- बालकवि बैरागी
पुण्य-स्मृति पण्डित श्री सूर्यनारायणजी व्यास की पुण्य-तिथि ( 22 जून 1999) प्रसंग पर लिखा, दादा श्री बालकवि बैरागी का यह लेख, इन्दौर से प्रकाशित दैनिक नव भारत के, 20 जून 1999 के अंक में छपा था।
यह लेख है तो पण्डितजी पर केन्द्रित किन्तु इसमें खुद दादा तथा अन्य कुछ और लोगों से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी हैं।
यह लेख मुझे पण्डितजी के सुपुत्र, सुपरिचित, ख्यात साहित्यकार श्री राज शेखर व्यास की फेस बुक वाल से मिला है। लेख के साथ यहाँ दिया गया चित्र वही है जो नव भारत में लेख के साथ छपा था।
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वे लोग विरले ही हैं जिनके माध्यम से समय का देवता अपने आप को व्यक्त करता है। यूँ तो वह कुछ-न-कुछ कहलवाता तो सभी से है किन्तु ये गिने लोग ही अपने-अपने समय में ऐसे होते हैं जो कि समय देवता के आशय को अपनी प्रबल मेधा से पहचान लेते हैं और अपना सारा जीवन उसी आशय के लिए अर्पित कर देते हें। समय देवता का ही दूसरा नाम हुआ करता है - महाकाल। महाकाल का आशय कभी माध्यम या तुच्छ नहीं होता। वह हमेशा उत्तंग और उल्लेखनीय हुआ करता है। एक तरह से महान्। इस महान् आशय को आत्मसात करनेवाले को ही संसार महाशय कह कर पुकारता है। पण्डित सूर्यनारायण व्यास को इस कसौटी पर कसकर समय का देवता भी संकोच में पड़ गया होगा। वस्तुतः वे महाशय से भी ऊपर कुछ और थे।
अपने सात्विक और क्रियाशील जीवन में उन्होंने अकेले ही मालवा मालवा और अपने प्रिय नगर उज्जैन के लिए जितना कुछ किया है उसका लेखा-जोखा इस तरह से और एकाएक नहीं लिया जा सकेगा। कितना तो उन्होंने लिखा और बोला, कितना पत्राचार किया और मितभाषी होते हुए भी कितना संवाद किया! अपने जीते-जी वे किंवदन्ती पुरुष बने रहे और स्वर्गवास के बाद एक तरह से गाथा नायक की सीमाओं के ठेठ भीतर जा बैठे हैं।
उज्जैन को विक्रम विश्व विद्यालय देना, महाकवि कालिदास का ऋण उतारने के उपक्रम में अखिल भारतीय कालिदास समारोह की परिकल्पना करके उसे आकार देना, सारे संसार के संस्कृत प्रेमियों को एक मंच पर ला बैठाना। ये कुछ ऐसे बिन्दु हैं जो स्थूल हैं, किन्तु अपने शहर की गलियों, मोहल्लों और सड़कों के नाम तक बदल देना और उन नामों का नामान्तरण भी अपने साहित्य, संस्कृति और पुराण पुरुषों के नाम पर करवा देना उनके अकेले मस्तिष्क की सूझबूझ थी। महाकाल के महान् आशय का शायद उन्हें सदैव स्मरण रहा करता होगा। उनके जीते-जी भारत का एक भी महापुरुष ऐसा नहीं बचा था जो कि उज्जैन नहीं आया हो। देश-रत्न राजेन्द्र बाबू जैसी विभूति को भारती भवन की सीढ़ियाँ चढ़वा देना, सम्भवतः उनकी तपस्या का ही पारिजात-पुण्य था। राजेन्द्र बाबू दमे के गम्भीर मरीज थे। तब भी वे व्यासजी के निवास भारत भवन की सीढ़ियाँ चढ़कर, उनके दर्शन करने पधारे थे। विक्रम विश्व विद्यालय की स्थापना के लिए पण्डित जवाहरलालजी नेहरू से उनका जो दो-टूक संवाद हुआ था, वह आज भी इतिहास का दस्तावेज है।
पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास मूलतः संसार के प्रख्यात ज्योतिषी थे। राजाओं, महाराजाओं और बाद में मुख्य मन्त्री के स्तर के नीचे की जन्म कुण्डली उन्होंने कभी नहीं देखी। जिस कुण्डली को वे देखना नहीं चाहते थे, उसके लिए बिना किसी लाग-लपेट के मना कर देते थे। स्वाभिमानी इस सीमा तक रहे कि लोग उन्हें अभिमानी मान बैठते थे। विनोद और कटाक्ष उनके अनुपम श्लेष से अलंकृत होते थे। मुझे उनके श्री चरणों में बैठने का सौभाग्य बार-बार मिला है। मेरा यह विशेष सौभाग्य रहा कि मैंने अपने जीवन का पहला कवि-सम्मेलन ही तराना में भाई श्री हरीश निगम के संयोजकत्व में पण्डित श्री सूर्य नारायणजी व्यास की अध्यक्षता में पढ़ा।
