धर्म-शास्त्रधारी, ज्ञान सागर, विद्यावाहक का महाप्रयाण

सत्यमित्रानन्दजी नहीं रहे। 

सुबह-सुबह यही खबर सबसे पहले मिली। खबर मिलते ही मेरी यादों की पोटली खुल गई। बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन कुछ यादें हैं मेरी पोटली में। खट्टी-मीठी भी और कड़वी-कसैली भी।

यह सत्तर के दशक के शुरुआती बरस थे। मेरा कस्बा मनासा मानो ‘सत्यमित्रानन्दमय’ हो गया था। उनका आना भी त्यौहार होता था और जाना भी। लोग उमड़-घुमड़ कर उनकी अगवानी करते। उन्हें खूब सुनते और जब विदाई का दिन आता तो बिना किसी दुःख, क्लेश के, भरपूर आशावाद के साथ विदा करते - यह सोचते हुए कि जाएँगे नहीं तो फिर आएँगे कैसे? गोया उनकी विदाई हकीकतन उनकी अगली अगवानी की भूमिका होती थी। तब मनासा की आबादी कोई बारह-पन्द्रह हजार रही होगी। मुहावरों की भाषा में कहूँ तो मनासा के घर-घर में सत्यमित्रानन्दजी का चित्र लगा हुआ था जिस पर प्रतिदिन ताजा फूलों की माला चढ़ी नजर आती थी। वे घर-घर में पूजे जाते थे। मनासा के सैंकड़ों लोग उनके कण्ठी-बद्ध शिष्य थे जिनमें मेरे दादा-भाभी भी शरीक थे।

सत्यमित्रानन्दजी को देखना ही अपने आप में रोमांचक और उत्तेजक होता था। भरपूर कद-काठी, गोरा रंग, भव्य भाल, उन्नत ललाट, तीखी नाक, चमकती-लुभाती आँखें और इन सबको परास्त करती उनकी भुवन मोहिनी मुस्कान। हर किसी को लगता, स्वामीजी उसे ही देख कर मुस्कुरा रहे हैं। भगवा वेश में, हाथ में दण्ड धारण किए वे चलते तो पूरा मनासा उनके साथ चल रहा होता। लोग उनके चरण स्पर्श करना चाहते लेकिन उनका सस्मित प्रसन्न-वदन देखकर मानो मन्त्र-बिद्ध हो, पाँव छूना भूल, जड़वत खड़े रह जाते। सत्यमित्रानन्दजी का सम्मोहन पूरे कस्बे पर तारी रहता था। उनके प्रवचन सुनने के लिए लोग अपने हाथ के काम छोड़ कर चले आते थे। सत्यमित्रानन्दजी थे ही ऐसे। 

यह चित्र मनासा से श्री बृज मोहन समदानी के सौजन्य से मिला है। चित्र 18 फरवरी 2019 का है। श्री अशोक गुलाटी के घर पर लिए गए इस चित्र में बाँए से खड़े हुए कैलाश सोनी, प्रसन्न राघव शास्त्री, कुर्सी पर बैठे सत्यमित्रानन्दजी और खड़े हुए बृज मोहन समदानी। प्रसन्न राघव मेरा कक्षापाठी है। मैंने बरसों बाद प्रसन्न राघव की शकल देखी - इस चित्र के माध्यम से।

मैं उन दिनों हायर सेकेण्डरी का विद्यार्थी था। एक दिन हमें सूचित किया गया - ‘कल सत्यमित्रानन्दजी अपने स्कूल में आएँगे और विद्यार्थियों को सम्बोधित करेंगे।’ खबर सुनने के बाद सारे पीरीयड बिना किसी घोषणा के स्वतः ही निरस्त हो गए। पूरे स्कूल में मानो त्यौहार का उल्लास छा गया। 

अगला दिन बड़ी देर से आया।

हम सब बच्चे समय से बहुत पहले स्कूल पहुँच गए थे। उन दिनों ताम-झाम वाले सजीले मंच तो होते नहीं थे। ऐसी सभाओं के लिए तख्तों का चलन था। मझौले आकार का एक तख्ता सादगी से सजाया गया था। उस पर रेशमी शाल से ढकी एक कुर्सी लगी थी। सामने माइक। तख्ते के एक ओर अध्यापकों के लिए कुर्सियाँ लगी थीं और सामने बिछी दरी पर, स्कूल के हम तमाम छात्र बैठे थे। स्वामीजी के आगमन की प्रतीक्षा में हम सबके दिल बेतरह धड़क रहे थे। उस दिन हमें चुप रहने के लिए किसी भी अध्यापक को नहीं कहना पड़ा। हम सब मानो आवेशित (चार्ज्ड) हो, चुपचाप बैठे थे।

