नोटबन्दी बनाम सत्यनारायण कथा

दुनिया इस अद्भुुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय दृष्य को आँखें मसल-मसल कर देख रही होगी। ऐसी प्रचण्ड जन सद्भावना दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी नेता को मिली होगी। विरोधियों की बोलती बन्द है। उनकी वाजिब बात भी सुनने को कोई तैयार नहीं। दुनिया भर के राष्ट्र/शासन प्रमुख भारतीय प्रधान मन्त्री से ईर्ष्या कर रहे होंगे। भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति पाने को छटपटा रहे भारतीयों ने नोटबन्दी के समर्थन में जो भावना दर्शाई, वह दुनिया में बिरली ही होगी। लोग जान पर खेलकर जिस तरह इसके समर्थन में डटे हुए हैं वह सब अनूठा और अवर्णनीय ही है।

रतलाम जिले के ताल कस्बे के मिस्त्री बाबूलाल प्रजापत के इकलौते बेटे, चौबीस वर्षीय संजय ने मंगलवार, 15 नवम्बर को दम तोड़ दिया। पत्नी कमलाबाई दो बरस पहले साथ छोड़ गई। दो बेटियाँ अपने ससुराल में हैं। घर पर पिता-पुत्र ही एक-दूसरे के संगी-साथी। संजय ही अपने बूढ़े बाप को रोटी पका कर देता था। नोट बन्दी ने बाबूलाल को भूखों मरने की कगार पर खड़ा कर दिया। घर में तीन दिनों से आटा, शकर और चाय पत्ती भी नहीं थी। संजय तीन दिनों से पड़ौस से चाय-शकर माँग कर ला रहा था और बाबूलाल अपने नियोक्ता से आटा। अम्बे माता मन्दिर में हुए अन्नकूट में सोमवार शाम को दोनों बाप-बेटों ने भूख मिटाई। लेकिन मंगलवार से घर पूरी तरह रीत गया। राशन दुकान से राशन नहीं मिला और मीठा तेल भी नहीं बचा। बाबूलाल के पास चार हजार रुपये थे तो सही किन्तु सब बड़े नोटों की शकल में जिन्हें लेने को कोई तैयार नहीं। सोमवार सुबह संजय अपनी सायकिल बेचने निकला लेकिन किसी के पास खुल्ले रुपये नहीं थे। घर में कनस्तर में आटा नहीं और जेब में धेला नहीं। मंगलवार सुबह से दोनों बाप-बेटे के पेट में न तो अन्न का दाना पड़ा न ही चाय की बूँद। नोट बदलवाने के लिए बैंक के सामने लाइन में लगे। नम्बर आने ही वाला था कि मालूम हुआ - मूल आधार कार्ड माँगा जाएगा। आधार कार्ड लेने के लिए संजय घर गया। लेकिन लौट नहीं पाया। अचानक ही उसकी तबीयत बिगड़ी और उसकी साँसों ने साथ छोड़ दिया। डॉक्टर ने मौत की वजह हृदयाघात बताई और कहा कि संजय भूखा था। 

बाबूलाल के आँसू नहीं थम रहे। ‘अब कौन रोटी बना कर देगा?’ लेकिन इस सबके बावजूद उसे नोट बन्दी से कोई शिकायत नहीं है।

यह अकेला किस्सा नहीं है। नोट बन्दी लागू हुए आज सातवाँ दिन है। अखबार देश में कम से कम बीस मौतों की खबरें दे चुके हैं। लेकिन एक भी मौत के कारण कहीं से भी आक्रोश और उत्पात की खबर नहीं है। बैंकों और पोस्ट आफिसों के सामने लगी, ‘हनुमान की पूँछ’ से प्रतियोगिता कर रही कतारें, टीवी के पर्दों से बाहर, हमारे कमरों में उतरती लग रही हैं। अगली सुबह जल्दी नम्बर लग जाने की कोशिश में लोग रात नौ बजे से बैंकों के सामने, खुले आसमान के नीचे अगहन की ठण्ड झेल रहे हैं। धक्के खा रहे हैं, झिड़कियाँ झेल रहे हैं। अपना ही पैसा हासिल करने के लिए मानो भिखारी बन गए हैं। बैंक कर्मचारी खाना-पीना भूल गए हैं। सर उठाने की फुरसत नहीं मिल रही। कब सुबह होती है, कब शाम, जान ही नहीं पा रहे। महिला कर्मचारियों की गृहस्थियाँ अस्त-व्यस्त-त्रस्त हो गई हैं। कर्मचारियों और ग्राहकों को भले ही परस्पर शिकायत हो किन्तु सबके सब सरकार के फैसले के साथ हैं। किन्तु जैसे ही व्यवस्थाओं की बात आती है, कोई भी सन्तुष्ट, सुखी और प्रसन्न नहीं मिलता-ने देनेवाला, न लेनेवाला। जाहिर है, यह ‘बरसों से प्रतीक्षित फैसले का निकृष्ट, हताशाजनक क्रियान्वयन’ है। कुछ ऐसा मानो रात को सुल्तान को सनक आई और सुबह, आगा-पीछा सोचे बिना फैसला लागू कर दिया। उस पर तुर्रा यह कि जिस काले धन से मुक्ति पाने के लिए यह सब किया गया, उसके निर्मूल होने की सम्भावना तो दूर, आशंका भी नहीं। भ्रष्टाचार दूर होने की बात तो छठवें दिन ही चुटकुला बन गई जब कोल्हापुर और भोपाल में सरकारी कर्मचारी नए नोटों से रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़े गए। 

