संजय तिवारी फिर अखबारों में
रतलाम से प्रकाशित हो रहे 'साप्ताहिक उपग्रह' ने एक बार फिर श्री संजय तिवारी के ब्लाग 'विस्फोट' से सामग्री ली है ।
अपने ताजा (11 से 17 अक्टूबर 2007 वाले) अंक में 'उपग्रह' ने श्री तिवारी के 'गांधी से राहुल गांधी तक' शीर्षक लेख को छापा है और उनके ब्लाग 'विस्फोट' का उल्लेख भी किया है ।

अच्छी सूचना यह भी है कि श्री तिवारी के 'भाजपा और रामसेतु' शीर्षक लेख को, इन्दौर के अग्रणी सान्ध्य दैनिक 'प्रभातकिरण' ने भी अपने 2 अक्टूबर 2007 के अंक में, सम्पादकीय पन्ने पर छापा है ।

ब्लागियों को बधाई ।

राम सेतु : नई जानकारी

'नईदुनिया' (इन्‍दौर) के, आज ( 13 अक्‍टूबर 2007) के अंक में, पण्डित श्रीयुत ओम प्रकाश शर्मा भारद्वाज (राज मोहल्‍ला, महू) का एक प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्‍होंने 'राम सेतु' को लेकर रोचक और महत्‍वपूर्ण जानकारी दी है । यह पत्र किसी व्‍याख्‍या की मांग नहीं करता । 'नईदुनिया' में प्रकाशित यह पत्र प्रस्‍तुत है -

'श्रीराम सेतु'

आजकल सम्‍पूर्ण भारत में श्री रामसेतु विवाद छाया हुआ है । इस विशय पर श्री मानस का शोध छात्र होने के नाते मैं कुछ तथ्‍यों की ओर देश का ध्‍यान दिलाना चाहता हूं ।


वानर सेना की सहायता व कुशलता से निर्मित इस रामसेतु के माध्‍यम से जब प्रभु श्रीराम लंका विजय पश्‍चात् विभीषण को लंका का राज्‍य देकर वापस श्रीअध्‍योध्‍याजी आ रहे थे, तब विभीषण की प्रार्थना पर इसी रारमसेतु के तीन खण्‍ड प्रभु श्रीराम ने अपने धनुष से कर इसे खण्डित कर दिया । आज वे ही खण्डित भाग दृष्टिगोचर हो रहे हैं ।


हमारी हिन्‍दू संस्‍कृति मान्‍यतानुसार किसी भी खण्डित वस्‍तु या प्रतिमा आदि का पूजन, स्‍पर्श व दर्शन नहीं किया जाता । जब प्रभु श्रीराम ने स्‍वयम् इस सेतु को खण्डित किया, तब आज उसी खण्डित वस्‍तु पर धार्मिक आस्‍थाओं को उभारना उचित नहीं । श्रीराम सेतु समुद्र में डूबा है जहां पूजा-अर्चना सम्‍भव नहीं । अत: इस धार्मिक उन्‍माद पर अंकुश लगाना होगा ।

मर गई, फिर भी सौभाग्‍य कांक्षिणी !

मैं हिन्‍दी के प्रति भावुक जरूर हूं किन्‍तु शुध्‍दता का आग्रही नहीं हूं क्‍यों कि जानता हूं कि शुध्‍द सोने के गहने नहीं बनते । फिर, भाषा तो 'बहती नदी' है । जितने घाटों को छुएगी, उतनी ही सम्‍पदा साथ लेती जाएगी । लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं होना चाहिए कि वह नदी ही न रहे । लिहाजा, न्‍यूनतम सावधानी तो बरतनी ही चाहिए ।

दो उदाहरण प्रस्‍तुत हैं । निष्‍कर्ष खुद निकालिएगा ।

रतलाम निवासी, जैन मतावलम्‍बी एक महिला ने 31 दिनों के उपवास किए । जैन सम्‍प्रदाय में इसे 'तपस्‍या' कहा जाता है और इसका धार्मिक महत्‍व बहुत ज्‍यादा है । जिस परिवार का कोई सदस्‍य यह 'तपस्‍या' कर लेता है, उस परिवार के लिए यह सौभाग्‍य, गर्व और उत्‍सव का कारण बन जाता है । इस महिला की इस उपलब्धि को सार्वजनकि करने के लिए जो प्रेस नोट प्रसारित किया गया उसमें इसे 'सौभाग्‍य कांक्षिणी' के रूप में उल्‍लेखित किया गया जब कि यह महिला न केवल विवाहित है बल्कि बच्‍चों की मां भी है । मजे की बात यह रही कि अधिकांश अखबारों ने इस प्रेस नोट को ज्‍यों का त्‍यों छापा । इस स्थिति को क्‍या कहा जाए ? यह माना जाए कि यह बाल बच्‍चेदार सुहागन एक और विवाह करना चाहती है ?

लेकिन यह तो कुछ भी नहीं है । सबसे तेज गति से बढने का दावा करने वाले, बहु संस्‍करणीय, हिन्‍दी के एक अग्रणी अखबार ने तो कमाल ही कर दिया । एक महिला के अवसान पर, उसके उठावने के विज्ञापन (दिनांक 21 सितम्‍बर 2007) में इस अखबार ने उस महिला के नाम से पहले 'सौभाग्‍य कांक्षिणी' विशेषण प्रयुक्‍त किया है ।

मुमकिन है कि प्रेस नोट तैयार करने वाले और विज्ञापन बनाने वाले का भाषा ज्ञान शून्‍यवत रहा हो लेकिन उन्‍हें छापने वाले अखबारों का भाषा ज्ञान तो भरपूर रहा होगा ? वे तो भाषा की ही रोटी खाते हैं ? फिर, अखबारों को तो यह ध्‍यान भी रखना चाहिए कि लोग उनकी भाषा की नकल करते हैं । उनकी जिम्‍मेदारी तो और अधिक होती है ।

लिहाजा, शुध्‍दता का आग्रह न करते हुए भी, 'अर्थ का अनर्थ न करने का आग्रह' तो किया ही जा सकता है ।

यह आग्रह अनुचित है ?

संजय तिवारी : ब्‍लाग से अखबार पर

ब्‍लागियों के लिए अच्‍छी खबर है । अब छापने वाले भी उन पर न केवल नजर रखने लगे हैं बल्कि उनके लिखे को अपने पन्‍नों पर छापने भी लगे हैं । पहले, तीन ब्‍लागियों के लेख 'बया' ने छापे थे । अब एक साप्‍ताहिक अखबार ने ब्‍लाग से लेकर एक लेख छापा है ।


'विस्‍फोट' वाले श्री संजय तिवारी का लेख 'रामसेतु और भाजपा' रतलाम से प्रकाशित हो रहे साप्‍ताहिक 'उपग्रह' ने अपने, 20 सितम्‍बर 2007 वाले अंक में प्रकाशित किया है । 'बया' का कलेवर, परिवेश और प्रसार पूरी तरह से साहित्यिक और अकादमिक है जबकि 'उपग्रह' पूरी तरह से स्‍थानीयता पर केन्द्रित है । 'रवि रतलामी' के शहर से प्रकाशित हो रहा यह अखबार अपनी शालीनता, सादगी और अव्‍यावसायिकता के लिए विशेष रूप से पहचाना जाता है । इसके संचालक सर्वश्री सुरेन्‍द्रजी छाजेड, सुशीलजी छाजेड और अनुजजी छाजेड इस अखबार को अपने स्‍वर्गीय पिताजी (श्री आनन्‍दसिंहजी छाजेड) की स्‍मृति को बनाए रखने के लिए इसे निरन्‍तर बनाए हुए हैं । स्‍वर्गीय आनन्‍दसिंहजी छाजेड पूरी तरह से जनोन्‍मुखी पत्रकार थे । पत्रकारों के बीच वे 'डैडी' के नाम से पहचाने और पुकारे जाते थे । समझौता शब्‍द उनके शब्‍दकोश में स्‍थान पाने को आजीवन तरसता रहा । इसी 'दुर्गुण' के कारण आपातकाल में उन्‍हें जेल जाना पडा और जेल में ही उनकी मृत्‍यु हुई । पत्रकार समुदाय में उनके लिए कहा जाता था - 'डैडी से डर कर रहो, वे खुद के खिलाफ भी छापने की हिम्‍मत और ताकत रखते हैं ।'


सन् 1963 से लगातार प्रकाशित हो रहे इस अखबार का आयतन भले ही जिज्ञासा का विषय बना हुआ हो लेकिन स्‍थानीय स्‍तर पर इसका घनत्‍व किसी भी राष्‍ट्रीय अखबार से टक्‍कर लेता है । इसमें छपने के लिए लोग शब्‍दश: पंक्तिबध्‍द रहते हैं और इसमें छपी बात पर आंख मूंद कर विश्‍वास करते हैं ।


इसी 'उपग्रह' ने श्री संजय तिवारी का उपरोल्‍लेखित लेख, उनके ब्‍लाग 'विस्‍फोट' के उल्‍लेख सहित अपने सम्‍पादकीय पृष्‍ठ पर छापा है । यह मेरा अभाग्‍य ही है कि मेरे गुरु श्री रवि रतलामी द्वारा सिखाये जाने के बावजूद मैं इस अखबार का वह पृष्‍ठ यहां चिपका नहीं पा रहा हूं । 'उपग्रह' का अंक देख कर कल सवेरे संजयजी को ई-मेल कर उनका पता पूछा । 'उपग्रह' की एक प्रति उन्‍हें भेज रहा हूं । वे ठीक समझें तो उसका सम्‍बन्धित पृष्‍ठ अपने ब्‍लाग पर दे दें । इस बीच मैं भी कोशिश करता रहूंगा ।



ब्‍लागियो के लिए यह खबर निश्‍चय ही प्रसन्‍नतादायक और उत्‍साहजनक होगी क्‍यों कि रतलाम बहुत ही छोटा शहर है - लगभग पौने तीन लाख की आबादी वाला । यहां ब्‍लाग लिखने वालों की संख्‍या पांच तक भी नहीं पहुंची है । इतनी छोटी जगह पर ब्‍लागियों का नोटिस लिया जाना सचमुच में सुखद आश्‍चर्य है ।

सबको लख-लख बधाइयां ।

ब्‍लाग लेखन वर्कशाप श्रृंखला इन्‍दौर में

हिन्‍दी को तकनीक से जोडने की शुभेच्‍छा से और कम्‍प्‍यूटर को कलम की तरह औजार बना कर हिन्‍दी ब्‍लाग लेखन के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए, श्री म.भा. हिन्‍दी साहित्‍य समिति, इन्‍दौर जल्‍दी ही एक वर्कशापों की श्रृंखला शुरु कर रही है । इन वर्कशापों के दो लक्ष्‍य होंगे । पहला - जनमानस में फैला यह भ्रम तोडने की कोशिश करना कि कम्‍प्‍यूटर पर केवल अंग्रेजी में ही काम किया जा सकता है और दूसरा - ब्‍लाग लेखन से अधिकाधिक लोगों को जोड कर सूचना प्रौद्योगिकी और तकनीक के जरिये, हिन्‍दी की क्रियाशीलता को बढावा देने की कोशिश करना ।



इन वर्कशापों के केन्‍द्र में मुख्‍यत: वे लोग होंगे जो न तो तकनीक के जानकार हैं और न ही अंग्रेजी के । गैर जानकारों को जानकार बनाने की कोशिश इन वर्कशापों में की जाएगी । पत्रकारों, साहित्‍यकारों और साहित्‍य प्रेमियों के लिए भी अलग-अलग वर्कशाप आयोजित की जाएंगी लेकिन इस बात का खास ध्‍यान रखा जाएगा कि ब्‍लाग लेखन और साहित्‍य लेखन को पर्याय न समझा जाए । ये सारी बातें मुझे, श्री म.भा;हिन्‍दी साहित्‍य समिति से जुडे श्री सुबोध खण्‍डेलवाल ने कल शाम मुझे फोन पर विस्‍तार से बताईं ।



श्री म.भा;हिन्‍दी साहित्‍य समिति, इन्‍दौर हिन्‍दी को समर्पित देश की अग्रणी संस्‍था है जिसका शुभारम्‍भ महात्‍मा गांधी ने किया था



हिन्‍दी के लिए समर्पित, ब्‍लाग विश्‍व के सुपरिचित और लोकप्रिय, 'सारथी' के स्‍वामी श्री शास्‍त्री जे. सी. फिलिप जल्‍दी ही ग्‍वालियर आने वाले हैं । सुबोध ने बताया कि शास्‍त्रीजी की उस यात्रा को किसी न किसी वर्कशाप से जोडने का प्रयास किया जाएगा । अच्‍छी खबर यह है कि शास्‍त्रीजी ने भी इन्‍दौर पहुंच कर वर्कशापों की किसी कडी में शामिल होने की भावना जताई है ।



मेरे अनुरोध पर सुबोध ने वादा किया है कि वर्कशाप की पहली तारीख तय होते ही वे मुझे सूचित करेंगे ताकि अधिकाधिक लोगों तक यह सूचना पहुंचाई जा सके ।



सोने में सुहागा वाली बात यह होगी कि श्री संजय पटेल भी इन वर्कशापों में 'जोग लिखी' लिखते हुए मिलेंगे ।


अगली सूचना सुबोध से खबर मिलने के बाद ।

नोश फरमाईए : 'झन्‍नाट' रतलामी सेव

इशारों-इशारों में मेरे गुरू श्री रवि रतलाम ने चाहा है कि मैं आपको रतलामी सेव से रू-ब-रू कराऊं । सो, तैयार हो जाईए, आपकी खिदमत में पेश है - रतलामी सेव । क्षमा करें, 'झन्‍नाट रतलामी सेव'



हम रतलामियों को पांच व्‍‍यसन हैं । पहला : आने वालों को रीसिव करना, दूसरा : जाने वालों का रिजर्वेशन कराना, तीसरा : रिजर्वेशन केंसल कराना, चौथा : सी-ऑफ करना और पांचवा : झन्‍नाट रतलामी सेव पहुंचाना । पहले चार से रतलामी एक बार बच भी जाएं लेकिन वह रतलामी ही क्‍या जो पांचवें से बच जाए । जो इनसे जी चुराए, वह और कुछ भी हो सकता है, रतलामी नहीं हो सकता ।



सच तो यह है कि रतलाम के साथ तीन 'स' जुडे हुए हैं जो इसके पर्याय हैं । ये हैं - सोना, सेव और साडी । इनमें से सोना हर किसी की पहुंच में नहीं है, साडी कई लोगों की पहुंच में है लेकिन सेव सबकी पहुंच में है - राजा से लेकर रंक तक और बिडला से लेकर बैरागी तक की पहुंच में । सो, रतलाम की नमकीन सेव या कि बेसन सेव, रतलाम की 'सर्वहारा पहचान' है ।



सेव केवल रतलाम में ही बनती हो, ऐसा बिलकुल नहीं है । विभिन्‍न रूपों, स्‍वरूपों में प्राय: पूरे देश में सेव बनती, बिकती और खाई जाती है । किन्‍तु मालवा इसका मायका है । जैसी सेव मालवा में बनती है, वैसी और कहीं नहीं बनती । बेसन इसका एकमात्र कच्‍चा माल है और विभिन्‍न मसाले इसे जायकेदार बनाते हैं । नमक, मिर्ची, अजवाईन इसके सामान्‍य और सर्वमान्‍य आवश्‍यक तत्‍व हैं । जायके की आवश्‍यकतानुसार इन तत्‍वों के आनुपातिक मिश्रण को आटे की तरह गूंध कर, बारीक छेदों वाले 'झारे' से, भरपूर दबाव देकर निकाल कर खौलते तेल में तल कर सेव बनाई जाती है ।



लेकिन इस प्रकार बनी हुई सेव को रतलामी सेव मानने की चूक मत कर ली‍जि‍एगा । ऐसी बनी सेव खाकर कोई नहीं बता सकता कि यह सेव किस शहर की, किस दूकान की या किस कारीगर की बनाई हुई है । जबकि रतलामी सेव की पहली फक्‍की मारते ही आप खुद-ब-खुद बोल उठेंगे - 'यह रतलामी सेव तो नहीं ?' गोया सेव न हुई, 'ज्ञान बूटी' हो गई



आपकी बेचैनी बढाने में मेरी कोई दिलचस्‍पी नहीं । आपकी नाराजी का खतरा मोल लेने की हिम्‍मत मुझमें नहीं । सो, सीधे-सीधे 'झन्‍नाट रतलामी सेव' पर आ जाता हूं ।


रतलामी सेव के साथ 'झन्‍नाट' का अलंकरण लगता ही लगता है । इस सेव में लौंग, काली मिर्च और हींग न केवल अतिरिक्‍त रूप से बल्कि विशेष रूप से मिलाई जाती है और ये तीन चीजें ही इसे सारी दुनिया से अलग करती हुई इसकी अलग पहचान बनाती हैं । ये तीन 'तत्‍व' देश की अन्‍य किसी सेव में शायद ही मिलें । इनकी वजह से सेव में जो तेजी, तुर्शी और चिरमिराहट भरा तीखापन आता है, उसे ही रतलामी लोग 'झन्‍नाट' बोलते हैं । इसका यह 'झन्‍नाटा' ही इसे सारी दुनिया में बनने वाली सेव से अलग करता है ।



लेकिन केवल यही इसकी खासियत नहीं है । इसके लिए बेसन-मसाला तैयार कर, गूंधने से पहले इसमें भरपूर मात्रा में तेल मिलाया जाता है जिसे गृहिणियां 'मोइन' कहती हैं । इसके कारण सेव में जो नजाकत (मालवी में इसे 'फोसरापन' कहते हैं) आती है उसी के दम पर दावा किया जाता है क‍ि रतलामी सेव खाने के लिए दांतों की जरूरत नहीं होती, इसे होठों से ही चबाया जा सकता है । इसीलिए रतलामी सेव, 'आबाल-वृध्‍द' में समान रूप से लोकप्रिय है ।


यह सेव रतलाम के अर्थशास्‍त्र की रीढ है । आप यदि रतलाम आएं तो आपको न चाहने पर भी सौ-पचास जगह बनती सेव देखनी ही पडेगी । यह रतलाम का सबसे बडा कुटीर उद्योग है । गली-गली में सेव बनती रहती है । रतलाम में प्रतिदिन, कितने स्‍थानों पर, कितनी सेव बनती है, कितनी सेव रतलाम 'प्रापर' में बिकती है और कितनी सेव बाहर भेजी जाती है, इसका निश्चित आंकडा शायद ही मिल सके । यह तभी तय किया जा सकता है जब, सर्वेक्षण करने वाले, शहर की प्रत्‍येक गली में, एक ही समय पर मौजूद रहें । किश्‍तों में किया गया प्रत्‍येक सर्वेक्षण सदैव अधूरा ही साबित होगा । यह व्‍यवसाय रोजगार का सबसे बडा स्रोत है । इसने व्‍यापार के अभिनव तरीके भी प्रदान किए हैं । कुछ सेव निर्माता ऐसे हैं जो में अपनी सेव का एक दाना भी रतलाम में नहीं बेचते, सारी की सारी सेव बाहर भेजते हैं । कुछ नि‍र्माता ऐसे हैं जो केवल थोक व्‍यापारियों को अपना माल बेचते हैं । कई निर्माता सबके लिए अपना दरवाजा खुला रखते हैं । याने वे थोक दुकानदारों को भी माल देते हैं, फुट कर व्‍यापारियों को भी देते हैं और दुकान पर आए ग्राहक को पचास ग्राम तक सेव देते हैं । ऐसे दुकानदार 'एक भाव' याने कि 'फिक्‍स रेट' की नीति पर कायम रहते हैं । एक टन लीजि‍ए या पचास ग्राम - एक ही भाव । न तो किसी के साथ कोई रियायत न किसी से ज्‍यादा वसूली । लेकिन ऐसे निर्माता- व्‍यापारी गिनती के ही हैं ।



