दिवंगत के लिए सौभाग्य की तलाश

यह बात मैं सम्भवतः पहले भी कह चुका हूँ।


ये तीनों ही विज्ञापन, 25 अप्रेल को क्रमशः नईदुनिया, पत्रिका और दैनिक भास्कर के, ‘निजी’ स्तम्भ में छपे हैं। एक महिला के उठावने की सूचना है तीनों में। तीनों ही विज्ञापन हैं और शब्दशः समान हैं। यूँ तो यह रोजमर्रा की तरह सामान्य विज्ञापन ही है किन्तु इसमें खास बात यह है कि दिवंगत महिला के पति की ओर से दिए गए इस विज्ञापन में महिला के नाम से पहले ‘सौ. कां.’ लिखा गया है।

उठावने के दिन का निर्धारण सामान्यतः दाह संस्कार के तत्काल बाद ही कर लिया जाता है और (यदि मैं अपने कस्बे के चलन को आधार बनाऊँ तो) उसकी घोषणा भी, श्मशान में ही कर दी जाती है। अखबारों में विज्ञापन देने का काम बाद में, दूसरे लोग ही करते हैं।जाहिर है कि यह विज्ञापन दिवंगत महिला के पति ने नहीं लिखा होगा। किसी हितचिन्तक ने, सम्पूर्ण सदाशयता से ही लिखा होगा और ‘सबसे अलग’ या ऐसी ही किसी मनोग्रन्थि के अधीन, अपनी सम्पूर्ण सदाशयता और सद्भावना से, सुन्दर, अलंकारिक शब्दावली प्रयुक्त करने के तहत ही ‘सौ. कां.’ लिख दिया होगा।



विवाहित महिलाओं के लिए स्थिति-अनुसार ‘सौभाग्यवती’ अथवा ‘अखण्ड सौभाग्यवती’ या इसका संक्षिप्तरूप ‘अ. सौ.’ प्रयुक्त किया जाता है। ‘सौ. कां.’ अर्थात् ‘सौभाग्य कांक्षिणी’ अविवाहिता युवतियों/किशोरियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है वह भी विशेषतः वैवाहिक निमन्त्रण-पत्रों में ही। किन्तु लगता है कि शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं या ‘लोक कुम्हार’ अपने चाक पर शब्दों के अर्थ ही बदल रहा है। लेकिन इससे अधिक सच बात तो यह है कि हम शब्दों से दूर होते जा रहे है और इसीके चलते उनके प्रति असावधान भी- उनका ‘अनर्थ’ कर देने की सीमा तक असावधान। यह विज्ञापन उसी का नमूना है। मुझे मिले वैवाहिक आयोजनों के दो निमन्त्रण पत्रों में से एक में वर की माता के नाम के आगे और दूसरे में वधू की माता के नाम के आगे ‘सौ. कां.’ छापा गया था। ये निमन्त्रण पत्र मैंने महीनों तक सम्हाल कर रखे थे और मिलनेवालों को बार-बार दिखाए भी थे।



यह ठीक है कि लिखनेवाले ने उत्साह के अतिरेक में ‘अनर्थ’ कर दिया हो। किन्तु अखबारों मे बैठे लोग क्या कर रहे हैं? तीनों में से एक भी अखबार में इस ‘अनर्थ’ की ओर ध्यान न देने का ‘अद्भुत समान व्यवहार’ किया। तीनों अखबारों में बैठे लोगों ने विज्ञापन के शब्द गिनने में ही परिश्रम किया। शब्दों के उचित प्रयोग की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। मुमकिन है कि ‘हम विज्ञापन की भाषा में फेरबदल नहीं करते’ जैसा आदर्श अपनाया गया हो। यदि ऐसा है भी तो यह अस्वीकार्य तर्क के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।



अखबारों की यह न्यूनतम जिम्मेदारी बनती है कि वे ऐसे ‘अनर्थ’ न होने दें। यह केवल विज्ञापन शुल्क का मामला नहीं है। भाषा का गम्भीर मामला है। ये सारे अखबार हिन्दी में निकलते हैं, हिन्दी से पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत, रोटी और धाक कमाते हैं और हिन्दी-सेवा का दर्प भरा गुमान करते हैं। किन्तु हिन्दी के प्रति इनका रवैया और इसके सम्मान के प्रति इनकी चिन्ता की वास्तविकता इस विज्ञापन से अनुभव की जा सकती है।



अपनी मातृभाषा के प्रति ऐसी असावधानी को क्या कहा जाए?

‘प्रेस‘ : सुखद आश्चर्य की चतुष्पदी

यहाँ दिया गया चित्र श्री महेन्द्र कुमार कुशवाह का है। ये, ‘दैनिक भास्कर’ के रतलाम संस्करण के कार्यकारी सम्पादक हैं। खुद भी ब्लॉग लिखते हैं और मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक हैं। उन्होंने जो कुछ सुनाया वह मेरे लिए ‘आश्चर्य चतुष्पदी’ था जिसे आप बोलचाल की भाषा में ‘अचरजों का चौका’ कह सकते हैं। पहला पद - यह मेरे सोचने/लिखने/कहने से पहले ही किया जा चुका था। दूसरा पद - ‘उसने’ यह किसी के कहे बिना, स्वेच्छा से किया। तीसरा पद - कहने से पहले इसे प्रचारित नहीं किया। और चौथा पद - करने के बाद भी इसका प्रचार नहीं किया।


वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने पर केन्द्रित मेरी पोस्ट अपना घर, अपनी जिम्मेदारी’ के प्रकाशन के चार-पाँच दिनों बाद महेन्द्रजी का फोन आया कि मेरे उक्त आलेख पर वे लम्बी टिप्पणी करनेवाले हैं। मेरी जिज्ञासा के उत्तर मे उन्होंने संक्षिप्त में जो कुछ कहा वह सुनकर मैंने कहा - ‘आप ब्लॉग पर टिप्पणी मत कीजिए। मैं आपके पास आ रहा हूँ। मुझे व्यक्तिशः पूरी बात बताईएगा। आपकी बात को मैं स्वतन्त्र लेख के रूप में देने पर विचार करूँगा।’ उनके सम्पादकीय कक्ष में कोई डेड़ घण्टे के वार्तालाप के बाद मेरे लिए अनिवार्य हो गया था कि जो कुछ सुना, उसे ‘अपना घर, अपनी जिम्मेदारी’ की तरह ही, स्वतन्त्र लेख के रूप में प्रस्तुत करूँ।

महेन्द्रजी के अनुसार, ‘दैनिक भास्कर’ के प्रबन्ध निदेशक श्री सुधीर अग्रवाल ने 8 सितम्बर 2010 को एक पत्र द्वारा, ‘दैनिक भास्कर’ के, सम्पादकीय, प्रबन्धकीय, प्रसार, विज्ञापन सहित अन्य विभागों के समस्त कर्मचारियों को निर्देशित किया कि यदि उन्होंने अपने (दुपहिया, चार पहिया सहित किसी भी प्रकार के) वाहनों पर ‘प्रेस’ अथवा ‘भास्कर’ लिखवा रखा है तो उसे 10 अक्टूबर 2010 तक अनिवार्यतः हटा लें। ऐसा न करना अनुशासनात्मक कार्रवाई का आधार बनेगा।


अपने पत्र में श्रीअग्रवाल ने कहा कि उनके अखबार से जुड़े प्रत्येक कर्मचारी को प्रबन्धन द्वारा परिचय पत्र दिया गया है, केन्द्र और/अथवा राज्य सरकार द्वारा अधिमान्यता प्राप्त पत्रकारों को तत्सम्बन्धित सरकार ने अलग से परिचय पत्र दिया है, प्रधानमन्त्री/मुख्यमन्त्री तथा ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से जुड़े विशेष आयोजनों में शामिल होने के लिए वाहनों तथा पत्रकारों को अलग से विशेष पास जारी किए जाते हैं। ऐसे में वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने को श्रीअग्रवाल ने अनुचित और अशोभनीय माना।


महेन्द्रजी के अनुसार, ‘दैनिक भास्कर’ से जुड़े लोगों के वाहनों पर 10 अक्टूबर 2010 के बाद ‘प्रेस’ अथवा ‘भास्कर’ लिखा नजर नहीं आता। मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने, ‘भास्कर’ कार्यालय के बाहर रखे वाहनों को ध्यान से देखा। महेन्द्रजी की बात सच थी। केवल एक मोटर सायकिल पर ‘प्रेस’ लिखा हुआ था, शेष सारे वाहनों की नम्बर प्लेटें सामान्य थीं। ‘उस एक’ मोटर सायकिल के बारे में महेन्द्रजी ने, अपने कक्ष से बाहर निकले बिना ही कहा कि वह किसी विज्ञापन एजेन्सी से सम्बद्ध व्यक्ति की होगी जो ‘भास्कर’ प्रबन्धन के नियन्त्रण से परे है। मैंने खुद ही तलाश किया और पाया कि महेन्द्रजी की बात शब्दशः सच थी।

जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तो इस बात को आठ दिन हो चुके हैं किन्तु मुझे इस पर अब विश्वास नहीं हो पा रहा है। जिस जमाने में, एक पन्ने वाले पाक्षिक के हॉकर का भतीजा भी अपने वाहन पर ‘प्रेस’ लिखवाने से खुद को नहीं रोक पाता, उस जमाने में, देश के सर्वाधिक राज्यों से प्रकाशित हो रहे, सर्वाधिक संस्करणोंवाले अखबार का प्रबन्धन न केवल ऐसी पहल करे अपितु कठोरतापूर्वक इसे क्रियान्वित भी करे तो पहली बार तो विश्वास नहीं ही होता। पत्रकारिता के मैदान में जो जितना ‘जबरा’ होता है उसे, उससे भी अधिक ‘दबंग’ की तरह व्यवहार करते देखना हमारी आदत बन चुका है। ऐसे में, ‘दैनिक भास्कर’ का यह आचरण ‘धारा के प्रतिकूल’ तो है ही, अनुकरणीय भी है।


अपनी स्थिति के बारे में, अपने काम के बारे में यदि किसी को अपनी ओर से जताना/बताना पड़े तो स्पष्ट है कि उसे अपने आप पर, अपने काम और अपने काम के प्रभाव पर विश्वास नहीं। वस्तुतः आदमी नहीं, आदमी का काम, उसका सार्वजनिक आचरण बोलता है। काम और आचरण से उसकी न केवल पहचान बनती है अपितु उसकी सार्वजनिक छवि भी बनती है। यही कारण है अपने वाहन पर अपने पद की लाल तख्तियाँ लगाए घूम रहे अधिसंख्य ‘पदाधिकारियों’ के प्रति आदर और सम्मान भाव के स्थान पर पहले तो आतंक भाव पैदा होता है जो वितृष्णा से होता हुआ हताशा पर रुकता है। ‘सड़कछाप’ लोग ऐसे ‘लाल तख्तीधारियों’ में से अधिकांश को अपात्र ही मानते हैं और पीठ पीछे उनके लिए ऐसी शब्दावली प्रयुक्त करते हैं जिसे लिखा नहीं जा सकता। केवल बोलने तक ही सीमित रखा जा सकता है।

इस समय मुझे 1996 से 1998 के वे (लगभग) अठारह महीने याद आ रहे हैं जब मैं ‘दैनिक चेतना’ में नौकरी कर रहा था। ‘सेठ’ ने, और मेरी नौकरी का माध्यम बननेवाले निर्मलजी लुणिया ने तो कभी नहीं कहा किन्तु, ‘वृत्त’ से भरपूर दूर, ‘परिधि’ पर बैठे कुछ शुभ-चिन्तकों ने मुझे सदाशयतापूर्ण परामर्श दिया कि मैं अपनी मोटर सायकिल पर ‘दैनिक चेतना’ अथवा ‘प्रेस’ लिखवा लूँ। मैंने पहली ही बार में इंकार कर दिया। मेरी मोटर सायकिल के लिए, भारतीय जीवन बीमा निगम ने मुझे बिना ब्याज का ऋण दिया था। सो, मेरी मोटर सायकिल पर लिखा जाना था तो ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ या ‘एल आई सी’ लिखा जाना था। बहुत हुआ था अपना व्यापार बढ़ाने के स्वार्थवश मैं ‘बीमा एजेण्ट’ लिखवा लेता। सबकी पीठ सुनती है, मेरे पहले इंकार के बाद किसी ने अपने आग्रह की आवृत्ति नहीं की। किन्तु मैंने पाया कि कुछ ही समय में (तीन महीनों से भी कम समय में) सारा शहर जानने लगा था कि मैं ‘दैनिक चेतना’ की नौकरी में हूँ। न तो किसी ने मुझसे पूछा और न ही मैंने किसी को बताया।