तय समय पर स्वामीजी आए तो हम सबकी साँसें रुक गईं। पलकों ने झपकने से इंकार कर दिया। स्वामीजी को ‘ज्यादा से ज्यादा’ देख लेने की कोशिश में हम सब घुटनों के बल उठंगे हो आए थे। हम सब उन्हें नख-शिख देख लेना चाहते थे ताकि बाद में शेखी बघार सकें - ‘मैंने स्वामीजी को सबसे ज्यादा देखा।’

हमारे प्रचार्य एस. डी. वैद्य साहब ने स्वामीजी का स्वागत किया। अपनी भावनाएँ प्रकट कीं और उद्बोधन के लिए स्वामीजी को आमन्त्रित किया। प्रभु स्मरण और गुरु नमन से स्वामीजी ने अपनी बात शुरु की। कहा कि वे तीस मिनिट बोलेंगे। उनकी बात सुनकर हमने उनके हाथों पर नजरें घुमाईं - घड़ी देखने के लिए। स्वामीजी ने घड़ी नहीं पहनी थी। हमें लगा, स्वामीजी खूब देर तक बोलेंगे। तीस मिनिट वाली बात उन्होंने केवल कहने के लिए कही होगी। 

स्वामीजी ने अपना उद्बोधन शुरु किया। उन्होंने किस विषय पर, क्या कहा, यह मुझे अब कुछ भी याद नहीं। केवल एक श्लोक याद रहा जिसमें उन्होंने ‘विद्यार्थी’ के लक्षण गिनवाए थे -

काक चेष्टा, बको ध्यानम्, श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थीनाम पंच लक्षणा।।

यह श्लोक मैंने पहली बार सुना था। मुझे, तब से लेकर अब तक, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तब तक, ताज्जुब है कि मुझे यह श्लोक कैसे याद रह गया। या तो स्वामीजी ने अपनी सम्पूर्णता से कहा होगा या फिर मैंने अपनी सम्पूर्णता से सुना होगा।

स्वामीजी को सुनना तो अनूठा अनुभव होता ही था लेकिन उन्हें बोलते हुए देखना अद्भुत अनुभव होता था। खनकती आवाज, सधा हुआ स्वर, सुस्पष्ट उच्चारण, संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा, मोतियों जैसी खनकती शब्दावली और मुक्ताहार जैसा वाक्य विन्यास। तिस पर, बोलने की गति ऐसी मानो वल्गा-मुक्त कुरंग अन्तरिक्ष में कुलाँचें भर रहा हो। वैसा धाराप्रवाह, विरल, अविराम वक्तव्य उसके बाद मैंने आज नहीं देखा-सुना। लगता था, साँस लेने की विवशता न हो तो स्वामीजी की आवाज रुके ही नहीं। स्वामीजी मानो स्वामीजी न रह कर ‘जबान के जादूगर’ हो गए थे जिसने वातावरण को सम्मोहन से ढक दिया हो। श्रोता भी निहाल और दर्शक भी निहाल।

इसी धाराप्रवहता में स्वामीजी ने अपना उद्बोधन समाप्त करने की सूचना देकर अपने प्रिय भजन ‘अब सौंप दिया इस जीवन का भार तुम्हारे हाथों में’ में सबको समवेत होने का आग्रह किया तो सबकी तन्द्रा टूटी। सबसे पहले हमारे प्राचार्य वैद्य साहब ने अपनी घड़ी देखी। उन्होंने अपनी घड़ी देखी और हम सबने उनकी चकित मुख-मुद्रा देखी। वैद्य साहब ने अपना बाँया हाथ उठाकर अपनी घड़ी के डायल का काच ठोक कर सबका ध्यानाकर्षित किया - सचमुच में तीसवें मिनिट में स्वामीजी ने अपना उद्बोधन पूरा कर दिया था। सब चकित थे।

इस उद्बोधन के बाद स्वामीजी के कुछ और प्रवचन सुनने के मौके मिले। उनका प्रत्येक श्रोता हर बार समृद्ध होकर ही लौटता था।