अधिकांश लोग, निर्माताओं/थोक व्‍यापारियों से सेव खरीद कर आसपास के देहातों में सप्‍लाय करते हैं तो कई लोग देहातों में अपनी दुकानें खोले बैठे हैं । रतलाम से बाहर के कई बडे शहरों में कई लोग इस सेव के दम पर ही प्रतिष्ठित जीवन-यापन कर रहे हैं । मुम्‍बई में ऐसे अनेक लोग हैं जो फोन पर रतलामी सेव की बुकिंग करते हैं, रतलाम के निर्माताओं से माल प्राप्‍त कर, पर्याप्‍त मुनाफा वसूल कर, मुम्‍बई में घर-घर सेव पहुंचाते हैं ।



मैं रतलाम का मूल निवासी नहीं हूं । सन् 1977 में मैं यहां आकर बसा । अपने पैतृक कस्‍बे में मैं भोजन के साथ नियमित रूप से सेव खाता रहा हूं । लेकिन रतलाम आकर मेरा सेव खाना छूट गया । छूट क्‍या गया, छोडना पडा । कारण ? वही 'झन्‍नाटा', इसकी खासियत, जिसका बखान कर-कर मैं हलकान हुआ जा रहा हूं । इतना तीखापन, इतनी तेजी, इतना चरपरापन मेरी बर्दाश्‍त के बाहर की बात है । इसका 'झन्‍नाटा' मेरे लिए गूढ रहस्‍य बना रहा । सचमुच में गहरी खोजबीन करनी पडी । हकीकत बताई डॉक्‍टर मित्रों ने । उनके अनुसार, रतलाम का पानी तनिक भारी है और इसी कारण यहां 'कब्‍ज रोगी' बडी संख्‍या में हैं । सम्‍भवत: इसी कारण लोगों पर 'आवश्‍यकता ही आविष्‍कार की जननी है' वाली बात लागू हुई होगी और लोगों ने अपने स्‍तर पर 'झन्‍नाटा' ईजाद किया होगा । चूंकि मैं 'इसका' शिकार नहीं हूं सो, 'झन्‍नाट रतलामी सेव' से दूर रहता हूं और मौका मिलते ही मनासा या नीमच से अपने लिए बेसन सेव मंगवाता रहता हूं ।



रतलाम से बाहर के लोगों के लिए 'झन्‍नाट रतलामी सेव' निस्‍सन्‍देह चुम्‍बकीय आकर्षण लिए हुए है । इसे खाने के बाद अच्‍छे-अच्‍छे 'सूरजवंशी', अगली सुबह 'ब्राह्म मुहूर्त' में उठने का पुण्‍य लाभ लेने को विवश हो जाते हैं । तब वे, कान पकड कर 'तौबा' करते हैं लेकिन जैसे ही मौका मिलता हैं, फिर 'झन्‍नाट रतलामी सेव' खाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं और 'सामने है ढेर, टूटे हुए पैमानों का' वाली मिसाल को जिन्‍दा कर देते हैं । हां, सुरा प्रेमियों के बीच यह जबरदस्‍त लोकप्रिय है । उनका कहना है कि 'यह', 'उसका' जायका और सीटींग का आनन्‍द बढा देती है । वे, इसकी मुंह मांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं । मनुष्‍यत्‍व को त्‍याग कर देवत्‍व प्राप्‍त करने को उतावले रहने वाले मेरे ऐसे कई मित्रों के लिए मुझे गाहे-ब-गाहे इसके पार्सल भेजने पडते हैं । वे अनुरोध नहीं करते, आदेश देते हैं । मैं लेतलाली करता हूं तो भयादोहन पर उतर आते हैं । कहते हैं, रतलाम आकर तुम्‍हें जबरन खिलाएंगे । मेरे पास बचाव का कोई रास्‍ता नहीं होता ।



समय के हिसाब से रतलामी सेव भी 'नवोन्‍मेष' प्राप्‍त करती रही है । आपको लहसुन की सेव, टमाटर की सेव, पालक की सेव भी मिल जाएगी । लेकिन ये सब 'फैन्‍सी आयटम' की तरह हैं - केवल वेरायटी और रेंज बढाने के लिए । असली सेव तो वही है - झन्‍नाट रतलामी सेव ।

रतलाम के लोक जीवन में इसकी अपरिहार्यता और लोकप्रियता, दोनों ही सम्‍भवत: 'चरम' पर हैं । रतलाम की प्रत्‍येक होटल के 'मेनू कार्ड' में आपको 'सेव की सब्‍जी' षामिल मिलेगी । इतना ही नहीं, शादी-ब्‍याह जैसे तमाम मंगल प्रसंगों पर आयोजित समारोहों में परोसे जाने वाले व्‍यंजनों में भी 'सेव की सब्‍जी' प्रमुखता से मिलेगी । इसकी तलाश में स्‍टाल-स्‍टाल, तांक-झांक करने वाले अलग से ही पहचाने जा सकते हैं ।


यह सब पढते-पढते आप के मुंह में पानी नहीं भी आया हो तो जिज्ञासा तो यकीनन मरोडें मारने लगी होगी । सारे काम छोडिए और फौरन रतलाम चले आईए । झन्‍नाट रतलामी सेव के साथ मैं आपकी खिदमत के लिए तैयार हूं । हां, भरपूर समय निकाल कर आइएगा । मुमकिन है आपको चिकित्‍सकीय सहयोग की आवश्‍यकता पड जाए । लेकिन घबराईए बिलकुल मत । ललचाई नीयत से तरस-तरस कर जीने के बजाय खा-खा कर दुखी होकर जीना ज्‍यादा अच्‍छा । इस मामले में गांधी को भूल जाइए और ओशो को याद रखिए । गांधी इच्‍छाओं के दमन में विश्‍वास रखते थे और ओशो उनके शमन में ।



रतलाम में आपका स्‍वागत है ।

रवि रतलामी आज सीएनएन आईबीएन पर

और वह प्रतीक्षित घडी आ गई है । सीएनएन आईबीएन के सम्‍वाददाता प्रिय आसिम ने कल शाम फोन पर सूचित किया कि रविवार 16 सितम्‍बर 2007 की शाम को 6.30 बजे, सीएनएन आईबीएन चेनल पर, श्री रवि रतलामी को, समाचार स्‍थल से सीधे ब्‍लागिंग करने वाला अंक दिखाया जाएगा ।
आपको याद होगा कि, छोटे कस्‍बों में बैठकर, इण्‍टरनेट का उपयोग करने वालों और ब्‍लागिंग करने वालों पर, सीएनएन आईबीएन द्वारा श्रृंखलाबध्‍द समाचार कथा प्रसारित करने की सूचना और उस हेतु रतलाम में की गई शूटिंग की विस्‍तृत जानकारी मैं ने आपको अपनी एक पोस्‍ट में दी थी जिसमें मेरे ब्‍लाग-गुरु श्री रवि रतलामी को काम करते हुए दिखाया गया है । रविजी से छोटा सा साक्षात्‍कार भी लिया गया था ।


प्रिय आसिम ने अपना वादा निभाते हुए, चौबीस घण्‍टे पहले इस प्रसारण की सूचना दी है ।


मैं अधीरता से इस प्रसारण की प्रतीक्षा अभी से ही करने लगा हूं क्‍यों कि 'फूलों के साथ धागा भी भगवान के कण्‍ठ तक पहुंच जाता है' वाली बात मुझ पर लागू हो सकती है । रविजी के आग्रह पर प्रिय आसिम ने मुझे भी 'शूट' किया था । मुमकिन है, मुझे भी दिखा दिया जाए ।


आप सबसे मेरा आग्रह है कि कृपया यह प्रसारण अवश्‍य देखिएगा और अपनी राय रविजी तक अवश्‍य पहुंचाइएगा । मुमकिन हो तो अपना 'कृपा प्रसाद' मुझ पर भी बरसाइएगा ।


रविजी की भावना है कि इस प्रसारण की रेकार्डिंग कर, उसके सम्‍पादित अंश वे अपने ब्‍लाग पर प्रस्‍तुत करें । लेकिन वह तभी सम्‍भ्‍ाव हो सकेगा जब सब कुछ न केवल ठीक ठाक रहे बल्कि अनुकूल भी रहे याने बिजली आंख मिचौली न खेले और सारे उपकरण बराबर साथ दें ।

सस्‍ती खरीद के लिए मंहगा भुगतान

हिन्‍दी दिवस प्रसंग पर मैं, बैंक ऑफ बडौदा की स्‍टेशन मार्ग शाखा में मुख्‍य अतिथि के रूप में उपस्थित था । ऐसे आयोजनों को मैं 'राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के परिपालन हेतु, विवशतावश किए जाने वाले शासकीय पाखण्‍ड' ही मानता हूं । ऐसे आयोजनों में आत्‍मीयता और सहज प्रसन्‍नता पर खानापूर्ति की मानसिकता शुरु से लेकर अन्‍त तक हावी रहती है । इसके बावजूद ऐसे आयोजनों में मैं इसलिए शरीक होता हूं कि जैसे भी हों, अन्‍तत: ये हिन्‍दी के लिए हैं और हिन्‍दी न केवल मेरी मातृ भाषा है अपितु मैं अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी भी हिन्‍दी से ही हासिल कर पा रहा हूं, इसलिए मेरी जिम्‍मेदारी और अधिक बढ जाती है । तिस पर भाई श्री प्रकाश अग्रवाल और श्री प्रकाश जैन का ऐसा आग्रह जिसमें वे मेरी मंजूरी पहले ही मान चुके थे और मुझसे उसकी पुष्टि भर चाहते थे । सो, मैं अपने पूरे मन से वहां पहुंचा ।



आयोजन का समय, बैंक के कामकाजी समय में ही था । इसलिए, जैसा कि होना ही था, श्रोताओं की उपस्थिति गिनती की थी, बैंक शाखा के कुछ कर्मचारी, चाह कर आयोजन में उपस्थित नहीं हो सकते थे । वे अपना काम करते हुए आयोजन को देख-सुन रहे थे । याने आयोजक, अतिथि और श्रोता - सबके सब न केवल एक दूसरे को भली प्रकार देख पा रहे थे बल्कि एक दूसरे को व्‍यक्तिगत स्‍तर पर जानते भी थे ।



कर्मचारी मित्रों ने 'क्‍या राष्‍ट्रीयक़त बैंक, निजी बैंकों की चुनौती स्‍वीकार करने में समर्थ हैं' विषय पर एक वाद विवाद प्रतियोगिता रखी थी । निर्णायक मैं ही था । पक्ष में बोलने वाले अधिक थे जबकि प्रतिपक्ष में कुल दो कर्मचारी बोले । श्रीमती सुरेखा सक्‍सेना पक्ष में और श्री प्रकाश जैन प्रतिपक्ष में प्रथम रहे । श्रीमती सुरेखा सक्‍सेना ने मुझे चौंकाया । मैं जब-जब भी बैंक में गया (मेरा बचत खाता इसी बैंक में है) तब-तब मैं ने उन्‍हें चुपचाप, अपना काम करते पाया । वे तभी बोलती हैं जब कोई उनसे कुछ पूछता है । लेकिन उस दिन वे जिस सुन्‍दर वाक्‍य रचना, शब्‍द चयन और धारा प्रवहता से बोलीं वह मेरे लिए अनूठा ही था ।



लेकिन जिस बात को लेकर मैं यह टिप्‍पणी लिख रहा हूं वह भाई प्रकाश जैन ने कही । निजी बैंकों के काम काज की विशिष्‍टताएं गिनवाते हुए उनकी दो बातों ने मेरा ध्‍यान विशेष रूप से आकर्षित किया । पहली तो यह कि निजी बैंकों के कर्मचारियों में नौजवानों का प्राधान्‍य है जबकि राष्‍ट्रीयकृत बैंकों में अधेडों-बूढों की भीड दिखाई देती । जाहिर है कि वर्तमान से जुडने और वर्तमान की आवश्‍यकताओं को अनुभव करने में बूढों-अधेडों के मुकाबले नौजवानों को अधिक कामयाबी मिलती है । वे किसी भी बदलाव के लिए तैयार रहते हैं जबकि बूढे-अधेड अपनी मानसिकता और मान्‍यताओं को बदलने के लिए शायद ही तैयार हो पाते हों । इससे भी आगे बढकर, वे तो नौजवानों की समझ पर भी विश्‍वास नहीं कर पाते । जिस समाज का 54 प्रतिशत युवाओं के कब्‍जें में हो, वहां यह बात बहुत ही महत्‍वपूर्ण है । पीढियों के इस अन्‍तर को इस तरह समझा जा सकता है कि प्रत्‍येक बाप अपने बेटे की पात्रता, योग्‍यता, क्षमता पर सन्‍देह करता रहता है, भले ही यह सन्‍देह वह अपने बेटे का हित चिन्‍तन करते हुए, शुभेच्‍छापूर्वक और सम्‍पूर्ण सदाशयता से करता हो ।



दूसरी बात प्रकाशजी ने जो कही वह मुझे बहुत अधिक खतरनाक लगी । उन्‍होंने कहा कि निजी बैंक अपने अपनी लक्ष्‍य पूर्ति के लिए 'आक्रामक विपणन नीति' (एग्रेसिव मार्केटिंग स्‍ट्रेटेजी) अपनाए हुए हैं जिसमें न तो किसी की भावना की चिन्‍ता की जाती है और न ही किसी को सोचने का अवसर दिया जाता है । इसी बात ने मुझे गहरे सोच और चिन्‍ता में डाल दिया ।



उदारीकरण, निजीकरण और वैश्‍वीकरण (एलपीजी) के चलते हमने हमारे बच्‍चों का बचपन छीन कर उन्‍हें पूरी तरह से 'कैरीयरिस्‍ट' बनने के लिए धकेल दिया । हमने उनसे त्‍यौहार छीन लिए और दादी-नानी की कहानियां छीन लीं । देश में छाया हुआ भौतिकतावाद और उपभोक्‍तावाद इन्‍हीं नीतियों की देन है । हमारी भाषा ही नहीं बदली, हमारा सोच, हमारी प्राथमिकताएं, हमारा व्‍यवहार याने सब कुछ बदल गया है । हममें से प्रत्‍येक व्‍यक्ति इस स्थिति से परेशान भी है और चिन्तित भी लेकिन सबके सब असहाय हैं । ऐसे में अपने संस्‍कारों, परम्‍पराओं को क्षरित होते देखते रहने के लिए हम सब अभिशप्‍त हो गए प्रतीत होते हैं । 'आक्रामकता' जहां होगी वहां 'भावुकता' सबसे पहले बिदा होगी । जबकि हम 'पूरबवाले' अपनी भावनाओं के कारण ही दुनिया भर में पहचाने जाते रहे हैं । 'आक्रामक विपणन नीति' के क्रियान्‍वयन में हमारे बच्‍चे अनजाने में ही पहले तो भावनाविहीन और अन्‍तत: सम्‍वेदनाविहीन नहीं हो जाएंगे ? हमारे बच्‍चे 'पेकेज' के आंकडों को अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्‍य मान कर 'रुपया बनाने वाले यन्‍त्र' बन कर रह जाएंगे ? क्‍या 'कैरीयरिस्‍ट' होने का मतलब असम्‍वेदन हो जाना होता है ? कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पडता है । लेकिन क्‍या यह नहीं देखा जाना चाहिए अधिक मूल्‍यवान क्‍या है - जो प्राप्‍त कर रहे हैं वह या जो खो रहे हैं वह ? यदि यह व्‍यापार है तो व्‍यापार के आधारभूत सिध्‍दान्‍तों को भी नहीं भूला जाना चाहिए ।



यकीनन, हम जो खो रहे हैं वह अधिक मूल्‍यवान, अधिक आवश्‍यक तथा अधिक मानवीय है । लेकिन इसे शायद इसलिए अनुभव नहीं किया जा रहा है कि प्राप्तियां हमें भौतिक रूप में (वस्‍तु या मुद्रा के रूप में) सीधे-सीधे नजर आ रही हैं, हमारे हाथ में आ रही हैं और जो हम खो रहे हैं वह निराकार है और जिसके जाने से (और निरन्‍तर जाते रहने से) हमें तत्‍काल कोई फर्क नहीं पड रहा है ।



कहीं ऐसा तो नहीं कि हम 'सुविधा' के लिए 'संस्‍कारों' का, अपनी 'संस्‍कृति' का, 'सम्‍पूर्ण भारतीयता' का भुगतान कर रहे हैं ?

इंगलैण्‍ड में असभ्‍यों की भाषा थी - अंग्रेजी

अंग्रेजी ने आज भले ही अन्‍तरराष्‍ट्रीय भाषा होने का भ्रामक दर्जा हा‍सिल कर रखा हो लेकिन कोई शायद ही विश्‍वास करे कि अपने ही देश में अंग्रेजी को हेय दृष्टि से देखा जाता था और खुद को सभ्‍य मानने/कहने वाले नागरिक इस भाषा में बात करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे ।



इतिहास साक्षी है कि इंगलैण्‍ड पर फ्रांस का आधिपत्‍य था । 12वीं, 13वीं शताब्‍दी में फ्रेंच वहां के अभिजात्‍य वर्ग की भाषा थी और अंग्रेजी को देहातियों, अनपढों, किसानों, मजदूरों, नौकरों, भिखारियों, जाहिलों, गंवारों की भाषा माना जाता था । तब इंगलैण्‍ड में फ्रेंच के प्रति वही मोह, आकर्षण और 'क्रेज' था जो आज भारत में अंग्रेजी के प्रति है । अभिजात्‍य वर्ग अंग्रेजी में बात करना अपनी शान के खिलाफ मानता था ।


लेकिन मातृ भूमि के प्रति प्रेम और सम्‍मान सार्वभौमिक स्‍थायी भाव है । इसी के चलते अपनी मातृ भाषा के सम्‍मान की स्‍थापना की ललक मन में रखने वाले मातृ भाषा प्रेमी, अंग्रेजी को उसका स्‍थान और सम्‍मान दिलाने के लिए सतत् प्रयत्‍नरत और संघर्षरत थे । इसी कारण सन् 1362 में 'स्‍टेच्‍यूट ऑफ प्‍लीडिंग एक्‍ट' पारित हुआ और अदालतों में अंग्रेजी के उपयोग की अनुमति मिल गई । लेकिन जैसा कि होना ही था, इसका कडा विरोध हुआ । जजों, वकीलों ने अंग्रेजी में काम करने से साफ-साफ इंकार तो नहीं किया लेकिन तर्क किया कि विधि और न्‍याय क्षेत्र में जब अंग्रेजी पुस्‍तकें ही नहीं हैं तो अंग्रेजी में बहस कैसे हो सकेगी और अंग्रेजी में निर्णय कैसे दिए जा सकेंगे ? लिहाजा, उपरोक्‍त अधिनियम पारित होने के बावजूद सारा कामकाज फ्रेंच में ही होता रहा । लेकिन अंग्रेजी को, थोडा-थोडा और धीरे-धीरे ही सही, प्रश्रय मिलने लगा । यह देख कर कट्टरपंथियों ने फ्रेंच की पक्षधरता का मानो अभियान ही शुरू कर दिया । इनकी अगुवाई कर रहे जॉन बर्टन ने फ्रेंच के पक्ष में तीन प्रबल तर्क दिए - पहला : फ्रेंच आन्‍तरिक एवम् अन्‍तरराष्‍ट्रीय संचार का माध्‍यम है, दूसरा : कला, विज्ञान, वाणिज्‍य, विधि और प्रशासन की मानक पुस्‍तकें केवल फ्रेंच में ही उपलब्‍ध हैं और तीसरा : इंगलैण्‍ड के प्रेमी युगल, अपना प्रेम प्रदर्शन फ्रेंच भाषा में ही करते हैं ।


लेकिन मातृ भाषा प्रेमी इन और ऐसे तर्कों से न तो रूके, न हारे और न ही हतोत्‍साहित हुए । उन्‍होंने इस लडाई को भावनाओं के स्‍तर पर ला खडा किया । उन्‍होंने कहा कि वे मानते हैं कि फ्रेंच, लैटीन और ग्रीक भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी साहित्‍य, नगण्‍य, तुच्‍छ और हेय है लेकिन जैसी भी है, अंग्रेजी हमारी मातृ भाषा है । उन्‍होंने पूछा - क्‍या हम अपनी मां का तिरस्‍कार केवल इसलिए कर दें कि दूसरों की माताएं अधिक सुन्‍दर, अधिक सम्‍पन्‍न हैं ?