नेताओं ने सदैव की तरह निराश किया। विरोधियों को यह सरकार के खिलाफ मानो अमोघ अस्त्र मिल गया हो। उनके असंगत वक्तव्यों ने उन्हें हास्यास्पद बनाया तो सत्ता पक्ष के नेताओं के, वास्तविकताओं को नकारनेवाले, अमानवीय, क्रूर वक्तव्यों ने जुगुप्सा पैदा की। सामान्य से सहस्त्रगुना अधिक बुद्धियुक्त ये नेता विवेकमुक्त और विनयहीन हो, बैंकों के सामने कतार में हुई मौतों को राशन की दुकान के आगे हुई मौतों के समान इस तरह बता बैठे मानो राशन की दुकान के सामने मरना किसी भी सरकार के लिए अर्थहीन हो।

देश भक्ति में पगे दिहाड़ी मजूदरों, झुग्गी-झोंपड़ी निवासियों, मनरेगा और बीपीएल कार्डधारियों, निम्न मध्यमवर्गियों, मझौले व्यापारियों और कतारों में खड़े ऐसे ही तमाम लोगों को एक कसक साल रही है। जिन धन-पशुओं, कालाबाजारियों, जमाखोरों, दो नम्बरियों, भ्रष्ट अफसरों-नेताओं के कारण सरकार को यह कदम उठाना पड़ा उनमें से कोई भी कतार में कहीं नजर नहीं आया। वे सब अपनी अट्टालिकाओं और प्रासादों में भोेग-विलास में पूर्ववत मद-मस्त हैं। गोया, डाकुओं के दुर्दम्य अपराधों का दण्ड फकीरों को दे दिया गया, सरकार के प्रति जन सöावनाओं की अवमानना, उपहास कर दिया गया। 

समूचा परिदृष्य ‘हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता’ जैसी अनुभूति दे रहा है। ऐसे में मालवा की यह लोक परिहास कथा मानो गूँगे की बात कह रही हो।

उस बरस मौसम ने साथ दिया। बरसात समय पर हुई, अच्छी हुई। फसल भरपूर हुई। किसान की पत्नी ने पति से कहा - ‘इस साल रामजी राजी रहे। जितना माँगा, उससे ज्यादा दिया। दुःख में तो उन्हें याद करते ही हैं। इस बार सुख में याद कर लें। खेत पर सत्यनारायण-कथा करा लें।’ किसान मान गया। एक पण्डितजी से बात करके तिथि-तारीख, समय तय कर लिया। होनी कुछ ऐसी हुई कि ऐन वक्त पर पण्डितजी नहीं आ पाए। उन्होंने बेटे को भेज दिया। बेटा ठीक वक्त पर बखेत पर पहुँचा। लेकिन बेटा ‘प्रशिक्षु’ था। उसने किसान और उसकी पत्नी को बैठाया। गठजोड़ा बाँध, पूजन शुरु कर श्री सत्यनारायण कथा वाचन शुरु किया। कथा समाप्ति पर आरती कराई, प्रसाद बँटवाया। किसान दम्पति ने चरण स्पर्श कर यथा शक्ति दक्षिणा भेंट की। ब्राह्मण पुत्र ने पूजन में चढ़ाई सामग्री, फल समेटे, पोटली बाँधी, आशीर्वाद दिए और विदा ली। वह पाँच कदम ही चला होगा कि अचानक किसान पत्नी को कुछ याद आया। विचारमग्न मुद्रा में पति से बोली - ‘क्यों हो! अपनी कथा में वो लीलवाती-कलावती तो आई ही नहीं!’ किसान को भी याद आया - ‘हाँ। वो दोनों तो नहीं आई।’ पति-पत्नी की बात ब्राह्मण पुत्र ने भी सुनी। सुनते ही भान हुआ कि वह पूरे के पूरे दो अध्याय भूल गया! लेकिन भूल गया तो भूल गया। अब फिर से कथा बाँचने से तो रहा! और अपनी चूक मान लेना याने अपने पाण्डित्य को खुद ही अधूरा कबूल कर लेना! वह तनिक ठिठका। कुछ सोचा। पलट कर पूरे आत्म विश्वास से, दोनों को सम्बोधित कर बोला - ‘अरे मेरे भोले जजमानों! वो दोनों सेठ-साहूकारों की लुगाइयाँ। सेठानियाँ। वो हवेलियों में रहनेवाली! वो यहाँ जंगल में, तुम्हारे खेत में कैसे आ सकती हैं? वो तो हवेलियों में ही रहेंगी ना?’ किसान दम्पति को अपनी नासमझी समझ में आ गई। ब्राह्मण पुत्र से सहमति जताई। अपनी नासमझी पर खेद जताया, दोनों हाथ जोड़, ब्राह्मण पुत्र को, आदरपूर्वक विदा किया। 