तय है कि अपनी पहचान के लिए अपना आचरण और सार्वजनिक व्यवहार ही प्रथम, अन्तिम और एकमात्र उपाय है।

मेरी झोली छोटी पड़ रही है

पूरा सप्ताह बीत गया। अनमनापन और अलालपन मन पर इस तरह छाया हुआ है कि कुछ भी करने को जी नहीं कर रहा। कुछ ऐसा और इतना कि कृतज्ञता ज्ञापित करने का न्यूनतम शिष्टाचार नहीं निभाने का गम्भीर अपराध कर बैठा।


इक्कीस अप्रेल की सुबह चाँदनीवालाजी ने उठाया। फोन पर बधाई देते हुए बोले - ‘आज तो आप छा गए।’ मुझे कुछ भी पता नहीं था। मैंने जिज्ञासा प्रकट की तो बताया कि ‘दैनिक भास्कर’ में भारतीय कर्मचारियों के गीता-सूत्र छापते हुए मुझे भरपूर जगह दी गई है। तब तक मेरे यहाँ अखबार नहीं आए थे। अखबार आते, उससे पहले दो फोन और आ गए। ‘मार्निंग’ सचमुच में ‘गुड’ हो रही थी।


अखबार आए तो मालूम हुआ कि फोन पर जो कुछ बताया गया था, उससे कहीं अधिक, बहुत अधिक हुआ था। ‘दैनिक भास्कर’ ने उसी दिन से ‘ब्लॉगर्स पार्क’ नाम से नया स्तम्भ शुरु किया था और यह शुरुआत मुझसे की थी। मुझे रोमांच हो आया। झुरझुरी आ गई। दो दिन पहले, मंगलवार को ही तो मैं ‘दैनिक भास्कर’ के कार्यकारी सम्पादक भाई महेन्द्र कुमार कुशवाह के पास डेड़ घण्टा बैठा था! उन्होंने गन्ध भी नहीं लगने दी! यह अवश्य कहा था कि शहर को लेकर कुछ नया शुरु करनेवाले हैं। लेकिन यह ‘नया’ ‘ऐसा कुछ’ होगा, इसका अनुमान नहीं था।


महेन्द्रजी को तत्काल ही धन्यवाद देने की इच्छा हुई किन्तु सोचा, दैनिक अखबार का मामला है। पता नहीं रात कितने बजे सोये होंगे। सो, आठ बजने की प्रतीक्षा करता रहा। उनसे बात की तो वे नई शुरुआत से कम और मुझे ‘चकित करने में’ कामयाब होने पर अधिक खुश लगे। उन्होंने बताया कि मंगलवार को जब मैं उनके सामने बैठा था, उसी समय वे और भाई नीरज शुक्ला, मुझसे शुरु किए जानेवाले इस स्तम्भ को अन्तिम स्वरूप दे रहे थे। उन्हें धन्यवाद देकर ‘नीरु बाबा’ (भाई नीरज शुक्ला) को धन्यवाद दिया तो वह भी ‘चकित कर देने’ के लिए ज्यादा खुश मिला। उसके बादसे मेरा फोन काफी देर तक व्यस्त रहा।


इस बीच, 'आत्‍‍म-मन्थन' वाले हाशमीजी ने 'ब्‍‍लाग्‍स इन मीडिया' को इस प्रकाशन की सूचना का ई'मेल कर इसे अपनी सूची में शामिल करने का आग्रह किया। यह हुआ ही था कि पाबलाजी के जरिए, इसे 'ब्लाग्‍स इन मीडिया' मे शामिल कर लिए जाने की सूचना भी मिल गई।


वह दिन और आज का दिन। रोज एक-दो फोन आ रहे हैं, दो-चार, दो-चार लोग चर्चा कर रहे हैं, बधाई दे रहे हैं, प्रशंसा कर रहे हैं। इतनी कि मेरी झोली छोटी पड़ गई है। यह सब मेरी पात्रता, योग्यता, अपेक्षा, से अधिक है। बहुत अधिक। और इस सबके पीछे है - ब्लॉग और मुझे सहारा देनेवाले कृपालु ब्लॉगर मित्र। ब्लॉग से मुझे मेरे ही कस्बे में अतिरिक्त पहचान, स्थापना और प्रतिष्ठा मिल रही है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझे इसका व्यावसायिक लाभ भी मिलेगा ही।


यह सब मैं अपने ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी को अर्पित करता हूँ। मैं आप सब ब्लॉगर मित्रों का आभारी हूँ जो मेरी पीठ थपथपाने का कोई अवसर खाली नहीं छोड़ते। मेरा हौसला और मनोबल बढ़ाते हैं और जब-जब भी मुझे कोई कठिनाई होती है तब-तब, सहायता करते हैं, रास्ता दिखाते हैं।


मैं समझ नहीं पा रहा हूँ क्या कहूँ? क्या करूँ? आभार, धन्यवाद और कृतज्ञता जैसे शब्द मुझे अपर्याप्त और बौने अनुभव हो रहे हैं। खुद को टटोलता हूँ तो बड़े शून्य से अधिक कुछ भी हाथ नहीं आता। जो कुछ हूँ, अपने ब्लॉग-गुरु और तमाम ब्लॉगर मित्रों के कारण हीतो! आप सबका कृपापूर्ण सहयोग और संरक्षण मुझे इसी प्रकार मिलता रहे, यही याचना कर पा रहा हूँ। अपने स्तर पर, फटी झोलीवाला मैं नौसिखिया ब्लॉगर आप सबसे वादा करता हूँ कि अपनी जानकारी में मैं कभी कोई ऐसा काम नहीं करूँगा जिससे ब्लॉग को, मेरे ब्लॉग-गुरु को और आप सबको मेरे कारण संकोच की स्थिति में आना पड़े। मैं वादा करता हूँ मैं यथा सम्भव पूर्ण सतर्क, सजग और सचेष्ट रहूँगा कि यदि मेरे कारण आप सबका मान-सम्मान बढ़ न सके तो वह कम भी नहीं हो।

मुझे आशीर्वाद दीजिएगा और ईश्वर से मेरी सफलता के लिए कामना कीजिएगा।

अफसरशाही के सामने नतमस्तक संसद की सर्वोच्चता

यह कोई आठ-दस बरस पहले की बात है।

जनहित में काम कर रही एक संस्था के कुछ लोग मेरे पास आए और चाहा कि मैं उनके साथ कलेक्टर के पास चलूँ। उन्होंने बताया कि संस्था की गतिविधियाँ संचालित करने के लिए उन्हें सरकार से कुछ जमीन मिली हुई है। उसका नामान्तरण- प्रकरण, लगभग आठ-नौ माह से लम्बित पड़ा था। नामान्तरण हेतु सारी प्रक्रियाएँ पूरी हो चुकी थीं। सार्वजनिक सूचना प्रकाशित/प्रसारित की जा चुकी थी। कोई आपत्ति नहीं आई थी और न ही कोई विवाद था। पटवारी से लेकर तहसीलदार तक, सबने अनुकूल अनुशंसा कर रखी थी। फिर भी नामान्तरण नहीं हो रहा था। नामान्तरण हो तो निर्माण शुरु हो। मैंने कहा कि मैं न तो उन्हें जानता हूँ और न ही मुझे उनकी संस्था और उसकी गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी है। कलेक्टर से भी मेरी जान-पहचान नहीं है। उन्होंने संस्था की और उसकी गतिविधियों की संक्षिप्त जानकारी दी। मैंने फिर अरुचि दिखाई और कहा कि मैं तो इस मामले में कुछ बोल भी नहीं पाऊँगा। उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही। बोले - ‘आप एक शब्द भी मत बोलिएगा। हमारे साथ चुपचाप बैठे रहिएगा। आप हमारे साथ हैं, इसी से हमारा काम हो जाएगा।’ मुझे अजीब लगा लेकिन जिज्ञासा भी पैदा हो गई। उनके साथ चला गया।

कलेक्टर साहब ने फौरन ही हम लोगों को मिलने के लिए बुला लिया। संस्थावाले उनसे पहले भी मिल चुके थे। मैंने अपना परिचय दिया तो प्रसन्नता जताते हुए बोले - ‘हाँ, हाँ। आपका नाम सुना है। मिलना पहली बार हो रहा है।’ संस्थावाले कुछ कहते उससे पहले ही कलेक्टर साहब को सन्दर्भ याद आ गया। पूछा - ‘अरे! आप लोग अब क्यों आए?’ उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि नामान्तरण प्रकरण अभी भी लम्बित है। फौरन फाइल बुलवाई। कागज पलटे और फाइल बन्द करते हुए बोले - ‘आप जाईए। न तो कोई आपत्ति है और न ही कोई विवाद। आपका काम समझ लीजिए, हो गया।’ संस्थावालों ने याद दिलाया कि यही बात वे दो-ढाई महीने पहले भी कह चुके हैं।

अब मुझसे चुप नहीं रहा गया। पूछ बैठा कि यदि सब कुछ अनुकूल है तो प्रकरण लम्बित क्यों है? कलेक्टर साहब ने बताया कि नोट शीट पर दो डिप्टी कलेक्टरों के हस्ताक्षर नहीं होने से प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। जैसे ही दोनों के हस्ताक्षर हो जाएँगे, नामान्तरण हो जाएगा।

चलने के लिए हम लोग उठे लेकिन उठते-उठते मेरी हँसी चल गई। कलेक्टर साहब ने तनिक खिन्न होकर पूछा - ‘क्यों? आपको किस बात पर हँसी आ गई?’ मैंने कहा - ‘काम करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई थी। किन्तु देख रहा हूँ प्रक्रिया पूरी करना ही सबसे बड़ा और सबसे जरूरी काम है।’ कलेक्टर साहब को बुरा लग गया। तनिक आवेश में कहा - ‘बैठिए। आप सब लोग बैठ जाईए।’ हम सब बैठ गए। कलेक्टर साहब ने गुस्से में ही फाइल खोली और नामान्तरण के आदेश देकर हस्ताक्षर कर दिए। भृत्य को बुलाया, फाइल उसे थमाई। भृत्य की पीठ हमारी ओर होती उससे पहले ही तहसीलदार को मोबाइल लगाया और कहा - ‘एक फाइल भिजवाई है। उसके अनुसार नामान्तरण आदेश हाथों-हाथ ही मुझे भिजवाएँ। सम्बन्धितों को मैंने रोक रखा है। नामान्तरण आदेश देकर ही उन्हें भेजना है।’

तहसीलदार को निर्देश देकर कलेक्टर साहब विजेता की तरह दर्प से मुस्कुराए और मुझसे कहा - ‘अब तो आप खुश?’ मैंने कहा - ‘अब तो मैं और दुःखी हो गया हूँ।’ कलेक्टर साहब को मानो बिच्छू का डंक लग गया। चिहुँक कर बोले - ‘क्या मतलब?’ मैंने कहा - ‘यदि यही होना था तो आठ-नौ महीने पहले ही क्यों नहीं हो गया?’ कलेक्टर साहब सकपका गए। कुछ बोल नहीं पाए। उनकी शकल पर इन्द्रधनुष के सारे रंग एक के बाद एक आ-जा रहे थे। वे न तो अपनी खिसियाहट छुपा पा रहे थे और न ही मुझसे सहमत होने को तैयार थे। एक ‘राजा’ का दर्प, ‘दो कौड़ी के’ लोगों के सामने चूर-चूर हो गया था। संस्थावालों को मजा आ गया था। मुझे लगा, मेरी अनुपस्थिति ही कलेक्टर साहब को राहत दे सकेगी। सो ‘जरूरी काम’ की दुहाई देकर, उन्हें धन्यवाद देकर और अपनी अशिष्टता की क्षमा माँग कर चला आया। बाद में संस्थावालों ने बताया कि कलेक्टर साहब की छटपटाहट तब भी कम नहीं हुई और तहसीलदार को दो बार मोबाइल पर डाँट कर ‘विद्युत गति’ से नामान्तरण आदेश मँगवा कर संस्थावालों को दिया।


इस पोस्ट के साथ चिपकाए गए, ‘दैनिक भास्कर’ का समाचार पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना बरबस ही याद आ गई।

क्या दशा है? महिलाओं को 58 वर्ष की आयु में ही वरिष्ठ नागरिक मानने और किराए में रियायत का प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर रेल मन्त्री और पूरी सरकार खूब तालियाँ बजवा चुकी, वाहवाही ले चुकी। संसद ने रेल बजट पारित कर दिया है। सम्भवतः राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो चुके होंगे। लेकिन जो लाभ महिलाओं को पहली अप्रेल से मिलना शुरु हो जाना चाहिए था, अब तक नहीं मिल पा रहा है क्योंकि रेल प्रशासन ने आदेश जारी नहीं किए हैं। संसद की सर्वोच्चता पर रेल प्रशासन का आदेश भारी पड़ गया है। संसद की सम्प्रभुता और संसद के सम्मान की चिन्ता में हलकान होनेवालों में से किसी का भी ध्यान, संसद की इस ‘साम्विधानिक अवमानना’ की ओर अब तक नहीं गया है। शायद जाएगा भी नहीं क्योंकि उन सबको इस सुविधा की न तो आवश्यकता है और न ही चिन्ता।

संसद की, सर्वोच्‍चता, सम्प्रभुता और सम्मान, अफसरशाही के जूतों तले कराह रहा है। देखने-सुनने की फुरसत किसी को नहीं है।

गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों का प्रतिनिधित्व जब करोड़पति/अरबपति करेंगे तो यही तो होगा?