सन् 1582 में एक कवि ने कहा -


मैं रोम को ह्रदय से प्‍यार करता हूं
पर लन्‍दन को उससे भी अधिक चाहता हूं
मैं इटली को समर्थन देता हूं
पर इंगलैण्‍ड को उससे भी अधिक समर्थन देता हूं
मैं लैटीन का आदर करता हूं
पर अंग्रेजी की पूजा करता हूं


मातृ भाषा प्रेमियों को अन्‍तत: सफलता मिली और 17वीं शताब्‍दी के आरम्‍भ होते-होते दृढ निश्‍चय कर लिया गया कि अब इंगलैण्‍ड का सारा कामकाज अंग्रेजी में ही किया जाएगा । लेकिन निश्‍चय का क्रियान्‍वन आसान नहीं था । भावनाओं के धरातल पर लडी गई लडाई की सफलता, वास्‍तविकता और व्‍यावहारिकता के धरातल पर अपने आप में एक युध्‍द में बदलती दिखाई देने लगी । शब्‍दावली सबसे बडी समस्‍या बन कर सामने आई । हालत यह थी कि प्रशासन के क्षेत्र में केवल 'क्रिग' और 'क्‍वीन' ही शुध्‍द अंग्रेजी शब्‍द थे । क्‍या किया जाए ? प्रश्‍नों के बीहड में रास्‍ता निकाला गया - जो शब्‍द चलन में हैं, उन्‍हें जस का तस स्‍वीकार कर लिया जाए । मुश्किलें आसान हो गईं और प्रशासन के क्षेत्र में गवर्नमेण्‍ट, क्राउन, स्‍टेट, एम्‍पायर, रॉयल, पार्लियामेण्‍ट, असेम्‍बली, स्‍टेच्‍यूट, प्रिंस ड्यूक, मिनिस्‍टर, मैडम आदि तमाम शब्‍द फ्रेंच से लिए गए । इसी प्रकार विधि-न्‍याय के क्षेत्र में जस्टिस, क्राइम, बार, एडवोकेट, जज, पीटीशन, कम्‍पलेण्‍ट, सम्‍मन, वारण्‍ट आदि और दैनन्दिन व्‍यवहार में ड्रेस, फैशन, कॉलर, बटन, डिनर, फिश, टोस्‍ट, बिस्किट, क्रीम, शुगर, ऑरेंज आदि शब्‍द भी फ्रेंच से ले लिए गए । 'ए हिस्‍ट्री ऑफ इंगलिश लेंग्‍वेज' के अनुसार, फ्रेंच से 10 हजार शब्‍द लिए गए । इस प्रकार फ्रेंच तथा अन्‍य भाषाओं से 50 हजार से भी अधिक शब्‍द उधार लिए गए । लेकिन इस 'उधार की पूंजी' से अंग्रेजी क्लिष्‍ट हो गई और इसकी शुध्‍दता खतरे में पड गई । तब शुध्‍दता के मामले में उदार रुख अपनाया गया और विदेशी शब्‍दों के अर्थ के लिए पारिभाषिक शब्‍दावलियां तैयार की गईं । इसके बाद करने के नाम पर केवल आधिकारिक स्‍वीकृति और घोषणा का काम ही बचा था । सो, सन् 1755 में, डॉक्‍टर जॉनसन ने अंग्रेजी भाषा के प्रामाणिक शब्‍दकोश में इन 50 हजार शब्‍दों का समावेश कर, इन पर अंग्रेजी शब्‍द होने का ठप्‍पा लगा दिया । इसी के साथ, 12वीं शताब्‍दी में शुरु हुई, स्‍वभाषा के ससम्‍मान स्‍थापना की लडाई, 19वीं शताब्‍दी के मध्‍य काल में समाप्‍त हुई और इंगलैण्‍ड में अंग्रेजी लागू हो गई ।
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विशेष - कृपया इसे 'मेरा लेख' न समझें । कोई 18-20 वर्ष पहले, 'नव भारत टाइम्‍स' (दिल्‍ली) में, 'और इस तरह लादी गई इंगलैण्‍ड पर अंग्रेजी' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ था । उसके लेखक का नाम तो अब याद नहीं लेकिन उस लेख के नोट्स अब तक मेरे पास रखे हुए मिल गए । उन्‍हीं के आधार पर ये सूचनाएं प्रस्‍तुत हैं ।

तस्‍करों के 'पार्टनर' भगवान

तस्‍करी यूं तो गैर कानूनी हरकत है, ऐसा दण्‍डनीय अपराध है जिसमें कम से कम दस साल की कैद सजा भुगतनी पड सकती है लेकिन जब खुद भगवान ही तस्‍करों के भागीदार हों तो कैसा कानून और कैसी सजा ?



मध्‍य प्रदेश के सीमान्‍त जिला मुख्‍यालय नीमच से राजस्‍थान की झीलों की नगरी उदयपुर जाने वाली सडक पर, नीमच से मात्र 80 किलो मीटर दूर स्थित है - राजस्‍थान और मालवा का प्रख्‍यात तीर्थ स्‍थल : श्री सांवलियाजी । यहां, भगवान श्री कृष्‍ण का, 400 वर्ष पुराना, अत्‍यन्‍त भव्‍य और विशाल मन्दिर है और मन्दिर में विराजित भगवान को 'भगवान श्री कृष्‍ण' के बजाय 'सांवलिया सेठ' के नाम से जाना-पहचाना-पुकारा जाता है । जिस गांव में यह मन्दिर बना है उसका नाम है - मण्‍डपिया । यह गांव राजस्‍थान के चित्‍तौडगढ जिले की निम्‍बाहेडा तहसील के अन्‍तर्गत आता है । 'सांवलिया सेठ' यूं तो सबकी मनौतियां पूरी करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन अफीम तस्‍करों में ये न केवल विशेष लोकप्रिय हैं बल्कि अफीम तस्‍करों के बडे भरोसेमन्‍द भगवान भी हैं । इतने भरोसेमन्‍द कि वे इन्‍हें अपना पार्टनर बनाए हुए हैं । भरोसे की पराकाष्‍ठा यह है कि 'सांवलिया सेठ' को इन अफीम तस्‍करों का भागीदार बनना मंजूर है या नहीं - यह जाने की जरूरत भी अनुभव नहीं होती ।



तस्‍करी अभियान पर जाने से पहले या अभियान शुरू करने से पहले, ये तस्‍कर इस मन्दिर पर दर्शन के लिए आते हैं और मनौती मानने के साथ ही अपने अभियान की सफलता पर 'सांवलिया सेठ' की भगीदारी भी तय करते हैं । यह भागीदारी कभी आय का एक निश्चित प्रतिशत होती है तो कभी अफीम की निश्चित मात्रा । स्‍वैच्छिक रूप से, एकतरफा तय की गई इस भगीदारी को निभाने में ये तस्‍कर बडी ईमानदारी बरतते हैं और अभियान की सफलता पर तयशुदा नगद रकम या अफीम 'सांवलिया सेठ' की दान पेटी में डाल देते हैं । यह दान पेटी प्रत्‍येक महीने की अमावस्‍या को, सबके सामने खुलती है । इस दानपेटी से निकलने वाल रकम प्रति माह बढती जा रही है । जून 2007 में खुली पेटी में से 76 लाख रूपये निकले जो अब तक की सर्वाधिक राशि साबित हुई है । जुलाई और अगस्‍त के आंकडे अभी सामने नहीं आ पाए हैं । नकदी के अलावा सोने-चांदी के गहने भी दान पेटी से निकलते हैं । इस लिहाज से यह मन्दिर मालवा, मेवाड एवम् मारवाड का 'तिरूपति' बनता जा रहा है



मालवा-राजस्‍थान में अफीम की खेती न केवल लाभदायक सौदा माना जाता है बल्कि यह सामाजिक प्रतिष्‍ठा का एक महत्‍वपूर्ण पैमाना भी है । अफीम उत्‍पादक किसान को सम्‍पन्‍न माना ही जाता है । जिसके पास जितनी ज्‍यादा अफीम खेती का पट्टा (लायसेंस), वह उतना अधिक हैसियतदार । न्‍यूनतम सीमा - 10 आरी । आरी याने भूमि रकबे की एक इकाई । पट्टे (लायसेंस) के आधार पर किसान को सरकार को दी जाने वाली अफीम की न्‍यूनतम मात्रा का निर्धारण सरकार करती है जो वास्‍तविक उपज से कम ही होती है । सरकार को अफीम जमा करा देने के बाद जो अफीम बचती है वह तस्‍करी के जरिए बेच दी जाती है । इसमें खतरा तो अच्‍छा खासा होता है लेकिन लाभ उससे भी ज्‍यादा अच्‍छा खासा होता है । सो, प्रत्‍येक किसान कम से कम 10 आरी का पट्टा (लायसेंस) प्राप्‍त करने के लिए जी-जान लगा देता है । पट्टा (लायसेंस) जारी करने के प्रावधान इतने स्‍पष्‍ट और सख्‍त हैं कि इसमें राजनीतिक सिफारिश नहीं चल पाती है । ऐसे में किसानों और तस्‍करों को 'सांवलिया सेठ' का ही भरोसा होता है । 'लोक विश्‍वास' है कि 'सांवलिया सेठ' को 'पार्टनर' बनाने पर शत प्रतिशत सफलता सुनिश्चित है ।



दान पेटी में डाली गई रकम तो मन्दिर के बजट में आ जाती है लेकिन अफीम का क्‍या किया जाए ? उसे बेचना तो कठोर दण्‍डनीय अपराध है । सो, आसान और अनूठा रास्‍ता यह निकाला कि इस अफीम का घोल बना कर 'सांवलिया सेठ का चरणामृत' के रूप में दर्शनार्थियों को वितरित कर दिया जाए । सो, जब-जब भी 'सांवलिया सेठ' (अब आप चाहें तो इन्‍हें, 'तस्‍करों का पार्टनर' होने के कारण 'तस्‍कर सांवलिया सेठ' भी कह लें तो खुद 'सांवलिया सेठ' भी शायद ही प्रतिवाद करें) की दान पेटी में अफीम निकलती है तो 'अफीमचियों' की लॉटरी खुल जाती है ।



भगवान और धर्म के इस 'अनुपम उपयोग' पर नारकोटिक्‍स विभाग, राज्‍य सरकार और तमाम राजनीतिक दल 'एक ही थैली के चट्टे-बट्टे' की तरह चुप हैं । कौन बोले और क्‍या बोले ?



उदयपुर, नीमच, चित्‍तौड और निम्‍बाहेडा ये चारों नगर/कस्‍बे रेल्‍वे से जुडे हुए हैं (मुमकिन है कि ज्ञानदत्‍तजी ने इस मन्दिर की यात्रा की हो) और 'श्री सांवलियाजी' (याने मण्‍डपिया गांव) जाने के लिए ठसाठस भरी जीपें उपलब्‍ध रहती हैं । मण्‍डपिया में ढेरों धर्मशालाएं और दाल-बाटी वाले भोजनालय आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । एक बार जाइए और इस विवरण की पुष्टि कीजिए । हां, यह जरूर बताइएगा कि 'सांवलिया सेठ का चरणामृत' का पान करने के बाद आप किस गति को प्राप्‍त हुए और उस गति में कितनी देर रहे ।

बाफला और कलेक्‍टर की बर्खास्‍तगी


मालवा का जग विख्‍यात सुस्‍वादु व्‍यंजन 'बाफला' एक कलेक्‍टर की बर्खास्‍तगी का सबब बन ही गया था । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । किसका भाग्‍य अच्‍छा था - बाफले का या कलेक्‍टर का, यह आप ही तय कीजिएगा ।

वाकया 1970 का ही है । पण्डित श्‍यामाचरण शुक्‍ल के नेतृत्‍व वाले, मध्‍य प्रदेश के कांग्रेसी मन्त्रि मण्‍डल में श्री वसन्‍तराव उइके शिक्षा मन्‍त्री और श्री बालकवि बैरागी, सूचना प्रकाशन राज्‍य मन्‍त्री थे । उइके साहब सिवनी जिले से तथा बैरागीजी मन्‍दसौर जिले से थे । उन दिनों मन्त्रियों को जन सम्‍पर्क दौरे करने पडते थे । (इन्‍हीं जन सम्‍पर्क दौरों को मीडीया ने इन दिनों 'रोड शो' का नाम दे रखा है ।) इसी चलन के चलते, उइके साहब, मन्‍दसौर जिले के जन सम्‍पर्क दौरे पर थे ।

मन्‍दसौर जिले में एक गांव है - भाऊगढ । मन्‍दसौर से महू की ओर जाते समय, कोई बीस-बाईस किलोमीटर के बाद, दलौदा के पास से, सडक से लगभग 34-35 किलोमीटर अन्‍दर स्थित यह गांव आज तो आधुनिक सुविधाओं से लैस है लेकिन तब वहां जाने के लिए गिट्टी वाली सडक भी नहीं थी । बैलगाडी से जाना पडता था । बरसात के मौसम में यह गांव दुनिया से मानो कट ही जाता था । जिसे भी भाऊगढ से शहर आना हो या शहर से भाऊगढ जाना हो तो 34-35 किलोमीटर की यह दूरी, घुटनों-घुटनों कीचड पार करनी पडती थी । उन दिनों भाऊगढ को 'काला पानी' कहा जाता था और जिस सरकारी कमर्चारी से राजनीकि बदला लेना होता, उसका तबादला भाऊगढ करा दिया जाता था । भाऊगढ तबादला होने की कल्‍पना मात्र से सरकारी कर्मचारियों की रीढ की हड्डी में भी कंपकंपी छूट जाती थी ।

तब भाऊगढ में आठवीं कक्षा तक का, मिडिल स्‍कूल था । गांव वाले अपने यहां हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल चाहते थे । चूंकि बैरागीजी मन्‍दसौर जिले से थे सो, भाऊगढ के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने बैरागीजी से सम्‍पर्क साधा । बैरागीजी ने कहा कि वे शिक्षा मन्‍त्रीजी को भाऊगढ में ला कर खडा कर देंगे, हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल की मांग को अपनी मांग भी कह देंगे लेकिन उइके साहब को मनाने का काम तो भाऊगढवालों को ही करना होगा । भाऊगढवालों ने कहा - 'आप तो उइके साहब को ले आओ, बाकी हम देख लेंगे ।'

इसी सम्‍वाद के तारतम्‍य में, उइके साहब के जनसम्‍पर्क दौरे में भाऊगढ भी शरीक किया गया और इस तरह किया गया कि उइके साहब का, उस दिन का दोपहर का भोजन भाऊगढ में ही हो ।

तयशुदा कार्यक्रमानुसार, जीपों के काफिले और सरकारी लाव-लश्‍कर के साथ उइके साहब और बैरागीजी भाऊगढ पहुंचे । लोगों ने सचमुच में पलक पांवडे बिछा दिए । गांव की कोई गली ऐसी नहीं बची जिसमें स्‍वागत द्वार न बना हो और जिसमें से दोनों मन्त्रियों को न घुमाया गया हो । भाऊगढ जितनी जन संख्‍या वाले और किसी भी गांव में उइके साहब ने इतनी मालाएं अपने जीवन में न तो तब पहनी थीं और न बाद में कभी पहनी होंगी । ढोल ढमाकों के अलावा आसपास से बैण्‍ड भी बुलवाया गया था । गोटा-किनारी और इसी के फूलों से जगर-मगर करते, चमचमाते, रंगीन लुगडे ओढे, औरतें बधावे और मंगल गीत गा रही थीं, नाच रही थीं । लगता था मानो समूचे मालवा के सारे उत्‍सवों की रंगीनी और मस्‍ती-मादकता भाऊगढ की गलियों में सिमट आई थी । भाऊगढवालों ने इतनी गुलाल उडाई कि दोनों मन्त्रियों की दशा 'जित देखो तित लाल' हो गई थी । उइके साहब 'गदगद' और 'पुलकित' के पर्याय हो गए थे । उन्‍हें विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा स्‍वागत भी हो सकता है ।

अन्‍तत:, दोनों मन्त्रियों का जुलूस मंच-मुकाम पर पहुंचा । यहां एक बार फिर उइके साहब को फूलों से लाद दिया गया । गांव वालों की ओर से ज्‍यादा भाषणबाजी नहीं हुई । एक ही बात कही गई - 'हमें सडक, पानी, बिजली कुछ भी नहीं चाहिए । हमें तो बस, हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल दे दीजिए ।' स्‍थानीय मन्‍त्री की हैसियत से बोलते हुए बैरागीजी ने गांववालों की मांग को अपनी मांग कहा और बैठ गए । अब बारी उइके साहब की थी । वे अनुभवी, परिपक्‍व और मंजे हुए नेता थे । लोगों की नब्‍ज पहचानने में महारत थी उन्‍हें । उन्‍होंने बिना वक्‍त जाया किए, भाऊगढ में हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल खोलने की घोषणा कर दी । घोषणा क्‍या हुई मानो चमत्‍कार हो गया । 'उइके साहब - जिन्‍दाबाद' के नारे लगने लगे, गांव के बूढे मारे खुशी के रोने लगे, लोगों के कण्‍ठ रुंध गए, हिचकियां बंध गईं । औरतें बलैयां ले-ले कर उइके साहब को असीसने लगीं । मंजर इतना जजबाती हो गया कि खुद उइके साहब की आंखें भर आईं । ऐसी घोषणाएं उन्‍होंने पहले भी कई जगहों पर की थीं लेकिन ऐसा प्रतिसाद तो उन्‍हें कहीं नहीं मिला था जो उनके लिए आजीवन अविस्‍मरणीय और अनुपम परिसम्‍पत्ति बन गया । वे भी भाव विह्वल और विगलित हो गए ।


जैसे-तैसे समारोह समाप्‍त हुआ । अब भोजन की बारी आई । मालवा में विशेष प्रसंग पर भोजन में छिलके वाली उडद की दालदाल, बाफले और चूरमा के लड्डू के सिवाय और बन ही क्‍या सकता था ? यही सब बना था । बाफला कितना स्‍वादिष्‍ट और कितना 'भारी' होता है यह आप 'हथियार भी है मालवी बाफला' वाली पोस्‍ट से जान ही चुके हैं । इसमें एक बात और जोड लीजिए । बाफले में घी जितना अधिक मिलाया (या डाला) जाता है, उसका स्‍वाद और 'भारीपन' उतना ही बढता जाता है । ठीक उसी तरह जिस तरह कि आयुर्वेदिक दवाइयों को घोटने पर उनकी 'पोटेंसी' बढती है । भाऊगढ में तो उस दिन होली- दीवाली सहित सारे त्‍यौहार आ गए थे और भाऊगढवाले उइके साहब पर न्‍यौछावर होने का कोई भी क्षण नहीं छोडना चाहते थे । सो, बाफलों को 'स्‍पेशल ट्रीटमेण्‍ट' यह दिया गया कि बाफलों में घी डालने के बजाय बाफलों को घी में डाल दिया गया - बिलकुल गुलाब जामुन की तरह । बाफलों को गुलाब जामुन की तरह, घी से लबालब भरी गहरी कढाई में तैरते हुए मैं ने न उससे पहले कभी देखा था और न ही उसके बाद से अब तक देखा है । परोसने के लिए बाफले को जब कढाई में से निकाला जा रहा था तो घी, धार बन कर चू रहा था । बाफला परोसने काबिल हो, इसके लिए उसे कढाई में से निकालने के बाद कोई आधा मिनिट तक प्रतीक्षा करनी पड रही थी ।