तब से लेकर अब मैं अपनी धारणाओं पर कायम हूँ कि, सत्यमित्रानन्दजी धर्म-शास्त्रधारी, ज्ञान सागर, विद्यावाहक थे। वे चुम्बकीय वक्ता और वशीकरण के सिद्धहस्त शिल्पी थे। समय पर उनका प्रभावी नियन्त्रण था। वे अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी थे। मनासा के अपने प्रायः प्रत्येक अनुयायी को नाम और शकल से जानते-पहचानते थे और पहले नाम से ही सम्बोधित करते थे। 

पता नहीं, सत्यमित्रानन्दजी के अवसान की खबर का असर मनासा के लोगों पर क्या हुआ होगा। क्योंकि दलगत राजनीति की चपेट में आकर सत्यमित्रानन्दजी ने अपने अनेक शिष्य, अनुयायी खो दिए। स्थिति यह हुई कि उनके चित्र गटरों में नजर आए। ऐसे अमिट लोकोपवाद के विजित हुए कि उन्हें भानपुरा शंकरचार्य पीठ से विदा लेनी पड़ी। यह मर्मान्तक पीड़ादायक प्रसंग फिर कभी। लेकिन फिर भी मुझे पक्का विश्वास है कि मनासा के सौ-पचास लोगों ने आज अपना काम बन्द रखा होगा।

और स्वामीजी? हरिद्वार में लोग भले ही उन्हें समाधी दे रहे होंगे लेकिन स्वामीजी देवलोक में अब तक अपने प्रवचन शुरु कर चुके होंगे और श्रोताओं से, अपने प्रिय भजन ‘अब सौंप दिया सब भार तुम्हारे चरणों में’  में समवेत होेने का आह्वान कर रहे होंगे।
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प्रभु की पटखनी


यह प्रभु है। पूरा नाम प्रभुलाल सिलोद। सब्जियों का व्यापारी है। रतलाम के नीम चौक में बैठता है। राधा स्वामी सम्प्रदाय का अनुयायी है। जब भी इन्दौर में राधा स्वामी सत्संग होता है, अपनी दुकान बन्द कर इन्दौर जाता है। मेरा अन्नदाता रहा है। अन्नदाता याने मेरा बीमा ग्राहक। अब इसका बेटा धर्मेन्द्र मेरा अन्नदाता बना हुआ है। मेरे घर से इसकी दुकान तक पहुँचने के लिए मुझे दो सब्जी बाजार पार करने पड़ते हैं। लेकिन इस प्रभु का प्रताप यह है कि दोनों बाजार पार करते हुए, सब्जी की किसी दुकान पर नजर नहीं पड़ती। मैं इससे मोल-भाव नहीं करता। सब्जियों का झोला थमाते हुए जितनी रकम बताता है, आँख मूँद कर चुका देता हूँ।

मँहगे भाव का पेट्रोल जला कर, दो सब्जी बाजार पार कर, इस प्रभु से सब्जी खरीदने की शुरुआत तो इसी वजह से हुई थी कि यह मेरा ग्राहक है। जो मुझे ग्राहकी दे, मैं भी उसे ग्राहकी दूँ - यही भावना रही। किन्तु मेरी इस भावना को इसने जल्दी ही परास्त कर दिया। एक दिन इसने मुझे गिलकी देने से इंकार  दिया। बोला - ‘आज गिलकी नहीं है।’ मैं प्रभु की शकल देखने लगा। टोकरी में रखी गिलकियाँ मुझे नजर आ रही थीं और प्रभु इंकार कर रहा था। गिलकी की टोकरी दिखाते हुए मैंने कहा - ‘ये रखी तो हैं!’ अपना काम करते हुए, मेरी ओर देखे बिना ही प्रभु ने जवाब दिया - ‘हाँ। रखी हैं। लेकिन अच्छी नहीं है। आपको नहीं दूँगा।’ सुनकर मुझे विश्वास नहीं हुआ लेकिन अच्छा लगा - ‘मुझे अपना खास मानता है। मेरा ध्यान रखता है। मेरी चिन्ता करता है।’ उस दिन से मैं इस प्रभु का भगत हो गया। उस दिन के बाद से मैं ध्यान रखने लगा कि प्रभु से सब्जी तब ही लूँ जब कोई और ग्राहक मौजूद न हो ताकि मुझ ‘खासम-खास’ की चिन्ता करते हुए यह किसी धर्म-संकट में न पड़े। 

