कौव्वा तो कल ही उड़ गया
हिन्दी का पठान
दुर्घटना का आनन्द
तकनीक की निरन्तर प्रगति के लाभ प्राप्त करते रहने के लिए परम्परा को समानान्तर रूप से थामे रखना जरूरी है? और यह भी कि जब तक किसी तकनीक की पूरी जानकारी न ले ली जाए तब तक उस पर निर्भर न रहा जाए? कल शाम से ये दो प्रश्न ही मुझे ‘शाश्वत सत्य’ लग रहे हैं।
कोई चार दिन पहले मेरा कम्प्यूटर खराब हो गया था। छुटपुट खराब तो पहले भी था किन्तु चार दिन पहले तो उसने साथ देना बिलकुल ही बन्द कर दिया। अचानक ‘हेंग’ हो गया, करसर निष्क्रिय हो गया। बन्द करने की प्रक्रिया भी अप्रभावी हो गई। सीधे, बिजली के बटन से बन्द करना पड़ा। फिर चालू किया तो बात नीले पर्दे के निरन्तर (मानो स्थायी) दर्शन से आगे नहीं बढ़ी।
मरम्मत के बाद कल शाम जब कम्प्यूटर लौटा तो काफी-कुछ बदल हुआ मिला। कुछ ऐसा मानो बिलकुल अनजान हो। पचासों फाइलें नजर नहीं आ रही हैं। बीमा का काम करनेवाला साफ्टवेयर गुम है। अखबारों में प्रकाशित सामग्री की स्केन प्रतियोंवाला फोल्डर और ब्लॉग के लिए संग्रहित सामग्रीवाला फोल्डर खोजने पर नहीं मिल रहे हैं। ग्राहक सेवा और नियमित कामकाज से जुड़ी कोई सौ-डेड़ सौ फाइलें उड़ गई हैं। रविजी (श्री रवि रतलामी) को एक बार फिर कष्ट देना पड़ेगा - यूनीकोड में लिखने के लिए उन्होंने जो, हिन्दी इण्डिक वाला औजार स्थापित करवाया था, वह कहीं नहीं है। याने अब मैं ब्लॉग पर और फेस बुक पर सीधे हिन्दी में टिप्पणी नह कर सकता। पहले कृति में टाइप करूँ, उस सामग्री को यूनीकोड में कन्वर्ट करूँ और कॉपी/पेस्ट का सहारा लूँ। यह पोस्ट उसी तरीके से प्रकाशित करने की कोशिश करूँगा। पहले ‘ऑफिस 2003’ में काम कर रहा था, अब ‘ऑफिस 2007’ में काम करना पड़ेगा।
यह तो वह सब है जो पहली नजर में सामने आया है। और क्या-क्या सामान गया है, यह काम करते-करते ही मालूम हो सकेगा। अपने सीमित ज्ञान के आधार पर जितना कुछ कर पा रहा हूँ, करने की कोशिश कल शाम से ही कर रहा हूँ। यह देख कर अच्छा लग रहा है कि कुछ फाइलें प्राप्त करने में कामयाबी मिली।
जब-जब भी ऐसे किसी इलेक्ट्रानिक उपकरण या तकनीक का उपयोग शुरु किया था तब-तब हर बार सलाह दी गई थी कि या तो सारी सामग्री का कागजी रेकार्ड समानान्तर रूप से रखूँ या फिर प्रतिदिन ‘बेक-अप’ लेता रहूँ। तकनीक से मिली सुविधा और इसकी तेज गति ने आलसी बना दिया, कागजी रेकार्ड रखना ही छोड़ दिया और बेक-अप लेना तो आज तक नहीं आया। ‘नीम हकीम खतरा ए जान’ वाली कहावत मुझ पर लागू हो गई है।
लेकिन अब जो होगा सो देखा जाएगा। मुझे मानो एक बार फिर शुरु से शुरुआत करनी है।
कम्प्यूटर के खराब होने के कारण चार दिन बड़े आराम से निकले थे। अब कई दिनों तक ‘आराम हराम’ वाली स्थिति बनी रहेगी।
इसके साथ ही साथ मुझे यह भी लग रहा है कि ‘विस्मरण’ भी किसी वरदान से कम नहीं है। यदि याद आ जाता या रह जाता कि कितनी फाइलें उड़ी हैं तो कितनी घबराहट होती? अब, जैसे-जैसे याद आता जाएगा, वह सब लिखता जाऊँगा और एक के बाद एक फाइलें बनाता जाऊँगा।
इसका भी अपना एक आनन्द होगा। अब उसी अनुभव की तैयारी के लिए खुद को तैयार कर रहा हूँ।
राष्ट्रवादी होने का मतलब
सपनों का आनन्द लेने की कोशिश
जीवन अंकुर : सम्भवतः दुनिया में प्रथम और एक मात्र
एक ठिठुरता वक्तव्य
मौसम अभी भी सर्द ही है। काम करने की इच्छा पर मौसम के तेवर अभी भी भारी पड़ रहे हैं। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ - मौसम के तनिक कम कष्टदायक होने की।
माफी: चाहना और माँगना
