प्रतिभा पाटिल बनाम झमकू


मेरे जिले की, जनजातीय (भील) समाज की सागुड़ी, रुपली, भागूड़ी, झमकू, दरली, तीजड़ी, फुन्दी और ऐसी ही अन्य कई स्त्रियों ने अनायास और अचानक ही, राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल की बराबरी कर ली। इससे पहले वे एक मामले मे ही उनके बराबर थीं। अब दो मामलों में वे प्रतिभाजी के बराबर हो गई हैं।

वस्तुतः, मेरे जिले में पंचायत चुनाव चल रहे हैं। मेरे जिले का बड़ा भू भाग जनजातीय (भील) समाज की आबादीवाला है। इसमें कई ग्राम पंचायतों और जनपदों के पंच, सरपंच, जनपद सदस्य, जनपद अध्यक्ष आदि पद महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं। ऐसे पदों की उम्मीदवार अनजाने में ही, अचानक ही श्रीमती पाटिल की बराबरी में जा बैठीं हैं।

‘साप्ताहिक उपग्रह’ के प्रकाशक परिवार ‘छाजेड़ परिवार’ से मेरा रिश्ता अब केवल अखबार और स्तम्भ लेखक का नहीं रह गया है। आज वह मेरा ‘संरक्षक परिवार’ है और मैं उन पर आश्रित, उनसे संरक्षित। मेरे मोटापे के कारणों में से एक कारण यह भी है कि अपनी अनेक चिन्ताएँ और उत्तरदायित्व ‘छाजेड़ परिवार’ को सौंप कर मैं निश्चिन्त हो गया हूँ।

सो, छाजेड़ प्रिण्टरी पर मेरा उठना-बैठना अब मेरे द दैनन्दिन जीवन का हिस्सा बन गया है। वहाँ बैठने के दौरान ही मेरा ध्यान इस बात पर गया। विभिन्न पदों की उम्मीदवारों के प्रचार के पर्चे, पोस्टर और नकली मतपत्र वहीं छप रहे थे। वर्तनी की अशुद्धियाँ देखने के लिहाज से मैं, छाजेड़ प्रिण्टरी पर छपनेवाली सामग्री को देखता रहता हूँ। इसी क्रम में मैंने इन उम्मीदवार महिलाओं की प्रचार सामग्री देखी। वर्तनी की अशुद्धियाँ देखते-देखते अचानक ही मेरा ध्यान इस बात पर गया कि प्रत्येक उम्मीदवार के नाम के साथ उसके पति का नाम भी दिया गया है। मेरी जिज्ञासा बढ़ी तो मैंने प्रायः ऐसे प्रत्येक पर्चे, पोस्टर और नकली मत पत्र को ध्यान से देखा। नहीं। एक भी कागज ऐसा नहीं दिखाई दिया जिस पर किसी महिला उम्मीदवार के पति का नाम साथ में नहीं दिया गया हो।

दूसरी जिस बात पर मेरा ध्यान गया वह थी, प्रेस पर महिला उम्मीदवारों की अनुपस्थिति। छपाई के लिए आनेवाले सबके सब पुरुष थे। महिला एक भी नहीं। मेरे कौतूहल ने परिहास की शक्ल ले ली। आनेवालों से मैंने अलग-अलग, व्यक्तिगत स्तर पूछताछ की तो सबने एक ही उत्तर दिया कि उनकी पत्नी को कोई नहीं जानता। उनका तो केवल नाम तथा चित्र है और चुनाव तो वास्तव में पति ही लड़ रहे हैं। वोट भी पति के नाम पर और पति के कारण ही मिलेंगे। कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि पंचायतों की बैठक में भी पति ही जाएँगे और पत्नी के अंगूठे की जगह वही (पति ही) अंगूठा लगाऍंगे।

मेरा परिहासी मन उदास हो गया। महिला जाग्रति का यह स्वरुप मेरे लिए तनिक अटपटा और अनपेक्षित ही था। नगरीय क्षेत्रों मे भी ‘पार्षद पति’, ‘अध्यक्ष पति’, ‘महापौर पति’ का पद सृजित अवश्य हो गया किन्तु स्थानीय निकायों के सम्मेलनों में महिलाएँ भागीदारी करती हैं। भले ही वे ‘गूँगी गुड़िया’ बनी रहें किन्तु उपस्थिति के हस्ताक्षर तो खुद ही करती हैं। पहचान तक तो पति का नाम स्वाभाविक माना जा सकता है किन्तु लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं में तो उन्ही महिलाओं को भागीदारी करनी चाहिए जो चुनवा जीत कर निकायों में पहुँची हैं।