पंगत लगी । दाल, आधा-आधा बाफला और चूरमा लड्डू परोसे गए और लोगों ने दोनों हाथ जोड कर उइके साहब से निवेदन किया - 'करो लक्ष्‍मीनारायण ।' भोजन शुरू करने के लिए मालवा में यही कह कर निवेदन‍ किया जाता है । उइके साहब ने पहला कौर तोडा । कौर क्‍या था मानों रूई का फाहा हाथ में आ गया हो - मक्‍खन से भी ज्‍यादा मुलायम । कौर को दाल में डुबो कर मुंह में रखा तो उइके साहब उछल ही पडे । ऐसी रसानुभूति उन्‍हें पहली ही बार हुई थी । 'पांचों पकवान और पचीसों व्‍यंजन' दाल-बाफले के सामने 'धूल धुसरित' हो चुके थे । अपेक्षा से कहीं कम समय में ही उइके साहब ने आधा बाफला समाप्‍त कर, और बाफले की इच्‍छा प्रकट कर दी । पूरा भाऊगढ उइके साहब की सेवा में था । उइके साहब ने कहने में जितनी देर लगाई उसके हजारवें हिस्‍से में बाफला उनकी पत्‍तल पर था । मेहमान और मेजबान की इस 'फुर्ती प्रतियोगिता' में बैरागीजी ने व्‍यवधान डाला । उइके साहब से बोले - 'भाई साहब ! और मत लीजिए, आधा ही बहुत है ।' उइके साहब को यह 'रस-भंग' अच्‍छा नहीं लगा । उन्‍होंने बैरागीजी की तरफ सरोष देखा और लगभग झिडकते हुए कहा कि उन्‍हें बैरागीजी से इस अशिष्‍टता की उम्‍मीद नहीं थी । कहां तो बैरागीजी मालवा की मुनहार-परम्‍परा का बखान करते रहे हैं और आज जब स्‍वादिष्‍ट व्‍यंजन का आनन्‍द लेने का अवसर मिला है तो मनुहार करना तो दूर रहा, मांगने पर भी रोक लगा रहे हैं ? बैरागीजी सकपकाए जरूर लेकिन वे 'आगत की आहट' खूब अच्‍छी तरह सुन रहे थे । सो, उन्‍होंने अपनी सीमाओं में रहते हुए एक बार फिर समझाने की नाकाम कोशिश की और बदले में और अधिक जोरदार झिडकी खाई । बैरागीजी ने चुप रहने में ही भलाई समझी क्‍यों कि उइके साहब के साथ-साथ भाऊगढवाले भी बैरागीजी से नाराजी जताने लगे थे । इसी माहौल में उइके साहब ने लगभग सवा दो बाफले 'जीम' लिए ।


भोजन करते ही अगले पडाव के लिए चल पडना था । लेकि‍न यह भी तो नहीं होता कि हाथ धोये और चल दिए । सो, पंगत से उठ कर, हाथ धो कर, पानी पी कर, हाथ-मुंह पोंछते-पोंछते जीप तक आएं तब तक पन्‍द्रह-सत्रह मिनिट तो हो ही गए । बातें करते-करते उइके साहब ने अनुभव किया कि उनका गला तेजी से सूख रहा है और बोलने में कठिनाई हो रही है । उन्‍होंने पानी मांगा । लोगों को पता था । सो, फौरन ही ठण्‍डा पानी पेश कर दिया गया । उइके साहब ने भरपूर मात्रा पानी पिया तो सही लेकिन उन्‍हें लगा कि उनका पेट अतिरिक्‍त रूप से तन रहा है । लेकिन उन्‍होंने इसे 'परदेस के खाने में ऐसा हो जाता होगा' जैसा तर्क देकर खुद को समझाया । वे जीप में बैठने लगे तो बैरागीजी ने कहा - 'भाई साहब ! आप बीच में, ड्रायवर के पास बैठिये और मुझे बाहर की ओर बैठने दीजिए ।' उइके साहब सचमुच में नाराज हो गए । बोले - ' एक तो मैं केबिनेट मिनिस्‍टर हूं और तुम स्‍टेट मिनिस्‍टर । फिर, यह जनसम्‍पर्क दौरा मेरा है । तुम बाहर की ओर कैसे बैठ सकते हो ? तुम्‍हें हो क्‍या गया है ? ऐसा कहने से पहले तुमने जरा भी नहीं सोचा कि यह प्रोटोकाल के खिलाफ है ?' बैरागीजी काफी कुछ कहना चाहते थे लेकिन उन्‍होंने चुप रहने में ही अपनी खैर समझी । जीप के खुले वाले एक ओर के हिस्‍से में ड्रायवर, दूसरी ओर वाले खुले हिस्‍से में उइके साहब और दोनों के बीच में बैरागीजी बैठे ।


यात्रा शुरू हुई तो थोडी ही देर में बैरागीजी को अपना दाहिना हाथ, उइके साहब की पीठ के पीछे से ले जाकर, उइके साहब के दाहिने कन्‍धे पर रखकर, उइके साहब को पकड कर बैठना पडा क्‍यों कि उइके साहब, तेज चलती जीप में भी खूब गहरी नींद में सो गए थे । उनकी गर्दन, जीप के सामने वाले काच तक झुक आई थी और उबड-खाबड रास्‍तों की वजह से, जीप के हिचकोलों से भी उनकी नींद में कोई व्‍यवधान नहीं आ रहा था । बरसातों के ठीक बाद का मौसम था, गांवों के कच्‍चे रास्‍तों में खूब गहरे गड्ढे थे, उन्‍हें पार करने में जीप उचक-उचक जा रही थी और साथ-साथ उइके साहब भी । लेकिन नींद थी कि बराबर बनी हुई थी । उइके साहब गिर न जाएं, इसलिए बैरागीजी उन्‍हें अपनी पूरी ताकत से थामे हुए थे । हिचकोले खाती जीप में, हिचकोले खाते, निन्‍द्रामग्‍न उइके साहब के भारी भरकम शरीर को सम्‍हालने में बैरागीजी को अपनी ताकत से ज्‍यादा मशक्‍कत करनी पड रही थी ।


अगला पडाव आया । जीप रूकी । रास्‍ते किनारे, प्रतीक्षारत गांववाले, हाथों में मालाएं लिए, जिन्‍दाबाद के नारे लगा रहे थे लेकिन उइके साहब तो मानो 'फूलों की सेज' पर सोए हुए थे । बैरागीजी उन्‍हें जोर-जोर से झकझोर कर जगाने की कोशिश करने लगे । उन्‍हें झिंझोडते, झकझोरते हुए 'भाई साहब ! भाई साहब !! उठिए । गांव आ गया है । लोग आपको मालाएं पहनाना चाहते हैं । उठिए ।' कहे जा रहे थे । उइके साहब कुनमुनाए, 'ऊं, आं' करते हुए आंखें खोलने की कोशिश की लेकिन आंखें खुल नहीं पाईं । उन्‍होंने जोर-जोर से अपनी आंखें मसलीं, आस-पास देखा, बमुश्किल जीप से उतरे और बोले - 'माला बाद में पहनाना, पहले पानी पिलाओ ।' पानी जीप में था ही । प्रस्‍तुत किया गया । उन्‍होंने फिर भरपूर पानी पीया और पानी पीते-पीते उन्‍हें एक बार फिर वही अनुभूति हुई - उनका पेट तनने लगा है । उन्‍होंने पूछा - 'मुझे यह क्‍या हो रहा है ?' बैरागीजी बोले - 'मैं ने आपसे कहा था न कि आधा बाफला ही काफी होगा । लेकिन आप मुझ पर नाराज हो गए । यह सब बाफले का ही असर है ।' उइके साहब ने अविश्‍वास से बैरागीजी की ओर देखा और फिर, जीप में पीछे की ओर बैठे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं की ओर सवालिया निगाहों से देखा । सबने बैरागीजी की बात की पुष्टि की । तसल्‍ली होते ही उन्‍होंने जोर से आवाज लगाई - 'मुदलियार !' मुदलियार याने मन्‍दसौर जिले के (तत्‍कालीन) कलेक्‍टर श्री पी जी वाय मुदलियार - बडे सुलझे हुए, अनुभवी और प्रत्‍युत्‍पन्‍नमति वाले, भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के वरिष्‍ठ सदस्‍य । भाऊगढ में उन्‍होंने, दोनों मन्त्रियों के साथ ही भोजन किया था और बाफलों की 'घातक-मारक शक्ति' से भली प्रकार वाकिफ थे । इस स्थिति का पूर्वानुमान वे, उइके साहब को 'प्रेमपूर्वक बाफला सेवन' करते हुए देख कर लगा चुके थे । उइके साहब की जीप के ठीक पीछे उनकी जीप थी । उइके साहब की जीप रूकते ही उनकी जीप भी रूक ही गई थी और उइके साहब उन्‍हें पुकारते, उससे पहले ही वे उइके साहब के ठीक पीछे आकर खडे हो गए थे । सो, उइके साहब की 'हांक' सुनते ही, सामने प्रकट होकर, आज्ञाकारिता की चाशनी घोलते हुए बोले - 'यस सर !' उइके साहब ने कहा - 'ये जो आज मैं ने भोजन में खाए हैं........' वे अपनी बात पूरी करते, उससे पहले ही मुदलियार साहब बोले - 'बाफले सर !' उइके साहब बोले - 'हां वही ।' मुदलियार साहब ने पूछा - 'सो व्‍हाट अबाउट बाफला सर ?' उइके साहब बोले - 'व्‍हाट अबाउट क्‍या, इस मिनिट के बाद से मेरे भोजन में, मेरे सामने ये एटम बम आ गए तो मैं तुम्‍हें बर्खास्‍त कर दूंगा ।' मुदलियार साहब ने कहा - 'डोण्‍ट वरी सर ! नाउ ड्यूरिंग योर दिस टूर, यू विल नॉट सी बाफला इन योर मील्‍स सर ।' उइके साहब ने पूछा - 'श्‍योर ?' खातरी दिलाते हुए मुदलियार साहब बोले - 'डेड श्‍योर सर । ऑफ्टर ऑल दिस इज क्‍वेश्‍चन ऑफ माई सर्विस सर ।' और कह कर, पीठ फेर कर, बमुश्किल अपनी हंसी रोकते हुए, अपनी जीप में जा बैठे ।

उसके बाद कैसे, क्‍या हुआ - ये सारी बातें बरसों तक मन्‍दसौर जिले में लोक कथाओं की तरह कही-सुनी जाती रहीं । उइके साहब के शेष जनसम्‍पर्क में उनके भोजन के लिए चांवल और केरी का पना स्‍थायी व्‍यंजन बने रहे । लेकिन बाफले तो मालवा का अविभाज्‍य, अपरिहार्य बल्कि मालवा को पूर्णता प्रदान करने वाला व्‍यंजन है, सो जनसम्‍पर्क के दौरान, कई गांवों में उइके साहब को बाफलों की मनुहार का सामना करना पडा । जैसे ही उनके सामने बाफला परोसने वाला आता, वे लगभग दुत्‍कारते हुए कहते - 'अरे ! हिश्‍ट । हटाओ इन बम के गोलों को मेरे सामने से ।' इसी बीच मुदलियार साहब तेजी से वहां पहुंचते, बाफला परोसने वाले को भगाते और हंसते हुए 'सॉरी सर ! सॉरी सर !!' कहते-कहते उइके साहब के सामने ही खडे हो जाते ताकि बाफला परोसने वाला कोई दूसरा आदमी वहां न आ जाए । उइके साहब भी मन्‍द-मन्‍द मुस्‍कुराते और कहते -'जाओ मुदलियार ! तुम भी खाना खा लो ।' मुदलियार साहब गम्‍भीरता ओढ कर कहते - 'नो सर ! ऑफ्टर ऑल इट इज क्‍वेश्‍चन ऑफ माई सर्विस । आई डोण्‍ट वाण्‍ट टू बी टर्मिनेटेड एण्‍ड देट इज टू जस्‍ट बिकाज ऑफ बाफलाज !'


और इस तरह, उइके साहब का शेष जनसम्‍पर्क दौरा बिना बाफला के, शान्तिपूर्वक सम्‍पन्‍न हो गया । अब आप ही तय कीजिए कि किसका भाग्‍य अच्‍छा था - बाफले का या कलेक्‍टर का ?

हथियार भी है मालवी बाफला

मालवा के स्‍वादि‍ष्‍ट व्‍यंजन 'बाफला' की प्रारम्भिक जानकारी आपने चिपलूनकरजी के चिट्ठे से हासिल कर ली होगी । बाफला बनाने का जो तरीका उन्‍होंने बताया है, वह 'सर्वहारा' का सामान्‍य तरीका है । वर्ना इस क्षेत्र में भी 'विशेषज्ञ' मौजूद हैं जो तरह-तरह से, तरह-तरह के बाफले बना कर आपको अपना मुरीद बना लेंगे । लेकिन इन 'तरह-तरह' के बाफलों में एक विश्‍व व्‍यापी समानता यह है कि अन्तिम प्रभाव सबका एक जैसा ही होता है । बाफले का एकमेव, अन्तिम और अपरिहार्य प्रभाव होता है - इसे खाने के बाद आप लाख चाहें तो भी काम नहीं कर पाते । इसे खाने के बाद आपको आराम करना ही करना है ।बाफले के इस प्रभाव का 'उपयोग' अपने पक्ष में कोई कैसे कर सकता है और इसके उपयोग से कोई खुद को किस तरह से परेशान कर सकता है, इसके दो 'अनुपम' संस्‍मरण मेरे पास हैं । यकीनन, इनका जायका बाफलों के सामने कुछ भी नहीं है लेकिन इतना बुरा और इतना कम भी नहीं है कि आपको मजा ही न आए ।



लखनऊ निवासी, हिन्‍दी के ख्‍यात समीक्षक-आलोचक श्री राजनारायण बिसारिया, कोई सैंतीस-अडतीस बरस पहले बाफला-प्रभावित हुए थे, यह खुद बिसारियाजी, अब तक भी नहीं जानते होंगे । यह बात सम्‍भवत: सन् 1969 की है । 1967 में बनी, मध्‍य प्रदेश की संविद (संयुक्‍त विधायक दल) सरकार का पतन होने के बाद, पण्डित श्‍यामाचरण शुक्‍ल के नेतृत्‍व में कांग्रेस सरकार बनी थी । घोषित प्रतिकूल गुटीय निष्‍ठा के बावजूद उन्‍होंने श्री बालकवि बैरागी को राज्‍य मन्‍त्री के रूप में अपने मन्त्रि मण्‍डल में शामिल किया था । किसी साहित्‍यकार को मन्‍त्री बनाए जाने से तब, साहित्‍यकारों की जमात में अपेक्षित प्रसन्‍नता व्‍याप्‍त थी । बैरागीजी के बंगले पर साहित्‍यकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जमावडा बराबर बना रहता था ।


इसी क्रम में एक दिन सवेरे-सवेरे, श्री राजनारायण बिसारिया लखनऊ से चलकर भोपाल पहुंचे । अपने मित्र से मिल कर बधाई और शुभ-कामनाएं देना उनका एकमात्र 'पाक मकसद' था, इसके सिवाय उन्‍हें भोपाल में और कोई काम नहीं था । ऐसे 'निश्‍छल आगमन' से बैरागीजी पुलकित, मुदित हो गए ।


नित्‍यकर्म से मुक्‍त होकर दोनों मित्र बतियाने बैठे । बातों का सिलसिला शुरू हुआ ही था कि बैरागीजी के निजी सचिव (पी ए) निरखेजी ने फोन पर सूचना दी कि मुख्‍यमन्‍त्रीजी ने दोपहर में, मन्त्रि मण्‍डल की आवश्‍यक बैठक बुलाई है । बैरागीजी असहज हो गए । विवेक पर आत्‍मा भारी पडने लगी थी । बिसारियाजी को छोड नहीं सकते और मन्त्रि मण्‍डल की बैठक से तडी मारने की तो कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी । बडा धरम संकट खडा हो गया था और दोनों धरम निभाना जरूरी था । 'क्‍या करें, क्‍या न करें' के उहापोह में फंसे बैरागीजी को 'संकटमोचक' के रूप में 'बाफला' याद हो आया । उन्‍होंने बिसारियाजी के आतिथ्‍य को मालवा की विशिष्‍टता का स्‍पर्श देते हुए, भोजन में 'दाल-बाफला' बनाने का निर्देश दिया ।


इधर दोनों मित्र बतियाते रहे और उधर बाफले बनते रहे । बीच-बीच में बैरागीजी अपना 'राज-काज' भी निपटाते रहे । थोडी ही देर में भोजन का बुलावा आया । बिसारियाजी ने इससे पहले बाफला देखा भी नहीं था तो चखने का तो सवाल ही नहीं उठता । बैरागीजी ने अपनी साहित्यिकता का सम्‍पूर्ण उपयोग करते हुए बाफला की खासियतों को बखान कुछ इस तरह से किया कि बिसारियाजी के दिल-दिमाग पर बाफला पूरी तरह काबिज हो गया । जिसने कभी बाफला खाया होगा वह भली प्रकार जानता होगा कि इसका स्‍वाद, आदमी को लगभग अनियन्त्रित कर देता है । फिर, बैरागीजी द्वारा की जा रही मनुहार पर मनुहार और लखनवी मिजाज के बिसारियाजी मनुहार के कच्‍चे । सो,बिसारियाजी को पता ही नहीं चला कि वे अपनी आवश्‍यकता से कुछ अधिक ही खा बैठे हैं ।


भोजन से निवृत्‍त हुए तो बिसारियाजी के होठों पर बाफलों के कसीदे छाए हुए थे । वे इसे अपने अब तक के जीवन का आनन्‍ददायी और अविस्‍मरणीय 'भोजन-अनुभव' बता रहे थे । बीस-पचीस मिनिट भी नहीं बीते थे कि बाफला-प्रभाव रंग जमाने लगा । बिसारियाजी को यकायक ही तेज प्‍यास लग आई । उन्‍होंने एक ही सांस में डेड ग्‍लास पानी पी लिया । लगा कि प्‍यास बुझ गई है । लेकिन थोडी ही देर में फिर प्‍यास लग आई । फिर पानी पिया । कुछ मिनिट और बीते होंगे कि बिसारियाजी की पलकें भारी होने लगीं । बैरागीजी से बात करते-करते उनकी पलकें मुंदने लगीं और कुछ ही पलों में नींद के आगोश में चले गए ।


बैरागीजी को पहले से न केवल यह सब पता बल्कि यह सब तो उन्‍हीं का किया कराया था । बिसारियाजी को नींद आते ही बैरागीजी उठ खडे हुए, बिसारियाजी के पास ग्‍लास और ठण्‍डे पानी का जग रखने का निर्देश सेवकों को दिया, कपडे बदले और मन्त्रि मण्‍डल की बैठक में भाग लेने के लिए चल दिए ।


कोई दो ढाई घण्‍टे बाद बैरागीजी लौटे तो बिसारियाजी की नींद खुली ही थी । वे आंखें मलते हुए, जम्‍हाइयां ले रहे थे और विस्मित भाव से परेशान हो रहे थे कि यह सब क्‍या हो गया, उन्‍हें असमय नींद क्‍यों और कैसे आ गई । अपने पास रखे जग में से ग्‍लास में पानी उंडेलते हुए वे इस अपराध बोध से भी ग्रस्‍त हो रहे थे कि बेचारे बैरागीजी तो अपना सारा काम-काज छोड कर उनके पास बैठे थे और वे थे कि सो गए । लखनवी मिजाज उनके अपराध बोध को और भारी किए जा रहे था । उन्‍होंने अत्‍यधिक संकोच के साथ बैरागीजी से क्षमा याचना की । 'मित्रों के बीच कैसी औपचारिकता और कैसी क्षमा याचना' वाली मुद्रा में बैरागीजी ने बिसारियाजी को इस नैतिक संकट से उबारा और बताया कि बिसारियाजी को सोता देख, वे भी अपनी एक मीटिंग निपटा आए हैं । बिसारियाजी ने इस बात का शुक्र मनाया और खुद को यह कह कर तसल्‍ली दी कि उनका 'अनपेक्षित और आकस्मिक शयन' बैरागीजी को मुफीद हो गया वर्ना उन्‍हें इस बात का मलाल आजीवन रहता कि उनके कारण बैरागीजी को अपना जरूरी काम छोडना पडा था ।


