दिवंगत के लिए सौभाग्य की तलाश
‘प्रेस‘ : सुखद आश्चर्य की चतुष्पदी
वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने पर केन्द्रित मेरी पोस्ट अपना घर, अपनी जिम्मेदारी’ के प्रकाशन के चार-पाँच दिनों बाद महेन्द्रजी का फोन आया कि मेरे उक्त आलेख पर वे लम्बी टिप्पणी करनेवाले हैं। मेरी जिज्ञासा के उत्तर मे उन्होंने संक्षिप्त में जो कुछ कहा वह सुनकर मैंने कहा - ‘आप ब्लॉग पर टिप्पणी मत कीजिए। मैं आपके पास आ रहा हूँ। मुझे व्यक्तिशः पूरी बात बताईएगा। आपकी बात को मैं स्वतन्त्र लेख के रूप में देने पर विचार करूँगा।’ उनके सम्पादकीय कक्ष में कोई डेड़ घण्टे के वार्तालाप के बाद मेरे लिए अनिवार्य हो गया था कि जो कुछ सुना, उसे ‘अपना घर, अपनी जिम्मेदारी’ की तरह ही, स्वतन्त्र लेख के रूप में प्रस्तुत करूँ।
अपने पत्र में श्रीअग्रवाल ने कहा कि उनके अखबार से जुड़े प्रत्येक कर्मचारी को प्रबन्धन द्वारा परिचय पत्र दिया गया है, केन्द्र और/अथवा राज्य सरकार द्वारा अधिमान्यता प्राप्त पत्रकारों को तत्सम्बन्धित सरकार ने अलग से परिचय पत्र दिया है, प्रधानमन्त्री/मुख्यमन्त्री तथा ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों से जुड़े विशेष आयोजनों में शामिल होने के लिए वाहनों तथा पत्रकारों को अलग से विशेष पास जारी किए जाते हैं। ऐसे में वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने को श्रीअग्रवाल ने अनुचित और अशोभनीय माना।
महेन्द्रजी के अनुसार, ‘दैनिक भास्कर’ से जुड़े लोगों के वाहनों पर 10 अक्टूबर 2010 के बाद ‘प्रेस’ अथवा ‘भास्कर’ लिखा नजर नहीं आता। मुझे विश्वास नहीं हुआ। मैंने, ‘भास्कर’ कार्यालय के बाहर रखे वाहनों को ध्यान से देखा। महेन्द्रजी की बात सच थी। केवल एक मोटर सायकिल पर ‘प्रेस’ लिखा हुआ था, शेष सारे वाहनों की नम्बर प्लेटें सामान्य थीं। ‘उस एक’ मोटर सायकिल के बारे में महेन्द्रजी ने, अपने कक्ष से बाहर निकले बिना ही कहा कि वह किसी विज्ञापन एजेन्सी से सम्बद्ध व्यक्ति की होगी जो ‘भास्कर’ प्रबन्धन के नियन्त्रण से परे है। मैंने खुद ही तलाश किया और पाया कि महेन्द्रजी की बात शब्दशः सच थी।
अपनी स्थिति के बारे में, अपने काम के बारे में यदि किसी को अपनी ओर से जताना/बताना पड़े तो स्पष्ट है कि उसे अपने आप पर, अपने काम और अपने काम के प्रभाव पर विश्वास नहीं। वस्तुतः आदमी नहीं, आदमी का काम, उसका सार्वजनिक आचरण बोलता है। काम और आचरण से उसकी न केवल पहचान बनती है अपितु उसकी सार्वजनिक छवि भी बनती है। यही कारण है अपने वाहन पर अपने पद की लाल तख्तियाँ लगाए घूम रहे अधिसंख्य ‘पदाधिकारियों’ के प्रति आदर और सम्मान भाव के स्थान पर पहले तो आतंक भाव पैदा होता है जो वितृष्णा से होता हुआ हताशा पर रुकता है। ‘सड़कछाप’ लोग ऐसे ‘लाल तख्तीधारियों’ में से अधिकांश को अपात्र ही मानते हैं और पीठ पीछे उनके लिए ऐसी शब्दावली प्रयुक्त करते हैं जिसे लिखा नहीं जा सकता। केवल बोलने तक ही सीमित रखा जा सकता है।
तय है कि अपनी पहचान के लिए अपना आचरण और सार्वजनिक व्यवहार ही प्रथम, अन्तिम और एकमात्र उपाय है।
मेरी झोली छोटी पड़ रही है
अफसरशाही के सामने नतमस्तक संसद की सर्वोच्चता
जनहित में काम कर रही एक संस्था के कुछ लोग मेरे पास आए और चाहा कि मैं उनके साथ कलेक्टर के पास चलूँ। उन्होंने बताया कि संस्था की गतिविधियाँ संचालित करने के लिए उन्हें सरकार से कुछ जमीन मिली हुई है। उसका नामान्तरण- प्रकरण, लगभग आठ-नौ माह से लम्बित पड़ा था। नामान्तरण हेतु सारी प्रक्रियाएँ पूरी हो चुकी थीं। सार्वजनिक सूचना प्रकाशित/प्रसारित की जा चुकी थी। कोई आपत्ति नहीं आई थी और न ही कोई विवाद था। पटवारी से लेकर तहसीलदार तक, सबने अनुकूल अनुशंसा कर रखी थी। फिर भी नामान्तरण नहीं हो रहा था। नामान्तरण हो तो निर्माण शुरु हो। मैंने कहा कि मैं न तो उन्हें जानता हूँ और न ही मुझे उनकी संस्था और उसकी गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी है। कलेक्टर से भी मेरी जान-पहचान नहीं है। उन्होंने संस्था की और उसकी गतिविधियों की संक्षिप्त जानकारी दी। मैंने फिर अरुचि दिखाई और कहा कि मैं तो इस मामले में कुछ बोल भी नहीं पाऊँगा। उन्होंने बड़ी विचित्र बात कही। बोले - ‘आप एक शब्द भी मत बोलिएगा। हमारे साथ चुपचाप बैठे रहिएगा। आप हमारे साथ हैं, इसी से हमारा काम हो जाएगा।’ मुझे अजीब लगा लेकिन जिज्ञासा भी पैदा हो गई। उनके साथ चला गया।
कलेक्टर साहब ने फौरन ही हम लोगों को मिलने के लिए बुला लिया। संस्थावाले उनसे पहले भी मिल चुके थे। मैंने अपना परिचय दिया तो प्रसन्नता जताते हुए बोले - ‘हाँ, हाँ। आपका नाम सुना है। मिलना पहली बार हो रहा है।’ संस्थावाले कुछ कहते उससे पहले ही कलेक्टर साहब को सन्दर्भ याद आ गया। पूछा - ‘अरे! आप लोग अब क्यों आए?’ उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि नामान्तरण प्रकरण अभी भी लम्बित है। फौरन फाइल बुलवाई। कागज पलटे और फाइल बन्द करते हुए बोले - ‘आप जाईए। न तो कोई आपत्ति है और न ही कोई विवाद। आपका काम समझ लीजिए, हो गया।’ संस्थावालों ने याद दिलाया कि यही बात वे दो-ढाई महीने पहले भी कह चुके हैं।
अब मुझसे चुप नहीं रहा गया। पूछ बैठा कि यदि सब कुछ अनुकूल है तो प्रकरण लम्बित क्यों है? कलेक्टर साहब ने बताया कि नोट शीट पर दो डिप्टी कलेक्टरों के हस्ताक्षर नहीं होने से प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है। जैसे ही दोनों के हस्ताक्षर हो जाएँगे, नामान्तरण हो जाएगा।
चलने के लिए हम लोग उठे लेकिन उठते-उठते मेरी हँसी चल गई। कलेक्टर साहब ने तनिक खिन्न होकर पूछा - ‘क्यों? आपको किस बात पर हँसी आ गई?’ मैंने कहा - ‘काम करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई थी। किन्तु देख रहा हूँ प्रक्रिया पूरी करना ही सबसे बड़ा और सबसे जरूरी काम है।’ कलेक्टर साहब को बुरा लग गया। तनिक आवेश में कहा - ‘बैठिए। आप सब लोग बैठ जाईए।’ हम सब बैठ गए। कलेक्टर साहब ने गुस्से में ही फाइल खोली और नामान्तरण के आदेश देकर हस्ताक्षर कर दिए। भृत्य को बुलाया, फाइल उसे थमाई। भृत्य की पीठ हमारी ओर होती उससे पहले ही तहसीलदार को मोबाइल लगाया और कहा - ‘एक फाइल भिजवाई है। उसके अनुसार नामान्तरण आदेश हाथों-हाथ ही मुझे भिजवाएँ। सम्बन्धितों को मैंने रोक रखा है। नामान्तरण आदेश देकर ही उन्हें भेजना है।’
इस पोस्ट के साथ चिपकाए गए, ‘दैनिक भास्कर’ का समाचार पढ़कर मुझे उपरोक्त घटना बरबस ही याद आ गई।
क्या दशा है? महिलाओं को 58 वर्ष की आयु में ही वरिष्ठ नागरिक मानने और किराए में रियायत का प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर रेल मन्त्री और पूरी सरकार खूब तालियाँ बजवा चुकी, वाहवाही ले चुकी। संसद ने रेल बजट पारित कर दिया है। सम्भवतः राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी हो चुके होंगे। लेकिन जो लाभ महिलाओं को पहली अप्रेल से मिलना शुरु हो जाना चाहिए था, अब तक नहीं मिल पा रहा है क्योंकि रेल प्रशासन ने आदेश जारी नहीं किए हैं। संसद की सर्वोच्चता पर रेल प्रशासन का आदेश भारी पड़ गया है। संसद की सम्प्रभुता और संसद के सम्मान की चिन्ता में हलकान होनेवालों में से किसी का भी ध्यान, संसद की इस ‘साम्विधानिक अवमानना’ की ओर अब तक नहीं गया है। शायद जाएगा भी नहीं क्योंकि उन सबको इस सुविधा की न तो आवश्यकता है और न ही चिन्ता।
संसद की, सर्वोच्चता, सम्प्रभुता और सम्मान, अफसरशाही के जूतों तले कराह रहा है। देखने-सुनने की फुरसत किसी को नहीं है।
गरीबी रेखा से नीचे जीनेवालों का प्रतिनिधित्व जब करोड़पति/अरबपति करेंगे तो यही तो होगा?