भारतीय कर्मचारियों के गीता-सूत्र

अण्णा! (केवल) तुम संघर्ष करो वाली मेरी पोस्ट पर मुझे एक एसएमएस मिला। भेजनेवाले सज्जन केन्द्र सरकार के कर्मचारी हैं और नौकरी कुछ ऐसी ‘घुमन्तू’ जैसी है कि अपने कार्यालय में कम ही बैठ पाते हैं। दिन भर, केन्द्र और राज्य सरकार के कार्यालयो में घूमते रहते हैं शाम को जब सारे कार्यालय बन्द हो जाते हैं तब इनका कार्यालय शुरु होता है। जाहिर है कि मेरे ये मित्र दिन भर में जितने कर्मचारियों से मिलते हैं, उतना शायद ही कोई और मिलता होगा। सो, कर्मचारियों को, उनके आचरण को और नौकरी के प्रति उनके व्यवहार को लेकर मेरे ये मित्र प्रतिदिन, घण्टे-दो घण्टे का, धाराप्रवाह व्याख्यान दे सकते हैं।


एसएमएस करने के बाद इन्होंने मुझे फोन किया और कहा - ‘मेरे इस सन्देश को अपने ब्लॉग पर स्थान अवश्य दें किन्तु मेरा नाम न आए। इसीलिए आपके ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं की और न ही आपको ई-मेल किया है। एसएमएस किया है और अपना काम हो जाने के बाद कृपया इसे भी डीलिट कर दें।’

सो, उनका कहा पहले माना और बाद में इसे आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। कर्मचारियों के दैनन्दिन आचरण के प्रत्यक्षदर्शी और अनुभवी के निष्कर्ष निम्नानुसार हैं -


नौकरी में मजे करने और बने रहने के लिए सफलता के सात सूत्र -
1. बने रहो पगला, काम करेगा अगला।
2. बने रहो लुल, सेलेरी मिलेगी फुल।
3. जिसने ली टेंशन, उसकी वाइफ लेगी पेंशन।
4. काम से डरों नहीं ओर काम को करो नहीं।
5. काम करो या न करो, काम की फिक्र जरूर करो।
6. फिक्र करो या न करो, फिक्र का जिक्र बॉस से जरूर करो।
7. जो काम करे, उसे अंगुली करो और जो काम न करे उसकी चुगली करो।



अण्णा! (केवल) तुम संघर्ष करो

देश के शेष भाग का तो पता नहीं किन्तु मध्य प्रदेश में अप्रेल का पहला पखवाड़ा (‘पहला पखवाड़ा’ को 17 अप्रेल तक के 17 दिन मानें) लगभग छुट्टियों में ही बीता। इन सत्रह दिनों में सरकारी कार्यालयों में अपवादस्वरूप ही काम काज हुआ।


तीन अप्रेल को रविवार था, चार को नवसम्वत्सर का और पाँच अप्रेल को चेती चाँद (इसका शुद्ध स्वरूप पता नहीं क्योंकि कुछ अखबारों में इसे ‘चेटी चण्ड’ लिखा गया) का अवकाश रहा। नौ अप्रेल को दूसरे शनिवार का, दस अप्रेल रविवार, बारह अप्रेल को रामनवमी का, 14 अप्रेल को अम्बेडकर जयन्ती का, सोलह अप्रेल को महावीर जयन्ती का अवकाश रहा। सत्रह को तो रविवार है ही। अगले तेरह दिनों में भी दो अवकाश (बाईस अप्रेल को गुड फ्रायडे, और चौबीस अप्रेल को रविवार) ऐसे आ रहे हैं कि यदि तेईस अप्रेल शनिवार की छुट्टी ले ली जाए तो तीन दिनों का अवकाश एक साथ हो जाए।


विभिन्न पर्वों और महापुरुषों से सम्बन्धित तिथियों पर घोषित अवकाशों में से एक भी ऐसा नहीं रहा जिसे सबने समान रूप से एक साथ मनाया हो। नव सम्वत्सर पर भले ही ‘हिन्दू नव वर्ष’ का लेबल चस्पा कर दिया गया हो किन्तु इसे न तो सारे हिन्दुओं ने मनाया और पूरे दिन भर तो किसी ने नहीं मनाया। एक भी व्यापारी/व्यवसायी ने अपना काम बन्द नहीं रखा। सारे निजी और औद्योगिक संस्थानों में पूरे दिन काम चला। और तो और, छोटी-छोटी दुकानों के कर्मचारियों को भी छुट्टी नहीं मिली। काम ठप्प रहा तो बस, केवल सरकारी दफ्तरों में।


चेती चाँद को केवल सिन्धी समुदाय ने मनाया। बाकी सब ‘दर्शक’ की भूमिका में रहे - तटस्थ, निस्पृह भाव से। लेकिन उल्लेखनीय बात यह कि सिन्धी भाइयों ने भी अपनी व्यापारिक/व्यावसायिक गतिविधियाँ रोजमर्रा की तरह सामान्य बनाए रखीं। कारखाने, निजी संस्थान्, वकीलों, इंजीनीयरों जैसे परामर्शदाताओं के दफ्तर बराबर चलते रहे। बन्द रहे तो केवल सरकारी दफ्तर।


बारह अप्रेल रामनवमी थी। यह त्यौहार भले ही तनिक अधिक व्यापकता से मनाया गया किन्तु सरकारी दफ्तरों के अलावा कहीं काम बन्द नहीं रहा। बाजार रोज की तरह खुले और दुकानों के कर्मचारियों को रोज की तरह ही समय पर काम पर आना पड़ा। काम बन्द रखने की निष्ठा और भक्ति केवल सरकारी कार्यालयों ने ही निभाई।


महावीर जयन्ती (सोलह अप्रेल) तो केवल जैन समुदाय तक सीमित रहनी ही थी। सुबह भव्य जुलूस निकले, कुछ धार्मिक आयोजन हुए किन्तु जैनेतर समुदाय ने अपनी-अपनी दुकानें समय पर खोलीं और और शाम को अपने समय पर ही मंगल कीं। जैसा कि होना था, सरकारी दफ्तर बन्द ही रहे और महावीर जयन्ती की छुट्टी का आनन्द जैनेतर समुदाय ने भी उठाया।


गुड फ्राइडे (तेईस अप्रेल) तो और भी कम लोगों तक ही सीमित रहना है। हाँ, मैंने यह अवश्य देखा है कि अपने त्यौहारों पर इस्लामी और इसाई समुदाय के लोग अपने संस्थान्/दुकानें सामान्यतः दिन भर बन्द रखते हैं। किन्तु शेष समाज को कोई अन्तर नहीं पड़ता। सो, गुड फ्राइडे पर भी केवल सरकारी कार्यालय ही बन्द रहेंगे।


कल्पना की जा सकती है कि अफसरशाही और बाबूराज से और इनके भ्रष्टाचार से पीड़ित हमारे समय और समाज को इन (और ऐसी ही) छुट्टियों की कितनी कीमत चुकानी पड़ती है। हमारी अधिसंख्य आबादी गाँवों में रहती है। खेती-किसानी बारहों महीनों और चौबीसों घण्टों का काम तो होता ही है, इसमें पूरे परिवार को खपना पड़ता है। ऐसे में, इन लोगों के कितने काम नकारात्मक रूप से प्रभावित होते होंगे? लेकिन स्थितियाँ और अधिक निराश तब करती हैं जब मैं देखता हूँ कि विभिन्न धर्मों/समुदायों के लोग अपने-अपने महापुरुषों के नाम पर और छुट्टियों की माँग करते हैं। मेरे कस्बे का ब्राह्मण समाज, परशुराम जयन्ती को ऐच्छिक अवकाश घोषित करने की माँग कर रहा है। ऐसी ही माँगें, समय-समय पर अखबारों में सामने आती रहती हैं।


अपने महापुरुषों/नायकों के नाम पर हम बहुत जल्दी अतिरेकी और अतिसम्वेदी हो जाते हैं। हम खुद भले ही अपने महापुरुषों/नायकों के प्रति अवज्ञा बरत लें, किसी दूसरे (और खासकर, सरकार) को ऐसा करने की छूट कभी नहीं देते। अपने प्रतीकों के सार्वजनिक सम्मान की चिन्ता तो हम प्राणान्तक (जान ले लेने और जान दे देने के) स्तर तक करते हैं किन्तु उनके बताए रास्त पर चलने को शायद ही तैयार हों। जबकि, अपने महापुरुषों/नायकों के आचरण को अपने जीवन में उतारना ही उनका वास्तविक सम्मान होता है। हमारी स्थिति इसके सर्वथा विपरीत है।


यदि कभी ऐसा हो जाए कि स्वाधीनता दिवस, गणतन्त्र दिवस और गाँधी जन्म दिवस को छोड़कर शेष सारे अवकाश समाप्त कर दिए जाएँ और ऐसा करने के मुआवजे के तौर पर आमस्मिक अवकाशों की संख्या बढ़ा दी जाए तो मुझे आकण्ठ विश्वास है कि हममें से कोई अपवादस्वरूप ही अपने महापुरुषों/नायकों की जयन्ती/पुण्य तिथि पर अवकाश लेगा। उस दिन भी हम सब काम पर जाएँगे और आकस्मिक अवकाशों का उपयोग अपनी निजी, घर-परिवार की समस्याएँ निपटाने में या व्यवहार निभाने में या फिर ‘कहीं घूम आते हैं’ जैसे सैर सपाटों में करेंगे। इससे भी आगे बढ़कर, यदि ऐसे अवकाशों वाले दिनों मे काम पर आनेवालों को दुगुना वेतन मिलने का प्रावधान हो जाए तो हम देखेंगे कि भाई लोग अपने महापुरुषों/नायकों को दूसरी वरीयता पर रखकर, अधिक चिन्ता तथा अधिक प्रसन्नता से दफ्तर पहुँचकर काम रहे हैं।


मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा किन्तु रुका भी नहीं जा रहा यह कहने से कि राष्ट्र-सेवा, राष्ट्र-धर्म, अपने महापुरुषों/नायकों, धर्म, संस्कृति आदि को लेकर दी जानेवाली हमारी दुहाइयाँ केवल वाचिक स्तर तक ही सीमित हैं। आचरण के स्तर पर हम नितान्त व्यक्तिवादी, सर्वथा आत्म केन्द्रित और अत्यधिक स्वार्थी हैं।


देखते हैं, ऐसे में बेचारे अण्णा हजारे कैसे और कितने कामयाब हो पाते हैं?