वातावरण पूरी तरह सामान्‍य हो चुका था और दोनों मित्र एक बार फिर सहजता और आत्‍मीयता से बतिया रहे थे । फर्क इतना ही था कि एक जानता था जो हुआ वह क्‍या और क्‍यों हुआ था और दूसरा इस सबसे अनजान था ।


यह वाकया तो सहज रहा । लेकिन बाफला प्रभाव का दूसरा वाकया थोडा सा दूसरा रंग लिए हुए है । इसके 'बाफला प्रभावित नायक' थे (अब स्‍वर्गीय) श्री बसन्‍तरावजी उइके । वे उन दिनों मध्‍य प्रदेश के शिक्षा मन्‍त्री थे । उनके साथ बाफला ने क्‍या हरकत की - यह जल्‍दी ही देखेंगे, हम लोग ।

'अक्षर' के आगे नतमस्‍तक 'राज दण्‍ड'

आज की सुबह आंखों को ठण्‍डक और मन को तसल्‍ली देने वाली हुई है । 'नईदुनिया' के अन्तिम पृष्‍ठ पर प्रकाशित एक चित्र ने मानो 'मंगल प्रभाती' की प्रस्‍तुति दी है ।




इस चित्र में, दिल्‍ली की मुख्‍यमन्‍त्री श्रीमती शीला दीक्षित, शब्‍द पुरुष, कवि त्रिलोचन को प्रणाम कर रही हैं । चित्र गाजियाबाद का है । याने मुख्‍यमन्‍त्री, कवि के निवास पर पहुंच कर उन्‍हें प्रणाम कर रही हैं । मुख्‍यमन्‍त्री के मन में क्‍या है, यह तो चित्र से जान पाना असम्‍भ्‍व प्राय: ही है, लेकिन जिस तरह लगभग दोहरी होकर, नेत्र बन्‍द कर वे प्रणाम कर रही हैं उससे प्रथम दृष्‍टया अनुभव होता है कि वे अन्‍तर्मन से ही यह सब कर रही हैं । यदि यह वास्‍तविकता है तो इससे बढिया बात और क्‍या हो सकती है ? यदि यह दिखावा है तो भी बुरा नहीं है ।




चित्र में, कवि त्रिलोचन के पीठ-कन्‍धों पर, बादामी किनारी वाली सफेद शाल दिखाई दे रही है । लगता है कि प्रणाम करने से पहले मुख्‍यमन्‍त्री ने शाल ओढाई है । प्रत्‍युत्‍तर में कवि त्रिलोचन भी अपनी गरिमानुरूप, माथा झुका कर, दोनों हाथ जोड कर अभिवादन कर रहे हैं । उनके नेत्र भी बन्‍द हैं ।




'अक्षर' से विमुख होते जा रहे इस समय में यह चित्र मन को बडी तसल्‍ली दे रहा है । राजनीति के लिए साहित्‍य तभी आवश्‍यक होता है जब वह उसके लिए 'लाभदायक' या 'विवशता' हो । वर्ना, 'राज दण्‍ड' तो 'शब्‍द' को 'क्रीत दास' से अधिक की हैसियत देने को कभी तैयार नहीं होता । मैं यह गुंजाइश रख कर चल रहा हूं कि शीला दीक्षित भी 'शब्‍द' के प्रति अनुरागवश, कवि त्रिलोचन के निवास पर नहीं पहुंची होंगी । वे किसी सरकारी औपचारिकता की पू‍र्ति करने की विवशता के अधीन ही वहां पहुंची होंगी । किन्‍तु फिर भी यह चित्र मन को सुकून दे रहा है, उम्‍मीदें जगा रहा है । 'सत्‍ता' सदैव इसी मुद्रा में दिखती रहे - यह कामना मन में ठाठें मार रही हैं ।




'नईदुनिया' हमारे इलाके का वह अग्रणी अखबार है जो ऐसे प्रसंगों को प्रमुखता से छापता रहता है । इसे 'पत्रकारिता का मदरसा' कहा जाता है । लेकिन उपभोक्‍तावाद के इस विकट समय में यह भी अछूता नहीं रह पा रहा है । शायद इसी कारण, यह चित्र अन्तिम पृष्‍ठ पर जगह पा सका है । वर्ना होना तो यह चाहिए था कि इसे मुख पृष्‍ठ पर जगह मिलती क्‍यों कि 'अखबार' भी अन्‍तत: 'अक्षर तनय' ही है । लेकिन खराबी में अच्‍छाई देखने की अपनी आदत के कारण मैं इस स्थिति में भी प्रसन्‍न हूं । आज अन्तिम पृष्‍ठ पर जगह मिली है, कल मुख पृष्‍ठ पर मिलेगी ।




अपने तकनीकी अज्ञान के कारण मैं यह चित्र यहां प्रस्‍तुत नहीं कर पा रहा हूं । क्षमा प्रार्थी हूं । लेकिन उम्‍मीद करता हूं कि गाजियाबाद से सैंकडों मील दूर, इन्‍दौर के अखबार ने जब इसे छापा है तो देश के अन्‍य अखबारों ने भी इसे छापा ही होगा ।




'साहित्‍य' के आगे नतमस्‍तक 'राजनीति', हमारे समाज का सर्वकालिक स्‍थायी भाव हो ।

मैं, स्‍वर्गवासी

'जब से बहू घर में आई है तब से घर स्‍वर्ग हो गया है और घर में रहने वाले हम सब स्‍वर्गवासी ।' जैसा मुहावरा भले ही आप मुझ पर फिट कर दें लेकिन मुझे कहने की इजाजत दीजिए कि गए दो दिनों से मैं खुद को सचमुच में 'स्‍वर्गवासी' अनुभव कर रहा हूं ।



वस्‍तुत: इस बार राखी के त्‍यौहार पर इस समय मेरे घर में हम 12 लोग मौजूद हैं । इनमें से 5 बडे हैं और 7 बच्‍चे । इन सात में एक, 27 वर्षीय मेरा बडा बेटा भी है लेकिन वह भी बच्‍चों में ही शरीक बना हुआ है । पूरा घर बच्‍चों की चहचहाट से गूंज रहा है । वे धमा चौकडी मचा रहे हैं, घर में यहां से वहां तक, नीचे से ऊपर तक दौड रहे हैं, उनमें से कौन किससे क्‍या कह रहा है-मुझे समझ नहीं पड रहा है लेकिन उन्‍हें सब कुछ सुनाई दे रहा है और समझ भी पड रहा है, भरपूर 'प्‍लाट एरिया' वाला मेरा मकान छोटा पड गया है, इतना छोटा कि मुझे लगने लगा है कि यह भाग-दौड करते हुए वे कहीं पडौस में, छाजेड साहब के घर में न घुस जाएं । उनकी आवाजें, महज आवाजें नहीं हैं । उनकी आवाजों में उल्‍लास, उन्‍मुक्‍तता, निर्बन्‍धता तो है ही, किसी और के होने से बेभान होने की सहज-कुदरती लापरवाही भी है । इस समय मुझे मेरा घर, घर नहीं, कोई पक्षी अभयारण्‍य लग रहा है जहां मुझे चुपचाप यह सब देखते-सुनते रह कर इसका अवर्णनीय आनन्‍द घूंट-घूंट पीते रहना है । ये क्षण, ईश्‍वर प्रदत्‍त ऐसे सुखद क्षण जो शायद मांगे से भी नहीं मिल पाएं ।



परिवार के नाम पर हम कुल चार सदस्‍य हैं - हमारे दो बेटे और हम पति-पत्‍नी । बडा बेटा नौकरी पर चेन्‍नई में पदस्‍थ है और छोटा बेटा हमारे साथ होते हुए भी हमारे साथ नहीं होता । वह अपने कमरे में, बुध्‍दू बक्‍से से उलझा रहता है या फिर 'आर्कुट' पर, अपने उन दोस्‍तों से सम्‍पर्क किए रहता है जो गांव के गांव में ही हैं । हमारा दाम्‍पत्‍य जीवन 31 वर्ष का हो चुका है और हम दोनो 'धणी-लुगाई' उम्र के इस मुकाम पर एक दूसरे के और एक दूसरे की आदतों के इतने आदी हो चुके हैं कि दो-दो, तीन-तीन घण्‍टे आपस में बात किए बिना ही एक दूसरे के काम करते रहते हैं । सो, नि:शब्‍दता या कि नीरवता हमारी ऐसी सहचरी बन गई है कि पत्‍ते का खडकना भी हमारा ध्‍यान भंग कर देता है ।



ऐसे में आप कल्‍पना कर सकते हैं कि मेरे घर का कण-कण कितना जीवन्‍त, कितना चहचहा रहा होगा । मुझे इतना अच्‍छा लग रहा है कि मैं ने अपने सारे काम स्‍थगित कर दिए हैं, बाहर जाने की इच्‍छा मर गई है, मैं इन पलों को पूरी जिन्‍दगी की तरह जी लेना चाह रहा हूं । अपनी आदत के मुताबिक बच्‍चे, किसी एक कमरे में बन्‍द होकर जब खेलना चाहते हैं तो मैं उन्‍हें अपने वाले हॉल में आकर खेलने की कहता हूं । वे अविश्‍वास और अचरज से मेरी ओर देखते हैं, कहते हैं -' आप डांटेंगे, चले जाने को कहेंगे ।' मैं उन्‍हें भरोसा दिला रहा हूं कि ऐसा नहीं होगा । बतौर 'ट्रायल' उन्‍होंने एक बार मेरा कहा माना । मैं अपनी बात पर कायम रहा और चुपचाप उन्‍हें देखता रहा । उसके बाद से वे बेफिक्र होकर 'हॉल' में ही बने हुए हैं । अपनी अधिकाधिक गतिविधियां यहीं पर संचालित, सम्‍पादित कर रहे हैं और मुझे इस बात पर भरोसा हो रहा है कि यदि सच्‍चे मन से कही जाए तो ईश्‍वर हमारी बात सुनता भी है और उसे पूरी भी करता है ।



कल राखी का त्‍यौहार हो गया है । बाहर से आए आठ में से दो-एक लोगों को शायद आज जाना पड सकता है । सबके अपने-आपने काम और नौकरियां हैं । चाह कर भी रूक पाना उनके लिए मुमकिन नहीं होगा । उन्‍हें रोकने की इच्‍छा तो हो रही है लेकिन उनकी विवशताओं को अनुभव करते हुए, ऐसा कर पाने की हिम्‍मत नहीं हो रही । ऐसे में मैं ईश्‍वर से यही प्रार्थना कर रहा हूं कि वे भले ही जाएं लेकिन अपने बच्‍चों को यहीं छोड जाएं । लेकिन मै जानता हूं कि यह भी सम्‍भव नहीं होगा । अव्‍वल तो बच्‍चे अपने मां-बाप के बिना रहेंगे नहीं । और यदि अन्‍य बच्‍चों के संग के लोभ में रह भी गए तो दूसरे बच्‍चों के जाते ही उन्‍हें अपने मां-बाप याद आने लगेंगे और तब वे जो क्रन्‍दन करेंगे, उसे शमित कर पाना हममें से किसी के भी बस से परे ही होगा । सो, इस आनन्‍द की समाप्ति की शुरूआत के लिए अभी से अपने आप को तैयार कर रहा हूं । जानता हूं कि ऐसे क्षण सदैव अस्‍थायी होते हैं । शायद, इनका अस्‍थायी होना ही इनका वास्‍तविक आनन्‍द भी है । सो, इस क्षण तो मैं 'सर्वानन्‍द' से सराबोर, अपनी बात लिख रहा हूं ।



जो होनी है, उसकी अग्रिम प्रतीति होने पर भी उसे रोक पाना हममें से किसी के बस में नहीं । सो, मैं वर्तमान के इस आनन्‍द को, इस स्‍वर्गीय सुख का निमिष-निमिष आत्‍मसात किए जा रहा हूं । आंखें झपकने को जी नहीं करता लेकिन वे झपकती हैं । जिन्‍हें जाना है, वे जाएंगे ही । (जाएंगे नहीं तो वापस कैसे आएंगे ? और और यदि वापस नहीं आएंगे तो यह स्‍वर्गीय सुख भोगने का चिराकांक्षित अवसर मुझे कैसे मिलेगा ?) सो मैं अपने आप को तैयार कर रहा हूं ।



हमारी लोक कथाओं का समापन अंश इस समय मुझे सर्वाधिक सहायता कर रहा है जिसमें लोक मंगल की अकूत भावना प्रकट होती है - 'जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके फिरें ।' मैं ईश्‍वर से याचना कर रहा हूं - 'जो और जितना सुख मुझे मिला है, वह सब, उससे करोड गुना आप सबको मिले ।'


आमीन

रवि रतलामी सीएनएन आईबीएन पर

अत्यन्त मुदित मन से मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं । आखिर बात मेरे गुरू श्री रवि रतलामी के, अन्तरराष्ट्रीय समाचार चैलन 'सीएनएन आईबीएन' पर आने की जो है ।


कल कोई सात घण्टे हम दोनों ने इसी उपक्रम में लगाए ।


परसों शाम अचानक ही मुझे रविजी का सन्देश मिला - 'शुक्रवार सवेरे नौ बजे मेरे निवास पर पहुंचें, कुछ काम है ।' आदेश के परिपालन में समय पर पहुंचा । रविजी ऐसे बैठे थे, मानों कोई काम ही नहीं हो । पूछा तो बोले - 'जिन्हें आना था, वे अब एक घण्टा देर से आएंगे । तब तक आप चाहें तो अपना कोई काम निपटा लें ।' मैं पूरी तरह से फुर्सत लेकर ही गया था । सो 'हजरत-ए-दाग' की तरह वहीं बैठ गया । बातों-बातों में रविजी ने बताया कि 'सीएनएन आईबीएन' का एक सम्वाददाता और केमरामेन गई रात रतलाम पहुचे हैं और छोटी जगहों पर आंचनलिक भाषाओं में ब्लागिंग करने वालों पर धारावाहिक साप्ताहिक स्टोरी के लिए रविजी को शूट करने के लिए आने वाले हैं । सुनकर अच्छा लगा । लेकिन यह देखकर तनिक अजीब लगा कि रविजी अत्यन्त असहज और परेशान हैं । मैंने कुछ भी नहीं पूछा, यह सोच कर कि हकीकत सामने आ ही जाएगी ।



निर्धारित समय पर हम लोग होटल पहुंचे तो पाया कि सम्वाददाता आसिम और केमरामेन अर्पित तैयार खडे थे । दोनों अपनी-अपनी उम्र के पचीसवें बरस में चल रहे थे । रविजी ने दोनों से मेरा परिचय कराया । नाश्ते की व्यवस्था रविजी ने अपने घर पर कर रखी थी लेकिन दानों ही नौजवान हमारे मेजबान बन कर हमसे नाश्ता करने का आग्रह कर रहे थे । हम दोनों को बहुत ही अटपटा लगा । हम मालवा वाले मेहमाननवाजी को ही अपनी पहचान और उससे भी पहले अपना संस्कार मानते हैं और दोनो नौजवान थे कि हमें 'संस्कारच्युत' करने पर तुले थे । वे दोनों अपनी बात पर अडे रहे और हम दोनों अपनी बात पर । अन्तत: उन दोनों ने नाश्ता किया और हम उन्हें देखते रहे ।



बात रतलाम और इसकी पहचान वाले कारकों पर होने लगी । निष्कर्ष निकला कि रतलाम की पहचान बनी हुई नमकीन, बेसन की, 'रतलामी सेव' को भी इस स्टोरी में शामिल किया जाए । यह निर्णय आसिम का था । बातों ही बातों में 'दुनिया में सबसे पहले' वाले फण्डे पर बात चली तो रविजी ने परिहासपूर्वक कहा कि चलती रेल में से, हिन्दी ब्लाग जगत में, सचित्र पोस्टिंग करने वाले वे दुनिया के पहले आदमी बन गए हैं । आसिम ने इस सूत्र को फौरन लपका और स्टोरी का पहला सीनेरियो लिखा कि रतलाम के किसी व्यस्त इलाके की किसी ऐसी दूकान को शूटिंग स्पाट बनाया जाए जहां सेव बन रही हो । रविजी वहां पहुंच कर केमरे से उस बनती सेव के फोटो लेंगे और फिर वहीं, दूकान पर बैठकर 'रतलामी सेव' पर अपनी पोस्ट लिख कर उसे, दूकान से ही अपने ब्लाग पर पोस्ट कर देंगे । यह पूरी प्रक्रिया शूट करने का फैसला हुआ ।



पहली समस्या आई डिजिटल कैमरे की । रविजी का कैमरा 'माइश्चर' खा कर आराम कर रहा था । मुझे अचानक याद आया - रेल्वे हेण्‍डलिंग काण्ट्रेक्टर फर्म मेसर्स मणीलाल झब्‍बालाल वाले मेरे प्रिय संजय जैन के पास आधुनिकतम डिजिटल कैमरा है । उन्‍होंने बताया कि उनके कार्यालय से कैमरा ले लूं । कैमरा लेते हुए मालूम पडा, कैमरे की कनेटिंग केबल तो संजय के घर पर है । वहां जाकर केबल ली । सब लोग रविजी के निवास पर आए । नाश्‍ते का आग्रह हुआ । आसिम और अर्पित मना करने लगे । तभी आसिम की नजर 'खमण ढोकला' पर पडी । उसने अगली मनुहार की प्रतीक्षा नहीं की और शुरू हो गया । अर्पित तनिक संकोच से तथा तनिक देर से शुरू हुआ ।



नाश्‍ते से निपटते-निपटते कोई एक घण्‍टा लग गया और हम लोग लगभग ग्‍यारह बजे अपने 'लोकेशन' पर पहुंचे । रेल्‍वे स्‍टेशन मार्ग वाले प्रमुख चौराहे पर स्थित खण्‍डेलवाल सेव भण्‍डार हमारी लोकेशन थी । अनवरत आवागमन और भरपूर भीड-भाड होने के बावजूद यहां काफी खुली जगह थी । भट्टी 'जाग्रत' थी, कढाही चढी हुई थी और सेव बनाने का क्रम ऐसे चल रहा था मानो सनातन से चला आ रहा है और प्रलय तक यूं ही चलता रहेगा । समूचा दृष्‍‍य देखकर केमरामेन अर्पित के चेहरा खिल उठा - मानो, मुन की मुराद पूरी हो गई हो । शूटिंग के लिए मैं दूकान मालिक से अनुमति मांगता उससे पहले ही खुद मालिक भाई श्री रामावतार खण्‍डेलवाल (जिन्‍हें सारा रतलाम उनके मूल नाम से कम और 'रामू सेठ' के नाम से ज्‍यादा जानता-पहचानता है) ने आगे रहकर नमस्‍कार कर लिया । अब सब कुछ आसान था । और अधिक अनुकूल बात यह रही कि समूचा खण्‍डेलवाल परिवार, रविजी का न केवल परिचित निकल आया बल्कि उनका मुरीद भी । इस मामले में रविजी 'कस्‍तूरी मृग' साबित हुए । उन्‍हें पता ही नहीं था कि उनके इतने सारे और इतने बडे प्रशंसक वहां हैं । इस परिवार के भाई प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र खण्‍डेलवाल की पत्‍नी सौ. अपरा, रविजी की जीवन संगिनी डॉ रेखा श्रीवास्‍तव की सुशिष्‍या रही हैं । सो प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र तो ऐसे आवभगत में लग गया मानो उसका सुसराल पक्ष वहां अवतरित हो गया है ।



