‘उन्होंने’ मनवा दिया वेलेण्टाइन-डे

ईको कराने के लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा में, अस्पताल में बैठे हुए हम पति-पत्नी।


मुझे हिन्दू-विरोधी माननेवाले और इसी कारण, मेरी खिंचाई करने का, मुझ पर व्यंग्योक्तियाँ कसने का कोई मौका न छोड़नेवाले ‘वे’ अभी-अभी (याने, लगभग रात साढ़े आठ बजे) गए हैं। ‘वे’ मुझसे कभी खुश नहीं होते।

आते ही, अपने स्वभावानुसार शुरु हो गए -

‘कैसे मनााया आज वेलेण्टाइन-डे?’

“आप अच्छी तरह जानते हैं कि मैं ये ‘डे-वे’ नहीं मनाता। मेरा भरोसा नहीं है इन ‘डे-वे’ में।”

‘तो फिर क्या किया आज दिन भर?’

“पत्नी की कुछ मेडिकल जाँचें करानी थीं। ‘ब्लड सेम्पल’ देने के लिए सुबह-सुबह ही लेबोरेटरी पहुँच गया था। टेक्नीशियन लगभग दस बजे आया।”

‘फिर?’

‘पत्नी डाइबिटिक है। भूखा रहने पर उसे परेशानी होने लगती है। ब्लड सेम्पल देने में बहुत देर हो गई थी। उसने सुबह से चाय भी नहीं पी थी। सो, उसे चाय-पोहा का नाश्ता कराने ले गया।?’

‘क्यों? बाजार का नाश्ता क्यों कराया? घर आकर नाश्ता नहीं कर सकते थे?’

‘मजबूरी थी। उसका ईसीजी भी कराना था।’

‘फिर?’

‘फिर क्या? ईसीजी के लिए लाइन लगी हुई थी। प्रतीक्षा करनी पड़ी। नम्बर आया तब तक साढ़े बारह बज गए।’

‘इसीजी करा कर तो घर आ गए होंगे?’

‘नहीं। नहीं आ सकता था।’

‘क्यों?’

‘क्योंकि सी टी स्केन और ईको भी कराना था?’

‘सी टी स्केन और ईको भी? इतनी सारी जाँचें एक साथ? क्यों?’

‘मजबूरी थी। डॉक्टर ने कहा था।’

‘क्या हो गया भाभीजी को?’

‘वह लम्बी कहानी है। फिर कभी, बाद में बताऊँगा।’

‘ठीक है। तो, सी टी स्केन और ईको हो गया?’

‘नहीं।’

‘क्यों?’

‘मेरा मतलब है, दोनों जाँचें नहीं हुई। केवल सी टी स्केन हो सका।’

‘क्यों? ईको क्यों नहीं हुआ?’

‘डॉक्टर ने शाम पाँच बजे का वक्त दिया।’

‘अच्छा। लेकिन सी टी स्केन तो हो गया?’

‘हाँ। सी टी स्केन हो तो गया लेकिन उसकी रिपोर्ट मिलने में दो घण्टे लग गए।’

‘दो घण्टे? इतना समय तो नहीं लगता रिर्पोटिंग में?’

‘हाँ। लगता तो नहीं लेकिन सी टी स्केन की प्लेटें यहाँ से, मेल पर अहमदाबादवाले डॉक्टर को भेजी जाती हैं। उनके सामने अपनी प्लेटों का नम्बर आने पर वो रिपोर्टिंग करते हैं और यहाँ भेजते हैं। उसके बाद रिपोर्ट का प्रिण्ट-आउट निकल पाता है। इसी में इतनी देर हो गई।’

‘फिर?’

‘इस सब में करीब ढाई बज गए। घर आए। भूख भी लग गई थी और थोड़ीऽसी थकान भी आ गई थी। भोजन किया और सो गया।’

‘फिर?’

‘करीब चार बजे उठा। हाथ-मुँह धोए। पत्नी ने चाय बनाई। यह सब करते-करते पौने पाँच बज गए। अस्पताल के लिए निकल गए। पत्नी को सब्जी लेनी थी। रास्ते में सब्जी ली।’

‘इस बार तो काम फटाफट हो गया होगा। ईको में तो वैसे भी कम्पेरेटिवली कम टाइम लगता है।’

‘नहीं। फटाफट नहीं हुआ। हमारा नम्बर चौथा था। हमारा नम्बर आते-आते साढ़े-छह, पौने सात बज गए।’

‘चलो! आखिरकार सारी जाँचें एक ही दिन में हो गईं। अच्छा हुआ। फिर?’