बैंकों के सामने पंक्तिबद्ध खड़े, देश के गरीब-गुरबे, मध्यमवर्गीय, मानो किसान दम्पति की तरह अपने खेतों में सत्यनारायण भगवान की कथा आयोजन की तर्ज पर देश भक्ति के यज्ञ में आहुतियाँ दे स्वयम् को धन्यन अनुभव कर रहे हैं। ब्राह्मण-पुत्र आधी-अधूरी कथा बाँच कर पूरी दक्षिणा जेब में डाल, पूजन सामग्री और फलों की पोटलियाँ बाँध रहा है और आराम कर-कर थकान से चकनाचूर लीलावतियाँ-कलवतियाँ हवेलियों में पाँचों पकवान चख-चख कर हलकान हुई जा रही हैं।  
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, में दिनांक 17/11/2016 को प्रकाशित)

फुनगियों की छँटाई

पाँच सौ और एक हजार रुपयों के नोटों को एक झटके से चलन से बाहर कर देने के बाद देश में छाए अतिरेकी उत्साह के तुमुलनाद से भरे इस समय में एक सुनी-सुनाई, घिसी पिटी कहानी सुनिए।
मन्दिर की पवित्रता और स्वच्छता बनाए रखने के लिए तय किया किया कि भक्तगण जूते पहन कर मन्दिर प्रवेश न करें। सबने निर्णय को सामयिक, अपरिहार्य बताया और सराहा किन्तु प्रवेश पूर्व जूते उतारना बन्द नहीं किया। प्रबन्धन ने एक आदमी तैनात कर दिया - ‘किसी को भी जूते पहन कर अन्दर मत जाने देना। जूते बाहर ही उतरवा देना।’ अब भक्तगण जूते बाहर ही उतारने लगे। एक भक्त ने अतिरिक्त सावधानी बरती। वह घर से ही नंगे पैर आया। लेकिन प्रबन्धन द्वारा तैनात आदमी ने उसे मन्दिर प्रवेश से रोक दिया। कहा - ‘घर जाइए, जूते पहन कर आइए, मन्दिर के बाहर जूते उतारिए। फिर मन्दिर प्रवेश कीजिए। यहाँ का कायदा है कि बिना जूते उतारे आप मन्दिर प्रवेश नहीं कर सकते।’
हमारी, भारतीय व्यवस्था लगभग ऐसी ही है। काम करने के लिए प्रक्रिया बनाई जाती है किन्तु काम हो न हो,  प्रक्रिया पूरी करना ही मुख्य काम हो जाता है। उत्कृष्ट निर्णयों/नीतियों का निकृष्ट क्रियान्वयन हमारी व्यवस्था की विशेषता भी है और विशेषज्ञता भी। वह खुद को और खुद के महत्व को बनाए रखने के लिए और बढ़ाते रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। जन्नत की इसी हकीकत से भयग्रस्त होे, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बावजूद मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
देश में कौन ऐसा है जो भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति नहीं चाहता? जिसके पास है, उसे नींद नहीं आती और जिसके पास नहीं है उसे वे लोग सोने नहीं दे रहे जिनके पास काला धन है। गोया, सारा देश भ्रष्टाचार और काले धन का रतजगा कर रहा है। अखण्ड कीर्तन जारी है। लेकिन, जैसा कि बार-बार कहा जाता है, हम एक भ्रष्ट समाज हैं। हममें से प्रत्येक चाहता है कि उसे सारे अवसर मिलते रहें और बाकी सब ईमानदार, राजा हरिश्चन्द्र बन जाएँ। लेकिन जब सबके सब ऐसा ही सोचते और करते हों तो जाहिर है, कोई भी ईमानदार और राजा हरिश्चन्द्र नहीं बन पाता। तब हम अपवादों को तलाश कर उनकी पूजा शुरु कर देते हैं और उसे प्रतीक बना देते हैं। तब प्रतीक की पूजा करते हुए दिखना ही हरिश्चन्द्र होना हो जाता है। तब हरिश्चन्द्र होने के बजाय हरिश्चन्द्र दिखना ही पर्याप्त हो जाता है। हमें यही अनुकूल और सुविधाजनक लगता है। सो, हम सब हरिश्चन्द्र दिखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। यह अलग बात है कि अपनी यह हकीकत हम ही से छुपी नहीं रह पाती। लेकिन खुद की खिल्ली उड़ाने का साहस तो हम में है नहीं! सो हम सामनेवाले के हरिश्चन्द्र के ढोंग की खिल्ली उड़ा कर खुश हो लेते हैं। जानते हैं कि इस तरह परोक्षतः हमने अपनी ही खिल्ली उड़ाने का महान् काम कर लिया है। मैं भी इसी हमाम में शरीक हूँ इसलिए, जैसा कि कह चुका हूँ, अपने सम्पूर्ण आशावाद के बाद भी प्रधान मन्त्री के इस चौंकानेवाले क्रान्तिकारी कदम से खुश नहीं हो पा रहा हूँ।
