वह 1962 का साल था। ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ और ‘पंचशील’ की भावना को धता बताते हुए, भारत की पीठ में छुरा भोंकते हुए चीन ने भारत पर हमला कर दिया था। थोपे गए इस युद्ध में भारत रास्त हुआ था। चीन ने अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया था। इस, सर्वथा अनपेक्षित, आकस्मिक हमले से पूरा देश हतप्रभ और आक्रोशित था। प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरू को गहरे सदमे में थे। संसद गरमाई हुई थी। सांसद उबल रहे थे। विपक्ष हंगामा किए हुए था। चीन के कब्जे से अपनी जमीन मुक्त कराने की माँग मानो दसों दिशाओं में गूँज रही थी। खुद को सम्हालने के लिए संघर्षरत, अवसादग्रस्त नेहरू लोक सभा के जरिये पूरे देश को सांत्वना और भरोसा दिलाने के लिए जूझ रहे थे। बात को हलका करने की कोशिश में कह बैठे कि अक्साई चिन में तिनके के बराबर घास भी नहीं उगती। नेहरू ने कह तो दिया लेकिन समूचा सदन भड़क उठा। विपक्ष तो आक्रामक हुआ ही किन्तु नेहरू की कल्पना के सर्वथा विपरीत, उनके मन्त्री मण्डल के सदस्य महावीर त्यागी, नेहरू की इस बात के विरोध में सबसे पहले आगे आ गए। नेहरू को अपना गंजा सर बताते हुए पूछा - ‘यहाँ भी कुछ नहीं उगता! इसे कटवा दूँ? किसी और को दे दूँ?’ नेहरू अकबका गए। कोई उत्तर देते नहीं बना। अगले दिन के अखबारों में महावीर त्यागी मुख पृष्ठ पर छाए हुए थे। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में यह सम्भवतः पहला प्रसंग था जब किसी मन्त्री ने अपने ही प्रधान मन्त्री को ऐसी दुविधाजनक दशा में ला खड़ा किया था।
इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद नेहरू और त्यागीजी के सम्बन्धों को लेकर अटकलोे के पहाड़ खड़े हो गए थे। लेकिन दोनों की आत्मीयता और मैत्री भाव पर रंच मात्र भी खरोंच नहीं आई। इसका दस्तावेजी प्रमाण मिला, नेहरू के निधन के बाद, नेहरू को याद करते हुए लिखे, त्यागीजी के इस लेख में। यह लेख रतलाम से प्रकाशित हो रहे साप्ताहिक उपग्रह के, वर्ष 1965 के गणतन्त्र दिवस विशेषांक में छपा था। मुझे यह लेख श्री ललित भाटी (ए-105, एलिट अनमोल, बिचोली मार्ग, इन्दौर-452018, मोबाइल नम्बर 98270 08628) से मिला है। लेख के साथ दिया गया चित्र, नेहरू मेमोरीयल म्यूजियम एण्ड लायब्रेरी में संग्रहित है जो मैंने गूगल से लिया है।
अब कहाँ जाऊँ?
केन्द्रीय पुनर्वास मन्त्री, भारत सरकार
भगवान सर्वव्यापक है इसका विश्वास तो सभी को है पर अनुभव शायद ही किसी को हो। आज अपने 44 वर्ष के साथी और नेता के निधन के समय मुझे अपने जीवन में पहली बार अनुभव हुआ कि व्यापकता का वास्तविक अर्थ क्या है। आज 18 दिन हो गए दाह कर्म किये, पर मन की तली में (गहराई में) वह मुस्कुराती, शरमाती, धमकाती और उकसाती सूरत अभी तक ऐसी समाई हुई है कि भुलाई नहीं जाती। जब भी कोई समस्या सामने आती है, तो पुरानी आदत के अनुसार अनायास जवाहरलाल से मिलने, टेलीफोन करने या चिट्ठी लिखने की प्रवृत्ति होती है, फिर जागृत बुद्धि कहती है ‘पागल’।
‘व्यापक’ के अर्थ है ‘छवि का प्रसार’। जैसे माँ के मन पर उसका बच्चा व्याप्त रहता है उसी प्रक्रार जवाहरलाल नेहरू भी अपने साथियों के मन पर छाए हुए हैं। शरीर तो नष्ट हो गया है पर उसकी परछाईं (फोटो) तो हमारे हृदयों पर छाप लगाए बैठी है। जब तक हम लोगों के ये दिल (उनकी निगेटिव प्लेट) जिन्दा हैं, जवाहरलाल जिन्दा है।