निकलना बात में से बात का

बात न बात का नाम। लेकिन बात तो बात है। भले ही बेबात की हो। निकलती है तो दूर तलक जाती है। फिर, यदि वक्त काटने के लिए वाणी विलास ही किया जाना हो और अपने कहे की कोई जिम्मेदारी माथे नहीं आती हो तो कंजूसी कौन करे? सब औढर दानी हो जाते हैं और खुलकर खेलते हैं। लेकिन बात तो बात ही होती है। बेबात की होने पर भी लग जाती है।



ऐसा ही कल हुआ। मेरी उत्तमार्द्ध शासकीय विद्यालय में अध्यापक हैं। पाँचवी कक्षा का परिणाम लेने के लिए उन्हें संकुल केन्द्र पर जाना था - घर से कोई दो/ढाई किलो मीटर दूर। लगभग जंगल में। सो, ‘साम्राज्ञी की सेवा में’ मुझे ही लगना था।



संकुल केन्द्र पहुँचे तो हाड़ाजी को बाहर बैठा पाया। वे भी ‘साम्राज्ञी की सेवा में’ थे। हमारी ‘साम्राज्ञियाँ’ अपने काम पर लग गई थीं और हम दोनों पूरी तरह से फुरसत में थे।



‘आप भी मैडम को लेकर आए हैं?’, ‘और कैसे हैं?’ ‘क्या हाल हैं?’ जैसे, अर्थ खो चुके सवालों से शुरु हुई हमारी बातें, ‘बच्चों के लिए क्या किया’ पर आकर टिक गई। मैंने कहा - ‘करने को क्या था? उनकी पढ़ाई की व्यवस्था करनी थी। सो कर दी। बड़ावाला नौकरी में लग गया है और छोटेवाला, इंजीनीयरिंग के अन्तिम सेमेस्टर में है। वह चाहेगा और कहेगा तो अगली पढ़ाई की व्यवस्थाएँ करेंगे नहीं तो नौकरी की जुगत मे भिड़ जाएगा।’



हाड़ाजी को मेरा जवाब अच्छा नहीं लगा। ‘इसमें अनोखा क्या किया? यह तो हर माँ-बाप करते हैं?‘ उन्होंने उलाहना दिया। समझ नहीं पाया कि वे क्या सुनना चाहते थे। सो सीधे-सीधे पूछा - ‘अनोखे काम से आपका मतलब?’ तनिक गम्भीर होकर हाड़ाजी बोले - ‘अनोखा याने बच्चों को सेटल करने के लिए कोई इन्तजाम-विन्तजाम किया या नहीं?’ मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘पढ़ाई करा देने और नौकरी लग जाने का मतलब सेटल हो जाना नहीं?’ ‘यह तो रूटीन की बात है।’ तनिक विद्वत्ता भाव से कहा हाड़ाजी ने। अब मुझे सूझ पड़ी कि हाड़ाजी मुझसे कुछ जानना नहीं चाह रहे थे। वे तो अपनी कोई बात बताना चाहते थे।



उनके अहम् का सहलाते हुए मैंने कहा - ‘तो आप ही बताइए ना कि अनोखे से आपका मतलब क्या है? अपने बच्चों के लिए आपने क्या अनोखा कर दिया है?’ ‘ज्यादा कुछ नहीं, दो प्लॉट ले रखे हैं। एक प्रताप नगर में और एक सैलाना रोड़ पर। पढ़-लिख कर बच्चे आएँगे तो उन्हें सब कुछ तैयार मिलेगा।’ मेरी आँखों में सगर्व आँखें डालते हुए सूचित किया हाड़ाजी ने। मुझे मजा आ गया। अब सारी बात मेरे सामने साफ हो चुकी थी।



बात को बढ़ाने के लिए मैंने पूछा - ‘और वो जो शास्त्री नगरवाला आपका दो मंजिला मकान है जिसमें आप अभी रह रहे हैं, वो?’ ‘उसकी क्या बात करनी? वह तो अपना है ही। वहीं तो रह रहा हूँ।’ हाड़ाजी ने मुझे समझाया और मेरे पूछे बिना ही सूचित किया - ‘बीस-बाईस लाख से कम का नहीं है अभीवाला मकान। दोनों प्लॉटों की कीमत अलग।’ मैंने पूछा - ‘इस शास्त्री नगरवाले मकान के लिए आपके पिताजी ने आपकी कितनी मदद की?’ ‘एक पाई की भी नहीं। प्लॉट खरीदने से लेकर यह दो मंजिला मकान बनाने तक, एक-एक पाई मेरी अपनी मेहनत की है।’ हाड़ाजी ने एक बार फिर सगर्व कहा।



और इसके अगले ही क्षण, अकस्मात् ही बेबात की वह बात आ गई जिसके बारे में हम दोनों ने नहीं सोचा था। मेरे मुँह से निकला - ‘याने आपके पिताजी ने तो आप पर भरोसा किया लेकिन आप अपने बच्चों पर भरोसा नहीं कर पा रहे है?’



मैंने कह तो दिया किन्तु खुद ही अचकचा गया। यह बात मेरे मन में कैसे और क्यों आई। अपनी अचकचाहट से उबरता, तब तक हम दोनों के बीच गहरा मौन पसर चुका था। लगभग जंगल में बने, उस हायर सेकेण्डरी स्कूल की सीढ़ियों पर बैठे हम दोनों, एक दूसरे की ओर मानो जड़वत् देख रहे थे। लम्बे-चौड़े मैदान में सैर-सपाटा कर रही, सुबह-सुबह की नरम-नरम, गरम-गरम हवा हमारे कानों में फुसफुसाने लगी। कुछ ही क्षण यह स्थिति रही और मानो तन्द्रा से जागे हों, कुछ इस तरह हाड़ाजी बोले - ‘अरे यार! आपने तो सारी बात ही बदल दी! आपकी बात में दम है। मुझे तो अब सोचना पड़ेगा। मेरा किया-धरा सब बेकार हो गया। मैं जिस बात पर इतरा रहा था वह सब घूल-मिट्टी हो गया।’ सुन कर मेरा अपराध बोध और गहरा हो गया। यह क्या कर दिया मैंने? मैंने लज्जा-भाव से, क्षमा याचना दृष्टि से हाड़ाजी को देखा और कुछ कहता उससे पहले ही हाड़ाजी बोल पड़े - ‘नहीं, नहीं। आप परेशान मत होईए। यह बिलकुल मत सोचिए कि आपने मेरी हँसी उड़ाई है या बेइज्जती कर दी है। मैंने कहा ना? आपकी बात में दम है। आपकी बात ने तो मुझे सोचने को मजबूर कर दिया है। अब तो सब कुछ नए सिरे से सोचना पड़ेगा।’



मुझे तनिक राहत मिली। मैं हाड़ाजी को धन्यवाद के बोल बोलने ही वाला था कि दोनों ‘साम्राज्ञियाँ’ अपने-अपने कागज और झोले-झण्डे व्यवस्थित करते हुए, खिलखिलाती हुई प्रकट हो गईं। हम दोनों ने अपने-अपने वाहन सम्हाले। चारों ने परस्पर नमस्कार किया और ‘कभी फुरसत निकाल कर घर आईएगा’ जैसा रस्मी न्यौता देते हुए चलने को हुए तो हाड़ाजी ने गाड़ी रोकी और बोले - ‘यार! आपकी बात में दम है। मिलने तो नहीं लेकिन आपकी इस बात पर बात करने के लिए आज-कल में आपके पास आता हूँ।’



हम अपने-अपने घरों को लौट चले। रास्ते में, पीछे बैठी मेरी उत्तमार्द्ध ने पूछा - ‘हाड़ाजी कौन सी बात की बात कर रहे थे?’ मैंने कहा - ‘कुछ भी तो नहीं। हाड़ाजी को और उनकी बातों को तो आप जानती ही हैं। उन्हें कुछ कहना था सो कह दिया। बस।’



मेरी उत्तमार्द्ध सन्तुष्ट हो गईं। कुछ नहीं बोलीं। लेकिन मेरे साथ केवल मेरी उत्तमार्द्ध ही नहीं थीं। हाड़ाजी से हुई बात भी साथ चल रही थी।



बात भी कैसी? बेबात की बात।


पव्वे को बोतल समझने की हिमालयी भूल

एक हुआ करते थे मनहरजी। पूरा नाम - श्री रामरिख मनहर। मूलतः राजस्थान के थे। मारवाड़ी। नहीं जानता कि राजस्थान में किस गाँव के थे। मुम्बई में बस गए थे। हिन्दी प्रेमी और हिन्दी सेवी थे। स्थापित होने की ललक लिए मुम्बई पहुँचनेवाले ‘हिन्दीवालों’ के अघोषित सहायक। कवि सम्मेलन-संचालन में निष्णात्। इतने और ऐसे कि उनका पारिश्रमिक (जिस कवि सम्मेलन का संचालन करने के लिए उन्हें बुलाया जाता था, उसमें भाग लेनेवाले) प्रमुख कवि के बराबर।

मैंने उनक संचालनवाले कुछ कवि सम्मेलन देखे-सुने। वे कवि को कुछ इस तरह प्रस्तुत करते मानो वैसा कवि अब तक न तो सामने आया है और न ही भविष्य में आ पाएगा। किन्तु मैंने प्रायः ही अनुभव किया कि इस तरह पेश किए गए अधिकांश कवि ‘गीला पटाखा’ बनकर बैठते। एक बार मैंने उनसे पूछा कि वे ऐसा क्यों करते हैं? उनका जवाब मुझे, बरसों बाद भी लगभग शब्दशः याद है - ‘भाया! मैं तो वा ने बोतल पेश करूँ। ऊ पव्वो निकल जाय तो में की करूँ?’



बाबा रामदेव को लेकर मेरी दशा भी कुछ ऐसी ही हो गई है। फर्क यही है कि मेरी इस दशा के लिए कोई मनहरजी नहीं, मैं खुद ही दोषी हूँ। मैंने ही अत्यधिक अपेक्षा कर ली थी। सो, दुःखी तो मुझे होना ही है और मुझे ही होना है। बाबा रामदेव का क्या दोष?


अण्णा हजारे के अभियान को लेकर बाबा रामदेव के व्यवहार ने मुझे हतप्रभ तो किया ही, निराश भी किया। पहले ही झटके में मुझे लगा कि भ्रष्टाचार निर्मूलन को लेकर बाबा ‘सर्व केन्द्रित’ नहीं, ‘स्व केन्द्रित’ हैं। मुझे यह भी लगा कि अण्णा की लोकप्रियता, उनके व्यापक स्वीकार्य और वांछित परिणति तक पहुँचे उनके सफल अनशन ने बाबा की लकीर छोटी, बहुत-बहुत छोटी कर दी है। इतनी छोटी कि बाबा इसे क्षणांश को भी नहीं पचा पाए और पहले ही क्षण वे अण्णा के सहयोगी के बजाय उनके प्रतिद्वन्द्वी बन कर सामने आ गए। अपनी कही बात को व्याख्यायित करने के लिए वे नेताओं की तरह व्यवहार करते नजर आए। उनकी पहली ही प्रतिक्रिया ने अनुभव करा दिया कि उनका मकसद, भ्रष्टाचार निर्मूलन हो न हो, आत्म प्रचार अवश्य है। उनकी बातों से लगा कि अण्णा को जो प्रचार मिला, उस पर बाबा अपना अधिकार मान रहे थे।


जब मोह भंग होता है तो पछतावा करते आदमी को बीती बातें बिना किसी काशिश के ही याद आने लगती हैं। मुझे भी आने लगीं। मुझे याद आया कि बाबा के संगठन ‘भारत स्वाभिमान’ की शाखाएँ, गाँव-गाँव में काम कर रही हैं। बाबा ने जब भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाया था तो उनके इस संगठन की शाखाओं ने भी अपने क्षेत्राधिकार में प्रदर्शन किए थे। अब याद आ रहा है कि वे प्रदर्शन नाम मात्र की खानापूर्ति बन कर रह गए थे जिनमें शामिल लोग अंगुलियों पर गिने जा सकते थे। इसके विपरीत, अण्णा को तो अपना कोई संगठन भी नहीं है और उन्होंने तो कहीं भी प्रदर्शन के लिए किसी से आग्रह-आह्वान नहीं किया था। इसके बावजूद, पूरे देश में लोग अण्णा के पक्ष में बड़ी सुख्या में सड़कों पर आए, जुलूस निकाले, ज्ञापन दिए, मोमबत्तियाँ जलाईं। किसी ने भी न तो अण्णा से पूछा और न ही, अपनी भागीदारी के बाद अण्णा को ‘परिपालन सूचना’ (कम्प्लायंस रिपोर्ट) भेजी। हर कोई अपना-अपना काम कर, आत्म सन्तुष्ट, प्रसन्न और गर्वित अनुभव कर रहा था। फर्क साफ-साफ नजर आया। लोगों ने अनुभव किया कि अण्णा का अभियान ईमानदार और इसका लक्ष्य सचमुच में निस्वार्थ भाववाला व्यापक राष्ट्रहित और लोकहित था और इसीलिए वे स्वस्फूर्त भाव से सड़कों पर आए।