अचानक ही मुझे अपनी राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल याद हो आईं। प्रतिभाजी ने योग्यता, क्षमता और प्रतिभा के दम पर खुद को साबित किया और राजनीति के कुटिल और जटिल संसार में खुद को स्थापित किया। इन्हीं सब बातों के चलते वे विधायी सदनों में और बाद में एकाधिक संवैधानिक पदों तक पहुँचीं।

राष्ट्रपति बनने से ठीक पहले वे राजस्थान की राज्यपाल थीं। राजस्थान उनका ससुराल भी है। किन्तु तब तक उनके नाम के साथ उनके पति श्री देवीसिंह शेखावत का नाम उल्लेखित नहीं किया जाता था। राष्ट्रपति बनने के बाद से ही वे ‘श्रीमती प्रतिभा पाटिल’ से बदल कर ‘श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल’ हो गईं। नहीं पता कि यह परिवर्तन क्योंकर हुआ या क्योंकर करना पड़ा। वास्तविक कारण तो प्रतिभाजी ही जानें किन्तु इस परिवर्तन का सीधा सन्देश गया कि भारतीय स्त्री को अपनी स्‍वतन्‍त्र पहचान बनाने के लिए अभी भी लम्बा संघर्ष करना शेष है।

मुझे अनायास ही याद आया कि एक महिला कलेक्टर से जब मैंने बीमे की बात की तो योजना समझकर वे बीमा कराने को तैयार तो हो गईं किन्तु अन्तिम निर्णय के लिए उन्हें अपने पति से पूछना जरूरी लगा। कलेक्टर साहिबा की उपस्थिति में मैं उनके पति से मिला तो पति महोदय ने बिना कोई कारण बताए इंकार कर दिया। कलेक्टर साहिबा ने कारण जानना चाहा तो जवाब मिला - ‘मैंने कह दिया कि नहीं तो नहीं। क्या यह कारण पर्याप्त नहीं है?’ बेचारी कलेक्टर साहिबा! वे संकोच के मारे मेरी ओर देख भी नहीं पा रही थीं।

इस किस्से ने मुझे तनिक सहज तो किया किन्तु उदासी दूर नहीं हो सकी। फिर मैंने अपने आप को समझाया कि मेरे जिले की, जनजातीय समाज की ये महिलाएँ अब तक केवल एक मामले में ही प्रतिभाजी के बराबर थीं - वे भी भारतीय और ये भी भारतीय। किन्तु अब इन महिलाओं ने एक और मामले में प्रतिभाजी की बराबरी कर ली - उनका काम भी पति के नाम के बिना नहीं चलता और इनका काम भी पति के नाम के बिना नहीं चलता।

फिलहाल तो यह समानता ही मुझे तसल्ली दिला रही है।
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मालवा का महाकाल


याद नहीं आता कि निगम साहब से इस बार का मिलना कितने बरसों बाद हुआ। लेकिन मिलने पर पाया कि वे वैसे के वैसे ही हैं जैसे कि कुछ बरस पहले मिले थे। लगा, उन्होंने काल को अपनी मुट्ठी में बन्द कर नियन्त्रित कर लिया हो।


मैं बात कर रहा हूँ उज्जैन निवासी डॉ। श्याम सुन्दरजी निगम की। 1977 के अगस्त में मैं रतलाम में आया तो किराये का पहला मुकाम बना, पेलेस रोड़ पर श्रीकमला शंकरजी ओझा का मकान ‘प्रशान्ति निलयम्’। तब निगम साहब रतलाम कॉलेज में पढ़ा रहे थे और ‘प्रशान्ति निलयम्’ में ही किरायेदार थे। वे 1969 1980 तक रतलाम कॉलेज में रहे। सो, उनके कार्यकाल के अन्तिम दो-ढाई साल उनका सत्संग मिला। तब मैं नव विवाहित था। ज्ञान और दुनियादारी के मामलों में उन्होंने मुझे भरपूर समृद्ध किया। उन्हें लेकर मेरे पास संस्मरणों का खजाना है लेकिन एक अब तक उन सबमें ‘टॉप’ पर बना हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे लेकर निगम साहब अब भी खुद पर हँसने का अजूबा और साहस कर लेते हैं।