भारतीय कर्मचारियों के गीता-सूत्र
अण्णा! (केवल) तुम संघर्ष करो
निकलना बात में से बात का
पव्वे को बोतल समझने की हिमालयी भूल
अच्छा हो कि ऐसा यह इकलौता समर्थन हो
अपना घर, अपनी जिम्मेदारी
‘लीजिए! देखिए! पत्रकारिता को अब ये ही दिन देखने बाकी रह गए थे।’ निःश्वास लेते हुए, सामने से आ रहे एक ऑटो रिक्शा की ओर संकेत करते हुए कहा रमाकान्तजी शुक्ल ने। मैंने देखा, यात्रियों से लदे-फँदे आटो रिक्शा पर, रजिस्ट्रेशन नम्बर से ऊपर, पीली पट्टी वाले हिस्से में, अंग्रेजी में, बड़े-बड़े अक्षरों में ‘प्रेस’ लिखा हुआ था - कुछ इस तरह कि देखनेवाले की नजर सबसे पहले इस ‘प्रेस’ पर ही पड़े और वहीं टिकी रह जाए। मैंने कहा - ‘जब आपको फुरसत हो तो इस मुद्दे पर तसल्ली से बात करेंगे।’
रमाकान्तजी सेवा निवृत्त अध्यापक हैं और पत्रकारिता से उनका वंशानुगत सम्बन्ध है। सेवा निवृत्ति के बाद भी पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। वे मुझसे भी पहलेवाली पीढ़ी की पत्रकारिता से सम्बद्ध रहे हैं सो वर्तमान पत्रकारिता और इसके प्रतिमानों में आए बदलावों से भावाकुल, असहमत और व्यथित बने रहते हैं। हम दोनों ही, जनसम्पर्क विभाग के सेवा निवृत्त अधिकारी श्री बद्रीलालजी शर्मा के दाह संस्कार से लौट रहे थे। मैं वाहन चला रहा था। वे पीछे बैठे हुए थे। घर लौटते हुए, जवाहर मार्ग (न्यू रोड़) पर इस आटो रिक्शा से हमारा सामना हुआ था।
जब मैंने ‘तसल्ली से बात करेंगे’ कहा था, तभी पता था कि ऐसा नहीं हो पाएगा। प्रथमतः तो हम सब अपनी-अपनी उलझनों से ही मुक्त नहीं हो पाते और दूसरे, ऐसी बातें ‘श्मशान वैराग्य’ से अधिक नहीं होतीं। श्मशान से बाहर आए नहीं कि सब कुछ हवा हो जाता है।
लेकिन मेरे साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। इस मुद्दे पर कुछ पत्रकार मित्रों से एकाधिक बार बातें हुईं और हर बार मैंने पाया कि ‘प्रेस’ की इस दशा पर विलाप करने के लिए तो हर कोई एक पाँव पर बैठा है किन्तु ‘कुछ’ करने के लिए किसी के पास फुरसत नहीं है। शायद कुछ गलत कह रहा हूँ। फुरसत तो सबको है किन्तु इस नेक काम के लिए जोखिम उठाने का साहस किसी में नहीं है।
मेरे कस्बे सहित अन्य स्थानों के पत्रकार संगठन भी यह माँग करते रहे हैं (अभी भी कर ही रहे हैं) कि वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखे जाने के मामले में पुलिस कड़ी कार्रवाई करे। मुझे यह माँग आज तक समझ नहीं आई। मैं एक पल के लिए भी इससे सहमत नहीं हो पाया। सारी दुनिया की समस्याएँ निपटाने का श्रेय अपने खाते में जमा करनेवाले पत्रकार इतने दयनीय, लाचार, अक्षम हो गए कि अपनी इस छोटी सी समस्या के निदान के लिए पुलिस से याचना कर रहे हैं! वह भी उस पुलिस से, जिसे वे सारी समस्याओं की जड़ बताने से नहीं चूकते और जिसके उच्छृंखल व्यवहार और अन्याय-अत्याचारों की कथाएँ छापने की होड़ में वे सबसे पहले और सबसे आगे बनने की प्रतियोगिता में लगे रहते हैं! पत्रकारों और पत्रकार संगठनों की यह माँग मुझे चौंकाती है, असहज करती है और उन दो बिल्लियों की लोक कथा याद दिला देती है जो एक रोटी के बँटवारे के लिए एक बन्दर की सहायता लेती हैं और बन्दर एक-एक कौर कर, पूरी रोटी खुद खा जाती है और बिल्लियॉं टुकुर-टुकुर देखते रह जाती हैं।