भ्रष्टाचार और काला धन एक सिक्के के दो पहलू तो हैं ही, वे दूसरे की जरूरत भी हैं और पूरक हैं। यह भी कह सकते हैं कि दोनों ही एक दूसरे के जनक भी हैं। दोनों ही एक दूसरे के बाप हैं। लेकिन यदि सयानों की बात मानें तो इनकी गंगोत्री आपके-हमारे नगरों-कस्बों, गली-मोहल्लों में नहीं, राजनीति, उद्योगों, कार्पोरेट घरानों, अफसरों के शिखरों में है। लेकिन यह धारणा भी मुझे सौ टका सही नहीं लगती। मेरी धारणा में तो हमारे मँहगे चुनाव, भ्रष्टाचार और काले धन सहित हमारी सारी समस्याओं की जड़ है। हमारा नेता चुनाव लड़ने के लिए धन जुटाता है। पार्टी कार्यकर्ता और आम आदमी से चुनाव खर्च की रकम नहीं मिल पाती। वह धनपतियों से मदद लेता है। चुनाव जीत गया तो वह क्रमशः अपना खर्चा निकालता है, फिर उपकारों का भुगतान करता है और अगले चुनावों के लिए रोकड़ा इकट्ठा करना शुरु कर देता है। यह ऐसा चक्र है जिसमें आखिरी बिन्दु नहीं होता है। हर बिन्दु पहला बिन्दु होता है और प्रत्येक बिन्दु, अपने पासवाले दूसरे बिन्दु का मददगार होता है। तब ये सब एक दूसरे की अनिवार्य आवश्यता बन जाते हैं। शायद इसी को क्रोनी केपिटलिजम कहा जाता होगा - ‘तुम मुझे जिताओ। मैं जीत कर तुम्हारे काम-धन्धे के लिए अनुकूल नीतियाँ बनाऊँगा, अनुकूल निर्णय लूँगा, अनुकूल स्थितियाँ-वातावरण बनाऊँगा। तुम खूब कमाना, मैं भी अपना घर भरूँगा, खूब ऐश करूँगा।’ 
इसीलिए मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ। चाहकर, कोशिश करने के बाद भी नहीं हो पा रहा। सारे देश को बिजली के करण्ट की तरह झकझोर देनेवाला यह निर्णय मुझे काले धन और भ्रष्टाचार की जड़ों पर नहीं, फुनगियों पर प्रहार लग रहा है। जड़ों में मट्ठा डालने के बजाय फुनगियों की छँटाई की जा रही है। हाँ, एक बात जरूर मुझे होती नजर आ रही है। देश को नकली नोटों से एक झटके में मुक्ति मिल जाएगी। किन्तु भ्रष्टाचार और काले धन से मुक्ति मुझे नजर नहीं आ रही। इन दोनों रोगों की बढ़त पर एक अस्थायी स्थगन जरूर होगा। इससे अधिक कुछ होता मुझे नजर नहीं आ रहा। हम सब जानते (और मानते) हैं कि बड़े खिलाड़ियों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उन्हें कभी, कोई फर्क पड़ता भी नहीं। उनके यहाँ तो सब कुछ राजी-खुशी और लक्ष्मीजी सदा प्रसन्न वाली स्थिति स्थायी रूप से बनी रहती है। जो भी फर्क पड़ेगा, मध्यमवर्गीय गृहस्थों, मझौले कारोबारियों, प्रतिकूल परिस्थितियों में छुट-पुट उठापटक कर अपनी आर्थिक महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने में जुटे उत्साही कुटीर उद्यमियों जैसों को पड़ेगा। उन्हें  बैंकों, पोस्ट ऑफिसों में कतारों में खड़े रह कर अपना मूल्यवान समय नष्ट करना पड़ेगा। पूरी योजना के क्रियान्वयन की विस्तृत जानकारी भले ही प्रधानमन्त्रीजी ने खुद दी हो किन्तु हमारे व्यवस्था तन्त्र की विशेषज्ञता के स्थापित आचरण से मुझे भय है कि सरकार ऐसे लोगों की सद्भावनाएँ न खो दे।
मैं आर्थिक विषयों का जानकार बिलकुल ही नहीं हूँ और एक औसत भारतीय की तरह देश को काले धन और भ्रष्टाचार से मुक्त देखना चाहता हूँ। मुझे प्रधानमन्त्रीजी की नियत पर तनिक भी सन्देह नहीं है। काला धन उनका प्रिय विषय रहा है। इस मुद्दे पर मैं उन्हें सर्वाधिक सफल प्रधान मन्त्री के रूप में देखना चाहता हूँ। किन्तु यथेष्ठ आश्वस्त नहीं हो पा रहा। क्योंकि प्रधानमन्त्रीजी का यह फैसला मुझे न तो क्रान्तिकारी लग रहा है न यथेष्ठ परिणामदायी। मँहगे चुनाव इस देश की सबसे बड़ी समस्या हैं। केवल समस्या नहीं, देश की तमाम समस्याओं की खदान हैं। चुनाव सुधारों के बिना हम कभी, कुछ नहीं कर पाएँगे। किन्तु चुनाव सुधारों के लिए देश राजनीतिक दलों और राजनेताओं पर निर्भर है जिनमें हमारे प्रधानमन्त्रीजी भी शरीक हैं। अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी मारने की आत्म-घाती मूर्खता ये लोग भला क्यों करेंगे?
ऐसे में कामना ही की जा सकती है कि प्रधानमन्त्रीजी को अपने मनमाफिक परिणाम मिलें। ऐसा न हो तो निराशा कम से कम मिले। लोगों को इसके यथेष्ठ लाभ मिलें। बड़े नोटों के बदलाव के लिए कुछ ‘किन्तु-परन्तु’ के साथ 31 मार्च 2017 तक का समय लोगों को दिया गया है। एक औसत मध्यमवर्गीय आदमी के लिए यह पर्याप्त समय है। ईश्वर से प्रार्थना करें कि हमारी व्यवस्था अपने अहम् और महत्व-भाव से मुक्त होकर लोगों की मदद करे, उनकी सद्भावनाएँ अर्जित करे। नंगे पाँव आए भक्त को मन्दिर प्रवेश करने दे। सब कुछ वैसा ही हो जैसा बताया, कहा जा रहा है और जैसी लोगों ने अपेक्षा कर ली है।
लेकिन भूलें नहीं कि यह जड़ों पर प्रहार नहीं है, केवल फुनगियों की छँटाई है। यह याद रखेंगे तो निराश होने से बच जाएँगे।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल दिनांक 10 नवम्बर 2016