पीएच. डी. करने से पहले निगम साहब कोई सात-आठ विषयों में एम.ए. होने के अतिरिक्त एम. कॉम., एल. एल. बी., भिषगाचार्य, साहित्याचार्य, साहित्य रत्न, शिक्षा रत्न, आयुर्वेद रत्न जैसी उपाधियों के स्वामी भी हैं। कुछ उपाधियों में उन्होंने प्रावीण्य सूची में स्थान प्राप्त किया तो कुछ में स्वर्ण पदक भी हासिल किए। शेष सबमें प्रथम श्रेणी ही प्राप्त की। पता नहीं यह सब उन्होंने कब और कैसे किया होगा। मेरा यह संस्मरण उनकी इन्हीं उपाधियों को लेकर उपजा।

निगम साहब ने अपने निवास के बाहर अपनी नेम प्लेट लगा रखी थी जिस पर इन सारी उपाधियों का उल्लेख था। मैंने एक-दो बार ही इनका नोटिस लिया था। किन्तु एक दिन वह हो गया जिसकी कल्पना और किसी को हो न हो, निगम साहब को तो कभी नहीं रही होगी।
यह सम्भवतः अप्रेल 1980 के किसी एक दोपहर की बात होगी। गर्मी ने पाँव पसारने शुरु कर दिए थे। घरों में पंखे चलने लगे थे। सड़कें नीरव होने लगी थीं। निगम साहब और मैं, उनके अगले कमरे में बैठे बातें कर रहे थे। अचानक ही दो बच्चों की बातों ने हमारा ध्यानाकर्षण किया। दोनों बच्चे दसवीं-ग्यारहवीं के छात्र रहे होंगे। रास्ते चलते उन्होंने निगम साहब की नेम प्लेट पढ़ी। ढेर सारी डिग्रियों को पढ़ने में समय तो लगना ही था। सो, दोनों खड़े रह कर पढ़ने लगे। पढ़ने के बाद दोनों में कुछ इस तरह सम्वाद हुआ -
‘देख तो रे! इसने कित्ते सारे एम. ए. कर रखे हैं!’
‘हाँ! यार, भोत सारे हैं।’
‘यार! इत्ते सारे एम. ए. करने में तो भोत पढ़ना पड़ा होगा!’
‘चल-चल, इत्ता कोई पढ़ सकता है? नहीं पढ़ सकता। जरूर इसने टीप-टीप कर (नकल कर) पास की होंगी।’
‘हाँ यार! तू सई के रिया है। टीप कर ही पास हुआ होगा।’

अन्तिम वाक्य कहने के साथ ही दोनों बच्चे तो चले गए लेकिन मैं और निगम साहब अवाक् हो, एक दूसरे की शकल देखने लगे। कुछ भी सूझ नहीं पड़ा कि बच्चे क्या कह गए और क्या हो गया! बाहर पसरा सन्नाटा कमरे के भीतर तक चला आया था। निगम साहब के चेहरे पर एक के बाद एक रंग आ-जा रहे थे। मैं संकोचग्रस्त हो अपने में ही सिमट गया था। हम दोनों एक दूसरे की साँसों की आवाज और हृदय की धड़कनों को साफ-साफ सुन रहे थे। कितना समय इस दशा में बीता, हम दोनों को अब तक याद नहीं। लेकिन जल्दी ही निगम साहब अपने में लौटे और बुक्का फाड़ ठहाका लगा कर मालवी में बोले - ‘हत्तेरे की। या बात तो मारा ध्यान में आज तक नी आई के ऐसो भी वेई सके। अब तो मने भी लागवा लाग्यो के मूँ टीपी नेऽज पास व्यो वूँगा।’ (धत्तेरे की। यह बात तो आज तक मेरे ध्यान में भी नहीं आई कि ऐसा भी हो सकता है। अब तो मुझे भी लगने लगा है कि मैं नकल करके ही पास हुआ होऊँगा।) पहले तो ठहाका और फिर यह वाक्य सुनकर मेरी साँस में साँस आई और मैं भी ठहाका मार कर निगम साहब के साथ हो लिया। उसके बाद निगम साहब ने सबसे पहले जो काम किया वह था - जोर-जोर से हँसते हुए, अपनी नेम प्लेट उतारने का। शायद वे इस घटना की आवृत्ति की जोखिम लेने को अब क्षणांश को भी तैयार नहीं थे।