मैं आज बाबा रामदेव को लगभग खिसियानी मुद्रा में ‘हें, हें’ करते देख परेशान हूँ। काले धन और भ्रष्टाचार विरोधी अपने अभियान को निरन्तर बनाए रखने की घोषणा उन्होंने फिर की है। किन्तु मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा है। मेरे मन की मूरत ध्वस्त हो चुकी है। बाबा को लेकर लिखी मेरी दोनों पोस्टों पर कुछ अनुभवी और परिपक्व ब्लॉग बन्धुओं ने फोन पर मुझे समझाइश दी थी - बाबा से अत्यधिक अपेक्षा न करने की। उन्होंने अत्यन्त सदाशयतापूर्व कहा था कि अन्यथा व्याख्यायित किए जाने की आशंका के चलते वे मेरी उन दोनों पोस्टों पर जानबूझकर टिप्पणियाँ अंकित नहीं कर रहे हैं। उनकी बातें मुझे अब समझ पड़ रही हैं।


अण्णा के अभियान को लेकर अपनी प्रतिक्रिया का स्पष्टीकरण देने के कुछ ही दिनों बाद, अपने सन्यास दीक्षा की सोलहवीं वर्ष गाँठ समारोह में बाबा ने आशंका जताई कि कतिपय लोग उन्हें जेल में डालने की जुगत कर रहे हैं लेकिन उनके नामों का खुलासा ‘वक्त आने पर’ करेंगे। उन्होंने पहले भी कहा था कि एक मन्त्री ने उनसे दो लाख रुपयों की रिश्वत माँगी थी और पूछने पर नाम नहीं बताया था। ‘वक्त आने पर’ नाम बतानेवाली भाषा तो अवसरवादी और सुविधावादी राजनेता ही वापरते हैं। बाबा तो सन्यासी हैं? उन्हें किससे भय? किस कारण से वे ‘ठीक वक्त’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं?


मुझे तो यह जानकर भी आश्चर्य और निराशा हुई कि बाबा ‘सन्यासी’ हैं। मैं तो उन्हें ‘योग गुरु’ ही मानता रहा हूँ। किन्तु उन्होंने तो सोलह वर्ष पूर्व ही सन्यास ले लिया था! यह कैसा सन्यासी है जो कारखाने चलाता है, व्यापार करता है, जिसे सन्त समाज के लोग ‘साधु नहीं, उद्योगपति’ मानते हैं, जिसके मुकाबले अण्णा को सन्त मानते हैं, जिससे मन्त्री रिश्वत माँगते हैं, जिसे लोग जेल में डालने की जुगत करते हैं और जो अपने व्यापार के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनी खरीदता है? सन्यासी तो लंगोटी भी विवशता में रखता है। यह सन्यासी तो पंचतारा सुविधाओं से लैस नजर आता है!


रही-सही कसर, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की मध्य प्रदेश इकाई के मुख पत्र ‘लोकजतन’ ने कर दी। 1 से 15 अप्रेलवाले अंक में छपा समाचार यहाँ प्रस्तुत है। समाचार अपने आप में स्पष्ट है। मैं इस समाचार को जस का तस स्वीकार नहीं कर रहा किन्तु इसे खारिज भी नहीं कर पा रहा हूँ। बाबा ने या उनके किसी प्रवक्ता/समर्थक ने अब तक इस समाचार का खण्डन नहीं किया है। वैसे भी बिना आग के धुआँ नहीं होता। यदि यह समाचार आंशिक रूप से भी सही है तो अब बाबा को ‘योग गुरु’ कह पाना भी कठिन हो जाएगा।


मैं शायद ‘अतिवादी’ हूँ - मोहग्रस्त होने के मामले में भी और विकर्षित होने के मामले में भी। कुछ ऐसी ही स्थिति/मनःस्थिति में यह सब लिख रहा हूँ। मेरी एक मूरत भंग हो गई है और मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा क्यों कर हुआ और अब क्या करूँ?


अपनी इस दशा के लिए मेरे सिवाय और कोई जिम्मेदार नहीं है। बाबा रामदेव तो बिलकुल ही नहीं। गलती मेरी ही थी। सो सजा भी मुझे ही भुगतनी होगी।


बाबा रामदेव मुझे क्षमा करें। उनके तमाम समर्थक भी मुझे क्षमा करें। मैंने पव्वे को बोतल समझने की हिमालयी भूल कर दी।

अच्छा हो कि ऐसा यह इकलौता समर्थन हो

प्रबुध्‍दजी बहुत दु:खी मिले। पूछा तो उन्‍होंने जो किस्‍सा सुनाया वह जस का तस पेश है -

''मुझे आशंका थी कि भाई लोग ऐसा करेंगे। मुझसे पूछना तो दूर, मुझे बताएँगे भी नहीं, मेरा नाम शामिल कर देंगे और अखबारों में छपवा देंगे। मेरी आशंका सौ टका सच हुई। नतीजा यह हुआ कि आज (शनिवार, 9 अप्रेल को) मैंने खुद को घर में ही बन्द रखा और तभी निकला जब निकलना मजबूरी बना। जब-जब भी घर से बाहर निकला, तब-तब लगा, लोग मुझे ही घूर रहे हैं और मुझ पर हँस रहे हैं।

''हमारे एक समृद्ध मित्र इन दिनों चेतन भगत से अत्यधिक प्रभावित हैं। चाह रहे हैं कि अनुचित के प्रतिकार और विरोध के लिए, स्थानीय स्तर पर हमने भी ‘कुछ’ करना चाहिए। सो, वे और उनके साथ-साथ हम कुछ लोग एक संस्था गठित करने में लगे हुए हैं। नाम तय हो गया है और पदाधिकारियों के नाम भी। परामर्शदाताओं से लिखित मंजूरी ले ली गई है। मैं यथा सम्भव इस कोशिश को निरुत्साहित कर रहा हूँ क्योंकि मुझे लग रहा है कि ‘कुछ’ करने के नाम पर हम सब अन्ततः आत्म प्रचार वाली प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करने में ही लग जाएँगे।

''ये तमाम मित्र चाह रहे थे कि अण्णा हजारे के समर्थन में, हमारी गठित होनेवाली संस्था के नाम से ‘कुछ’ किया जाए। ‘कुछ’ का मतलब किसी को नहीं पता था। बस, ‘कुछ’ किया जाना चाहिए। मुझे गन्ध लगी तो मैंने ऐसा ‘कुछ’ भी न करने के संकेत दिए और कहा कि यदि अण्णा का समर्थन करना ही है तो हम सब बिना किसी पूर्व सूचना/प्रचार के, किसी चौराहे पर खड़े हो जाएँ और अपनी-अपनी आत्मा के साक्ष्य में खुद से वचनबद्ध हों कि व्यक्तिगत स्तर पर हम भ्रष्टाचार नहीं करेंगे। हमें एक वाक्य की शपथ लेनी है - ‘मैं भ्रष्टाचार नहीं करूँगा।’ मेरा मानना था (जो इस क्षण भी है) कि अण्णा को यही सबसे अच्छा और सबसे सच्चा समर्थन होगा। किन्तु (जैसा कि मुझे आकण्ठ विश्वास था) मित्रगण इस पर सहमत और तत्पर नहीं हुए। मैंने बात खत्म कर दी किन्तु अखबार ध्यान से देखता रहा।

''कल, 8 अप्रेल तक किसी अखबार में कुछ भी नजर नहीं आया तो खुश होता रहा। लगा, भाई लोगों ने मेरी बात मान ली है।

''किन्तु आज, 9 अप्रेल की सवेरे यह खुशी काफूर हो गई। हमारी (अब तक अस्तित्व में नहीं आई) संस्था की ओर से अण्णा के समर्थन में विज्ञप्ति जारी की गई थी जिसमें मेरा नाम भी शामिल था। मुझे अच्छा नहीं लगा, किसी से कुछ कहा भी नहीं किन्तु बात के इस मुकाम तक पहुँचने का किस्सा जानने की उत्सुकता पैदा हो गई। मालूम हुआ कि 7 अप्रेल तक तो सब चुप रहे किन्तु 8 अप्रेल को भाई लोगों का धैर्य जवाब दे गया। 5 अप्रेल को अण्णा अनशन पर बैठे थे और टेलीविजन बता रहा था कि सात की अपराह्न तक सारा देश ‘अण्णामय’ हो गया था। पानी सरकार की नाक तक आ पहुँचा था। सोनिया गाँधी चल कर प्रधानमन्त्री मनमोहनसिंह के निवास पर पहुँची थीं और उनके जाने के बाद मनमोहनसिंह, राष्ट्रपति से मिलने गए थे। लग रहा था कि रीछ से हाथ छुड़ाने के लिए सराकर किसी भी क्षण हथियार डाल सकती है। भाई लोगों को साफ लग गया कि आज (8 अप्रेल को) सरकार और अण्णा में समझौता हो सकता है। याने, समर्थन की प्रेस विज्ञप्ति जारी करनी है तो आज ही करनी पड़ेगी वर्ना कल तो चिड़िया खेत चुग जाएगी। सो, भाई लोगों ने ताबड़तोड़ प्रेस विज्ञप्ति तैयार की। आपस में एक दूसरे को दिखाई और शाम होते-होते हमारी, गर्भस्थ संस्था की विज्ञप्ति अखबारों के स्थानीय कार्यालयों में पहुँच गई और आज छप भी गई।

''मुझे बिलकुल ही अच्छा नहीं लग रहा है। मैं खुद से नजरें नहीं मिला पा रहा हूँ। यह अण्णा के साथ नहीं, देश के साथ, उद्विग्न जन भावनाओं के साथ, अपनी आत्मा के साथ और ईश्वर के साथ धोखा है।

''भगवान करे, अण्णा को ऐसा समर्थन, यह इकलौता हो।''

प्रबुध्‍दजी नीची नजरें किए, चुप हो गए। मुझे प्रबुध्‍दजी पर गुमान हो आया। उनकी इस आत्‍म स्‍वीकृती की ईमानदारी में भी अण्‍णा का भरपूर समर्थन लगा मुझे।


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अपना घर, अपनी जिम्मेदारी

‘लीजिए! देखिए! पत्रकारिता को अब ये ही दिन देखने बाकी रह गए थे।’ निःश्वास लेते हुए, सामने से आ रहे एक ऑटो रिक्शा की ओर संकेत करते हुए कहा रमाकान्तजी शुक्ल ने। मैंने देखा, यात्रियों से लदे-फँदे आटो रिक्शा पर, रजिस्‍ट्रेशन नम्बर से ऊपर, पीली पट्टी वाले हिस्से में, अंग्रेजी में, बड़े-बड़े अक्षरों में ‘प्रेस’ लिखा हुआ था - कुछ इस तरह कि देखनेवाले की नजर सबसे पहले इस ‘प्रेस’ पर ही पड़े और वहीं टिकी रह जाए। मैंने कहा - ‘जब आपको फुरसत हो तो इस मुद्दे पर तसल्ली से बात करेंगे।’


रमाकान्तजी सेवा निवृत्त अध्यापक हैं और पत्रकारिता से उनका वंशानुगत सम्बन्ध है। सेवा निवृत्ति के बाद भी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। वे मुझसे भी पहलेवाली पीढ़ी की पत्रकारिता से सम्बद्ध रहे हैं सो वर्तमान पत्रकारिता और इसके प्रतिमानों में आए बदलावों से भावाकुल, असहमत और व्यथित बने रहते हैं। हम दोनों ही, जनसम्पर्क विभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी श्री बद्रीलालजी शर्मा के दाह संस्कार से लौट रहे थे। मैं वाहन चला रहा था। वे पीछे बैठे हुए थे। घर लौटते हुए, जवाहर मार्ग (न्यू रोड़) पर इस आटो रिक्शा से हमारा सामना हुआ था।