दीपावली पर तकनीक का दिशा-बोध

इस बरस की दीपावली अपने किसम की अलग ही दीपावली रही। तनिक अनूठी। तकनीक ने इसे अतिरिक्त रंगीन तो बनाया ही, रोचक भी बना दिया। कभी लगा, त्यौहार पर तकनीक भारी पड़ गई है तो कभी लगा, तकनीक ने त्यौहार को विस्तार, प्रगाढ़ता दे दी है। कभी झुंझलाहट दी तो कभी आसमान फाड़ ठहाकों की सौगात दे दी।
दादा से मिले संस्कारों और अपने धन्धे का शिष्टाचार निभाने के नाम पर मैं हर बरस दीपावली पर लगभग आठ सौ अभिनन्दन-पत्र भेजता था। गए दो बरसों से नहीं भेज रहा। कृपालुओं के जवाब आना तो दूर, प्राप्ति सूचना भी नहीं। दो ने तो तनिक झिझक से कह भी दिया - ‘मत भेजिए। अच्छा तो लगता है लेकिन अब  जवाब देते नहीं बनता। आदत ही नहीं रही।’ इन दो की बात को मैंने ‘जहान की बात’ मान ली। हालत यह रही कि चर्चा करना तो दूर, किसी ने न तो बुरा माना और न ही शिकायत की। सब कुछ सहज, सामान्य बना रहा। यह मुझे अब भी अत्यधिक असामान्य लग रहा है और मैं असहज हूँ।
किन्तु इस बरस तो लगा मानो सारी दुनिया को मेरी फिकर हो गई है। वाट्स एप ने दुनिया बदल दी। मेरी तबीयत खुश हो गई। चलो! लोगों में सम्वाद/सम्प्रेषण शुरु तो हुआ! लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं बनी रही। जल्दी ही दूर हो गई। एक ही सन्देश कई-कई महरबानों से मिला तो जन्नत की हकीकत उघड़ने लगी। लेकिन बात खुशी के दूर होने तक ही सीमित नहीं रही। यह तो अचरज, निराशा, झुंझलाहट में बदलने लगी। सब कुछ ‘कॉपी-पेस्ट’ का कमाल था। इस अनुभूति ने मुझे उदास कर दिया। आगे जो कुछ हुआ उसने तो मुझे उलझन में डाल दिया। 
अनेक कृपालुओं ने मुझे अपने जत्थों (ग्रुपों) में शामिल कर रखा है। इन जत्थों में जितनी अच्छाई है कम से कम उतनी ही खराबी भी है। आपको वह सब देखना, झेलना पड़ता है जो आपको बिलकुल नहीं सुहाता। मैं छटपटा कर बाहर होता हूँ तो कृपालु साधिकार वापस शामिल कर लेते हैं - ’वाह! आप कैसे जा सकते हैं?’ ऐसे ही किसी एक जत्थे में शामिल कृपालु ने मेरा धन्यवाद सन्देश अपने ऐसे जत्थे में अग्रेषित (फाारवर्ड) कर दिया जिसमें मैं नहीं हूँ। अगले ही पल एक के बाद एक तीन सन्देश मिले। भाषा सबकी अलग-अलग थी लेकिन मतलब एक ही था - ‘आपसे मेरा कोई परिचय ही नहीं। मैं तो आपको जानता ही नहीं। मैंने आपको बधाई सन्देश भेजा ही नहीं। धन्यवाद किस बात का?’ इन तीन में एक परिहासप्रिय निकला। लिखा - ‘आपने बिना बात के धन्यवाद दिया। अब तो अभिनन्दन और मंगल कामनाएँ बनती ही बनती हैं। स्वीकार कीजिए। लेकिन अब धन्यवाद मत दीजिएगा। वह तो आप पहले ही दे चुके।’
एक स्थिति ने मुझे अपनी ही नजरों में शर्मिन्दा किया। मुझे सन्देश भेजनेवाले तमाम कृपालुओं को मैं पहचान ही नहीं पाय। कुछ ही को पहचान पाया। मुझे उनके अभिनन्दन सन्देश भी बड़ी संख्या में मिले जो मेरी फोन बुक में नहीं है। प्रत्युत्तर में धन्यवाद देते हुए शुभ-कामनाओं सहित उनसे क्षमा-याचना की - ‘कृपया अन्यथा न लें। मैं आपको पहचान नहीं पाया।’ अनेक में से एक ने बहुत बढ़िया बात कह कर ढाढस बँधाया और हौसला बढ़ाया - ‘कोई बात नहीं सरजी! शुभ-कामनाएँ  जान-पहचान की मोहताज नहीं होतीं। चलिए! आज से पहचान कर लेते हैं।’ 