आसिम और अर्पित काम पर लग गए । वे दोनों ही रवि जी को डायरेक्‍शन दे रहे थे और रविजी असहज हुए जा रहे थे । उन्‍होंने तो इस प्रकार 'अभिनेता' होने की कल्‍पना भी नहीं की थी । वे तो मान कर चल रहे थे कि सब कुछ घर में बैठ कर निपटा लिया जाएगा । लेकिन बात चूंकि 'दृष्‍य माध्‍यम' की थी सो 'विजूअल्‍स' तो उसकी अनिवार्यता और अपरिहार्यत होने ही थे । रविजी के लिए यह कल्‍पनातीत स्थिति असुविधाजनक हो रही थी । वे काम करने वाले आदमी हैं, काम करने में विश्‍वास करते हैं जबकि यहां तो उन्‍हें खुद को काम करते हुए 'दिखना' था । इतना ही नहीं, तयशुदा सवालों के तयशुदा जवाब भी देने थे । उनके लिए न तो सवाल नए थे और न ही जवाब । रोजमर्रा की जिन्‍दगी में उनके लिए जो सर्वाधिक प्रिय और सर्वाधिक सहज था, वही सब उन्‍हें कठिन लग रहा था । वे न चाहते हुए भी 'केमरा काशस' हुए जा रहे थे । लेकिन आसिम अपनी उम्र से अधिक परिपक्‍व हो कर अत्‍यधिक धैर्यपूर्वक और विनम्रतापूर्वक उन्‍हें बार-बार समझाए जा रहा था । उसके चेहरे पर पल भर के लिए भी खिन्‍नता या असहजता नहीं आई । जो बात अब तक रविजी के घर का राज बनी हुई थी वह सडक पर उजागर हो रही थी कि रविजी अत्‍यधिक अन्‍तर्मुखी ऐसे व्‍यक्ति हैं जो अपनी प्रत्‍येक बात अपने मुंह से नहीं, अपने काम से कहते हैं । संजाल पर हिन्‍दी को लोकप्रिय बनाने के लिए अपनी नींद दांव पर लगाने वाले और 'रचनाकार' के लिए चौबीसों घण्‍टों अपने लेपटॉप से खेलने वाले रविजी को सम्‍वाद बोलने में असुविधा हुए जा रही थी । एक कष्‍ट और था । हालांकि वे अंग्रेजी खूब अच्‍छी तरह जानते, लिखते, बोलते हैं लेकिन रतलाम के वातावरण में अंग्रेजी अभी भी 'पानी में तेल' वाली दशा में है, सो धाराप्रवाह बोलना तनिक अस्‍वाभाविक होना ही था ।



लेकिन दो बजते-बजते, 'आउटडोअर शूटिंग' अन्‍तत: पूरी हो गई । सब कुछ आसिम और अर्पित के मनमाफिक हुआ था । रविजी हतप्रभ तो थे ही कि उनसे अभिनय करवा लिया गया है, इसी बात से वे बच्‍चों की तरह खुश भी थे ।



आसिम 'फ्री फ्राम ऑल वरीज' की मुद्रा में आ गया और अर्पित अपना साज-ओ-सामान समेट लगा । इस शूटिंग के दौरान प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र ने मालवा की मेहमाननवाजी की बानगी पल-पल दी । अब हम लागों को भूख लग आई थी । भोजन कहां किया जाए - हम इसी विचार में थे कि हमें अपनी 'कमअकली' पर हंसी आ गई । प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र का 'होटल सन्‍तुष्‍टी' रतलाम की शान बना हुआ है और हम लोग ठीक उसी के सामने खडे होकर, उसके मालिक से बात करते हुए भोजन करने की जगह तलाश कर रहे थे । सो, भोजन हमने 'सन्‍तुष्‍टी' में ही किया । पुष्‍पेन्‍द्र ने, हाथापाई करने के सिवाय बाकी सब जतन कर लिए कि हम भुगतान नहीं करें लेकिन आसिम ने हम तीनों में से किसी की, एक न सुनी और भुगतान उसी ने किया । पत्रकारिता से जुडे लोगों का ऐसा व्‍यवहार कम से कम मेरे लिए तो अनपेक्षित ही था ।



अब हम लोग एक बार फिर रविजी के निवास पर थे । अब रविजी को न केवल घर में काम करते हुए शूट किया जाना था बल्कि इण्‍टरनेट पर हिन्‍दी को स्‍थापित करने के लिए किए गए उनके प्रयत्‍नों की तथा उनके और उनके मित्र समूह द्वारा, इस कठिन काम के लिए विकसित 'औजारों' पर भी बात होनी थी । मेरा 'जडमति' होना ऐसे क्षणों में मेरे लिए बडा सहायक कारक रहा । सो, मुझे चुपचाप बैठे-बैठे सब कुछ देखना-सुनना ही था । इसी बीच, रविजी की जीवन संगिनी डॉक्‍टर रेखा श्रीवास्‍तव कॉलेज से लौट आईं । अचानक ही रविजी ने आसिम से आग्रह किया कि इस सम्‍वाद में मुझे भी शामिल किया जाए । आसिम ने ऐसे सुना मानो उसने ही रविजी को यह सम्‍वाद बोलने को कहा हो । चूंकि यह 'स्‍टोरी' अंग्रेजी चैनल के लिए हो रही थी सो आसिम का आग्रह था कि सारे सवाल-जवाब अंग्रेजी में ही हों । मेरे लिए यह अत्‍यधिक कठिन काम था । न तो मुझे अंग्रेजी आती है, न ही मुझे अंग्रेजी बोलने का अभ्‍यास है और सबसे बडी बात कि यह मेरी मानसिकता में कहीं है ही नहीं । फिर भी, मेरे गुरूजी का आदेश था, सो मैं जैसा भी बन पडा, अंग्रेजी में बोला । वह सब बोलते हुए मुझे लगता रहा मानो मैं झूठ बोल रहा हूं ।



शाम कोई पांच बजे, आसिम और अर्पित ने हम सबको धन्‍यवाद देते हुए विदा ली । उनके जाते ही मैं ने रविजी और रेखाजी को धन्‍यवाद दे कर नमस्‍कार किया और अपने घर का रास्‍ता पकडा ।



जैसा कि आसिम ने बताया है, 'सीएनएन आईबीएन' 3 सितम्‍बर से इस साप्‍ताहिक समाचार कथा का प्रसारण शुरू करेगा । उसने वादा किया है कि 'रवि रतलामी' वाले अंक के प्रसारण की तारीख वह समय पूर्व सूचित करेगा । लेकिन एक कुशल, जिम्‍मेदार और समझ‍दार सम्‍वाददाता की जिम्‍मेदारी निभाते हुए उसने कहा कि हम लोग बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद नहीं करें । क्‍योंकि, रतलाम की शूटिंग में से कितना हिस्‍सा इस कथा में शामिल किया जाएगा, यह उसे भी नहीं पता । इस मामले में अन्तिम निर्णय 'स्‍टोरी डिपार्टमेण्‍ट' करेगा । मुझे यह देख कर बहुत अच्‍छा लगा कि इतनी कम उम्र में ही इस नौजवान को अपनी क्षमताओं की ही नहीं, अपनी सीमाओं की जानकारी भी इतनी स्‍पष्‍टता से है । इन क्षणों में आसिम मुझे एक समाचार चैनल का सम्‍वाददाता नहीं बल्कि अपनी समूची पीढी का प्राधिकृत-उत्‍तरदायी प्रवक्‍ता अनुभव हुआ ।



मैं दो बातों से अत्‍यधिक मुदित हूं । पहली तो यह कि मेरे गुरू रवि रतलामी अन्‍तरराष्‍ट्रीय समाचार चैनल पर नजर आएंगे । दूसरी बात यह कि इस महत्‍वपूर्ण काम में मैं मेरे गुरूजी के लिए सहायक बन पाया ।



मेरी प्रसन्‍नता का अनुमान लगाने का कष्‍ट करते हुए आप, इस समाचार कथा के प्रसारण के दिनांक की प्रतीक्षा भी कीजिएगा । युदि मुझे इस तारीख की सूचना पर्याप्‍त समय पहले मिली तो आप सबको खबर करूंगा ही । मुझ पर कृपा कीजिएगा और मेरे ब्‍लाग को देखते रहिएगा

न लेखक, न वरिष्‍ठ, न पत्रकार

'कस्‍बा' में रवीश कुमारजी की पोस्‍ट पढकर मुझे बिलकुल वैसा ही सुख मिला जैसा एक विधवा को, दूसरी विधवा को देख कर मिलता है । रवीशजी के साथ परिचय (या कि 'कुपरिचय') की यह दुर्घटना यदा-कदा ही होती होगी लेकिन महज सवा दो लाख की आबादी वाले मेरे कस्‍बे में, मुझे इस दुर्घटना से आए दिनों दो-चार होना पडता है ।


मैं एक पूर्णकालिक (फुल टाइमर) बीमा एजेण्‍ट हूं और इसके सिवाय ऐसा और कोई काम नहीं करता हूं जिससे 'दो पैसे' मिलते हों । प्रत्‍येक अवसर पर मैं अपना परिचय भी यही कह कर देता हूं कि मैं एक पूर्णकालिक बीमा एजेण्‍ट हूं और इसके सिवाय और कुछ भी नहीं करता हूं । जाहिर है कि मेरे परिवार को 'दो वक्‍त की रोटी' इस बीमा एजेंसी से ही मिलती है । इस एजेंसी से मिली आर्थिक निश्चिन्‍तता के कारण ही मैं अपने तमाम शौक पूरे कर पाता हूं । लेकिन मैं यह देख कर बार-बार हतप्रभ हो जाता हूं कि मेरे सार्वजनिक परिचय में मेरा बीमा एजेण्‍ट होना एक बार भी उल्‍लेखित नहीं हुआ । हर बार मुझे बीमा एजेण्‍ट कहने से ऐसे बचा जाता है मानो बीमा एजेण्‍ट होना निहायत घटिया या फिर देश द्रोही होने जैसा है ।


गए दिनों मेरे कस्‍बे की यातायात व्‍यवस्‍था को लेकर हुई बैठक में (जिसका जिक्र मैं ने अपनी, इससे ठीक पहले वाली पोस्‍ट 'अंग्रेजों ! लौट आओ' में किया है) मैं ने भी अपनी बात कही थी । वहां भी मैं ने खुद को एक बीमा एजेण्‍ट बताया था । लेकिन अगले दिन अखबारों में मुझे 'लेखक, चिन्‍तक और व्‍यंग्‍यकार' के रूप में उल्‍लेखित किया गया ।


जीवन बीमा के साथ ही साथ मैं साधारण बीमा का काम भी करता हूं । जिस साधारण बीमा कम्‍पनी का मैं एजेण्‍ट हूं, उस बीमा कम्‍पनी ने अपनी कुछ नई बीमा योजनाओं की जानकारी देने के लिए अपने एजेण्‍टों की बैठक बुलाई । मुझे, मेरे विकास अधिकारी के माध्‍यम से, एक बीमा एजेण्‍ट की हैसियत से ही सूचना दी गई और मैं ने उसी हैसियत में भाग भी लिया । लेकिन अगले दिन अखबारों में मुझे 'नगर के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार' के रूप में उल्‍ले‍खित किया गया । यह समाचार, बीमा कम्‍पनी द्वारा ही जारी किया गया था । याने खुद बीमा कम्‍पनी अपने एजेण्‍ट को बीमा एजेण्‍ट मानने को तैयार नहीं ।


श्रीनितिन वैद्य ने मुझे भारतीय जीवन बीमा निगम का एजेण्‍ट बनाया था । उन दिनों वे मेरे कस्‍बे में विकास अधिकारी के रूप में पदस्‍थ थ्‍ो और बीमा एजेण्‍ट नियुक्‍त करना उनकी नौकरी का हिस्‍सा था । इन दिनों वे पदोन्‍नत होकर शाखा प्रबन्‍धक के रूप में, मुम्‍बई में पदस्‍थ हैं । उम्र में वे मेरे छोटे भतीजे से भी छोटे हैं और मुझे अति‍रिक्‍त आदर, सम्‍मान देते हैं । वे समीपस्‍थ कस्‍बे जावरा के मूल निवासी थे । एक आयोजन में वे मुझे वहां मुख्‍य अतिथि बना कर ले गए । आयोजन में मेरा परिचय उन्‍होंने ही दिया । लेकिन मैं यह देख-सुन कर हैरान रह गया कि उन्‍होंने मुझे 'रतलाम के अग्रणी समाज सेवी' के रूप में प्रस्‍तुत किया । जिस आदमी ने मुझे बीमा एजेण्‍ट बनाया और जिसके अधीनस्‍थ ही मैं बीमा एजेण्‍ट हूं, वही आदमी मुझे बीमा एजेण्‍ट बताने में शर्मा गया । है न ताज्‍जुब की बात ?


स्‍थानीय केबल चैनलें भी अपने समाचारों में मुझे कभी साहित्‍यकार तो कभी पत्रकार, कभी वरिष्‍ठ लेखक तो कभी अग्रणी चिन्‍तक जैसे विशेषणों से उल्‍लेखित करती हैं जबकि दोनों चैनलों के मालिकों से लगाकर छोटा से छोटा कर्मचारी भी मेरी असलियत से भली प्रकार वाकिफ है ।


ऐसा क्‍यों होता है ? किसी आदमी को उसके वास्‍तविक स्‍वरूप में हम उसे जस का तस स्‍वीकार क्‍यों नहीं कर पाते हैं ? यह हमारी फितरत है या मानव मनो‍विज्ञान की कोई अबूझ ग्रंथी ? क्‍या कोई मजदूर प्रबुध्‍द नहीं हो सकता ? क्‍या कोई सडक छाप आदमी सा‍हित्यिक अभिरूचि वाला नहीं हो सकता ? क्‍या किसी दफ्तर का कोई बाबू ललित कलाओं में दखल नहीं रख सकता ? यदि इन सबका उत्‍तर हां में है तो उसे उसके वास्‍तविक स्‍वरूप में उल्‍ले‍खित किए जाने में हिचक क्‍यों होती है ।


कोई जाने या न जाने, मैं अपनी असलियत भली प्रकार जानता हूं । मैं साहित्‍य प्रेमी हूं, लिखने-पढने वालों के आस-पास बने रहना, उनकी बातें सुनना मुझे अच्‍छा लगता है । लेकिन इस सबके कारण मैं सा‍हित्‍यकार या लेखक कैसे हो गया ? रवीश कुमारजी ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है । मैं जो हूं, भाई लोग मुझे वह मानने को तैयार नहीं और वे सब मिल कर मुझे जो साबित करना चाह रहे हैं, उसका कोई कारण मेरे आस-पास तो ठीक, कोसों दूर तक कहीं नहीं है ।


मेरा क्‍या होगा ?

अंग्रेजों ! लौट आओ

आजादी की साठवीं वर्ष गाँठ मैं ने दो कारणों से तनि‍क खिन्‍नता और उदासी के साथ मनाई । पहला कारण तो मेरा ब्राड बेण्‍ड कनेक्‍शन का 'डेड' हो जाना रहा । इस कारण मैं बारह अगस्‍त से लेकर अब तक 'संजाल सम्‍पर्क' से वंचित रहा । लेकिन वास्‍तविक वजह दूसरी थी । मुमकिन है, जो मैं ने भुगता-अनुभव किया वह सबके लिए सामान्‍य और रोजमर्रा की बात हो, लेकिन मुझे बडा मानसिक सन्‍ताप रहा ।


हमारे जिले के नवागत पुलिस अधीक्षक ने, मेरे शहर के यातायात को नियन्त्रित और व्‍यवस्थित बनाने की नेकनीयत से शहर के लोगों की खुली बैठक बुलाई । बैठक के लिए कोई औपचारिक निमन्‍त्रण नहीं था । यह बैठक सबके लिए खुली थी - जो चाहे सो आए । मेरे शहर के अनियन्त्रित और स्‍वच्‍छन्‍द मानसिकता वाले यातायात से मैं बहुत ही परेशान और चिन्तित रहता हूं और आए दिन कुछ न कुछ उठापटक करता रहता हूं । सो मुझे तो इस बैठक में जाना ही था ।


बैठक में मैं ने पाया कि तमाम वक्‍तव्‍य-वीर और रायचन्‍द पहले से ही मौजूद थे, जैसी कि मैं ने उम्‍मीद की थी । विषय वस्‍तु की भूमिका स्‍वरूप, यातायात सूबेदार ने एक सीडी प्रदर्शित की । इसके ठीक बाद, लोगों से सुझाव मांगे गए । जैसा कि होना ही था, धुरन्‍धर और धन्‍धेबाजों ने माइक पर कब्‍जा किया और लगे अपनी-अपनी राय जताने । यातायात के प्रति वे जितने चिन्तित थे, उससे अधिक वे इस कोशिश में थे कि नवागत पुलिस अधीक्षक की नजरों में 'चढ' जाएं । इसके साथ ही साथ, अपना ज्ञान बघारना और खुद को बाकी सबसे अलग और विशेष साबित करना भी उनमें से प्रत्‍येक का मकसद था । अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए भाई लोगों ने जो मांगें पेश कीं, उन्‍होंने मुझे गहरे अवसाद में धकेल दिया ।


इन 'रायचन्‍दों' ने जो मांगें पेश कीं उनकी बानगी देखिए - दुपहिया वाहनों पर तीन सवारियों का बैठना रोका जाए, बिना लायसेंसे वाहन चलाने वाले लोगों पर (खास कर अवयस्‍क किशोरों पर) कार्रवाई की जाए, वाहनों पर अतिरिक्‍त रूप से लगवाए गए तेज और कर्कश ध्‍वनियों वाले हार्नों को हटवाया जाए, यातायात सिग्‍नल का उल्‍लंघन करने वालों पर जुर्माना किया जाए, वाहनों की नम्‍बर प्‍लेटें कानून के अनुसार करवाई जाएं ।


ये माँगें सुन कर मुझे अचरज तो हुआ ही, अन्‍तर्मन तक गहरा दुख भी हुआ । मुझे लगा ही नहीं कि हम आजादी की साठवीं सालगिरह मनाने वाले हैं । हम ऐसे समाज के रूप में विकसित होते जा रहे हैं जो आजादी का मतलब केवल अधिकार लेना ही जानता है जबकि आजादी अपने आप में एक जिम्‍मेदारी पहले है । अधिकार और जिम्‍मेदारियां, किसी भी आजादी के सिक्‍के के दो पहलू हैं । लेकिन हम जिम्‍मेदारी वाले पहलू को नजरअन्‍दाज कर रहे हैं और शायद इसीलिए अपनी आजादी हमें ही किसी खोटे सिक्‍के जैसी लगने लगी है । मजे की बात यह है कि इस दशा के लिए हममें से प्रत्‍येक, खुद के सिवाय बाकी सबको जिम्‍मेदार मानता है ।


सभागार में बैठे-बैठे, सयानों और रायचन्‍दों की मांगें सुनते-सुनते मुझे झुंझलाहट होने लगी थी । ये तमाम मांगें ऐसी थीं जिन पर हम अपने-अपने घरों में ही अमल कर इन्‍हें दूर कर सकते थे । हम अपने बच्‍चों को कभी सलाह नहीं देते कि वे दुपहिया वाहनों पर तीन नहीं बैठें, हमें पता है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्‍चों को लायसेंस नहीं मिल सकता फिर भी हम खुद उन्‍हें दुपहिया वाहन सौंप देते हैं, वाहन हमारे घरों में खडे रहते हैं लेकिन हममें से कोई भी उनमें लगे अतिरिक्‍त हार्नों को हटवाने के लिए अपने बच्‍चों से कभी नहीं कहता, हम अपने बच्‍चों को यातायात शिक्षा के नाम पर कभी कोई बात नहीं बताते । ऐसी तमाम बातों पर पुलिसिया कार्रवाई करने की मांग करते लोगों को देख कर मुझे लगा कि हम अभी भी मानसिक रूप से गुलात ही हैं, हमें व्‍यवस्थित बनाने के लिए चाबुक चाहिए, कोई आए और हमें ऐसे हांके जैसे जानवरों को हांका जाता है ।


