26 नवम्बर सोमवार की दोपहर। चुनाव प्रचार अपने चरम पर है। भाजपा और काँग्रेस के उम्मीदवार रैलियों के जरिये, कस्बे के प्रमुख बाजारों में मतदाताओं को अपनी शकलें दिखा रहे हैं, उनके हाथ जोड़ रहे हैं।
चुनाव की रंगीनी और गहमा-गहमी तलाशते हुए, हम सात फुरसतिये बिना किसी पूर्व योजना के, अचानक ही माणक चौक में एक ठीये पर मिल गए हैं। सातों के सातों सत्तर पार। देश की प्रमुख सभी राजनीतिक विचारधाराएँ इनसे प्रतिनिधित्व पा रही हैं। सबके सब घुटे-घुटाए। सूरदास की ‘कारी कामरियाँ’, जिन पर दूजा रंग चढ़ने की आशंका भी नहीं। प्रत्येक अपने आप में एक मदरसा। कोई डाइबिटिक है तो कोई बीपी का मरीज। सबके अपने-अपने परहेज हैं। लेकिन जैसे गणित में ऋण-ऋण मिलकर धन हो जाता है, उसी तरह यहाँ परहेजियों के सारे परहेज, कुण्ठित चटोरापन बन कर जबान पर आ बैठे हैं। कॉमरेड की दुकान की कचौरियाँ और शंकर स्वीट्स की कड़क-मीठी चाय आ गई है। सबकी जबानें नश्तर तो हैं लेकिन नुकीली नहीं। छिलके उतार रही हैं। चुभ नहीं रहीं। कचौरियाँ कुतरने और चाय चुसकने के बीच बातें होने लगीं -
- कश्यप जीत जाएगा।
- अभी से क्या कहें! प्रेमलता जोरदार टक्कर दे रही है।
- क्या टक्कर दे रही है? कश्यप के सामने कहाँ लगती है? खानापूर्ति कर रही है।
- इस मुगालते में मत रहना। अण्डर करण्ट दौड़ रहा है। बरसों बाद कोई सनातनी उम्मीदवार सामने है।
- तुम लोग धरम-जाति से कभी ऊपर भी उठो यार! ये क्या जैन-सनातनी लगा रखा है? एक पूरी नई पीढ़ी सामने आ गई है। वो तुम्हारे धरम-जात के चक्कर में नहीं पड़ती। अपने दिमाग से काम लेती है।
- हाँ! वो तो है। लेकिन उनके सामने आप्शन क्या है?
- ये ‘नोटा’ को वोट नहीं दे सकते?
- दे सकते हैं लेकिन देंगे नहीं। वे कमिटेड नहीं हैं। तुमसे-हमसे ज्यादा पढ़े-लिखे, समझदार हैं। वोट को बेकार नहीं जाने देंगे। वोट तो किसी न किसी पार्टी को ही देंगे।
- हाँ। किसी न किसी पार्टी को ही देंगे।
- देखो यार! इतने भावुक और आदर्शवादी मत बनो। अपना शहर, व्यापारी शहर है और व्यापारी कभी घाटे का सौदा नहीं करता। इसलिए जीतेगा तो कश्यप ही। उसके जीतने में ही सबका फायदा है।
- लेकिन कश्यप से नाराज लोग भी कम नहीं। जीत भले ही जाए लेकिन इस बार पसीना आ रहा है।
- अरे! यार! तुम लोग ये क्या कश्यप-प्रेमलता में उलझ गए! कल अयोध्या में जो हुआ वो मालूम है तुम्हें?
- लो! इससे मिलो! चौबीस घण्टे हो गए हैं। अखबारों और टीवी में सब आ गया। सबने कह दिया कि उद्धव ठाकरे का शो फ्लॉप हो गया। पाँच हजार भी नहीं थे उसके मजमे में।
- य्ये! येई तो सुनने के लिए मैंने इसे उचकाया था। उचक गया स्साला। उद्धव की तो बता दी लेकिन वीएचपी की नहीं बताई। जरा वीएचपी की भी तो बता दे!
- क्यों? वीएचपी की क्या बताना? भव्य प्रोग्राम रहा।
- अच्छा! कितना भव्य रहा?
- मुझसे क्या पूछते हो? अखबार में पढ़ लो! टीवी में देख लो!
- अरे! शाणे! हमको क्या उल्लू समझता है? तीन बज रहे हैं। हम क्या सीधे बिस्तर से उठ कर चले आ रहे हैं? बिना मुँह धोये? अरेे! दुनिया की खबर ले कर आ रहे हैं! तेरे मुँह से सुनना है। बता! कितना भव्य रहा वीएचपी का मजमा?
- अरे! यार! बुड्डा हो गया है। याददाश्त चली गई है बिचारे की। मगज (बादाम) खाता तो है लेकिन असर नहीं करती। तू ही बता दे।
- वो तो मैं बता ही दूँगा। लेकिन पहले ये, उद्धव के मजमे की गिनती बतानेवाला तो कुछ बोले!