दादा से मिले संस्कारों के अधीन ही मैं प्रत्येक सन्देश का उत्तर देने की कोशिश तो करता ही हूँ, यह कोशिश भी करता हूँ कि प्रत्येक सन्देश सामनेवाले को केवल अपने लिए लगे। लेकिन शुभ-कामना सन्देशों की संख्या ने जहाँ एक ओर अभिभूत किया वहीं दूसरी ओर पसीना भी ला दिया। कितनी भी कंजूसी कर लूँ, सन्देशों की संख्या चार अंकों से कम नहीं कर पा रहा हूँ। इतने सारे महरबानों को व्यक्तिगत रूप से सन्देश देना! मेरे हाथ-पैर फूल गए। शुरु-शुरु में कुछ कोशिश की लेकिन जल्दी ही थक गया और ऊब आ गई। पहले तो सोचा, किसी को जवाब नहीं दिया जाए। लेकिन अगले ही क्षण संस्कारों ने धिक्कारना शुरु कर दिया। ‘कॉपी-पेस्ट’ का विचार मन में आया। बड़ा सहारा मिला और उत्साहपूर्वक जुट गया। लेकिन भूल गया कि नकल में भी अकल लगानी चाहिए और थोक में ऐसा काम करते समय तनिक सावधानी बरतनी चाहिए। जोश में होश नहीं खोना चाहिए। प्रत्युत्तर-यज्ञ में समिधाएँ देने का क्रम चल ही रहा था कि एक का सन्देश आया - ‘दादा! यह क्या? मैंने तो आपसे अपनी पॉलिसी की प्रीमीयम जमा कराने के बारे में पूछा था।’ मुझे ,खुद पर झेंप आई। मानो सन्निपात से सामान्यता में लौटा। फिर सावधानी बरती। जिन्हें पहचान पाया, उन्हें नामजद प्रत्युत्तर दिया। 
लेकिन इस सबके बीच मुझे जलजजी का सुनाया किस्सा याद आ गया। यह उन्होंने एक समारोह में सुनाया था। किसी समारोह में वे, मुख्य अतिथि थे। मंच पर, अपने पास बैठे सज्जन से जलजजी ने कहा - ‘आपकी शुभ-कामनाओं के लिए धन्यवाद। आपने याद किया। अच्छा लगा।’ सज्जन ने अत्यन्त शालीनता और विनम्रतापूर्वक, किन्तु कुछ कसमसाते हुए जलजजी के प्रति आदर व्यक्त किया। वे खुद को ज्यादा देर तक रोक नहीं आए और पूछा - ‘सर! बाय द वे, बताएँगे कि मैंने आपको किस बात की शुभ-कामनाएँ दी थीं?’ मुख्य अतिथि की शालीनता और गरिमा भी जलजी को हँसने से रोक नहीं पाई। हँसते-हँसते ही बोले - ‘आपने मुझे मेरे जन्म दिन की शुभ-कामनाओं का एसएमएस किया था।’ तनिक झेंपते हुए सज्जन ने ससंकोच स्वीकार किया - ‘सर! उस तारीख को एक से अधिक मिलनेवालों की जन्म तारीख रही होगी और मैंने एक ही सन्देश  सबको भेजा होगा। मुझे सच में याद नहीं कि मैंने आपको सन्देश भेजा था।’
यन्त्र और तकनीक की यदि अपनी विशेषताएँ हैं तो दुर्गुण भी कम नहीं। विशेषताएँ आकर्षित तो करती हैं किन्तु पता नहीं चल पाता कि हम उनके दुर्गुणों में कब बँध गए। गाँधीजी ने किसी को कोई काम बताया। वह शायद पहले से ही थका हुआ था। तनिक झुंझलाकर बोला - ‘बापू! मैं कोई मशीन थोड़े ही हूँ?’ गाँधीजी ने हँस कर उत्तर दिया - ‘सच कह रहे हो तुम। आदमी मशीन कैसे हो सकता है? आदमी तो मशीन बनाता है?’ क्या विचित्र स्थिति है कि मनुष्य ने मशीन बनाई और खुद ही उसका दास हो गया! तकनीक तो एक कदम और आगे बढ़ गई। आज हम मशीन के दास और तकनीक के व्यसनी होते नजर आ रहे हैं। 
मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठ कृति कहा जाता है। किन्तु ईश्वर अपनी कृति के अधीन नहीं है। कृति ही अपने निर्माता के अधीन हैं। लेकिन हम ईश्वर के इस सन्देश को या तो समझ नहीं पा रहे या समझना ही नहीं  चाह रहे। हमने अपने लिए मशीन बनाई, अपने लिए तकनीक विकसित की और खुद को इनके हाथों में सौंप दिया। इण्टरनेट के जरिए हम सारी दुनिया से जुड़े हुए हैं लेकिन दुनिया की बात दूर रही, हम तो अपने-अपने घर में ही अकेले हो गए हैं। हो क्या गए हैं, हमने अपने आप को अकेला कर लिया है। हमने अपना-अपना एकान्त बुन लिया है। हमारे सामने रहनेवाले से हम रोज वाट्स एप पर ‘गुड मार्निंग’ करते हैं लेकिन सामने मिलने पर मुस्कुराकर भी नहीं देखते। मजे की बात यह कि अपनी इस दशा के लिए हम अपने सिवाय बाकी सब को जिम्मेदार मानते हैं। 
सो, इस बरस की दीपावली मुझे यही अतिरिक्त रंगीनी, अतिरिक्त उजास दे गई -  यन्त्र और तकनीक मेरे लिए है। मैं इनके लिए नहीं। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में, 03 नवम्बर 2016 को प्रकाशित।)