जब मैंने ‘तसल्ली से बात करेंगे’ कहा था, तभी पता था कि ऐसा नहीं हो पाएगा। प्रथमतः तो हम सब अपनी-अपनी उलझनों से ही मुक्त नहीं हो पाते और दूसरे, ऐसी बातें ‘श्मशान वैराग्य’ से अधिक नहीं होतीं। श्मशान से बाहर आए नहीं कि सब कुछ हवा हो जाता है।


लेकिन मेरे साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। इस मुद्दे पर कुछ पत्रकार मित्रों से एकाधिक बार बातें हुईं और हर बार मैंने पाया कि ‘प्रेस’ की इस दशा पर विलाप करने के लिए तो हर कोई एक पाँव पर बैठा है किन्तु ‘कुछ’ करने के लिए किसी के पास फुरसत नहीं है। शायद कुछ गलत कह रहा हूँ। फुरसत तो सबको है किन्तु इस नेक काम के लिए जोखिम उठाने का साहस किसी में नहीं है।


मेरे कस्बे सहित अन्य स्थानों के पत्रकार संगठन भी यह माँग करते रहे हैं (अभी भी कर ही रहे हैं) कि वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने के मामले में पुलिस कड़ी कार्रवाई करे। मुझे यह माँग आज तक समझ नहीं आई। मैं एक पल के लिए भी इससे सहमत नहीं हो पाया। सारी दुनिया की समस्याएँ निपटाने का श्रेय अपने खाते में जमा करनेवाले पत्रकार इतने दयनीय, लाचार, अक्षम हो गए कि अपनी इस छोटी सी समस्या के निदान के लिए पुलिस से याचना कर रहे हैं! वह भी उस पुलिस से, जिसे वे सारी समस्याओं की जड़ बताने से नहीं चूकते और जिसके उच्छृंखल व्यवहार और अन्याय-अत्याचारों की कथाएँ छापने की होड़ में वे सबसे पहले और सबसे आगे बनने की प्रतियोगिता में लगे रहते हैं! पत्रकारों और पत्रकार संगठनों की यह माँग मुझे चौंकाती है, असहज करती है और उन दो बिल्लियों की लोक कथा याद दिला देती है जो एक रोटी के बँटवारे के लिए एक बन्‍दर की सहायता लेती हैं और बन्‍दर एक-एक कौर कर, पूरी रोटी खुद खा जाती है और बिल्लियॉं टुकुर-टुकुर देखते रह जाती हैं।


मेरे हिसाब से इसका बहुत ही सीधा और आसान हल खुद पत्रकारों के पास मौजूद है। तमाम पत्रकार किसी न किसी संगठन से जुड़े हुए हैं। पत्रकारों के ऐसे सारे संगठन, पुलिस को अपने-आने सदस्यों की सूची दे दें और पुलिस से कहें कि इन सूचीबद्ध व्यक्तियों के वाहनों के अतिरिक्त जिस भी वाहन पर ‘प्रेस’ लिखा देखे, उस पर कड़ी कार्रवाई करे। मुझ यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक भी पत्रकार और एक भी संगठन ऐसा करने को तैयार नहीं हुआ। अलग-अलग समय और स्थानें पर सबने एक ही बात कही - ‘हम बुरे क्यों बनें? पुलिस जाँच करे और कार्रवाई करे।’ यद्यपि मैं इससे सहमत नहीं किन्तु एक पल को यह बात मान भी ली जाए तो क्या खातरी कि पुलिस की जाँच से पत्रकार सहमत और सन्तुष्ट हो ही जाएँगे? यदि पुलिस की जाँच उन्हें अधूरी या पक्षपातपूर्ण लगी तो? तब पुलिस जाँच को गलत बताने के लिए आपके पास क्या प्रमाण और तर्क होंगे? क्या तब वे प्रमाण आप पुलिस को देंगे? यदि हाँ तो पहले ही क्यों नहीं दे देते? मालवी कहावत है - ‘या तो बाप का नाम बताओ या श्राद्ध करो।’ क्या यह कहावत चरितार्थ नहीं हो रही? हम न तो नाम बताएँगे, न जाँच में मदद करेंगे और न ही जाँच से सन्तुष्ट होंगे। तब, अन्ततः हम चाहते क्या हैं?


यह अपना घर सम्हालनेवाली बात है। घर अपना है तो देख-भाल, रख-रखाव, चौकीदारी, सुरक्षा, घर की बेहतरी याने सब कुछ हमारी ही जिम्मेदारी है। स्वर्ग देखने के लिए खुद को ही मरना पड़ता है। पराये पूतों से वंश नहीं चलता। अपने रेवड़ की काली भेड़े हमें ही चिह्नित कर उनसे मुक्ति पानी पड़ेगी। जब मैं यह कह रहा हूँ तो खुद को भी इसमें शरीक कर रहा हूँ और तनिक आत्म बल से शरीक कर रहा हूँ।


सब तरह के लोग सब जगह होते हैं। सो, ‘अनुचित आचरण’ करनेवाले लोग मेरे व्यवसाय में भी हैं। जब भी हम लोगों को किसी बीमा एजेण्ट के अनुचित आचरण की जानकारी मिलती है तो हम दस-पाँच लोग उसे घेरते हैं। प्रताड़ना और समझाइश से शुरु होकर सबसे पहले हम लोग उससे ग्राहक से क्षमा याचना करवा कर ग्राहक की क्षति पूर्ति कराते हैं और चेतावनी देकर तथा भविष्य में अनुचित आचरण न करने का वचन लेकर उसे छोड़ते हैं। जो अपनी आदत से बाज नहीं आते, उनके विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई करने के लिए हम लोग खुद ही प्रबन्धन से आग्रह करते हैं। मैं जानता और मानता हूँ कि ऐसा करने से समस्या समाप्त नहीं हो जाती। वह बनी रहती है। आज एक ने सुधरने का वादा कर लिया तो कल कोई दूसरा बिगड़ैल सामने आ जाता है। बिगड़ने और सुधारने की कोशिशें करने की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। हमारे कुछ साथी इस प्रक्रिया से प्रायः ही ऊब जाते हैं। तब, बाकी साथी उन्हें ढाढस बँधाते हैं और याद दिलाते हैं कि अपने पेशे की जन छवि बनाए रखने की पहली जिम्मेदारी खुद हम ही लोगों की है। याने, एक थकता है तो बाकी उसे ताजगी देते हैं और हमारा यह क्रम बना रहता है। नहीं जानता कि कितने 'बिगडैल बीमा एजेण्‍ट' अपने वादे पर कायम रहते हैं किन्तु हमारे रोकने-टोकने का यह असर तो होता ही है कि ‘कुछ’ को प्रताड़ित होते देखकर ‘कई’ भयभीत होते हैं और लालच की राह पर बढ़ते उनके कदम निश्चय ही रुक जाते हैं। यह सब करने के लिए हमसे किसी ने नहीं कहा। हम लोग अपनी जिम्‍मेदारी मान कर, अपनी ओर से ही यह करते हैं। अपना घर सुरक्षित बनाए रखने के लिए, उसे सुधारने, सँवारने के लिए, उसकी इज्जत बचाए-बनाए रखने के लिए। यह सब करके हम खुद पर ही उपकार करते हैं। किसी और पर नहीं।


सफलता प्रयत्नों को ही मिलती हैं, प्रलाप-विलाप को नहीं। मंजिल हासिल करने लिए चलना या कि कोशिश करना पहली शर्त है।


और हाँ, बात शुरु जरूर ‘प्रेस’ से हुई थी। किन्तु आप भी मानेंगे कि यह सब पर लागू होती है - समान रूप से। -----

क्षमतावान की विवशता

पहले तो मुझे इस बात पर दुःख हुआ कि मेरा अच्छा-भला बीमा किसी और ने ले लिया। फिर ‘उन’ पर गुस्सा आया कि किसी दूसरे बीमा एजेण्ट को अपना नया बीमा देते समय ‘उन्हें’, दो वर्षों से निरन्तर दी जा रही मेरी, ग्राहक सेवाओं की और अपना नया बीमा मुझे देने के मेरे निरन्तर आग्रह की याद पल भर को भी नहीं आई। बहुत देर तक मन व्यथित-व्याकुल बना रहा। लेकिन उद्विग्नता तनिक कम हुई तो उनकी बातें, उनके स्वरों में घुली शर्मिन्दगी, याचना याद आने लगी और इसी के साथ शुरु हुआ विचारों का झंझावात। उसी में उलझा हुआ हूँ। इस बार आपसे समझना चाहता हूँ इस घटना के निहितार्थ। सहायता कीजिएगा।


वे मेरे पॉलिसीधारक हैं। दो वर्ष पूर्व, राज्य लोक सेवा आयोग से सीधे चयनित, जिला स्तर के अधिकारी। विभाग ऐसा कि न चाहो, न माँगो तो भी लोग रिश्वत दें। नौकरी में आने के पहले ही वर्ष में, अपना आय-कर नियोजित करने के लिए उन्होंने मुझसे बीमा लिया था। अपने न्यूनतम उत्तरदायित्व निर्वहन की अनिवार्यता के अधीन और अपनी आदत के अनुसार मैं उन्हें, अपनी समझ के अनुसार ‘विक्रयोपारान्त उत्कृष्ट ग्राहक सेवाएँ’ उपलब्ध करा रहा हूँ। मुझसे बीमा लेने के बाद से अब तक उन्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं हुई है, यह जानकारी मुझे दूसरों से मिलती रही है।


इन दो वर्षों में, उनकी आय में ही नहीं, उनकी पारिवारिक स्थिति में भी परिवर्तन आया है। उनका विवाह हो गया और ईश्वर ने उन्हें एक बेटी भी दे दी। सो मैं उनसे नया बीमा लेने के लिए निरन्तर आग्रह करता रहा। वे हर बार विचार करने की और ‘बेफिकर रहिए। अब आपके सिवाय किसी और से बीमा लेने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता’ जैसे उत्तर देते रहे।


लेकिन दो दिन पहले उनका फोन आया तो मैं हतप्रभ रह गया। उन्होंने कहा - ‘बैरागीजी! मेरे रीडर ने मुझे चार पॉलिसियाँ टिका दी हैं। आप बताइए कि वे पॉलिसियाँ ठीक हैं या नहीं। उन पॉलिसियों को जारी रखने में मेरी कोई रुचि नहीं है।’ अत्यधिक कठिनाई से अपने क्रोध को नियन्त्रित कर मैंने कहा - ‘टिका दीं मतलब? अधिकारी कौन है - आप या आपका रीडर? और जब आपने पॉलिसियाँ ले ही ली हैं तो मुझसे पूछने का क्या मतलब है? मैं आपसे लगातार आग्रह कर रहा हूँ लेकिन आपने मुझे तो उपकृत नहीं किया। अब, जिससे पॉलिसियाँ ली हैं, उसी से उनके बारे में पूछिए? जिस गाय को आपने बाँटा खिलाया है, उसी का दूध निकालिए। मेरी पॉलिसी के बारे में कोई जानकारी चाहिए तो बताइए। मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत हूँ।’ मेरा स्वर संयत भले ही रहा होगा किन्तु मेरा गुस्सा छिपाए नहीं छिप रहा था। वे घिघियाकर बोले - ‘आपकी बात सौ टका सही है। मैं आपका अपराधी हूँ। किन्तु समझने की कोशिश कीजिए। वह मेरा रीडर है और मैं उसे मना नहीं कर पाया। प्लीज! मेरी मदद कीजिए।’ मुझे उनकी बात बिलकुल अच्छी नहीं लग रही थी। मैंने कहा - ‘इस समय मुझे आप पर बहुत गुस्सा आ रहा है। बाद में बात करूँगा।’ और मैंने अपना फोन बन्द कर दिया।


दो दिन हो गए हैं। मैंने उन्हें फोन नहीं किया है। उन्हें फोन भी करूँगा, उनसे पॉलिसियों के नम्बर लेकर उन्हें सारी जानकारी भी दे दूँगा। मेरी आदत है कि किसी का बीमा लेने के लिए मैं मेरी कम्पनी की किसी भी पॉलिसी की और किसी भी एजेण्ट की बुराई नहीं करता। वे अपनी नई पॉलिसियों को चलाएँ या नहीं, यह निर्णय उन्हें ही करना पड़ेगा। लेकिन विचारों का प्रवाह थम नहीं रहा।