- चल! तू ही बता दे। तेरी आँखों पर तो पट्टी बँधी है। मैं कुछ भी बताऊँगा तो तू मानेगा तो नहीं। तू ही बता।
- बड़ी जल्दी मैदान छोड़ दिया तेने तो रे! अपनी जाँघ उघाड़ने में शरम आती है? चल! मैं ही बताता हूँ। दो लाख लोग इकट्ठा करने का दावा किया था। चालीस हजार भी नहीं पहुँचे! पण्डाल खाली था।
- नहीं। चालीस नहीं। पचास हजार। लेकिन चालीस हजार भी कोई कम नहीं होते।
- सवाल कम-ज्यादा का नहीं है रे! सवाल तो तुम्हारे होश उड़ने का है। उद्धव ने तुम्हारे होश उड़ा दिए। उसने तो तुम्हारी दुकान पर कब्जा कर ही लिया था। बाबरी डिमालेशन का क्रेडिट ले ही लिया था उसने तो। वो अयोध्या आने की बात नहीं करता तो तुम लोग ये मजमा लगाते?
- क्यों? क्रेडिट लेने की बात ही कहाँ है। वो तो हमने ही किया था।
- अच्छा! तुमने किया था? लेकिन उद्धव के दावे के जवाब में वीएचपी ने तो कबूल कर लिया कि उस डिमालेशन में केवल वीएचपी का नहीं, देश के दूसरे संगठनों का भी योगदान है!
- ये तो वीएचपी की शालीनता है। देश के सम्पूर्ण हिन्दू समाज को क्रेडिट दे रही है। लेकिन हिन्दू भावनाओं की चिन्ता तो हम ही कर रहे हैं? इसमें क्रेडिट की बात ही कहाँ है। छाती ठोक कर कहते हैं - हाँ हमने किया है।
- अच्छा! ये छाती ठोकनेवाले तो सबके सब मादा बने हुए हैं। कोर्ट में तो एक भी सूरमा जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। सबके सब एक भाव से कह रहे हैं कि बाबरी गिराने में उनका हाथ नहीं है। तुममें केवल एक ही मरद है। उमा भारती। उसी ने कहा कि वो बाबरी गिराने में शामिल है। बाकी तो तुम सबके सब मादा हो।
- अरे यार! क्यों इसके पीछे पड़ गया! हकीकत अपन सब जानते हैं।
- यही तो! जानता तो ये भी है लेकिन कबूल नहीं करता। अच्छा चल बता! अभी ये जमावड़ा क्यों किया? क्या प्रसंग था?
- क्या प्रसंग था? अरे! राम मन्दिर तो देश के हिन्दू समाज की आस्था का मामला है। बहुत राह देख ली। अब नहीं देखेंगे। अभी नहीं तो कभी नहीं। बस! यही तो कह रहे हैं!
- अच्छा! साढ़े चार साल पहले जब एक साथ 282 आए थे लोक सभा में तब आते ही रामजी क्यों याद नहीं आए? चलो कोई बात नहीं। लेकिन उसके बाद अब तक क्या करते रहे? अडानी-अम्बानी के जरिए जेबें भरते रहे। पेट्रोल, नोटबन्दी और जीएसटी से लोगों की जान लेते रहे। अब जब लोग सामने आकर बोलने लगे हैं। हिसाब माँगने लगे हैं तो रामजी याद आ गए? लोग बेवकूफ नहीं हैं। सब जानते हैं। तुम तो लोगों की नब्ज टटोल रहे थे। लेकिन फ्लॉप हो गए। यही तुम्हारी परेशानी है। इसी से तुम घबरा रहे हो। तुम्हें रामजी नहीं, 2019 का चुनाव नजर आ रहा है।
- ऐसी कोई बात नहीं है। चुनाव, चुनाव की जगह और राम मन्दिर अपनी जगह। मन्दिर बनाना तो हमारे जीवन का ध्येय है। तुम चाहे जितनी बाधाएँ खड़ी कर दो, मन्दिर तो बन कर रहेगा। हम ही बनाएँगे।
- अरे! यार! तुम दोनों ने चाय-कचोरी का नास कर दिया। बन्द करो यह सब। चलो! एक-एक कचोरी और चाय और बुलाओ।
- हाँ! हाँ! बुलाओ। मेरी ओर से। लेकिन एक बात तुम सब सुन लो। ये ऐसे बात कर रहा है जैसे रामजी इसके भरोसे हैं। जरा समझाओ इसे। रामजी इसके भरोसे नहीं, ये रामजी के भरोसे है। और ये ही नहीं, सारी दुनिया रामजी के भरोसे है। इसे समझाओ कि रामजी अपनी चिन्ता खुद कर लेंगे। चुनाव जीतने के लिए कोई और टोटका करे।
तीसरा कोई और बोलता, इससे पहले कॉमरेड की दुकान से कचोरियाँ आ र्गइं। सब उन्हीं में अपने-अपने रामजी देखने लगे।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 29 नवम्बर 2018