गांधीजी ने उस शासन व्‍यवस्‍था को सर्वोत्‍कृष्‍ट माना था जो अपने नागरिकों के दैनन्दिन जीवन व्‍यवहार में कम से कम हस्‍तक्षेप करे । इसका मतलब यह कतई नहीं था कि सरकार कुछ भी नहीं करे या कि नागरिक उच्‍छृंखल हो जाएं । इसका एकमेव मतलब यही था कि नागरिक अपनी-अपनी जिम्‍मेदारी इस सीमा तक निभाएं कि सरकार को हरकत में आना ही नहीं पडे । लेकिन मैं देख रहा था कि यहां तो लोग सरकार को न्‍यौता दे रहे थे - आओ और हमें डण्‍डे से हांको ।


सभागर में बैठे-बैठे, तमाम गैरजिम्‍मेदाराना मांगें सुनते हुए मुझे पल-पल लगता रहा मानो हम हम अंग्रेजों को बुलावा दे रहे हैं - हे ! अंग्रेजों, तुम कहां हो ? तुम इतनी जल्‍दी क्‍यों चले गए ? लौट आओ । यह आजादी हमसे नहीं सम्‍हल रही । आओ और एक बार फिर हमें गुलाम बनाओ और हम पर राज करो ।

चिपलूनकरजी के बहाने


'सोनिया गाँधी वाले चिट्ठे पर उठते सवाल-जवाब' शीर्षक से चिपलूनकरजी
ने जो सफाई दी है, वह तर्क, कुतर्क से काफी आगे बढकर जिम्‍मेदारी से बचने की आश्‍चर्यजनक और बचकानी कोशिश्‍ा है । चिट्ठा जगत में मैं अभी 'दुध मुँहा' हूँ लेकिन जितने भी चिट्ठे मैं पढ-देख रहा हूँ, उन सबमें जिम्‍मेदारी लेने से बचने की कोशिश कहीं नजर नहीं आती । यह बहुत बडी बात है । यही बात लिखने वाले या प्रस्‍तोता को विश्‍वसनीय बनाती है । मेरी नजर में यह पहली ऐसी प्रस्‍तुति है जिसमें प्रस्‍तोता अपनी करनी से बचने की विचित्र कोशिश कर रहा है । चिट्ठा जगत में यह परम्‍परा यदि पहले से ही चली आ रही है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना है । लेकिन यदि यह शुरूआत है है तो चिट्ठा जगत के हरावलों-पुराधाओं से मेरा विनम्र आग्रह है कि कृपया इस दुनिया को इस विकृति से बचाने में फौरन जुट जाऍं ।



किसी भी पार्टी से या उसके विचार से जुडना न तो शर्मिन्‍दगी वाली बात होती है और न ही गर्व करने वाली । विचार केवल विचार है, उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है । किसी विचार से सहमत होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि उसके वाहकों के आचरण से भी सहमत हुआ ही जाए या कि उनका समर्थन किया ही जाए । इसलिए, यदि चिपलूनकरजी संघ या भाजपा से सामीप्‍य अनुभव करते हों तो इस पर न तो उन्‍हें संकोच होना चाहिए और न ही किसी को आपत्ति । लेकिन विचार के समर्थन में यदि कोई बात प्रस्‍तुत की जाती है तो उसकी जिम्‍मेदारी भी ली जानी चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता है तो, विचार-वाहकों के इस गैरजिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के कारण समूचा विचार बदनमाम होता है और इसीलिए विचार-वाहकों के आचरण को ही विचार मान लिया जाने लगता है ।


चिपलूनकरजी का कहना बिलकुल सही है कि उन्‍होंने जो कुछ परोसा है उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसके निवेदन अथवा आदेश पर उन्‍होंने यह यह सब परोसा है ? किसी पाठक ने अनुरोध किया है या खुद खानसामा ने कहा है ? यदि दोनों में से कोई बात नहीं है और आप स्‍वेच्‍छा से परोस रहे हैं तो जाहिर है कि यह न केवल आपकी पसन्‍द है बल्कि इसे आपकी सहमति, सहयोग और संरक्षण आपकी सम्‍पूर्ण वैचारिकता और मानसिकता से प्राप्‍त है । आप उसके 'कण्‍टेण्‍ट' और 'इण्‍टेंशन' से पूरी तरह सहमत हैं । ऐसे में यह परोसा हुआ आपकी ही ऐसी 'डिश' है जो बेशक आपने खुद नहीं बनाई लेकिन आपके आचरण के कारण वह आपकी ही है ।


चिपलूनकरजी यदि अपनी इस प्रस्‍तुति से सहमति या असहमति नहीं जता रहे और फिर भी प्रस्‍तुति का औचित्‍य सिध्‍द क रने की कोशिश्‍ा कर रहे हैं तो जाहिर है कि वे गुड तो खा रहे हैं लेकिन गुलगुलों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं ।


क्‍या यह सचमुच में अचरज वाली बात नहीं है कि आप कोई विचार तो प्रस्‍तुत कर दें, उसकी जिम्‍मेदारी भी न लें और यह भी नहीं बताऍं कि मूल खानसामे तक कैसे पहँचा जाए ? इसके मायने क्‍या हैं ? चिपलूनकरजी मालवा निवासी हैं इसलिए उन्‍हें वह मालवी कहावत याद दिलाने का दुस्‍साहस कर रहा हूँ - या तो बाप का नाम बताओ या श्राध्‍द करो । यदि दोनों में से कोई काम नहीं किया जा रहा है तो फिर 'भुस में आग लगा कर बन्‍नो दूर खडी' वाली कहावत को साकार किया जा रहा है और ऐसा केवल, कोई सुनिश्चित (राजनीतिक) मकसद हासिल करने के लिए किया जाता है ।


फर्जी ई-मेलों पर आपत्ति जताने वाला, चिपलूनकरजी का तर्क खुद उन पर भी लागू होता है । फर्जी ई-मेल भेजने वाले भी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं और चिपलूनकरजी भी, बिना किसी के मांगे, बिना किसी के कहे, अपने मनपसन्‍द खानसामे की, अपनी मनपसन्‍द 'डिश' जमाने को परोस रहे हैं और उसकी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं । दोनों में आखिर फर्क ही क्‍या है ?


मेरी बात को पढते समय यह याद रखने का उपकार कीजिएगा कि मैं चिपलूनकरजी की बातों पर कोई टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ । वह तो मैं उनके चिट्ठे पर ही कर चुका हूँ । मैं उस मानसिकता पर अपनी असहमति जता रहा हूँ जो इस प्रस्‍तुति में मुझे अनुभव हुई है । मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी बातें न तो अन्तिम हैं और न ही सर्वमान्‍य ।


मेरी चिन्‍ता के केन्‍द्र में समूची 'चिट्ठा विधा' है और उसी की चिन्‍ता करते हुए, अपनी सम्‍पूर्ण सदाशयता से यह 'प्रलाप' किया है । चिपलूनकरजी यदि इसे खुद के खिलाफ मानें तो यह मेरे दुर्भाग्‍य के सिवाय और कुछ नहीं होगा - वे मुझे क्षमा कर दें ।

चिपलूनकरजी के बहाने


'सोनिया गाँधी वाले चिट्ठे पर उठते सवाल-जवाब' शीर्षक से चिपलूनकरजी
ने जो सफाई दी है, वह तर्क, कुतर्क से काफी आगे बढकर जिम्‍मेदारी से बचने की आश्‍चर्यजनक और बचकानी कोशिश्‍ा है । चिट्ठा जगत में मैं अभी 'दुध मुँहा' हूँ लेकिन जितने भी चिट्ठे मैं पढ-देख रहा हूँ, उन सबमें जिम्‍मेदारी लेने से बचने की कोशिश कहीं नजर नहीं आती । यह बहुत बडी बात है । यही बात लिखने वाले या प्रस्‍तोता को विश्‍वसनीय बनाती है । मेरी नजर में यह पहली ऐसी प्रस्‍तुति है जिसमें प्रस्‍तोता अपनी करनी से बचने की विचित्र कोशिश कर रहा है । चिट्ठा जगत में यह परम्‍परा यदि पहले से ही चली आ रही है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना है । लेकिन यदि यह शुरूआत है है तो चिट्ठा जगत के हरावलों-पुराधाओं से मेरा विनम्र आग्रह है कि कृपया इस दुनिया को इस विकृति से बचाने में फौरन जुट जाऍं ।



किसी भी पार्टी से या उसके विचार से जुडना न तो शर्मिन्‍दगी वाली बात होती है और न ही गर्व करने वाली । विचार केवल विचार है, उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है । किसी विचार से सहमत होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि उसके वाहकों के आचरण से भी सहमत हुआ ही जाए या कि उनका समर्थन किया ही जाए । इसलिए, यदि चिपलूनकरजी संघ या भाजपा से सामीप्‍य अनुभव करते हों तो इस पर न तो उन्‍हें संकोच होना चाहिए और न ही किसी को आपत्ति । लेकिन विचार के समर्थन में यदि कोई बात प्रस्‍तुत की जाती है तो उसकी जिम्‍मेदारी भी ली जानी चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता है तो, विचार-वाहकों के इस गैरजिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के कारण समूचा विचार बदनमाम होता है और इसीलिए विचार-वाहकों के आचरण को ही विचार मान लिया जाने लगता है ।


चिपलूनकरजी का कहना बिलकुल सही है कि उन्‍होंने जो कुछ परोसा है उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसके निवेदन अथवा आदेश पर उन्‍होंने यह यह सब परोसा है ? किसी पाठक ने अनुरोध किया है या खुद खानसामा ने कहा है ? यदि दोनों में से कोई बात नहीं है और आप स्‍वेच्‍छा से परोस रहे हैं तो जाहिर है कि यह न केवल आपकी पसन्‍द है बल्कि इसे आपकी सहमति, सहयोग और संरक्षण आपकी सम्‍पूर्ण वैचारिकता और मानसिकता से प्राप्‍त है । आप उसके 'कण्‍टेण्‍ट' और 'इण्‍टेंशन' से पूरी तरह सहमत हैं । ऐसे में यह परोसा हुआ आपकी ही ऐसी 'डिश' है जो बेशक आपने खुद नहीं बनाई लेकिन आपके आचरण के कारण वह आपकी ही है ।


चिपलूनकरजी यदि अपनी इस प्रस्‍तुति से सहमति या असहमति नहीं जता रहे और फिर भी प्रस्‍तुति का औचित्‍य सिध्‍द क रने की कोशिश्‍ा कर रहे हैं तो जाहिर है कि वे गुड तो खा रहे हैं लेकिन गुलगुलों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं ।


क्‍या यह सचमुच में अचरज वाली बात नहीं है कि आप कोई विचार तो प्रस्‍तुत कर दें, उसकी जिम्‍मेदारी भी न लें और यह भी नहीं बताऍं कि मूल खानसामे तक कैसे पहँचा जाए ? इसके मायने क्‍या हैं ? चिपलूनकरजी मालवा निवासी हैं इसलिए उन्‍हें वह मालवी कहावत याद दिलाने का दुस्‍साहस कर रहा हूँ - या तो बाप का नाम बताओ या श्राध्‍द करो । यदि दोनों में से कोई काम नहीं किया जा रहा है तो फिर 'भुस में आग लगा कर बन्‍नो दूर खडी' वाली कहावत को साकार किया जा रहा है और ऐसा केवल, कोई सुनिश्चित (राजनीतिक) मकसद हासिल करने के लिए किया जाता है ।


फर्जी ई-मेलों पर आपत्ति जताने वाला, चिपलूनकरजी का तर्क खुद उन पर भी लागू होता है । फर्जी ई-मेल भेजने वाले भी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं और चिपलूनकरजी भी, बिना किसी के मांगे, बिना किसी के कहे, अपने मनपसन्‍द खानसामे की, अपनी मनपसन्‍द 'डिश' जमाने को परोस रहे हैं और उसकी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं । दोनों में आखिर फर्क ही क्‍या है ?


मेरी बात को पढते समय यह याद रखने का उपकार कीजिएगा कि मैं चिपलूनकरजी की बातों पर कोई टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ । वह तो मैं उनके चिट्ठे पर ही कर चुका हूँ । मैं उस मानसिकता पर अपनी असहमति जता रहा हूँ जो इस प्रस्‍तुति में मुझे अनुभव हुई है । मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी बातें न तो अन्तिम हैं और न ही सर्वमान्‍य ।


मेरी चिन्‍ता के केन्‍द्र में समूची 'चिट्ठा विधा' है और उसी की चिन्‍ता करते हुए, अपनी सम्‍पूर्ण सदाशयता से यह 'प्रलाप' किया है । चिपलूनकरजी यदि इसे खुद के खिलाफ मानें तो यह मेरे दुर्भाग्‍य के सिवाय और कुछ नहीं होगा - वे मुझे क्षमा कर दें ।

चिपलूनकरजी के बहाने


'सोनिया गाँधी वाले चिट्ठे पर उठते सवाल-जवाब' शीर्षक से चिपलूनकरजी
ने जो सफाई दी है, वह तर्क, कुतर्क से काफी आगे बढकर जिम्‍मेदारी से बचने की आश्‍चर्यजनक और बचकानी कोशिश्‍ा है । चिट्ठा जगत में मैं अभी 'दुध मुँहा' हूँ लेकिन जितने भी चिट्ठे मैं पढ-देख रहा हूँ, उन सबमें जिम्‍मेदारी लेने से बचने की कोशिश कहीं नजर नहीं आती । यह बहुत बडी बात है । यही बात लिखने वाले या प्रस्‍तोता को विश्‍वसनीय बनाती है । मेरी नजर में यह पहली ऐसी प्रस्‍तुति है जिसमें प्रस्‍तोता अपनी करनी से बचने की विचित्र कोशिश कर रहा है । चिट्ठा जगत में यह परम्‍परा यदि पहले से ही चली आ रही है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना है । लेकिन यदि यह शुरूआत है है तो चिट्ठा जगत के हरावलों-पुराधाओं से मेरा विनम्र आग्रह है कि कृपया इस दुनिया को इस विकृति से बचाने में फौरन जुट जाऍं ।



किसी भी पार्टी से या उसके विचार से जुडना न तो शर्मिन्‍दगी वाली बात होती है और न ही गर्व करने वाली । विचार केवल विचार है, उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है । किसी विचार से सहमत होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि उसके वाहकों के आचरण से भी सहमत हुआ ही जाए या कि उनका समर्थन किया ही जाए । इसलिए, यदि चिपलूनकरजी संघ या भाजपा से सामीप्‍य अनुभव करते हों तो इस पर न तो उन्‍हें संकोच होना चाहिए और न ही किसी को आपत्ति । लेकिन विचार के समर्थन में यदि कोई बात प्रस्‍तुत की जाती है तो उसकी जिम्‍मेदारी भी ली जानी चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता है तो, विचार-वाहकों के इस गैरजिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के कारण समूचा विचार बदनमाम होता है और इसीलिए विचार-वाहकों के आचरण को ही विचार मान लिया जाने लगता है ।


चिपलूनकरजी का कहना बिलकुल सही है कि उन्‍होंने जो कुछ परोसा है उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसके निवेदन अथवा आदेश पर उन्‍होंने यह यह सब परोसा है ? किसी पाठक ने अनुरोध किया है या खुद खानसामा ने कहा है ? यदि दोनों में से कोई बात नहीं है और आप स्‍वेच्‍छा से परोस रहे हैं तो जाहिर है कि यह न केवल आपकी पसन्‍द है बल्कि इसे आपकी सहमति, सहयोग और संरक्षण आपकी सम्‍पूर्ण वैचारिकता और मानसिकता से प्राप्‍त है । आप उसके 'कण्‍टेण्‍ट' और 'इण्‍टेंशन' से पूरी तरह सहमत हैं । ऐसे में यह परोसा हुआ आपकी ही ऐसी 'डिश' है जो बेशक आपने खुद नहीं बनाई लेकिन आपके आचरण के कारण वह आपकी ही है ।


चिपलूनकरजी यदि अपनी इस प्रस्‍तुति से सहमति या असहमति नहीं जता रहे और फिर भी प्रस्‍तुति का औचित्‍य सिध्‍द क रने की कोशिश्‍ा कर रहे हैं तो जाहिर है कि वे गुड तो खा रहे हैं लेकिन गुलगुलों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं ।


क्‍या यह सचमुच में अचरज वाली बात नहीं है कि आप कोई विचार तो प्रस्‍तुत कर दें, उसकी जिम्‍मेदारी भी न लें और यह भी नहीं बताऍं कि मूल खानसामे तक कैसे पहँचा जाए ? इसके मायने क्‍या हैं ? चिपलूनकरजी मालवा निवासी हैं इसलिए उन्‍हें वह मालवी कहावत याद दिलाने का दुस्‍साहस कर रहा हूँ - या तो बाप का नाम बताओ या श्राध्‍द करो । यदि दोनों में से कोई काम नहीं किया जा रहा है तो फिर 'भुस में आग लगा कर बन्‍नो दूर खडी' वाली कहावत को साकार किया जा रहा है और ऐसा केवल, कोई सुनिश्चित (राजनीतिक) मकसद हासिल करने के लिए किया जाता है ।


फर्जी ई-मेलों पर आपत्ति जताने वाला, चिपलूनकरजी का तर्क खुद उन पर भी लागू होता है । फर्जी ई-मेल भेजने वाले भी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं और चिपलूनकरजी भी, बिना किसी के मांगे, बिना किसी के कहे, अपने मनपसन्‍द खानसामे की, अपनी मनपसन्‍द 'डिश' जमाने को परोस रहे हैं और उसकी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं । दोनों में आखिर फर्क ही क्‍या है ?


मेरी बात को पढते समय यह याद रखने का उपकार कीजिएगा कि मैं चिपलूनकरजी की बातों पर कोई टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ । वह तो मैं उनके चिट्ठे पर ही कर चुका हूँ । मैं उस मानसिकता पर अपनी असहमति जता रहा हूँ जो इस प्रस्‍तुति में मुझे अनुभव हुई है । मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी बातें न तो अन्तिम हैं और न ही सर्वमान्‍य ।


मेरी चिन्‍ता के केन्‍द्र में समूची 'चिट्ठा विधा' है और उसी की चिन्‍ता करते हुए, अपनी सम्‍पूर्ण सदाशयता से यह 'प्रलाप' किया है । चिपलूनकरजी यदि इसे खुद के खिलाफ मानें तो यह मेरे दुर्भाग्‍य के सिवाय और कुछ नहीं होगा - वे मुझे क्षमा कर दें ।

एस.डी.बर्मन : क्रिकेट और 'ड्रा'

इस समय शाम के साढे छ: बजने वाले हैं । मेरा छोटा बेटा तथागत अनमना, इधर-उधर घूम रहा है । थोडी-थोडी देर में बुध्दू बक्सा चालू करता है, रिमोट के बटन दबा-दबा कर, चैनलें बदल-बदल कर देख रहा है । जिन चैनलों पर क्रिकेट का स्कोर दिखाया जा रहा है, उन चैनलों को कुछ क्षणों तक देखता है और झुंझला कर बुध्दू बक्सा बन्द कर, रिमोट फेंक कर अपने कमरे में जा रहा है । उसे चैन नहीं पड रही है । दरअसल, 'एन पॉवर ट्राफी' क्रिकेट प्रतियोगिता में आज भारत और इंगलैण्ड के बीच श्रृंखला का तीसरा, अन्तिम और निर्णायक टेस्‍ट मैच है । पहला मैच अनिर्णीत कराने में सफल हो और दूसरा जीत कर भारत इस श्रृंखला में 1-0 की बढत लिए हुए है । भारत यदि यह मैच जीत जाता है तो बरसों के बाद वह इंग्‍लैण्ड को उसी की धरती पर हराने का श्रेय ले सकता है । लेकिन फिलहाल मेरा बेटा संकटग्रस्त और तनावग्रस्त है । मेरे शहर में यह मैच बुध्दू बक्से पर नहीं दिखाया जा रहा है और यही मेरे बेटे की बेचैनी का सबब बना हुआ है । उसे अपनी टीम की 'क्षमता' पर पूरा भरोसा है और मान कर चल रहा है कि उत्साह के अतिरेक में भारतीय टीम हारने का क्रम बनाए रख सकती है । सो, वह बेकल हुआ पडा है । भुनभुना रहा है ।


लेकिन अभी-अभी उसने मुझे चौंका दिया है । भुनभुनाते हुए वह भारतीय खिलाडियों को यह परामर्श देते हुए अपने कमरे में गया है - 'देखना रे ! महारथियों ! जीत नहीं सको तो मैच ड्रा ही करा लेना ताकि सीरीज पर तो कब्जा बना रहे ।' उसकी यह प्रार्थना मुझे 40 बरस पीछे खींच ले गई है । जिस ड्रा के लिए मेरा बेटा प्रार्थना कर रहा है उसी पर तो सचिन दा' (श्री एस. डी. बर्मन) ने तंज करते हुए क्रिकेट की मट्टी पलीद की थी !