वह क्या कारण हो सकता है कि कोई नियन्ता अधिकारी अपने अधीनस्थ का लिहाज पालने को इस सीमा तक विवश हो जाए कि उस कर्मचारी की अनुचित बात से इंकार न कर पाए? संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों से चयनित अधिकारियों को प्रशासकीय क्षेत्रों में सामान्य से अधिक साहसी, क्षमतावान, कुशल, चतुर माना जाता है। ऐसे अधिकारी खुद भी अपनी इस स्थिति पर इतराते और अतिरिक्त रूप से गर्वित होते हैं और अपनी इस ‘विशेषता’ को जताने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। पदोन्नतियाँ पाकर, अपने पद-स्तर तक पहुँचे अन्य समकक्ष अधिकारियों को हेय भाव से देखते हैं। इसी कारण, भा. प्र. से. (आई. ए. एस.) और भा. पु. से. (आई. पी. एस.) में ‘डायरेक्ट’ और ‘प्रमोटी’ का अघोषित वर्ग-भेद सतह से ऊपर साफ-साफ देखा जाता है। जन सामान्य में भी यह भावना घर की हुई है कि ‘डायरेक्ट’ अधिकारी अतिरिक्त रूप से साहसी होते हैं - इतने कि नेताओं के लिए समस्या बन जाते हैं।


ऐसे में क्या कारण हो सकता है कि ऐसे ‘डायरेक्ट’ अधिकारी अपने अधीनस्थों की अनुचित बात मानने को विवश हो जाएँ, उनका विरोध न कर पाएँ, उनसे असहमत होने में ही असहाय हो जाएँ। दो ही बातें हो सकती हैं। या तो उनमें प्रशासकीय क्षमता नहीं होती, कानूनों-नियमों-प्रक्रिया की जानकारी नहीं होती और इसी कारण अपने कार्य निष्पादन के लिए वे अपने अधीनस्थों की कृपा पर निर्भर हो जाते होंगे। या फिर ऐसे कर्मचारी इनकी रिश्वतखोरी के ‘बिचौलिए’ बन जाते होंगे। तीसरा तो कोई कारण अनुभव नहीं होता। ये दोनों ही बातें केवल इन अधिकारियों के लिए ही नहीं, समूचे लोकतन्त्र और समूचे प्रशासकीय तन्त्र के लिए भी घातक हैं।


जो अधिकारी अपने ही अधिकारों की रक्षा न कर सके वह भला हम सबकी रक्षा कैसे करेगा? कैसे हम सबको न्याय दे-दिला पाएगा?


इसी झंझावात से घिरा हुआ हूँ। उबरने के लिए आपकी सहायता चाहिए। मैं आपके मन्तव्य की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

बाबा रामदेव! मैं हितैषी हूँ, चापलूस नहीं।

प्रिय बाबा रामदेव,

इस बार, पहले से कहीं अधिक चिन्तित होकर यह सब लिख रहा हूँ। पहले की ही तरह इस बार भी देश के, मेरे तथा आपके सरोकारों की चिन्ता के अधीन ही यह सब लिख रहा हूँ।

आज मैंने अखबारों में आपका वक्तव्य पढ़ा कि अगले लोकसभा चुनावों के लिए अपना राजनीतिक दल बनाने का निर्णय तो आप जून के बाद करेंगे किन्तु आपने यह स्पष्ट कर दिया है कि आप अपना राजनीतिक दल बनाएँ या नहीं, प्रत्येक संसदीय क्षेत्र से आपका अपना कोई उम्मीदवार होगा अवश्य। अपना राजनीतिक दल नहीं बनाने की स्थिति में आप विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों में से अपने मानदण्डों के आधार पर योग्य उम्मीदवार का निर्धारण कर, उसे समर्थन देंगे।

अपना राजनीतिक दल बनाने या विभिन्न राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों में से अपना उम्मीदवार तय करने का आपका कोई भी निर्णय सही नहीं है। आपकी भावना बहुत ही अच्छी है और इरादे नेक। किन्तु याद रखिए, आपको शर्तें और कानून-कायदे उसी अखाड़े के मानने पड़ेंगे जिसमें आप कुश्ती लड़ रहे हैं और आप खुद जानते हैं कि यह अखाड़ा आपका नहीं है।

यदि आप अपना राजनीतिक दल बनाएँगे तो देश के तमाम राजनीतिक दल स्वतः ही

आपके विरोधी हो जाएँगे और जिस प्रचण्ड जनसमर्थन के भरोसे आप सदाशयतापूर्वक यह साहस कर रहे हैं, वह जनसमर्थन शून्य प्रायः हो जाएगा क्योंकि आपकी जयकार करनेवालों में से अधिकांश लोग पहले से ही किसी न किसी पार्टी से प्रतिबद्ध हैं और इसीलिए वे ‘पार्टी लाइन’ पर चलेंगे।

जरा याद कीजिए, आपका नार्को टेस्ट कराने की कांग्रेसियों की माँग के जवाब में आपने अपनी सहमति सार्वजनिक रूप से देते हुए कहा था कि आपके साथ ही साथ तमाम सांसदों, मुख्यमन्त्रियों, विधायकों का भी नार्को टेस्ट कराया जाए। तब, राजनेताओं में से एक भी माई का लाल आपके समर्थन में नहीं आया था। वे नेता भी चुप रहे थे जो दिल्ली रैली में आपके मंच पर उपस्थित थे। जाहिर है कि वे सब तब तक ही आपका समर्थन करेंगे जब तक कि आप उनके लिए लाभदाय बने रहें या हानिकारक न बनें। जैसे ही आप अपना राजनीतिक दल बनाएँगे, उसी क्षण, आपके ऐसे तमाम समर्थक आपके प्रतिद्वन्द्वी बन जाएँगे और आपको ‘निपटा’ कर ही चैन लेंगे।

यदि आपने अपना राजनीतिक दल नहीं बनाया और विभिन्न दलों के उम्मीदवारों में से अपने मानदण्डों के अनुकूल उम्मीदवारों को समर्थन दिया तो भी आपकी दशा ‘सब कुछ लुटा कर होश में आए’ जैसी होगी। आपके समर्थन से चुने गए, ऐसे उम्मीदवार अपने-अपने दल से बँधे रहने को (अभिशप्त होने की सीमा तक) विवश रहेंगे। सदनों में, विभिन्न मुद्दों पर अपने-अपने दल के ‘व्हीप’ से बँधे रहेंगे और तब आश्चर्य मत कीजिएगा यदि वे आपके विचारों के प्रतिकूल आचरण करें।

इसलिए, तनिक संयत होकर, विवेक से अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करें।

आपको विश्वास हो न हो, मुझे विश्वास है कि आप देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला सकते हैं। किन्तु इसके लिए आपको ‘निरपेक्ष’ भाव से अपना अभियान चलाना पड़ेगा। यदि आप ‘भ्रष्टाचार’ के विरुद्ध अभियान चलाएँगे तो सारा देश, अपनी-अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता ताक पर रखकर आपके पीछे हो जाएगा। किन्तु आप यदि किसी ‘व्यक्ति विशेष’ या ‘दल विशेष’ के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान चलाएँगे तो वह व्यक्ति/दल और उसके समर्थक स्वाभाविक ही आपके विरोध में सड़कों पर उतर आएँगे। उस दशा में आपके अभियान की असफलता सुनिश्चित है।

आप मानें या न मानें, देश के तमाम राजनीतिक विचारकों और सुधारकों की यह सुनिश्चित धारणा है कि हमारे मँहगे चुनाव ही सारे भ्रष्टाचार की जड़ हैं। जिस दिन चुनाव सस्ते हो जाएँगे, उस दिन नेताओं को ‘चुनावी खर्च की वसूली’ और ‘अगले चुनाव की तैयारी’ के नाम पर धन संग्रह की चिन्ता नहीं रहेगी और वे अधिक ईमानदारी (या कम बेईमानी) से काम करेंगे।

चुनाव सुधार कौन-कौन से हों, इस पर आप मुझसे असहमत हो सकते हैं। उस दशा में आप सरकार पर यह दबाव तो फौरन ही बना सकते हैं कि चुनाव आयोग ने जिन सुधारों के प्रस्ताव सरकार को भेज रखे हैं, उन्हें जस का तस स्वीकार कर लिया जाए। आपके पास अपने सुझाव भी हो सकते हैं। लेकिन तय मानिए कि चुनाव सुधारों के बिना देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं मिल सकती फिर भले की करोड़ों रामदेव अभियान चला लें।

मैं आपमें, मेरे सपने को साकार होते देख रहा हूँ। मैं आपको असफल होते नहीं देखना चाहता। क्योंकि आपकी असफलता का अर्थ होगा - मेरे जवान सपने की मौत।

बरसों बाद देश में कोई एक ऐसा आदमी मैदान में आया है जिसके पीछे लोग आँखें मूँदकर चलने को तैयार हैं। लेकिन यह याद करने की (और चौबीसों घण्टे याद रखने की भी) कोशिश कीजिए कि वे सब आपके पीछे किसी राजनीति कारण या राजनीतिक आह्वान के अधीन नहीं आए हैं। वे सब आपके पीछे इसलिए आए हैं क्योंकि वे सब, राजनीतिज्ञों से निराश हो चुके हैं और आप ‘राजनीतिज्ञ’ नहीं हैं। राजनीतिज्ञों द्वारा लाए गए और लाए जानेवाले परिवर्तन उनके ( राजनीतिज्ञों के) अनुकूल होते हैं और राजनीतिकों द्वारा लाए जानेवाले परिवर्तन देश के, देश के नागरिकों के अनुकूल होते हैं। कृपया इस सूक्ष्म अन्तर को और इसकी व्यंजना को अनुभव करें और ईश्वर ने आपको ‘युग पुरुष’ बनने का जो सुअवसर प्रदान किया है, उसे हाथ से बिलकुल न जाने दें।

सम्भव है, मेरी बातें आपको अनुकूल, प्रिय और सुखकर न लगें। किन्तु मैं क्या करूँ? इस समय तो आप मेरे वह नायक हैं जो राष्ट्रीय चरित्र में आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है। मैं आपका हितैषी हूँ, चापलूस नहीं। चापलूस को अपनी चिन्ता होती है और (अपने नायक के आसपास) अपनी स्थिति सुरक्षित और निरापद बनाए रखने के लिए हाँ में हाँ मिलाता है और अपने नायक की मनपसन्द बातें करता है जबकि हितैषी अपने नायक की सार्वजनिक छवि और प्रतिष्ठा की चिन्ता करता है और अपने नायक को विचलन, स्खलन से बचाने की कोशिश करता है।

आपका, विष्णु बैरागी

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जोखिम लेने का साहस

यह बन्द कमरे की एक गोष्ठी का वाकया है।

हम कोई पैंतालीस-पचास श्रोता थे। विषय था - ‘भ्रष्टाचार : समस्या, कारण और निदान।’ जिलाधिकारी से ठीक बादवाले पदाधिकारी (उप जिलाधीश, उप पुलिस अधीक्षक, सहायक जिला आबकारी अधिकारी जैसे) स्तर के अधिकारी-सज्जन एकमात्र वक्ता थे। उनका विभाग भ्रष्टाचार के लिए जाना जाता है। मेरे घनिष्ठ तो नहीं किन्तु सामान्य से कुछ अधिक ही परिचित। हम दोनों का एक दूसरे के घर आना-जाना है। इस विषय पर हम दोनों में प्रायः ही बात होती ही रहती है। इसलिए, उनकी बातें मेरे लिए नई नहीं थीं। सब कुछ मेरा जाना-पहचाना और पहले से ही सुना हुआ था। उनकी बातें चूँकि मेरे मनोनुकूल थीं इसलिए मुझे अच्छी लग रही थीं और मैं उनसे सहमत था। भ्रष्टाचार को लेकर हम दोनों इस बात पर एकमत थे कि रिश्वत देना हमारी मजबूरी हो सकती है किन्तु रिश्वत लेना हमारी मजबूरी नहीं होती। इसलिए, जब रिश्वत लेने की बारी आए तो हमने नहीं लेनी चाहिए। तभी हम भ्रष्टाचार का विरोध करने का नैतिक साहस और आत्म-बल जुटा पाएँगे। इन अधिकारीजी ने मेरी इस धारणा में तनिक व्यावहारिक बढ़ोतरी की। इनका कहना था कि रिश्वत लेना मजबूरी बन जाने की दशा में कम से कम रिश्वत ली जानी चाहिए। मैं इस बात से सहमत नहीं था किन्तु अधिकारीजी ने ‘सापेक्षिता सिद्धान्त’ से अपनी बात का तार्किक औचित्य प्रतिपादित कर मेरी बोलती बन्द कर दी थी।