पर यह क्या बात है कि मुझे उनकी मरने को खबर से जितना धक्का लगा, उससे कहीं अ्रधिक दुःख उनकी दाहक्रिया से लौटने पर हुआ और संगम में अस्थि प्रवाह करने के बाद उससे भी अधिक। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं, दुख बजाय कम होने के बढ़ता ही जाता है।
महात्मा गाँधी ने इस अन्धकारमय भारत की सेवा के लिए हजारों-लाखों व्यक्तियों को प्रेरणा देकर स्वतन्त्रता प्राप्त की और जैसे दीपावली में दीपमालाएँ सजाई जाती हैं, ‘दीप’ ने इसी तरह भारत के कोने-कोने में अपने अनुयायियों को प्रहरी बना कर रखा था। दीेपावली के बल्व रूप में हक सब दमक रहे थे कि आज जवाहरलाल के निधन से हमारा प्रकाश स्रोत (पावर हाउस) उखड़ गया और सारे बल्ब बुझ गए। पर चूँकि फ्यूज नहीं हुए थे इसलिए हमने फौरन ही श्री लाल बहादुर शास्त्री को अपना प्रकाश-स्रोत बना लिया और फिर से टिमटिमाने लगे। यदि जनता का पूरा सहयोग प्राप्त रहा तो आशा है हम फिर अपनी पुरानी शक्ति प्राप्त कर लेंगे और जी भर के अपने कर्तव्यों का पालन कर सकेंगे ।
मुझे पूरी तरह याद है कि खिलाफत-आन्दोलन के समय एक बार जवाहरलाल बिजनौर आए। उन दिनों मैं जिला काँग्रेस कमेटी का मन्त्री था। साथियों की एक टोली के साथ काँग्रेस के मेम्बर बनाने और ‘तिलक स्वराज्य फण्ड’ के लिए चन्दा इकट्ठा करने के लिए बजार से निकले तो एक दुकान के सामने जवाहरलालजी ने अपना कुर्ता फैलाकर भिक्षुक के रूप में चन्दा माँगा। लोगों ने धड़ाधड़ रुपए और पैसे फेंक कर चरण छूना शुरु कर दिया-‘मोतीलाल का बेटा हमारी दूकान पर भीख माँगे!’ लोग पागल बन गए। इसी तरह रायबरेली और प्रतापगढ़ के जिले में धोती-चप्पल पहने गांव-गाँव किसान अ्रान्दोलन के सिलसिले में पैदल सफर को निकले थे। वे दिन याद करके मन को धक्का लगता है। भगवान फिर से वही देश-भक्ति और सेवा-भाव का उत्साह जागृत कर दें।
कांग्रेस में शायद अकेला मैं ही उनका एक पुराना साथी ऐसा रह गया था कि जिसके साथ वह खुली डाँट-डपट कर लेते थे। असल बात यह थी कि हम थे तो एक हो थैली (गाँधी परिवार) के चट्टे-बट्टे। पर वे विलायत के पढ़े हुए थे और मे ठेठ देहाती। हम में से जो खुशामद के द्वारा काम निकालने वाले थे उनका काम तो हो जाता था पर मुझे पता है कि जवाहरलाल के दिल में उनकी खाक भी कदर नहीं थी। वह उनको ‘छोटा आदमी’ कहते थे। जैसे खाने के बाद इलायची या पान खा लेते हैं, ऐसे ही, दिन भर की थकावट के बाद यदि कोई अपनी आँख देखी बातों पर उनकी खुशामद न करके किसी दूसरे से सुनी हुई प्रशंसा की चर्चा करे तो शौक से सुन लेते थे। एक आदत और थी। वह यह कि यदि आप उनके किसी साथी या मित्र की बुराई करें तो चाहे वह सच्ची क्यों न हो, वह जानबूझ कर कहा करते वे-‘मैं उनको आपसे ज्यादा जानता हूँ। आपको ऐसी फजूल की बातें नहीं करनीं चाहिए।’ मुझसे हर तरह की कच्ची-पक्की बात हो जाती थी क्योंकि वह मुझे ‘बेवकूफ’ मानते थे और बेवकूफ आम तौर पर ईमानदार होते हैं।
कश्मीरी गाल
एक बार, जब मैं सुरक्षा संगठन मन्त्री था, हम सब काँग्रेस पार्दी के लोग होली खेलने जवाहरलालज़ी के घर पर गये। होली का त्यौहार तो प्रेम के हुर्रे बिखेरने का होता है, इस दिन सब खता माफ समझी जाती है। सब लोग जवाहरलालजी के मुँह पर हरा, पीला, लाल गुलाल लगा कर गले मिल रहे थे। पन्तजी भी वहीं खड़े थे। जब मेरा नम्बर आया तो गुलाल मलने के बाद गले मिलते हुए मैंने जवाहरलाल की, लम्बी सी चुमकारीदार चुम्मी काट ली। प्राइम मिनिस्टर के गालों को चूमना कोई आसान काम था?
