 16 से 20 मार्च 1977 के बीच मतदान हुआ। मतगणना 21 मार्च को हुई थी। इन्दिराजी रायबरेली से काँग्रेसी उम्मीदवार थीं। उनके सामने जनता पार्टी के ‘लोकबन्धु’ राज नारायण उम्मीदवार थे। वे मूलतः समाजवादी थे और 1971 के लोकसभा चुनावों में इन्दिराजी से, एक लाख से अधिक मतों से हार चुके थे।

मतगणना के नतीजे आकाशवाणी पर आ रहे थे। काँग्रेस के किले एक के बाद एक ढहते जा रहे थे। पूरा देश रायबरेली का चुनाव परिणाम जानने को उतावला बना हुआ था लेकिन आकाशवाणी पर रायबरेली, इन्दिरा गाँधी और राजनारायण के नाम भी सुनाई नहीं दे रहे थे। शाम घिर आई, शाम से रात हो गई और रात भी आधी से ज्यादा गुजर गई, तारीख बदल कर 22 मार्च हो गई। लेकिन रायबरेली के चुनाव परिणाम का कहीं अता-पता नहीं था। सारा देश जान रहा था कि आकाशवाणी की यह चुप्पी ही इन्दिराजी की हार की घोषणा है। लेकिन हर कोई अधिकृत घोषणा की प्रतीक्षा कर रहा था। आकाशवाणी से निराश, उदासीन तमाम लोग बीबीसी पर कान लगाए बैठे थे।

ऐसे में, जबकि रायबरेली की मतगणना पूरी होने की कोई खबर ही नहीं थी, बीबीसी ने पत्रकारिता की मानो नई शैली ईजाद करते हुए, इन्दिराजी की हार की घोषणा कर दी। बीबीसी ने कहा था कि हालाँकि मतगणना अभी पूरी नहीं हुई है, किन्तु श्रीमती गाँधी और राजनारायण के बीच मतों का अन्तर इतना है कि गणना के लिए बचे हुए सारे के सारे वोट भी यदि श्रीमती गाँधी को मिल जाएँ तो भी वे श्री राजनारायण से बढ़त नहीं ले सकतीं। बीबीसी की इस घोषणा ने सरकारी हलकों में तूफान मचा दिया था। इसके बाद आकाशवाणी को घोषणा करनी पड़ी। श्री राजनारायण ने 55 हजार से अधिक मतों से इन्दिराजी को हरा दिया था। इन्दिराजी को उनकी हार की खबर उनके करीबी आर. के. धवन ने दी थी। उस समय वे रात का भोजन कर रही थीं। धवन की बात सुनकर इन्दिराजी का पहला वाक्य था - ‘अब मैं अपने परिवार को ज्यादा वक्त दे सकूँगी।’

आपातकाल के समूचे समय में बीबीसी वैसे ही लोगों के दिलो में बसी हुई थी। लेकिन इन्दिराजी की हार की घोषणा के इस अनूठे तरीके से उसने अरसे तक लोगों के दिलों पर कब्जा बनाए रखा। पत्रकारिता के हलकों में आज भी इस शैली का उदाहरण दिया जाता है।

दूसरा किस्सा भी कम रोचक नहीं है।

बीबीसी में एक उद्घोषक हुआ करते थे - रत्नाकर भारतीय। वे मूलतः नीमच (मध्य प्रदेश) के थे जो ब्रिटेन में जा बसे थे। उनकी हिन्दी बहुत ही सहज-सरल, आकर्षक और समाचार प्रस्तुत करने की शैली बहुत ही आकर्षक थी। वे समाचार इस तरह पढ़ते थे मानो आँखों देख हाल सुना रहे हों। लगता था, वे समाचार नहीं पढ़ रहे, बातें कर रहे हैं। सुनने वालों को लगता मानो वे उनमें से प्रत्यक से व्यक्तिगत रूप से, केवल उसी को समाचार सुना रहे हैं। उस दौर में रत्नाकर भारतीय और बीबीसी परस्पर पर्याय हो गए थे।

1977 के लोक सभा चुनावों के बाद (शायद ‘जनता पार्टी सरकार’ बनने से पहले) रत्नाकरजी भारत आए। दिल्ली में उनकी मुलाकातें, जनता पार्टी के तमाम नेताओं से हुईं। तमाम नेता रत्नाकरजी को हाथों-हाथ ले रहे थे। यदि बधाइयाँ, धन्यवाद, अभिनन्दन, साधुवाद, आभार, कृतज्ञता जैसे शब्द ‘भौतिक आकार’ ग्रहण कर लेते तो रत्नाकरजी के अनगिनत थैले, पहले तो कम पड़े और अन्ततः  फट जाते। 

दिल्ली में उनकी मुलाकात अटलजी से भी हुई। अटलजी ने बाहें पसार कर रत्नाकरजी को आलिंगन में जकड़ लिया और देर तक उनकी पीठ थपथपाते हुए बार-बार कहे जा रहे थे - जब चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था तब आप ही थे जो प्रकाश-किरण थामे हुए थे।

अपनी उस भारत यात्रा में रत्नाकरजी नीमच भी आए थे। तब उन्होंने नीमच में काँग्रेस विरोध में आयोजित एक आम सभा में भाषण भी दिया था। तब नीमच में ही नहीं, समूचे मालवा में यह धारणा पक्की बन गई थी कि रत्नाकरजी को राज्य सभा का सदस्य बनाकर, केन्द्रीय मन्त्री मण्डल में जगह देकर उनसे ‘ऋण-मुक्त’ हुआ जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मुझे पक्का तो पता नहीं किन्तु शायद रत्नाकरजी की ब्रिटिश नागरिकता आड़े आ गई थी। और तब की ‘जनता पार्टी’ (और आज, उसके तमाम अंश, जिनमें भाजपा प्रमुख है) तब से लेकर अब तक रत्नाकरजी के कर्जदार बने हुए हैं।

लेकिन वो कहते हैं ना कि कोई भी वक्त ठहरता नहीं। वह वक्त भी नहीं ठहरना था। नहीं ही ठहरा। और, आपातकाल के अँधेरे में रोशनी की किरण घोषित की गई बीबीसी आज ‘बकवास भ्रष्ट कार्पाेरेशन’ घोषित कर दी गई है।

गोया, कल की बगलगीर आज बैरन बन गई है।

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