अपने-अपने रुह अफजा

देवेन्द्र दीपावली मिलने आया तो शिकायत की - ‘आपका ब्लॉग ध्यान ये देख रहा हूँ। महीनों बीत गए, आपने मेरावाला लेख नहीं छापा।’ मैं तो भूल ही गया था। देवेन्द्र ने याद दिलाया तो याद आया। मैंने सस्मित कहा-‘लेकिन उसमें तो तुम्हारा मजाक उड़ाया गया है!’ देवेन्द्र ने संजीदा होकर जवाब दिया-‘अव्वल तो मेरा मजाक नहीं है। लेकिन अगर है भी तो बात आपने सही कही थी। उस बात ने मेरी नजर और नजरिया बदल दिया। उसे जरूर छापिए। और भी लोगों पर असर होगा। जरूर होगा।’

देवेन्द्र मेरा हमपेशा है। बीमा एजेण्ट। जन्मना ब्राह्मण तो है ही ‘ब्राह्मण-गर्व’ और ‘ब्राह्मणत्व’ के श्रेष्ठता-बोध का स्वामी भी है। ब्राह्मण संघ की गतिविधियों में अतिरिक्त उत्साह और ऊर्जा से, बढ़-चढ़कर भाग लेता है। ‘दुराग्रह’ की सीमा तक हिन्दुत्व का समर्थक होने के बावजूद, सम्भवतः स्कूल-कॉलेज के दिनों के  ‘शब्द-सम्पर्क’ का प्रभाव अब तक बना होने के कारण ‘कट्टर’ या ‘अन्ध’ नहीं है। कभी-कभार मेरे घर चला आता है तो कभी फोन कर मुझे बुला लेता है। कहता है-‘आपसे मिलना, बतियाना  अच्छा लगता है।’

अभी-अभी उसके साथ जोरदार और मजेदार वाकया हो गया। लेकिन वह वाकया सुनने से पहले यह वाकया जानना-सुनना जरूरी है।

मुझसे मिलने के लिए बाहर से आए दो कृपालुओं को मुझ तक पहुँचाने के लिए वह, वैशाख की चिलचिलाती गर्मी की एक दोपहर मेरे घर आया था। उन्हें बैठाकर, ठण्डा पानी पेश कर पूछा - ‘क्या लेंगे? चाय या शरबत?’ जवाब आया - ‘इस गर्मी में चाय तो रहने ही दें। शरबत पिला दीजिए।’ पर्दे के पीछे खड़ी मेरी उत्तमार्द्ध ने यह सम्वाद सुन ही लिया था। सो, आवाज लगाने या कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी। थोड़ी ही देर में, शरबत के चार गिलास वाली ट्रे थमा गई। ग्लास देखकर देवेन्द्र ने मुँह बिगाड़ा। मानो मुँह में कड़वाहट घुल गई हो कुछ इस तरह बोला - ‘ये तो रुह अफजा है!’ मैंने कहा - ’हाँ। यह रुुह अफजा ही है।’ क्षुब्ध स्वरों में, मानो हम सबको हड़का रहा हो कुछ इस तरह  देवेन्द्र बोला - ‘मैं रुुह अफजा नहीं पीता।’ कारण पूछने पर बोला - ‘रुह अफजा बनाने वाला अपनी कम्पनी में हिन्दुओं को नौकरी पर नहीं रखता। इसलिए।’ बिना किसी बहस-मुबाहसा, देवेन्द्र के लिए नींबू का शरबत आ गया।   