लेकिन आज प्रभु ने ‘खासम-खास’ का मेरा यह मुगालता दूर कर दिया। आज इसकी दुकान पर पहुँचा तो कोई और ग्राहक नहीं था। मैंने तसल्ली और बेफिक्री से अपनी ‘पानड़ी’ (सूची) प्रभु को सौंप दी। प्रभु सब्जियाँ निकालने लगा। मैं खड़ा-खड़ा उसे देखता, प्रतीक्षा करता रहा। तभी पीछे से आवाज आई - ‘चँवला फली है?’ प्रभु ने ‘आवाज’ की ओर देखा और जवाब दिया - ‘है तो सही लेकिन आज की नहीं, कल की है।’ ‘आवाज’ ने पूछा - ‘कल की है! कोई बात नहीं। लेकिन अच्छी तो है?’ प्रभु ने अविलम्ब जवाब दिया - ‘न तो बहुत अच्छी, न बहुत खराब। मीडियम है।’ अगला सवाल आया - ‘घर-धराणी (गृहस्वामिनी) नाराज जो नहीं होगी?’ प्रभु के हाथ थम गए। ‘आवाज’ की ओर देखता हुआ बोला - ‘मैं मेरी चँवला फली के बारे में कह सकता हूँ। आपकी घर-धराणी की आप जानो। आप दोनों के बीच में मुझे मत डालो। मैंने चँवला फली के बारे में बता दिया कि आज की नहीं, कल की है और मीडिमय क्वालिटी की है।’ ‘आवाज’ भी शायद इसका, मेरी ही तरह कोई दिल-लगा ग्राहक था। बोला - ‘चल! तू तेरा काम कर। मेरी मैं निपटूँगा। दे दे आधा किलो।’ प्रभु ने मेरा का रोका। ‘आवाज’ को चँवला फली दी और पैसे लेकर विदा किया।

अब फिर मैं अकेला ग्राहक था। मैं अपने ‘खासम-खास’ होने के एकाधिकार के ध्वस्त होने से छोटे-मोटे सदमे में आ गया था। मैंने पूछा - ‘सबको इसी तरह सब्जी बेचते हो?’ बच्चों के से भोलेपन से प्रभु ने जवाब दिया - ‘हाँ। तो? और क्या करूँ? सब्जी जैसी है, वैसी है। इसमें क्या छुपाना?’ मैं अचकचा गया था। सहम कर पूछा - ‘ग्राहक चला जाए तो?’ उसी भाव और मुख-मुद्रा में प्रभु बोला - ‘देखो बाबूजी! ग्राहक तो भगवान होता है। भगवान से क्या झूठ बोलना? मैं कुछ भी कह दूँ, सब्जी सामने नजर आ रही है। और फिर बाबूजी! जब ग्राहक मेरा बताया मोल चुका रहा है तो मेरी जवाबदारी है कि उसे मोल के मुताबिक माल दूँ। मुझे मेरी तकदीर का मिलेगा। लेकिन ग्राहक को तो सन्तोष होगा कि मैंने उसे ठगा नहीं।’

प्रभु ने मुझे अवाक् कर दिया था। मैं जड़-मति की तरह उसे देख रहा था। मैं तो समझ रहा था कि एक-अकेला मैं ही उसका खासम-खास हूँ। लेकिन हकीकत तो यह थी उसके लिए तो उसका हर ग्राहक खासम-खास था। मैं उसके अनगिनत खासम-खासों में से एक खासम-खास हूँ। जब सारे के सारे खासम-खास हों तो कोई एक खुद को खासम-खास कैसे समझ सकता है? 

प्रभु ने एक झटके में मुझे खासम-खास की आसन्दी से सामान्य के पटिये पर ला पटका था। लेकिन सच कहूँ,  इस पटखनी में बड़ा आनन्द आया। 

यह प्रभु तो वास्तव में प्रभु ही है - सबको एक नजर से देखनेवाला।
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युगबोध का पागल आदमी

