दुनिया इस अद्भुुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय दृष्य को आँखें मसल-मसल कर देख रही होगी। ऐसी प्रचण्ड जन सद्भावना दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी नेता को मिली होगी। विरोधियों की बोलती बन्द है। उनकी वाजिब बात भी सुनने को कोई तैयार नहीं। दुनिया भर के राष्ट्र/शासन प्रमुख भारतीय प्रधान मन्त्री से ईर्ष्या कर रहे होंगे। भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति पाने को छटपटा रहे भारतीयों ने नोटबन्दी के समर्थन में जो भावना दर्शाई, वह दुनिया में बिरली ही होगी। लोग जान पर खेलकर जिस तरह इसके समर्थन में डटे हुए हैं वह सब अनूठा और अवर्णनीय ही है।
रतलाम जिले के ताल कस्बे के मिस्त्री बाबूलाल प्रजापत के इकलौते बेटे, चौबीस वर्षीय संजय ने मंगलवार, 15 नवम्बर को दम तोड़ दिया। पत्नी कमलाबाई दो बरस पहले साथ छोड़ गई। दो बेटियाँ अपने ससुराल में हैं। घर पर पिता-पुत्र ही एक-दूसरे के संगी-साथी। संजय ही अपने बूढ़े बाप को रोटी पका कर देता था। नोट बन्दी ने बाबूलाल को भूखों मरने की कगार पर खड़ा कर दिया। घर में तीन दिनों से आटा, शकर और चाय पत्ती भी नहीं थी। संजय तीन दिनों से पड़ौस से चाय-शकर माँग कर ला रहा था और बाबूलाल अपने नियोक्ता से आटा। अम्बे माता मन्दिर में हुए अन्नकूट में सोमवार शाम को दोनों बाप-बेटों ने भूख मिटाई। लेकिन मंगलवार से घर पूरी तरह रीत गया। राशन दुकान से राशन नहीं मिला और मीठा तेल भी नहीं बचा। बाबूलाल के पास चार हजार रुपये थे तो सही किन्तु सब बड़े नोटों की शकल में जिन्हें लेने को कोई तैयार नहीं। सोमवार सुबह संजय अपनी सायकिल बेचने निकला लेकिन किसी के पास खुल्ले रुपये नहीं थे। घर में कनस्तर में आटा नहीं और जेब में धेला नहीं। मंगलवार सुबह से दोनों बाप-बेटे के पेट में न तो अन्न का दाना पड़ा न ही चाय की बूँद। नोट बदलवाने के लिए बैंक के सामने लाइन में लगे। नम्बर आने ही वाला था कि मालूम हुआ - मूल आधार कार्ड माँगा जाएगा। आधार कार्ड लेने के लिए संजय घर गया। लेकिन लौट नहीं पाया। अचानक ही उसकी तबीयत बिगड़ी और उसकी साँसों ने साथ छोड़ दिया। डॉक्टर ने मौत की वजह हृदयाघात बताई और कहा कि संजय भूखा था।
बाबूलाल के आँसू नहीं थम रहे। ‘अब कौन रोटी बना कर देगा?’ लेकिन इस सबके बावजूद उसे नोट बन्दी से कोई शिकायत नहीं है।
यह अकेला किस्सा नहीं है। नोट बन्दी लागू हुए आज सातवाँ दिन है। अखबार देश में कम से कम बीस मौतों की खबरें दे चुके हैं। लेकिन एक भी मौत के कारण कहीं से भी आक्रोश और उत्पात की खबर नहीं है। बैंकों और पोस्ट आफिसों के सामने लगी, ‘हनुमान की पूँछ’ से प्रतियोगिता कर रही कतारें, टीवी के पर्दों से बाहर, हमारे कमरों में उतरती लग रही हैं। अगली सुबह जल्दी नम्बर लग जाने की कोशिश में लोग रात नौ बजे से बैंकों के सामने, खुले आसमान के नीचे अगहन की ठण्ड झेल रहे हैं। धक्के खा रहे हैं, झिड़कियाँ झेल रहे हैं। अपना ही पैसा हासिल करने के लिए मानो भिखारी बन गए हैं। बैंक कर्मचारी खाना-पीना भूल गए हैं। सर उठाने की फुरसत नहीं मिल रही। कब सुबह होती है, कब शाम, जान ही नहीं पा रहे। महिला कर्मचारियों की गृहस्थियाँ अस्त-व्यस्त-त्रस्त हो गई हैं। कर्मचारियों और ग्राहकों को भले ही परस्पर शिकायत हो किन्तु सबके सब सरकार के फैसले के साथ हैं। किन्तु जैसे ही व्यवस्थाओं की बात आती है, कोई भी सन्तुष्ट, सुखी और प्रसन्न नहीं मिलता-ने देनेवाला, न लेनेवाला। जाहिर है, यह ‘बरसों से प्रतीक्षित फैसले का निकृष्ट, हताशाजनक क्रियान्वयन’ है। कुछ ऐसा मानो रात को सुल्तान को सनक आई और सुबह, आगा-पीछा सोचे बिना फैसला लागू कर दिया। उस पर तुर्रा यह कि जिस काले धन से मुक्ति पाने के लिए यह सब किया गया, उसके निर्मूल होने की सम्भावना तो दूर, आशंका भी नहीं। भ्रष्टाचार दूर होने की बात तो छठवें दिन ही चुटकुला बन गई जब कोल्हापुर और भोपाल में सरकारी कर्मचारी नए नोटों से रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़े गए।