न तो मुझे पता था और न ही खुद देवेन्द्र को कि दो ही महीनों बाद, उसका यह तर्क उसकी बोलती बन्द कर देगा। हुआ यूँ कि सावन के महीने में ब्राह्मण संघ ने एक अकादमिक आयोजन का जिम्मा देवेन्द्र को दे दिया। उसने भी खुशी-खुशी, आगे बढ़कर जिम्मा ले लिया।  आयोजन चूँकि अकादमिक था सो उसने व्याख्यान के लिए, बड़े ही सहज भाव से मजहर बक्षीजी को न्यौता दे दिया। उद्भट विद्वान् बक्षीजी मेरे कस्बे के कुशल और प्रभावी वक्ता हैं। अपनी विद्वत्ता और वक्तृत्व के कारण दूर-दूर तक पहचाने और बुलाए जाते हैं। कभी-कभी तो उनके कारण मेरा कस्बा पहचाना जाता है। बक्षीजी ने बड़ी ही सहजता से न्यौता स्वीकार कर लिया। देवेन्द्र ने यह खबर देते हुए मुझे भी आयोजन का निमन्त्रण दिया। मेरा जाना तय था किन्तु ‘मेरे मन कुछ और है, कर्ता के मन कछु और’ वाली उक्ति चरितार्थ हो गई। मैं नहीं जा पाया।

आयोजन की जानकारी मुझे अखबारों से मिली। उम्मीद से अधिक उपस्थिति थी। आयोजकों को तो आनन्द आया ही, बक्षीजी भी परम प्रसन्न हुए। याने, अयोजन उम्मीद से अधिक कामयाब रहा। तीन-चार दिनों बाद देवेन्द्र से मिलना हुआ। वह बहुत खुश था। आशा से अधिक सफल आयोजन के लिए ब्राह्मण समाज ने उसे अतिरिक्त धन्यवाद दिया था। उसका रोम-रोम पुलकित-प्रसन्न था। उसने विस्तार से आयोजन की जानकारी दी। किन्तु ब्यौरों का समापान करते-करते तनिक खिन्न हो गया - ‘कैसे-कैसे लोग हैं सरजी! कुछ लोग केवल इसलिए नहीं आए कि हिन्दू आयोजन में मुसलमान वक्ता क्यों बुला लिया। यह भी कोई बात हुई सरजी? भला ज्ञान और विद्वत्ता का जाति-धर्म से क्या लेना-देना?’ उसकी बात सौ टका ठीक थी। मैं कुछ कहने ही वाला था कि अचानक ही, बिजली की तरह मेरे मानस में ‘रूह अफजा’ कौंध गया। मेरी हँसी चल गई। देवेन्द्र को अच्छा नहीं लगा। असहज हो बोला - ‘क्यों? मैंने तो कायदे की बात कही थी। आप हँसे क्यों? ऐसा क्या कह दिया मैंने?’ अब मैं खुल कर हँसा। बोला - ‘क्या गलत किया उन्होंने? जिस आधार पर तुम रुह अफजा को खारिज करते हो उसी आधार पर उन्होंने बक्षीजी को खारिज किया। यदि तुम अपनी जगह सही हो तो वे भी अपनी जगह सही हैं और यदि वे गलत हैं तो तुम भी गलत हो। यदि ज्ञान और विद्वत्ता की कोई जाति-धर्म नहीं होता है तो शरबत की भी कोई जाति-धर्म नहीं होता। वह भी अपनी मिठास और शीतलता से ही जाना-पहचाना जाता है। तुम भी तो उसे धर्म के आधार पर अस्वीकार किए बैठे हो!’

देवेन्द्र को इस उत्तर की कल्पना नहीं थी। होती भी कैसे? खुद मुझे ही कहाँ थी? दो ही महीनों पहले दिया गया उसका तर्क बूमरेंग बनकर उसे ही आहत कर चुका था। अपने ही तीर का शिकार हो चुका था वह। पैमाने न तो दोहरे होते हैं न ही किसी के सगे। देवेन्द्र कसमसाता, अनुत्तरित बैठा रह गया। मानो मुँह पर लकवा मार गया हो। सब कुछ अकस्मात्, अनायास हो  वातावरण को बोझिल और असहज कर चुका था। मैं रस्मी राम-राम कर उठ आया।

नहीं जानता कि देवेन्द्र ने इस घटना को कैसे लिया होगा। यह भी नहीं जानता कि वह रुह अफजा पीना शुरु करेगा या नहीं। लेकिन मैं अनायास ही इतना भर जान गया कि हम सब भी अपने-अपने रुह अफजा तय किए बैठेे हैं - खुद को भरपूर रंगीनी, अकूत मिठास और गहरी शीतलता से दूर किए।
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