यह आदमी पागल नहीं तो और क्या है? पागल ही है।


पूरा नाम ओम प्रकाश मिश्रा है। रतलाम का ही रहनेवाला है। हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्रिंसिपल पद से रिटायर हुआ है। कस्बे की दो पीढ़ियों को पढ़ाया है इसने। रतलाम की शायद ही कोई गली ऐसी हो जहाँ इसे जाननेवाले, इसे नमस्कार करनेवाले मौजूद न हों। अन्तरंग हलकों में ‘ओपी’ से सम्बोधित किया जाता है तो कहीं ‘मिश्राजी’ और ‘मिश्रा सर’ से पुकारा जाता है। चार बेटियाँ हैं, चारों के हाथ पीले कर दिए हैं। चारों  अपनी-अपनी गृहस्थी में रमी हुई हैं। माथे पर कोई जिम्मेदारी नहीं है। तबीयत भी टनटनाट जैसी ही है। चुस्ती-फुर्ती किसी खिलाड़ी जैसी बनी हुई है। महीने की पहली तारीख को अच्छी-भली पेंशन बैंक खाते में जमा हो जाती है। जरूरतें सब पूरी हो रही हैं। सब कुछ भला-चंगा, ठीक-ठाक चल रहा है लेकिन ये आदमी है कि इसे चैन नहीं पड़ती।

यूँ तो याददाश्त बहुत अच्छी है इस आदमी की लेकिन यह याद नहीं कि उम्र के किस मुकाम पर नाटकों से दोस्ती कर ली। सन् 1977 में एक नाट्य संस्था बनाई। नाम रखा युगबोध। कस्बे के नौजवानों को जोड़ा। खूब नाटक किए और करवाए। कस्बे के, आज के कई नामी-गिरामी लोगों के कोटों के बटन होलों में ‘युगबोध’ का गुलाब आज भी टँगा हुआ है। वे आज भी खुद को गर्व से युगबोध का कलाकार कहते फूले नहीं समाते। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, वे सब अपने काम-धन्धों में लग गए। किसी ने पलट कर युगबोध की ओर नहीं देखा। यह आदमी अकेला रह गया।

लेकिन यह आदमी न तो निराश हुआ और न ही थका। उम्मीद तो जरूर की लेकिन अपेक्षा किसी से नहीं की। यह ‘अपेक्षाविहीनता’ ही इस आदमी की ताकत बनी, बनी रही और बनी हुई है। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के ‘एकला चालो रे’ का ध्वजवाहक बना यह आदमी आज अकेला ही युगबोध को जीवित बनाए हुए है।

युगबोध का यह पागल आदमी सन् 2009 से अनवरत ‘बाल नाट्य शिविर’ लगाए जा रहा है। हुआ यह कि मध्य प्रदेश की ‘अलाउद्दीन खाँ नाट्य अकादमी’ ने 2009 में युगबोध को, पाँच से पन्द्रह वर्ष के बच्चों के लिए एक बाल नाट्य शिविर लगाने का प्रस्ताव दिया। प्रस्ताव में आर्थिक सहयोग का भरोसा भी था। लेकिन वह सहयोग लेने के लिए जिन रास्तों से यात्रा करनी होती है, ‘ओपी’ या तो उन रास्तों से अनजान थे या उन रास्तों पर चल नहीं पाए। सो, अकादमी का आर्थिक सहयोग कागजों से बाहर नहीं आ पाया। लेकिन इस पागल आदमी ने शिविर न तो स्थगित किया न ही निरस्त। निराश होने के बजाय अधिक उत्साह से वह शिविर तो पूरा किया ही, उसके बाद से शिविर को नियमित कर दिया। वह दिन और आज का दिन। बाल नाट्य शिविर का यह ग्यारहवाँ बरस है। ‘ओपी’ नाम का यह पागल आदमी हर वर्ष मई महीने में मैदान में उतर आता है और बच्चों में रम जाता है। किसी से मदद माँगता नहीं। कोई मदद कर दे तो धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाता है। 