सब साथी हक्के-बक्के से रह गए। उनकी बचपन की आदत, अपने रंगे मुँह को रूमाल से पोंछते हुए बोले ‘यह क्या बद्तमीजी है? मुँह जूठा कर दिया!’ मैंने कहा “माफ़ कीजिए, कश्मीरी गाल हिन्दुस्तान भर में इसी काम आते हैं। सबने ‘होली है’ कह कर मजाक उड़ा ली। ऐसे थे वे लाल-लाल गाल, गाली-गुस्सा तो करते थे, पर चूमने वालों को बड़े चाव से चुमकार कर अपने पास बिठा लेते थे ।
जेबकतरा
उसी पेन से लिख रहा हूँ कि जो जवाहरलालज़ी की जेब से चुराई थी। कमजोरी बहुत आ गई थी। काँग्रेस पार्लियामेण्ट्री पार्टी को बैठक उन्हीं के घर पर हुई। उनके चेहरे को देख कर सब सुस्त से पड़ गये थे। ऐसा लगा, हमारी इस मौन अवस्था, को देख कर इनके मन में, बुरा
असर पड़ेगा। बस, मैं उठकर उनके नजदीक की कुर्सी पर जा बैठा। वह सामने, गलीचे पर बैठे हुए मित्रों के उतरे हुए चेहरों को देख रहे थे कि मैंने लम्बा हाथ बढ़ा कर उनकी जेब में जो सुन्दर सा बाल पेन लगा था, खेंच कर अपनी जेब में सजा लिया। उन्होंने हँसते हुए कहा ‘यह क्या?’ मैंनेे कहा ‘जेब कतरेपन का अभ्यास कर रहा हूँ। उन्होंने कहा ‘तुम इस आर्ट में सफल नहीं हो सकते। जेब ऐसे काटनी चाहिए कि किसी को पता न चले। तुम तो डकैती के योग्य हो।’ फिर भी मैंने कहा ‘पार्टी की राय है कि आप को ज्यादा काम नहीं करना चाहिए। जब तक आपके हाथ में कलम रहेगा आराम नहीं कर सकोगे। इसलिए, जिसकी जेब, उसी का कलम।’ वे बोले, ‘अच्छा भाई लड़ते क्यों हो! ले लो।’ मैंने कलम हाथ से लेकर कहा “शर्म नहीं आती? भारत के प्रधान और यह चवन्नी वाली कलम?’ (जर्मनी का विल्सन रजिस्टर) था)। बोले-‘काँग्रेस सदस्य भी तो सब चवन्नी वाले कहलाते है!’