नेताओं ने सदैव की तरह निराश किया। विरोधियों को यह सरकार के खिलाफ मानो अमोघ अस्त्र मिल गया हो। उनके असंगत वक्तव्यों ने उन्हें हास्यास्पद बनाया तो सत्ता पक्ष के नेताओं के, वास्तविकताओं को नकारनेवाले, अमानवीय, क्रूर वक्तव्यों ने जुगुप्सा पैदा की। सामान्य से सहस्त्रगुना अधिक बुद्धियुक्त ये नेता विवेकमुक्त और विनयहीन हो, बैंकों के सामने कतार में हुई मौतों को राशन की दुकान के आगे हुई मौतों के समान इस तरह बता बैठे मानो राशन की दुकान के सामने मरना किसी भी सरकार के लिए अर्थहीन हो।
देश भक्ति में पगे दिहाड़ी मजूदरों, झुग्गी-झोंपड़ी निवासियों, मनरेगा और बीपीएल कार्डधारियों, निम्न मध्यमवर्गियों, मझौले व्यापारियों और कतारों में खड़े ऐसे ही तमाम लोगों को एक कसक साल रही है। जिन धन-पशुओं, कालाबाजारियों, जमाखोरों, दो नम्बरियों, भ्रष्ट अफसरों-नेताओं के कारण सरकार को यह कदम उठाना पड़ा उनमें से कोई भी कतार में कहीं नजर नहीं आया। वे सब अपनी अट्टालिकाओं और प्रासादों में भोेग-विलास में पूर्ववत मद-मस्त हैं। गोया, डाकुओं के दुर्दम्य अपराधों का दण्ड फकीरों को दे दिया गया, सरकार के प्रति जन सöावनाओं की अवमानना, उपहास कर दिया गया।
समूचा परिदृष्य ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ जैसी अनुभूति दे रहा है। ऐसे में मालवा की यह लोक परिहास कथा मानो गूँगे की बात कह रही हो।
उस बरस मौसम ने साथ दिया। बरसात समय पर हुई, अच्छी हुई। फसल भरपूर हुई। किसान की पत्नी ने पति से कहा - ‘इस साल रामजी राजी रहे। जितना माँगा, उससे ज्यादा दिया। दुःख में तो उन्हें याद करते ही हैं। इस बार सुख में याद कर लें। खेत पर सत्यनारायण-कथा करा लें।’ किसान मान गया। एक पण्डितजी से बात करके तिथि-तारीख, समय तय कर लिया। होनी कुछ ऐसी हुई कि ऐन वक्त पर पण्डितजी नहीं आ पाए। उन्होंने बेटे को भेज दिया। बेटा ठीक वक्त पर बखेत पर पहुँचा। लेकिन बेटा ‘प्रशिक्षु’ था। उसने किसान और उसकी पत्नी को बैठाया। गठजोड़ा बाँध, पूजन शुरु कर श्री सत्यनारायण कथा वाचन शुरु किया। कथा समाप्ति पर आरती कराई, प्रसाद बँटवाया। किसान दम्पति ने चरण स्पर्श कर यथा शक्ति दक्षिणा भेंट की। ब्राह्मण पुत्र ने पूजन में चढ़ाई सामग्री, फल समेटे, पोटली बाँधी, आशीर्वाद दिए और विदा ली। वह पाँच कदम ही चला होगा कि अचानक किसान पत्नी को कुछ याद आया। विचारमग्न मुद्रा में पति से बोली - ‘क्यों हो! अपनी कथा में वो लीलवाती-कलावती तो आई ही नहीं!’ किसान को भी याद आया - ‘हाँ। वो दोनों तो नहीं आई।’ पति-पत्नी की बात ब्राह्मण पुत्र ने भी सुनी। सुनते ही भान हुआ कि वह पूरे के पूरे दो अध्याय भूल गया! लेकिन भूल गया तो भूल गया। अब फिर से कथा बाँचने से तो रहा! और अपनी चूक मान लेना याने अपने पाण्डित्य को खुद ही अधूरा कबूल कर लेना! वह तनिक ठिठका। कुछ सोचा। पलट कर पूरे आत्म विश्वास से, दोनों को सम्बोधित कर बोला - ‘अरे मेरे भोले जजमानों! वो दोनों सेठ-साहूकारों की लुगाइयाँ। सेठानियाँ। वो हवेलियों में रहनेवाली! वो यहाँ जंगल में, तुम्हारे खेत में कैसे आ सकती हैं? वो तो हवेलियों में ही रहेंगी ना?’ किसान दम्पति को अपनी नासमझी समझ में आ गई। ब्राह्मण पुत्र से सहमति जताई। अपनी नासमझी पर खेद जताया, दोनों हाथ जोड़, ब्राह्मण पुत्र को, आदरपूर्वक विदा किया।
बैंकों के सामने पंक्तिबद्ध खड़े, देश के गरीब-गुरबे, मध्यमवर्गीय, मानो किसान दम्पति की तरह अपने खेतों में सत्यनारायण भगवान की कथा आयोजन की तर्ज पर देश भक्ति के यज्ञ में आहुतियाँ दे स्वयम् को धन्यन अनुभव कर रहे हैं। ब्राह्मण-पुत्र आधी-अधूरी कथा बाँच कर पूरी दक्षिणा जेब में डाल, पूजन सामग्री और फलों की पोटलियाँ बाँध रहा है और आराम कर-कर थकान से चकनाचूर लीलावतियाँ-कलवतियाँ हवेलियों में पाँचों पकवान चख-चख कर हलकान हुई जा रही हैं।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, में दिनांक 17/11/2016 को प्रकाशित)