कई सारी बातें आई-गई हो गईं किन्तु यह बात आज भी जस की तस बनी हुई है। सो, इस बार दो जनवरी को जब मैंने उनके चरण स्पर्श किए तो उन्होंने यही किस्सा याद करते हुए मुझे बाँहों में भर लिया।

इस समय वे 79वें वर्ष में चल रहे हैं किन्तु उन्हें देख कर लगता है कि वे अभी कॉलेज जाने के लिए निकल पड़ेंगे। 1991 में सेवा निवृत्त होने के बाद वे जिस योजनाबद्ध तरीके से सक्रिय हुए, लगा कि वे सेवा निवृत्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे। अपनी आदरणीया माताजी के नाम पर उन्होंने ‘कावेरी शोध संस्थान्’ की स्थापना कर अपने निवास को मानो तीर्थ बना लिया। क्षेत्रीय लोक परम्पराएँ,भारतीय सामाजिक एवम् आर्थिक जीवन का इतिहास, पुराभिलेख एवम् पुरालिपि विज्ञान, क्षेत्रीय/आंचलिक इतिहास, विभिन्न युगीन भारतीय संस्कृति जैसे जटिल विषय उनके प्रिय विषय हैं। अब तो उन्हें भी याद नहीं कि उनके निर्देशन में कितने बच्चों ने पीएच. डी. कर ली है। सम्मेलनों/संगोष्ठियों मे भागीदारी, विभिन्न ग्रन्थों का सम्पादन, शोध आलेख लेखन, टीवी/रेडियो पर साक्षात्कार और वार्ताएँ, ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएँ, पर्यावरण रक्षण की गतिविधियाँ आदि काम उन्हें फुरसत में नहीं रहने देते। उनके निवास पर दो-चार शोधार्थी बने ही रहते हैं। निगम साहब की जीवन संगिनी आदरणीया भाभीजी श्रीमती स्नेहलता निगम, ‘गुरु माता’ की तरह उनकी देखभाल करती हैं। चार शोध ग्रन्थों सहित 15 पुस्तकें, हिन्दी एवम् अंग्रेजी में साठ से अधिक शोध पत्र, दो सौ से अधिक आलेखों का प्रकाशन उनके खाते में जमा हैं। गए आठ वर्षों से हिन्दी-अंग्रेजी त्रैमासिक ‘शोध समवेत’ का प्रकाशन निरन्तर किए हुए हैं। उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों का काम इस पत्रिका के बिना नहीं चलता। उल्लेखनीय बात यह है वे सरकार से फूटी कौड़ी भी नहीं लेते। सब कुछ अपने और मित्रों के दम पर कर रहे हैं। ‘सीकरी’ ने उन्हें रिझाने की अनेक कोशिशें की किन्तु इस ‘सन्त’ ने एक बार भी उसकी नहीं सुनी। इस महर्षि के सामने सत्ता सदैव की ‘चेरी भाव’ से ही नतमस्तक खड़ी रहने को विवश हुई है।

निगम साहब उज्जैन में गौ घाट के पास स्थित केशव नगर कॉलोनी में निवासरत हैं। उनके निवास का नाम समर्पण और मकान नम्बर 34 है।उज्जैन महाकाल की नगरी के रूप में जाना जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि वहाँ दो महाकाल हैं। एक सारी दुनिया के और दूसरे मालवा के महाकाल।

अगली बार उज्जैन जाएँ तो मालवा के महाकाल के दर्शन भी कीजिएगा। उनसे मिल कर लौटते समय तीर्थ दर्शन का आनन्द साथ-साथ चला आता है। हाँ, जाने से पहले फोन नम्बर (0734) 2551317 पर तलाश अवश्य कर लें। कहीं ऐसा न हो कि आप ‘समर्पण’ पहुँचें तो मालूम पड़े कि मालवा का महाकाल किसी बौद्धिक समुदाय को समृद्ध करने के लिए विचरण कर रहा है।
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