घड़ी का मुकदमा
इसी तरह 1952 में जब मैं रेवेन्यू एण्ड एक्सपेण्डीचर का मिनिस्टर था तो आए दिन किसी मिनिस्ट्री के खर्चे की स्वीकृति देने में मतभेद हो जाने पर मुझे केबिनेट में जाना पड़ता था। एक दिन मैं तीन मिनिट देर करके पहुँचा तो जवाहरलाल बोले ‘मिनिस्टर होते हुए भी समय की पाबन्दी नहीं करते।’ मैंने कहा-‘अपने होम मिनिस्टर डॉ. काटजू से पूछो कि उन्होंने लोक सभा से निकलते ही मेरी जेब से घड़ी छीन कर अपनी जेब में रख ली ओर ले गए। मैं बिना घड़ी के रह गया। फिर समय की पाबन्दी कैसे करूँ?’ बोले-‘अच्छा। मैं तुमको एक घड़ी दूँगा।’
दो महीने बीत गये पर घड़ी नहीं मिली। एक दिन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में किसी समारोह के अवसर पर चाय दी। काफी भीड़ थी। मैंने जवाहरलालजी का हाथ पकड़कर कहा-‘जरा राजेन्द्र बाबू तक चलो।’ सामने खड़ा करके वोला-‘राष्ट्रपतिजी! एक दावा (मुकद्दमा) महावीर त्यागी बनाम पं. जवाहरलाल वल्द पं. मोतीलाल नेहरू आपकी अदालत (न्यायालय) में पेश है।’ जवाहरलाल बोले-‘मुकदमे से पहले आपस में समझौता नहीं हो सकता?’ मैंने कहा-‘नहीं। मेरा दावा है कि हजूर के होम मिनिस्टर एक कश्मीरी सज्जन हैं कि जिन्होंने पार्लियामेण्ट में मेरी जेब से घड़ी निकाल ली। जब एक दिन मुझे केबिनेट जाने में देर हो गई तो दूसरे कश्मीरी, आपके प्रधान मन्त्री ने मुझे एक घड़ी देने का वायदा किया। पर आज दो महीने हो गए घड़ी नहीं मिली!” जवाहरलाल ने राष्ट्रपति के सामने गर्दन झुकाकर कहा-‘आई प्लीड गिल्टी।’ राजेन्द्र बाबू ने हँस कर कहा-‘अब तो तुम्हारी डिग्री हो गई। अगर घड़ी नहीं मिली तो कुर्की करा सकते हो।’ अगले ही दिन जवाहरलाल ने बुला कर एक घड़ी निकाल कर मेरे हाथ रख दी और बाले-“जानते हो, यह किसकी है? यह ‘भूतनी’ ने मुझे भेंट की थी।” मैंने पूछा ‘भूतनी कौन?’ तो बोले-“भूल गये? प्रान्तीय काँग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी में तुमने कहा था कि मेरे सिर पर ‘भूतनी’ सवार हो गई है।” 20-25 वर्ष पहले की कही तीखी बात उन्हें अभी तक याद थी! बात असल में यह थी कि चेंकाईशेक उन दिनों चीन के नेता थे, और चीन की क्रान्ति में उनका बड़ा हाथ था। हम लोग अपने देश के स्वतन्त्रता संग्राम में लगे थे। मैडम चांकाईशेक भारत आई तो हम लोगों ने उनका बहुत स्वागत किया था। उस दिन प्रदेश काँग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी में पण्डित जवाहरलाल आधा घण्टा तक मैडम चांकाईशेक के ही किस्से सुनाते गये। और भी कई विषयों पर विचार करना था। मैं मन्त्री था इसलिये झुंझलाहट आ गई। सो, मैंने जोर से कहा ‘और भी बहुत आवश्यक बातों पर विचार करना है। यह मैडम चांकाईशेक भूतनी की तरह तुम्हारे सिर पर सवार हो गई है कि इसी के किस्सों में सारा समय खो दिया।’ पन्तजी, बालकृष्ण शर्मा, आचार्य नरेन्द्र देव और टण्डनजी आदि सब ठट्ठा मार कर हँस पड़े और जवाहरलाल भी हक्के-बक्के से होकर मुस्करा दिये। घड़ी लेते हुए मैंने कहा-‘जब मैडम चांकाईशेक तुम्हारे मन से उतर गई तो उसकी घड़ी मेरे हिस्से में आई।” घड़ी बहुत कीमती है। अभी मेरे पास सुरक्षित है।
काणे को काणा कहना ठीक नहीं