अब याद नहीं आता कि हरीश से पहली मुलाकात कब हुई थी और कब ये मेरे लिए ऐसे ‘फालतू की जरूरत’ बन गए। बैंक ऑफ बड़ौदा में नौकरी करते हैं। मेरा खाता भी इसी बैंक में है, शायद 1991 से। किन्तु यह तय है कि खाता खोलने के लिए या खाता खोलने के कारण इनसे मुलाकात नहीं हुई। यह ‘दुर्घटना’ उससे पहले ही हो चुकी थी।
भ्रष्टाचार का आतंक
भ्रष्टाचार लाइव - 30 वर्ष पूर्व
इस संस्मरण का भाष्य कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है।
इसलिए है चीन हमसे आगे
सच ही कहा है कि जो देश अपनी भाषा की अवहेलना करता है, वह गूँगा हो जाता है।
भगवान की देन बनाम प्लानिंग
मित्र से बोलते नहीं बना। आप बीती सुनाकर मुझसे पूछा - ‘है कोई जवाब आपके पास?’ सच कहूँ, मुझसे भी बोलते नहीं बना। प्रत्येक काल खण्ड का अपना सच होता है। हमारे काल का खण्ड का सच ‘भगवान की देन’ था तो हमारे बच्चों के काल खण्ड का सच ‘प्लानिंग’ का है।
बातें और बातों का असर
अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। यही बात मन में कौंध रही है - जिन्हें हम ‘छोटी-छोटी बातें‘ मान कर अनदेखी कर देते हैं वे वाकई में छोटी-छोटी बातें होती हैं?
भ्रष्टाचार लाइव
अब ‘इसके लिए’ भी ‘चाय-पानी’?
इसी के समानान्तर मुझे लग रहा है कि अधिकारियों को (और उपभोक्ता सेवाओं से जुडे़ अधिकारियों को तो विशेष रूप से) शिष्टाचार बरतने और नागरिकों से नम्रता से पेश आने हेतु विशेष प्रशिक्षण दिए जाने चाहिए। अपना वेतन जुटानेवाले नागरिकों/उपभोक्ताओं से वे (अधिकारी) मन ही मन भले ही घृणा करें किन्तु शिष्टाचार का दिखावा तो कर ही सकते हैं!
अब इसके लिए भी ‘चाय-पानी’ करनी पड़ेगी?
‘आकाश’ : वास्तविकता या अति आशावाद?
आशावादी और नौजवानों को देश का भविष्य माननेवाला होते हुए भी मुझे लगता रहता है कि हमारे नौजवान ‘पेकेज केन्द्रित’ हो कर रह गए हैं। वातानुकूलित कमरों में (लकड़ी के खाँचों में) बन्द ये नौजवान केवल कम्प्यूटर के पर्दे पर जिस तरह से खुद को व्यक्त करते हैं, वह सब मुझे प्रायः ही ‘फैशन’ से अधिक नहीं लगता। (यह लिखते समय मैं, अण्णा हजारे के आन्दोलन में सड़कों पर उतरे नौजवानों को भीली-भाँति देख रहा हूँ।) ऐसे में, मेरी इस ‘खूसट धारणा’ को भंग करने वाले, वल्कल के इस मेल ने मेरे भरोसे और आशावाद को बढ़ाया ही है।
चूँकि ‘आकाश’ और इसकी उपयोगिता के बारे में मेरी जानकारी ‘शून्य’ है, इसलिए वल्कल का यह मेल यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसमें केवल वैयाकरणिक त्रुटियाँ और वाक्य रचना सुधारी गई हैं। बाकी सब ‘जस का तस’ है।
मेरी उत्सुकता केवल यही है कि वल्कल की बातें ‘अति आशावाद’ हैं या वास्तविकता?
(मेल में उल्लेखित ‘बबली’, मेरे साले की बिटिया ‘नवनी’ का घरेलू नाम है जिसका विवाह 17 फरवरी को हो रहा है।)
वल्कल
यह अनारकली क्या करे?
यदि यह नया साल है तो........
कहने के लिए यही बात मुझे ठीक लगी। मैंने कहा कि मेरी नीयत भली और नेक होने के बावजूद अपनी साफगोई के कारण मैं अनेक लोगों का दिल दुखाने का अपराध करता हूँ। इस बात की पीड़ा मुझे गत वर्ष ही नहीं, कई बरसों से बराबर बनी रहती है। इस वर्ष मैं कोशिश करूँगा कि लोगों का दिल दुखाए बिना अपनी स्पष्टवादिता बनाए रख सकूँ।
सबसे विनम्र अनुरोध कि ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना करें कि मैं वैसा ही कर सकूँ जैसा करने के जिए मैंने पत्रकार मित्र को कहा था। और यदि वैसा न कर सकूँ तो कृपया ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना करें कि मैं चुप रहना सीख सकूँ।