मैं पूछता हूँ - ‘यह क्या खब्त है? किसी डॉक्टर ने कहा है यह सब करने को? क्यों अपना वक्त, अपना रोकड़ा खरचते हैं? क्यों इतनी मेहनत करते हैं?’ सुनकर ओपी बारीक सी हँसी हँस देते हैं। कहते हैं - ‘यार विष्णुजी! इस मिट्टी ने मुझे क्या नहीं दिया? मुझे तो बनाया ही इस मिट्टी ने! मेरी हर चाहत, हर हरसत इसने पूरी की। मेरी भी तो कुछ जिम्मेदारी है! क्या लेता ही लेता रहूँ? देने का मेरा कोई फर्ज नहीं बनता? वही फर्ज निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। और वैसे भी, मुझे कोई व्यसन तो है नहीं! मुझे बस, नाटक आता है। यही मेरा व्यसन है। वही कर रहा हूँ।’ मैं कहता हूँ - ‘आप तो गुरु परम्परा वाले शिक्षक हैं। आप बच्चों को निःशुल्क पढ़ा सकते हैं। उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार कर सकते हैं। उसमें आपका पैसा भी खर्च नहीं होगा, मेहनत भी कम लगेगी और घर ही घर में रहते हुए वह सब कर लेंगे।’ ओपी के पास सवाल से पहले जवाब तैयार था - ‘आज की शिक्षा वैसी शिक्षा नहीं रही जैसी आप कह रहे हैं। अब तो शिक्षा बच्चों को रुपये कमानेवाली मशीनें बना रही है। अपने आसपास देखिए, नफरत और प्रतियोगिता के नाम पर शत्रुताभरी प्रतिद्वन्द्विता के सिवाय और कुछ नजर आता है आपको? मनुष्यता खतरे में पड़ गई है। ऐसे में कुल जमा तीन चीजें हैं जो हमें बचा सकती हैं - साहित्य, ललित कलाएँ और खेल। ये तीनों ही सारे भेद-विभेद मिटा कर आदमी को आदमी से जोड़ती हैं। प्रेम, भाईचारा और एकता की जड़ें हैं ये तीनों। ये बच्चे तो मिट्टी के लोंदे हैं। इन्हें जैसा बनाओ, बन जाएँगे। इस समय इनमें प्रेम, भाईचारा, मनुष्यता, नैतिकता जैसे भाव-बीज डाल देंगे तो उनकी फसल लहलहा जाएगी। ये बच्चे बड़े पेकेजवाले प्रोफेशनल बनें न बनें, बेहतर इंसान जरूर बनेंगे। आज हमें इंसानों की जरूरत है। मैं उसी इंसानियत की सेवा का अपना फर्ज पूरा करने की कोशिश कर रहा हूँ।’ मैं निरुत्तर हो जाता हूँ। 
‘हम अंग्रेजों के जमाने के मास्टर हैं।’ बच्चों को सीखाते समय ‘ओपी’ कभी-कभी छड़ी जरूर उठा लेते हैं लेकिन हवा में ही लहराते रहते हैं।



अब तक के दस बरसों में डेड़ सौ से भी अधिक बच्चों को नाटक से जोड़ चुके ‘ओपी’ इस बरस भी अपनी फर्ज अदायगी कर रहे हैं। अपने उसी चिरपरिचित अन्दाज में। शिविर शुरु होने से पहले एक सामान्य विज्ञप्ति जारी कर देते हैं और भूल जाते हैं। अपने अच्छे-खासे परिचय क्षेत्र में खबर कर देते हैं। पन्द्रह-बीस बच्चे हर बरस जुट जाते हैं। आशीष दशोत्तर नियमित रूप से बच्चों के लिए हर बरस दो नाटक लिखता है। नाटक सामाजिक सन्देश लिए होते हैं। आशीष की कलम को मैं हर बरस सलाम करता हूँ। हर बार लगता है, ये नाटक गए बरस के नाटकों से बेहतर हैं। ओपी इन नाटकों पर खूब मेहनत करते हैं। डाँट-फटकार, पुचकार, सख्ती, नरमी सब साथ-साथ चलते हैं। शिविर का समापन दोनों नाटकों की प्रस्तुतियों से होता है। इन शिविरों की वजह से आशीष की कलम ने बच्चों के लिए अब तक लगभग बीस नाटक तैयार कर दिए हैं - एक से एक उम्दा। आशीष को तो पता ही नहीं होगा कि, बाल साहित्य के अकाल वाले इस समय में उसने कितना बड़ा काम कर दिया है। 

आशीष दशोत्तर
अन्तर्मुखी और लक्ष्य केन्द्रित ‘ओपी’ को अपने शिविर से मतलब रहता है। प्रचार-प्रसार की कोई लालसा नहीं। हम दो-चार लोग अखबारवालों से ‘भाई-दादा’ करके, हाथा-जोड़ी करते हैं, शिविर का महत्व बताते हैं तो वे भी उदारतापूर्वक कृपा प्रसाद बरसा देते हैं। स्थानीय टीवी चैनलों की रुचि बिलकुल नहीं होती।

ऐसे उदासीन समय और समाज में ओम प्रकाश मिश्रा नाम का यह आदमी, अकेला ही पठार पर अलाव जलाने की, रेगिस्तान में पौधे रोपने जुगत में लगा हुआ है।

यह आदमी पागल नहीं तो और क्या है? पागल ही है।

लेकिन याद रखें - यह दुनिया पागलों ने ही बदली है।)
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