मरने से सवा महीने पहिले एक टेलीफोन आया-‘आज शाम के 5 बजे आ जाओ। प्रधान मन््त्री मिलना चाहते हैं।’ मेरे नाती (अनिलकुमार-11 वर्ष ) ने कहा-‘पापा, तुम्हें मिनिस्ट्री दे तो मत लेना।’ मैंने पूछा ‘क्यों न लू?’ तो बोला-“जब अच्छे लोगों ने कामराज प्लान में मिनिस्ट्री छोड़ दी तो तुम्हारे लिए मिनिस्ट्री ठीक नहीं।’ अपने नाती की समझ पर मैं बहुत खुश हुआ।’
पाँच बजे प्राइम मिनिस्टर के घर पहुँचा तो आधे घण्टे काश्मीर आदि को बातें करने के बाद बोले-“हाँ। मुझे तुमसे खास बात यह कहनी थी कि पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की समस्या बहुत जटिल होती जा रही है, अब तुम केबिनेट में आ जाओ और इस काम को संभालो।’ मिनिस्ट्री से निकले 7 वर्ष हो चुके थे। फिर भी दिल के बुझे हुए कोयले भड़क उठे। मित्रों से कहा करता था कि मिनिस्ट्री करने की इतनी इच्छा नहीं कि जितनी मिनिस्ट्री के न्यौते को ठुकराने की है। बस! एकदम अपने नाती की बात दोहरा दी। खूब हँसे और बोले-‘उमा के लड़के ने ऐसा कहा? तो तुम मेरी बात मानोगे या उस बच्चे की?’ आपस में हम एक-दूसरे को ‘तुम’ कहकर बोलते थे। मैंने कहा-‘जवाहरलालजी! बीमारी के कारण तुम्हारा दिमाग कमजोर पड़ गया है क्या? अच्छा खासा पार्टी का काम चला रहा हूँ। क्या तुम्हारी केबिनेट, पार्टी से भी अधिक महत्व की है? लोग मुझे क्या कहेंगे?’ उन्होंने कहा-‘मैं बताऊँ क्या कहेंगे? लोग कहेंगे कि यह बड़ी लम्बी-लम्बी बात करते थे। जब इम्तिहान का वक्त आया तो बुजदिलों की तरह पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए।’ मैंने कहा-‘लोग तुम्हें भी तो कहेंगे कि क्योंकि लम्बी-लम्बी बात करता या इसलिए ही मिनिस्टर बना कर इसका मुँह बन्द कर दिया।’ बोले-‘यह हो सकता है। पर कुछ लोग ऐसा भी कहेंगे कि देखो! जवाहरलाल कितना उदारचित्त है कि अपने नुक्तेचीन के लिए भी जगह रखता है।’ मैंने पूछा-‘क्या तलाक हो चुकने के बाद भी मियाँ-बीबी शादी कर सकते है?’ बोले-‘हाँ। बदचलन हो तो कर सकते हैं।’ मैंनें कहा-‘फिर तो दोनों ही बदचलन हुए ना?’ बोले-‘बेवकूफी की बातें करोगे तो फिर सुननी पड़ेगी।’ मैंने कहा-“अब आये हो ठिकाने पर। आज 42 वर्ष हुए, सन् 1922 में जब लखनऊ जेल की 6 नम्बर बैरक में तुम हम लोगों को फ्रेंच पढ़ाया करते थे, और हम तुम्हें ‘वरगू मास्टर’ कहा करते थे, तो एक दिन किसी शब्द का उच्चारण कई बार बताने पर भी मैं ठीक न कर सका था तो तुमने मुझे ‘डेमफूल’ कहा था और फिर सन् 1924 तक अपने सब साथियों को ‘तुम बड़े चुगद हो’ कहा करते थे। फिर एकदम चुगद कहना बन्द कर दिया और मुझे ‘बेवकूफ’, ‘बद्तमीज’, ‘अनमेनरली’ और ‘अनकूथ’ कहा करते थे। जब आपका डिफेन्स मिनिस्टर था तो भी कई बार बेवकूफ, बदतमीज कहते थे। अब मिनिस्ट्री से हटाते ही हम ‘श्री त्यागीजी’ और ‘मिस्टर त्यागी’ हो गये हैं। अब तो मुझे ‘आप’ कहकर पुकारते हो। मेरा-तुम्हारा रिश्ता बदल गया है जवाहरलालजी। अब मैं तुम्हारी केबिनेट में कैसे आ सकता हूँ?” मुस्कराते हुए बोले-‘तो क्या तुम्हें बेवकूफ कहलाना पसन्द था?’ मैंने कहा-‘हाँ। उसमें मुहब्बत और प्यार की बू आती थी।’ बहुत हँसे और मस्त आँखें मेरी आँखों में डालकर बड़े प्यार से मुस्कराते हुए बोले-‘भाई मुझे माफ करना। मैंने तुम्हें बेवकूफ कहना इसलिए बन्द कर दिया था कि सचाई की मजाक अच्छी नहीं होती है। काणे को काणा नहीं कहना चाहिए।’ फिर क्या था! मुशायरे (कवि सम्मेलन) का मजा आ गया। दोनों हँसी में ऐसे तन्मय हो गये कि सारी शिकायतें दूर हो गईं। फिर वे बोले-‘अब तो बेवकूफ कह दिया! अब तो मान जाओ!’ मैंने उनसे आज्ञा चाही कि मैं श्री लालबहादुर से सलाह कर लूँ। तो बोले-‘जरूर कर लो। पर कभी फिर यह न कहो कि मैंने बात छिपा ली। मैं लालबहादुर से सलाह कर चुका हूँ।’ अगले दिन मैं जानबूझ कर लालबहादुर शास्त्री के पास नहीं गया। फिर उन्होंने टेलीफोन किया तो गया और जाते ही मैंने कहा-‘क्यों भाई! मेरे साथ मुन्शीपना कर गये ना? मुझे खबर भी नहीं की और फँसवा दिया जवाहरलाल के जाल में?’ बोले-‘बात तो बहुत दिनों से चल रही थी, पर बिना जवाहरलाल जी की आज्ञा के मैं जिक्र कैसे करता?’ फ़िर बुलावा आया तो मैंने जवाहरलालजी से कहा कि श्री मेहरचन्द खन्ना के पास दो बड़े-बड़े विभाग होते हुए भी वह भी मिनिस्टर ऑफ स्टेट रहे और मुझे उनका आधा काम देकर केबिनेट मिनिस्टर बनाओगे तो उन्हें तुमसे शिकायत होगी। बोले-‘यह तुम ठीक कहते हो। पर अब तो मैं तुम्हें निमन्त्रित कर चुका।’ मेरे यह कहने पर कि ‘क्या यह निमन्त्रण सरकारी विज्ञप्ति है? मेरा इतना भी एतबार नहीं?’ मेरे कन्धे पर हाथ रखकर बोले-‘भाई! माफ करना। मेरा मतलब यह नहीं था। तुम्हारी बड़ी उदारता है। अब मैं तुम्हें मजबूर नहीं करूँगा। तुम पार्टी-संगठन का कार्य करो। मैं इस काम में पूरी तरह सहयोग करूँगा। मिनिस्टी खतम। हम-एक दूसरे से हाथ मिलाकर विदा हो गए।
तीसरे दिन फिर बुलाया और बोले-‘मैंने उस बात पर फिर गौर किया। खन्ना को क्या शिकायत हो सकती है? क्या वह नहीं जानते कि हमारी पार्टी में मेरे बाद तुम सबसे सीनियर काँग्रेसमेन हो? इसके अलावा मैं पुनर्वास विभाग के साथ कुछ पिछड़े हुए क्षेत्र शामिल करके इसकी शक्ल बदल दूँगा। अब मंजूर कर ला।’ मैंने कहा-‘अच्छा। पर सुझाव और है कि मुझे खन्नाजी का पार्लियामेण्ट्री सेक्रेटरी बना दो और अखबारों में छपवा दो कि इसे मिनिस्ट्री के लिए आमन्त्रित किया था। इसने मिनिस्ट्री स्वीकार न करके पार्लियामेण्ट्री सेक्रेटरी होना मंजूर किया।’ बड़े खुश हुए और बोले-‘इससे देश में तुम्हारी ख्याति तो बढ़ेगी ही, काँग्रेस और सरकार की शान भी ऊँची उठेगी। पर मुझे तो विभाग अलग करना है, और कोई विभाग पार्लियामेण्ट्री सेक्रेटरी के सुपुर्द नहीं हो सकता।’
इस तरह दस दिन तक बातें चलीं। आखिर 16 अप्रेल को मिनिस्ट्री की शपथ दिला दी। पर मुझे यह क्या पता था कि यह मिनिस्ट्री मुझे वसीयत के रूप में दी जा रही है। ‘पुनर्वास’ मेरे सुपुर्द करके स्वयं स्वर्गवास कर गए।
जब मेरे नगर देहरादून जा रहे थे मैंने अपना कलकत्ते का प्रोग्राम छोड़कर देहरादून जाना चाहा तो मुझे ‘बेवकूफ’ कह दिया और हिदायत कर दी कि कलकत्ते में शरणार्थियों के साथ-साथ मुस्लिम बस्तियों का भी दौरा करना और मुझे सब हाल बताना। वे आए और दिन निकलने से पहले ही बेहोश हो गए। उन्हें रिपोर्ट न दे सका।
अब कहाँ जाऊँ?
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