यही अधिकारीजी इस गोष्ठी के एकमात्र वक्ता थे और यथेष्ठ प्रभावशीलता से, अधिकारपूर्वक भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी बात कहे जा रहे थे। भ्रष्टाचार का पर्याय बने किसी विभाग का कोई अधिकारी, भ्रष्टाचार को लेकर ऐसे आदर्श बघारे - प्रसादजी को यही गले नहीं उतर रहा था। हम चूँकि श्रोताओं में सबसे पीछे बैठे थे, इसलिए भँवरों की तरह ‘गुन-गुन’ करते हुए बातें कर पा रहे थे। अधिकारीजी के भाषण से प्रसादजी की अकुलाहट क्षण-प्रति-क्षण बढ़ती ही जा रही थी। अन्ततः मुझे तनिक कठोर हो कर कहना पड़ा - ‘भाषण के बाद जब चाय-पान होगा, तब अधिकारीजी से आप खुद ही पूछ लीजिएगा।’

कोई चालीस मिनिट का भाषण समाप्त हुआ। श्रोताओं को चाय पहुँचाई जाने लगी। हम सबसे पीछे बैठे थे सो हमारा नम्बर सबसे बाद मे ही आना था। प्रसादजी को फिर मौका मिल गया। बोले - ‘आप पूछिएगा जरूर। भ्रष्टाचार करते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई कैसे बोल सकता है?’ मैंने कहा - ‘आपका भी तो इनसे मिलना-जुलना है। आप ही पूछिएगा।’ प्रसादजी तनिक घबरा गए। बोले - ‘बुरा मान गए तो?’ मैंने कहा - ‘मानें तो मान लें। आपका क्या बिगाड़ लेंगे?’ प्रसादजी की घबराहट तनिक बढ़ गई। बोले - ‘कैसी बातें करते हैं आप? बड़े अफसर हैं। नुकसान तो कर ही सकते हैं।’ उपेक्षा भाव से मैंने कहा - ‘तो मत पूछिए।’ प्रसादजी बोले - ‘आपने ऐसे कैसे कह दिया कि मत पूछना? आप हिम्मतवाले हैं और आपकी स्पष्टवादिता के बारे में सब जानते हैं। आप ही पूछिएगा।’ आँखें तरेरते हुए मैंने जवाब दिया - ‘और वे मुझसे बुरा मान गए तो? मेरा नुकसान कर दिया तो?’ खिसिया कर, निष्प्राण हँसी हँसते हुए प्रसादजी बोले - ‘नहीं। नहीं। आपका कोई क्या बिगाड़ लेगा। आप ही पूछिएगा।’ शुष्क और कठोर स्वरों में मैंने जवाब दिया - ‘मैं तो इन्हें और इनके बारे में काफी-कुछ जानता हूँ। मुझे कुछ नहीं पूछना। पूछना हो तो आप ही पूछिएगा।’ प्रसादजी असहज हो गए। कुछ बोलते उससे पहले ही खुद अधिकारीजी हम दोनों के लिए चाय के गिलास लिए चले आए। ‘नमस्कार-चमत्कार’ की रस्म अदायगी के साथ गिलास लेते हुए मैंने कहा - ‘ये प्रसादजी हैं। मेरे मित्र हैं। इनका मानना है कि आप खुद रिश्वत लेते हैं इसलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाषण देने का आपको कोई नैतिक अधिकार नहीं है। ये आपसे कुछ पूछना चाहते हैं।’ प्रसादजी को काटो तो खून नहीं। मानो संज्ञा शून्य हो गए हों। ‘हें, हें’ करते भी नहीं बना। चेहरा पीला पड़ गया। जड़वत् हो, अधिकारीजी का मुँह देख रहे थे। अधिकारीजी हँस कर बोले - ‘सारे सवालों का जवाब दूँगा। किन्तु यह समय और जगह ठीक नहीं है। कल रविवार है। कल सुबह की चाय मेरे साथ ही पीजिए।’ प्रसादजी तब भी जस के तस बने हुए थे। अधिकारीजी उन्हीं से बोले - ‘बैरागीजी को कल सुबह मेरे घर लाना आपकी जिम्मेदारी रही प्रसादजी। मैं आप दोनों की राह देखूँगा। ऐसा न हो कि कल मुझे बिना चाय के रह जाना पड़े।’ कह कर, अधिकारीजी फुर्र हो गए।

‘यह आपने क्या कर दिया? कहाँ फँसा दिया आपने मुझे? पता नहीं कल क्या होगा।’ ‘भई गति साँप छछूँदर केरी’ वाली दशा में प्रसादजी मानो घरघरा रहे थे। उनके मजे लेते हुए मैंने कहा - ‘यह तो अब कल ही मालूम हो सकेगा। जो होना होगा, हो जाएगा। यह बताइए कि कल सुबह कितने बजे आएँगे मुझे लेने?’ जिबह होने से पहले बकरा जिन नजरों से कसाई को देखता होगा, कुछ ऐसी ही नजरों से देखते हुए प्रसादजी बोले - ‘आठ बजे आ जाऊँगा। लेकिन मुझे बचा लीजिएगा। मेरा कोई नुकसान न हो जाए।’ अब मैं खुलकर हँसा और बोला - ‘प्रसादजी! कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है। अपने सवालों के जवाब मुफ्त में पाने की उम्मीद बिलकुल मत कीजिएगा।’ और पसीना-पसीना दशा में प्रसादजी को छोड़ मैं चला आया।

अगली सुबह हम दोनों अधिकारीजी के ‘बंगले’ पर पहुँचे। मैं तो दसियों बार आ चुका था। प्रसादजी पहली बार आए थे। सो, कौतूहल की बस्ती उनकी नजरों में ही बसी हुई थी। ‘ड्राइंग रूम’ कहीं से भी ‘ड्राइंग रूम’ नहीं था - किसी दफ्तर के बड़े बाबू के ‘ड्राइंग रूम’ से भी गया-बीता। खुद अधिकारीजी ने दरवाजा खोला। ग्यारहवीं में पढ़ रहा उनका बड़ा बेटा पहले पानी और थोड़ी देर बाद चाय लाया। चाय बिलकुल ‘सूखी’ थी - साथ में बिस्किट भी नहीं। अधिकारीजी ने प्रसादजी से कहा - ‘कहिए! क्या जानना चाहते हैं मुझसे?’ प्रसादजी निःशब्द। मानो, मुँह में जबान ही न हो। रुँआसी मुख-मुद्रा में मेरी ओर देखने लगे। मैंने कहा - ‘मैं कुछ भी नहीं बोलूँगा। जो भी बोलना है, आप ही बोलेंगे। और यह भी जान लीजिए कि कल रात इनसे मेरी बात हो गई है। जब तक आप पूरी पूछताछ न कर लेंगे, ये आपको जाने नहीं देंगे।’ प्रसादजी का कण्ठ सूख गया था। आवाज नहीं निकल रही थी। चाय का कप नीचे रखकर पहले दो घूँट पानी पीया और मानो माफी की याचना और अपेक्षा करते हुए कोई गुनाह मंजूर कर रहे हों इस तरह अपने सवाल रखे।

अधिकारीजी ने विस्तार से अपनी बात कही। वे रिश्वत लेते हैं लेकिन उतनी ही जितनी उन्हें ‘ऊपर’ पहुँचानी होती है। रिश्वत का एक पैसा भी अपने घर में नहीं रहने देते। उन्होंने कहा - ‘नौकरी करता हूँ, इसलिए रिश्वत लेनी पड़ती है। रिश्वत लेने के लिए नौकरी नहीं करता।’ वे नायब तहसीलदार स्तर पद पर नौकरी में आए थे। दो पदोन्नतियाँ लीं और दोनों ही अपनी योग्यता और परिश्रम के दम पर लीं। पदोन्नति के लिए एक पैसे की रिश्वत नहीं दी। रोज का रोज निपटा कर आते हैं। कोई फाइल नहीं रोकते। जो भी फाइल टेबल पर आती है, हाथों-हाथ निपटा देते हैं। गैर कानूनी काम नहीं करते। यदि करना पड़े तो इस हेतु उच्चाधिकारियों से लिखित में आदेश लेते हैं। पद और अनुशासन क नाम पर अपने अधीनस्थों को भयभीत नहीं करते किन्तु कामचोरों को बख्शते भी नहीं। नौकरी के दौरान, जब-जब, जहाँ-जहाँ तबादला हुआ, प्रसन्नतापूर्वक गए। सरकारी वाहन का निजी उपयोग आपात स्थितियों में ही करते हैं। घरु कामों के लिए अपने ‘बंगले’ पर दफ्तर के कर्मचारियों को बुलाना पसन्द नहीं करते।

दो बेटे हैं। दोनों ही मध्यम दर्जे के निजी स्कूल में पढ़ते हैं। अपनी जरूरतें कम रखते हैं और कोई व्यसन नहीं पालते। इनके स्वभाव और पूर्वाचरण को देखते हुए अब तो उच्चाधिकारी भी इनसे गैर वाजिब काम नहीं कराते और न ही ‘धन संग्रह’ की जिम्मेदारी सौंपते हैं। इनकी ‘ख्याति’ के चलते, नेता भी इनके पास अपरिहार्य स्थिति में ही जाते हैं। कामकाज इतना पारदर्शी और साफ-सुथरा कि अधिकारियों/नेताओं को असुविधा भले ही होती हो, शिकायत का मौका नहीं मिलता। इनके दिए निर्णयों में से एक पर भी अपील नहीं हुई है।

अधिकारीजी कह रहे थे और प्रसादजी ‘विचित्र किन्तु सत्य’ की तरह सुने जा रहे थे। मेरे लिए नया कुछ भी नहीं था। सब कुछ ‘बासी’ था। इस बीच चाय खत्म हो चुकी थी। अधिकारीजी ने दूसरी बार बनवाई। वह भी खत्म हो रही थी। अपनी बात समाप्त करते हुए अधिकारीजी ने कहा - ‘प्रसादजी! जितना मुझे कहना था, कह दिया। आपको और कुछ पूछना हो तो पूछिए। मेरी बातो को आप सच मानें या न मानें, मेरे बारे में आप क्या धारणा बनाएँ, मुझे ईमानदार मानें या भ्रष्ट, यह चिन्ता मुझे बिलकुल ही नहीं है। मुझे आपके नहीं, अपने ही सवालों के जवाब खुद को देने हैं। इतना भरोसा कीजिएगा कि आपने जो चाय पी है, उसकी एक बूँद भी रिश्वत या भ्रष्टाचार की नहीं है।’

प्रसादजी ‘बुड़बक’ की तरह, हक्के-बक्के, स्तब्ध, अविचल बैठे, सूनी नजरों से अधिकारीजी को देखे जा रहे थे। उन्हें कुछ भी सम्पट नहीं पड़ रही थी। मैंने उनका कन्धा सहलाया और कहा - ‘और कुछ पूछना हो तो पूछिए। वर्ना चलें।’ प्रसादजी अपने में लौटे और हड़बड़ा कर खड़े हो गए। चाय के लिए धन्यवाद देना तो दूर रहा, चलने से पहले, ढंग से नमस्कार भी नहीं कर पाए।

मुझे घर छोड़ने तक भी वे सहज नहीं हो पाए। उनकी दशा ऐसी थी मानो किसी शाप-मुक्त यक्ष ने उनकी आत्मा को सहला दिया हो। मुझसे भी बिना नमस्कार किए चले गए।

तब से लेकर अब तक मैं बहुत खुश हूँ। इसलिए नहीं कि किसी ईमानदार (या कम भ्रष्ट) अधिकारी से मैं मिला या किसी को मैंने मिलवा दिया। इसलिए कि भले ही विवशता में या संकोच में पड़कर या मुसीबत में फँसकर ही सही, एक आदमी ने सवाल करने की जोखिम लेने का साहस तो किया!
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