‘फिर क्या? पत्नी, आते ही सब्जी साफ करने लगी। मैंने धनिया साफ किया। साफ करके काटा। हाथ धोकर निकला ही था कि आप आ गए। बस।’

‘याने आज का पूरा दिन आपने भाभीजी की सेवा में समर्पित कर दिया?’

‘इसमें सेवा और समर्पण की कौन सी बात है। यह तो मेरा ही काम था। अरे! मेरी पत्नी की जाँचें मैं नहीं कराऊँगा तो और कौन कराएगा?’

‘अरे! याने कि आपने तो सच्ची में वेलेंटाइन-डे मना लिया!

‘मैंने वेंलेण्टाइन-डे मना लिया? कैसे?’

‘कैसे क्या? वेलेण्टाइन-डे पर और क्या करते हैं? यही तो करते हैं! प्रेम-प्रदर्शन! एक्सप्रेशन ऑफ लव एण्ड अफेशन टुवर्ड्स योर वेलेण्टाइन।’

‘लेकिन मैंने तो ऐसा कुछ भी नही किया। मेरी पत्नी की डॉक्टरी जाँचें करानी थीं। वही कराईं! इसमें वेलेण्टाइन-डे बीच में कहाँ से आ गया?’

‘अरे! आज का पूरा दिन आपने अपनी भाभीजी की चिन्ता करने में लगाया। उनकी सारी जाँचें कराईं। उनकी डाइबिटीज का ध्यान रखते हुए उन्हें भूखा नहीं रहने दिया। उन्हें नाश्ता कराया। और तो और, घर आने के बाद भी सब्जी-धनिया साफ करने में उनकी मदद की। यह उनके प्रति प्रेम प्रदर्शन ही तो है! आप भले कितना ही कहो कि आप ये डे-वे नहीं मनाते। लेकिन आज तो आपने सच्ची में वेलेण्टाइन-डे मना लिया।’

‘याने कि आप कह रहे हैं कि अपनी पत्नी की चिन्ता कर, उनकी जाँचें कराने में अपना पूरा दिन खपा कर, धनिया साफ कर के, काट कर मैंने उनके प्रति अपना प्रेम जताया है?’

‘हाँ। मैं यही तो कह रहा हूँ!’

‘याने कि आप कह रहे हैं कि वेलेण्टाइन-डे पर अपने प्रिय के प्रति प्रेम जताया जाता है?’

‘हाँ। सही तो!’

‘तो फिर आप, अपने प्रिय के प्रति प्रेम जताने का विरोध क्यों करते हैं? और सच बात तो यह है कि आप विरोध नहीं करते। केवल विरोध करने के लिए विरोध करने का पाखण्ड करते हैं। देखिए ना! मैं न तो ऐसे डे मनाता हूँ न ही आज मैंने वेलेण्टाइन-डे मनाया। लेकिन आपने जबरन मुझसे वेलेण्टाइन-डे मनवा दिया।’

‘......................’

“भई! आपने खुद ही साबित कर दिया है कि आप मूलतः प्रेमी व्यक्ति हैं। वेलेण्टाइन-डे को प्रेम जताने का दिन मानते हैं। खामखाँ क्यों प्रेम के विरोध में खुद को धोखा दे रहे हैं! मेरी मानें तो सीधे घर जाएँ। वेलेण्टाइन-डे बिलकुल न मनाएँ। प्रेम का कौन खास नहीं होता। हर दिन प्रेम का दिन होता है। जाते हुए, रास्ते में कहीं से गुलाब का एक फूल खरीद लीजिएगा। अपनी श्रीमतीजी को दीजिएगा। ‘आई लव यू’ बिलकुल मत कहिएगा। आपकी चुप्पी ही आपके प्रेम का इजहार करेगी। और यदि आपने सच में ऐसा कर लिया तो विश्वास कीजिएगा कि आप खुद को सम्हाल नहीं पाएँगे - हिचकियाँ ले-ले कर रोना शुरु कर देंगे और ये प्रेमाश्रु आपकी आत्मा की निर्मलता शतुगणा कर देंगे।”

‘वे’ कुछ नहीं बोले। चुपचाप उठे। उनकी कोरें भीग आई थीं। चुपचाप ही मुझे नमस्कार किया। और मुझसे नजरें चुराते हुए विदा हो गए।

‘वे’ चले गए हैं। अब मैं रो रहा हूँ। रोते-रोते ही यह पोस्ट लिख रहा हूँ - बड़ी मुश्किल से। लेकिन सच मानिए, रोते-रोते भी निहाल हो रहा हूँ।

प्रेम होता ही ऐसा है।
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