वह सन् 1967 की मई की एक शाम थी ।

दादा (श्री बालकवि बैरागी) पहली बार विधान सभा का चुनाव लडे थे और जीते थे । कांग्रेस की राजनीति में 'लौह पुरूष' के रूप में पहचाने जाने वाले पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र ने 'अपने उम्मीदवार' के रूप में दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया था । भारतीय जनसंघ के श्रीसुन्दरलाल पटवा 1957 और 1962 के चुनावों में लगातार जीत कर, अपनी आक्रामक वाक् शैली से विधान सभा में कांग्रेस सरकार की नींद हराम किए हुए थो । मनासा विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस का जीतना दूसरी प्राथमिकता थी, पहली प्राथमिकता थी - पटवाजी से मुक्ति पाना । चुनाव परिणाम ने मिश्रजी के दांव को कामयाब साबित कर दिया । मि‍श्रजी के प्यादे ने भारतीय जनसंघ के फरजी को पीट दिया था । महत्वपूर्ण बात यह रही कि मन्दसौर जिले की सात विधान सभा सीटों में से बाकी 6 पर भारतीय जनसंघ ने कब्जा किया था । केवल मनासा सीट कांग्रेस को मिल पाई थी । मिश्रजी ने इस जीत को यथोचित सम्मान देते हुए, दादा को अपने मन्त्रि मण्डल में संसदीय सचिव के रूप में शामिल किया था ।


उन दिनों, गरमी के मौसम में मध्‍य प्रदेश की राजधानी, सतपुडा की साम्राज्ञी पचमढी में स्‍थानान्‍तरित हो जाया करती थी । पूरा मन्त्रिमण्‍डल वहीं डेरा डाल लेता था । सो, दादा को तो जाना ही था, वे हम सबको भी साथ ले गए थे । वहां दादा को 'पंचायतन' नामक बंगला आवंटित हुआ था ।

एक शाम, वहां के प्रसिध्‍द 'राजेन्‍द्रगिरी उद्यान' में जाना हुआ तो देखा कि मध्‍य प्रदेश के वित्‍त मन्‍त्री पं. कुंजीलालजी दुबे विराजमान हैं । दादा उन्‍हें प्रणाम करने के लिए झुके तो दुबेजी ने दादा को बांहों में भर लिया और आशीर्वाद देते-देते बोले - 'बैरागी, भगवान तुम्‍हारा भला करे । तुमने पंछी के पर कतर दिए । उसने विधान सभा में जीना मुश्किल कर दिया था ।' 'पंछी' से उनका मतलब पटवाजी से था ।


पचमढी प्रवास में सूचना मिली कि प्रख्‍यात संगीतकार सचिन देव बर्मन भी पचमढी में ही हैं और 'होटल न्‍यू ब्‍लाक' में ठहरे हुए हैं । दादा बच्‍चों की तरह खुश हो गए । ताबडतोड सम्‍पर्क कर, सचिन दा' की एक शाम अपने लिए तय की ।


जिस शाम सचिन दा' 'हमारे यहां' आने वाले थे उस दिन सवेरे से ही हम सब रोमांचित थे । पूरा दिन अधीरता से कटा । शाम को बर्मन दम्‍पति जब बंगले के सामने अवतरित हुए तो हम लोगों की सांसें थमी हुई थीं । संगीत महर्षि साक्षात् हमारे सामने थे । लालिमा को छूता गोरा रंग, सफेद धोती-कुर्ता । वे बेहद दुबले थे । इतने दुबले कि कलाई में घडी बांधने के लिए कलाई पर पहले रूमाल लपेटना पड रहा था । वे खूब लम्‍बे-ऊँचे थे । लेकिन उनके हाथों की लम्‍बाई अतिरिक्‍त रूप से ध्‍यानाकर्षित करती थी । उनके हाथ, उनके घुटनों को स्‍पर्श कर रहे थे - बिलकुल 'आजानबाहु' को शब्‍दश: साकार करते हुए । उनकी धर्मपत्‍नी (अब तो मुझे उनका नाम भी याद नहीं रह गया है) उनके मुकाबले ठिगनी थीं । लेकिन गोरेपन में वे सचिन दा' को बिना किसी कोशिश के पल-पल मात दे रही थीं । सचिन दा' के चेहरे पर गम्‍भीरता और 'खोयापन' था तो भाभीजी के चेहरे पर 'भुवन माहिनी' मुस्‍कान का साम्राज्‍य था । उनका चेहरा मुझे बहुत ही जाना पहचाना लगा । इस अनुभूति ने मुझे हैरत में भी डाला और परेशान भी किया । लेकिन कुछ ही क्षणों में बात समझ में आ गई । उनके इकलौते बेटे राहुल देव बर्मन के चित्र कहीं छपे देखे थे । भाभीजी को देख कर समझ पडा कि राहुल देव ने अपनी मां की शकल पाई थी । इसीलिए भाभीजी को पहली बार देखने पर भी वे मुझे जानी-पहचानी लग रही थीं ।


दादा और सचिन दा' की बातें शुरू हुईं तो अविराम चलती रहीं । उन दिनों 'प्रेम पुजारी' बन रही थी । सचिन दा' उसके संगीतकार थे और नीरजजी उसके गीतकार । सचिन दा' मुक्‍त कण्‍ठ से नीरजजी की प्रशंसा किए जा रहे थे । वे नीरजजी की शब्‍दावली के तो मुरीद साबित हो रहे थे लेकिन उनसे मेहनत भी पूरी करवा रहे थे । सचिन दा' ने बताया था कि 'रंगीला रे, तेरे रंग में रंगा है ये मन । छलिया रे, किसी जल से न बुझेगी ये अगन' वाला मुखडा हासि‍ल करने के लिए उन्‍होंने नीरजजी से इतने मुखडे लिखवाए कि 194 पृष्‍ठों वाली दो कॉपयाँ भर गईं । नीरजजी की प्रशंसा करते हुए सचिन दा' ने कहा था - 'मैं एक-एक कर, मुखडे रिजेक्‍ट करता रहा लेकिन नीरजजी एक बार भी न तो थके, न चिढे और न ही निराश हुए ।' बातों ही बातों में सचिन दा' ने फिल्‍म 'मेरी सूरत तेरी ऑंखें' के, मन्‍ना दा' के गाए कालजयी गीत 'पूछो न कैसे मैं ने रैन बिताई' की सृजन गाथा विस्‍तार से सुनाई थी ।


इन्‍हीं सब बातों के बीच पता नहीं कैसे क्रिकेट पर बात आ गई । हममें से कोई भी न तो क्रिकेट का जानकार था और न ही शौकीन । मौसम की बातों की तरह ही क्रिकेट की बात हो गई तो हो गई । सो, जब सचिन दा' ने क्रिकेट पर बात शुरू की तो हम सबने केवल इस कारण ध्‍यान दिया कि सचिन दा' इस पर बात कर रहे हैं । लेकिन अगले ही क्षण उन्‍होंने हम सबको निराश कर दिया । उन्‍होंने पहले ही वाक्‍य में क्रिकेट से अपनी नापसन्‍दगी जाहिर कर दी । हम लोगों को तो कोई फर्क नहीं पडना था लेकिन इतना बडा आदमी क्रिकेट को नापसन्‍द करता है - हमारे लिए यही अजूबा था । हमारे चेहरों पर चिपकी जिज्ञासा को शायद सचिन दा' ने भांप लिया था । उन्‍होंने जो कुछ कहा था वह कुछ इस तरह था कि‍ भला क्रिकेट भी कोई खेल है ? खेल हो तो हॉकी, फुटबाल जैसा कि घण्‍टे-पौन घण्‍टे खेले, पूरा दमकस लगाया और नतीजा लेकर मैदान से निकले । और क्रिकेट ? पूरे पांच दिनों तक (तब एक दिवसीय मैच तो कल्‍पना में भी कहीं नहीं था) 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' किया और मालूम पडा कि मैच ड्रा हो गया । भला यह भी कोई बात हुई ? पूरे पांच दिन भाग-दौड की, मैदान को छोटा साबित करते रहे और नतीजे में ड्रा ? उन्‍होंने 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' को जिस अन्‍दाज में कहा, वह मेरे लिए वर्णनातीत है । ऐसा लग रहा था मानो किसी बच्‍चे की लिखी कविता के लिए वे अपनी कोई धुन सुना रहे हों । उनके 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' को सुन कर हम सब तो हंसे ही, उनकी धर्मपत्‍नी हम सबसे ज्‍यादा हंसीं ।


सचिन दा' से हुई यह मुलाकात मैंने तब 'माधुरी' में भेजी थी । उस समय मेरी उम्र केवल 20 वर्ष थी और 'माधुरी' में छपना तब उस आयु वर्ग वालों के लिए अतिरिक्‍त गौरव की बात हुआ करती थी । सचिन दा' न केवल मेरे इस गौरव के निमित्‍त बने थे बल्कि तब मुझे 'माधुरी' से 5 रूपयों का पारिश्रमिक भी मिला था ।


इस बात को चालीस वर्ष हो गए हैं । आज मेरा बेटा क्रिकेट मैच के ड्रा होने की प्रार्थना कर रहा है और तब इसी ड्रा के कारण सचिन दा' क्रिकेट को ही खारिज कर रहे थे । चालीस साल के अन्‍तराल में यह बदलाव आया कि सचिन दा' की पीढी जिस ड्रा को खेल का बैरी मान रही थी, वही ड्रा उनकी तीसरी पीढी के लिए प्रार्थना का विषय बन गया है ।


मैं कल्‍पना भी नहीं कर पा रहा हूं कि सचिन दा' यदि यह प्रार्थना सुनते तो प्रतिक्रया में क्‍या कहते ।
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(4 अगस्‍त की सवेरे से मुझे इण्‍टर नेट सेवाएं नहीं मिल रही थीं । आज, 9 अगस्‍त की शाम को यह सेवा उपलब्‍ध हुई तो शाम कोई साढे छ: बजे लिखना शुरू किया । इसी बीच क़पालु ग्राहकों और मित्रों का आना-जाना बना रहा, सो यह पोस्‍ट 9 और 10 अगस्‍त की दरमियानी रात में कोई पौन बजे पूरी हो पाई । ब्‍लाग दुनिया से इतने दिनों तक कटे रहना बडा ही कष्‍टप्रद रहा ।)

आरक्षण : कला या विज्ञान ?

'हरि ' और 'हरि कथा' की ही तरह यह बहस भी अनन्‍त है कि आरक्षण का संरक्षण किया जाना चाहिए या क्षरण । नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए यह अत्‍यन्‍त उपयोगी और सुविधाजनक झुनझुना है । जब वे सत्‍ता में होते हैं तो उनके लिए इसके मायने कुछ और होते हैं और जब वे प्रति पक्ष में होते तो कुछ और । कभी यह अपने बचाव के काम में आता है तो कभी प्रतिद्वन्‍दी पर घातक प्रहार करने के काम में । मजे की बात यह है कि खुली जाजम पर इसका विरोध कोई नहीं करता और बन्‍द कमरों में हर कोई इससे निजात पाने की कोशिशों में लगा रहता है । इसे लेकर ये राजनीतिक दल किस सीमा तक निर्लज्‍ज और पाखण्‍डी हो जाते हैं, यह इसी सोमवार, 30 जुलाई 2007 को मध्‍य प्रदेश विधान सभा में देखने को मिला ।


मध्‍य प्रदेश में इन दिनों भाजपा की प्रचण्‍ड बहुमत वाली सरकार है । उमा भारती ने कांग्रेस की जो धुलाई की उसके सदमे से कांग्रेस और कांग्रेसी अब तक नहीं उबर पाए हैं । 2003 के चुनावों में उमा भारती ने, 'अहर्निशम् सेवाऽमहे' सूक्ति को शब्‍दश: साकार करते हुए चौबीसों घण्‍टे मध्‍य प्रदेश में भाजपा के चुनावी अभियान की 'जोत' जगाई । उसीका परिणाम रहा कि भाजपा ने विधान सभा की तीन चौथाई सीटें जीतने का इतिहास रचा । यह अलग बात है कि उमा भारती आज भाजपा की देहलीज पर, मीरा बाई बन कर 'सुणो रे दयालु, म्‍हारी अरजी' का अनहद नाद कर रही हैं और पार्टी विधायकों की इस इफरात के चलते, विधायकों की पूछ-परख की जरूरत भी नहीं रह गई है ।


इन दिनों मध्‍य प्रदेश के जिला सहकारी बैंकों में अध्‍यक्षों के मनोनयन का सिलसिला जारी है । सामान्‍य समझ वाला सडक छाप आदमी भी जानता है कि ये बैंक, राजनीतिक सन्‍दर्भों में अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण, उपयोगी तथा प्रभावी संसाधन होते हैं । प्रत्‍येक जिले के लगभग सारे के सारे किसान इन बैंकों से ऋण या/अनुदान लेते हैं और इसीलिए इन बैंकों के पदाधिकारियों तथा अधिकारियों/कर्मचारियों के साथ कृतज्ञ-भाव से पेश आते हैं । ऐसे में, केवल एक किसान नहीं, उसका समूचा परिवार इन बैंकों से 'लाभिति' के रूप में जुडा रहता है । इन बैंकों का धन-बल (हिमालयी बजट) और जन बल (पूरे जिल में फैला अमला) चुनावों के समय बहुत काम में आता है और इन बैंकों के कार्यालय कमोबेश चुनावी कार्यालय बन जाते हैं । इन बैंकों पर अपना कब्‍जा बनाने के लिए और बनाने के बाद बनाए रखने के लिए, प्रत्‍येक सत्‍ताधारी दल इन बैंकों के चुनावों को यदि स्‍थगित नहीं करा पाता है तो विलम्बित जरूर करा देता है और फिर अगले चुनाव होने तक अपनी पार्टी के किसी 'क्षमतावान' कार्यकर्ता को इसका अध्‍यक्ष तथा अन्‍य कार्यकर्ताओं को इसके संचालक मण्‍डल का सदस्‍य बना देता है ।


मध्‍य प्रदेश में इन दिनों यह सिलसिला चल रहा है और इस खेल की रग-रग से वाकिफ कांग्रेसी इन नियुक्तियों को टुकुर-टुकुर देखने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं । लेकिन इस बार कांग्रेसियों ने एक पत्‍ता फेंका । उन्‍होंने सरकार से आग्रह किया कि नियुक्तियां तो वह बेशक अपनी पसन्‍द की करे लेकिन इन नियुक्तियों में आरक्षण प्रावधानों का पालन जरूर करे । मांग ऐसी थी कि कांग्रेसी तो कांग्रेसी, भाजपा के कई विधायक भी इसके समर्थन में उठ खडे हुए । सरकार के लिए यह स्थिति 'लफडे' से कम नहीं रही । बात यदि बहस में बदल जाए तो लेने के देने पड जाएं । सो सहकारिता मन्‍त्री ने इस सुझाव को फौरन, सिरे से ही नकार दिया और दलील दी कि सहकारिता अधिनियम में, मनोनयन करते समय आरक्षण की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है । मजे की बात यह है कि मनोनयन में आरक्षण का निषेध भी कहीं नहीं किया गया है । याने सरकार चाहे तो, ऐसे मनोनयन में, आरक्षण के प्रावधानों को उपयोग करते हुए, आरक्षित वर्ग के लोगों को नेतृत्‍व के अवसर प्रदान कर सकती है । लेकिन ऐसा करना, सत्‍ता पक्ष के लिए सुविधाजनक और लाभदायक नहीं रहा होगा, सो इस बात को सिरे से ही खारिज कर दिया गया । कांग्रेसियों ने फिर एक पत्‍ता फेंका कि समस्‍त आरक्षित वर्गों को भले ही अवसर न दें किन्‍तु कुछ महिलाओं को तो अध्‍यक्ष पद पर मनोनीत कर दें । इस पत्‍ते की फेंट में भी भाजपा के कुछ विधायक आ गए और खडे होकर कांग्रेसियों का समर्थन करने लगे । लेकिन सहकारिता मन्‍त्री अपने इंकार पर 'अंगद-पद' की तरह अडे रहे । मन्‍त्रीजी ने एक और दलील दी कि प्रदेश के कई सहकारी बैंक घाटे में चल रहे हैं ऐसे में इन बैंकों पर कोई प्रयोग करना मुनासिब नहीं होगा । कांग्रेसियों ने ध्‍यानाकर्षण की कोशिश तो खूब की लेकिन नाकामयाब रहे और अन्‍तत: सुझाव निरस्‍त हो गया ।


समाचार तो यहां समाप्‍त हो गया लेकिन असल बात यहीं से आगे बढती है । वोट मांगते समय तमाम नेता और पार्टियां इसी आरक्षण की दुहाइयां देती हैं, इसे लागू करने के लिए अपनी प्रतिबध्‍दता जता-जता कर आम सभाओं में तालियां पिटवाती हैं और वोट बटोरती हैं । लेकिन जब वास्‍तव में कुछ करने का अवसर आता है तो वह करती है जो इस समय मध्‍य प्रदेश में हुआ । याने, आरक्षित वर्गों के लोगों को यदि नेतृत्‍व के अवसर हासिल करने हैं तो उन्‍हें चुनाव लडकर ही आना पडेगा, सत्‍ताधारी दल अपनी ओर से तब भी उन्‍हें मौका नहीं देगा जबकि वह आसानी से, बिना किसी रोक-टोक के, उन्‍हें यह मौका दे सकता है । मौका भी कैसा कि खुद प्रतिपक्ष इसके लिए सत्‍ताधारी दल से आग्रह कर रहा है ।


यह संयोग ही है कि मध्‍य प्रदेश में इन दिनों भाजपा सत्‍ता पर काबिज है और इस सवाल पर कुछ समय के लिए कटघरे में खडी हो गई है । लेकिन यदि कांग्रेस सत्‍ता में होती तो जरूरी नहीं कि वह भी आरक्षण के प्रावधानों का पालन कर ही लेती । विधायी सदनों की कार्रवाइयों के अभिलेख इस बात के गवाह हैं कि सदन में अपने बैठने के स्‍थान बदलने के साथ ही इन सबकी भाषा भी बदल जाती है ।


ऐसे में यह तो समझ पडता है कि आरक्षण के प्रति नेताओं और पार्टियों की असलियत क्‍या है लेकिन यह समझ पाना मुश्किल है कि अपने इस दोहरे व्‍यवहार को ये नेता और उनके दल, इतनी कुशलता से (भले ही इसके लिए उन्‍हें चरम निर्लज्‍जता ही क्‍यों न बरतनी पडे) कैसे साध लेते हैं, कैसे औचित्‍यपूर्ण बना लेते हैं ?


यह सवाल मैं ने, 'शालीग्राम' का रूतबा हासिल किए हुए एक नेताजी से पूछा तो वे ठठा कर हँस पडे । उन्‍होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे दुनिया के सबसे बडे मूर्ख को पहली बार देख रहे हों । बॉंयी ऑंख दबा कर, रान पर हाथ फटकारते हुए बोले - समझ जाओ तो यह कला है वर्ना विज्ञान है ।