बसन्तोत्सव के उस मंच पर वे सारी रात विराजे रहे थे। उनके आसपास के नक्षत्र-लोेक में स्व. श्री श्याम परमार, स्व. बसन्तीलाल बम, स्व. डॉ. चिन्तामणिजी उपाध्याय, कुँवर श्री गिरिवरसिंह भँवर, पण्डित मदन मोहनजी व्यास, श्री प्रकाश उप्पल, स्व. श्री भोगलेकर, पण्डित श्री आनन्दरावजी दुबे और मालवी के कई लेखक-कवि शोभित थे। उस कवि सम्मेलन की दो बातें अच्छी तरह याद हैं। एक तो यह कि यह मेरा पहला कवि सम्मेलन था और इसके लिए मुझे तराना रोड़ रेल्वे स्टेशन से तराना शहर तक तक की यात्रा पैदल ही करनी पड़ी थी। हम सात-आठ कवि पैदल ही पलाश वनों को पार करते हुए तराना पहुँचे थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि प्रसिद्ध मालवी कवि श्री सुल्तान मामा ने उस कवि सम्मेलन का ऐलान सारे शहर में किया था। तब मामा कविताएँ नहीं लिखते थे। सुगायक जरूर थे। चुपचाप कहने की एक बात और भी मन में कसमसा रही है। इस कवि सम्मेलन का पारिश्रमिक तब मार्ग-व्यय सहित मुझे सात रुपये मिला था। मनासा से तराना तक आना-जाना और कविता-पाठ करना, सभी कुछ आ गया था इन सात रुपयों में। यह सन् 1951 के बाद का कोई बसन्त था। शायद सन् 52 या 53 रहा होगा। पर इस मंच पर मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि रही - पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास का ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त कर लेना। मंचों पर तो मैं पहले से ही था पर कवि सम्मेलन, और वह भी सपारिश्रमिक कवि सम्मेलन के तौर पर मेरा यह पहला ही कवि सम्मेलन था। इस आयोजन के बाद तो मैं, जब तक दा’ साहब व्यासजी जीवित रहे, यदा-कदा और प्रायः नियमित तौर पर भारती भवन आकर उनके चरण स्पर्श किया करता था।
प्रभु प्रदत्त मूल-धन ज्योतिष की जितनी सेवा अकेले उन्होंने की है, उसका जोड़ शायद ही गये हजार और आने वाले हजार सालों में इस देश को मिल सके। यह विद्या, मात्र विद्या नहीं रहे, अपितु इसे शास्त्र के तौर पर पुनः प्रतिष्ठा मिले, इस दिशा में उन्होंने सारा जीवन खपा दिया। कई सदियों के बाद, दुनिया के अन्य देशों ने, दा’ साहब के कारण ही, भारतीय ज्योेतिष को नई आभा के साथ पहचाना। वे कई देशों में घूमे और अपने देश की इस महान सम्पदा का उपहार बहुत ही मनोवैज्ञानिक तरीके से न जाने किस-किस को देकर उपकृत कर आए। भारत में आज कोई भी ज्योतिषी तब तक ज्योतिषी नहीं जाना जाता जब तक कि पण्डित सूर्यनारायणजी व्यास का चित्र उसकी बैठक या पूजा में नहीं हो।
दा‘ साहब के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनके परिजनों व पुत्रों या पौत्रों से उसी कोटि की पुण्यशीला मेधा की अपेक्षा करना उनकी पीढ़ियों के प्रति भी न्याय नहीं होगा। उनके बच्चे चर्चित और समर्पित नहीं हैं, ऐसा भी नहीं है। किन्तु यह भी सच है कि महाकाल अपना आशय हर किसी को नहीं सौंपता। मैं लिख चुका हूँ कि ऐसे लोग विरले ही होते हैं, सदियों में एक-आध, कई संवत्सरों में शायद कोई एक। बस।
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