मेरे हिसाब से इसका बहुत ही सीधा और आसान हल खुद पत्रकारों के पास मौजूद है। तमाम पत्रकार किसी न किसी संगठन से जुड़े हुए हैं। पत्रकारों के ऐसे सारे संगठन, पुलिस को अपने-आने सदस्यों की सूची दे दें और पुलिस से कहें कि इन सूचीबद्ध व्यक्तियों के वाहनों के अतिरिक्त जिस भी वाहन पर ‘प्रेस’ लिखा देखे, उस पर कड़ी कार्रवाई करे। मुझ यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक भी पत्रकार और एक भी संगठन ऐसा करने को तैयार नहीं हुआ। अलग-अलग समय और स्थानें पर सबने एक ही बात कही - ‘हम बुरे क्यों बनें? पुलिस जाँच करे और कार्रवाई करे।’ यद्यपि मैं इससे सहमत नहीं किन्तु एक पल को यह बात मान भी ली जाए तो क्या खातरी कि पुलिस की जाँच से पत्रकार सहमत और सन्तुष्ट हो ही जाएँगे? यदि पुलिस की जाँच उन्हें अधूरी या पक्षपातपूर्ण लगी तो? तब पुलिस जाँच को गलत बताने के लिए आपके पास क्या प्रमाण और तर्क होंगे? क्या तब वे प्रमाण आप पुलिस को देंगे? यदि हाँ तो पहले ही क्यों नहीं दे देते? मालवी कहावत है - ‘या तो बाप का नाम बताओ या श्राद्ध करो।’ क्या यह कहावत चरितार्थ नहीं हो रही? हम न तो नाम बताएँगे, न जाँच में मदद करेंगे और न ही जाँच से सन्तुष्ट होंगे। तब, अन्ततः हम चाहते क्या हैं?
यह अपना घर सम्हालनेवाली बात है। घर अपना है तो देख-भाल, रख-रखाव, चौकीदारी, सुरक्षा, घर की बेहतरी याने सब कुछ हमारी ही जिम्मेदारी है। स्वर्ग देखने के लिए खुद को ही मरना पड़ता है। पराये पूतों से वंश नहीं चलता। अपने रेवड़ की काली भेड़े हमें ही चिह्नित कर उनसे मुक्ति पानी पड़ेगी। जब मैं यह कह रहा हूँ तो खुद को भी इसमें शरीक कर रहा हूँ और तनिक आत्म बल से शरीक कर रहा हूँ।
सब तरह के लोग सब जगह होते हैं। सो, ‘अनुचित आचरण’ करनेवाले लोग मेरे व्यवसाय में भी हैं। जब भी हम लोगों को किसी बीमा एजेण्ट के अनुचित आचरण की जानकारी मिलती है तो हम दस-पाँच लोग उसे घेरते हैं। प्रताड़ना और समझाइश से शुरु होकर सबसे पहले हम लोग उससे ग्राहक से क्षमा याचना करवा कर ग्राहक की क्षति पूर्ति कराते हैं और चेतावनी देकर तथा भविष्य में अनुचित आचरण न करने का वचन लेकर उसे छोड़ते हैं। जो अपनी आदत से बाज नहीं आते, उनके विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई करने के लिए हम लोग खुद ही प्रबन्धन से आग्रह करते हैं। मैं जानता और मानता हूँ कि ऐसा करने से समस्या समाप्त नहीं हो जाती। वह बनी रहती है। आज एक ने सुधरने का वादा कर लिया तो कल कोई दूसरा बिगड़ैल सामने आ जाता है। बिगड़ने और सुधारने की कोशिशें करने की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। हमारे कुछ साथी इस प्रक्रिया से प्रायः ही ऊब जाते हैं। तब, बाकी साथी उन्हें ढाढस बँधाते हैं और याद दिलाते हैं कि अपने पेशे की जन छवि बनाए रखने की पहली जिम्मेदारी खुद हम ही लोगों की है। याने, एक थकता है तो बाकी उसे ताजगी देते हैं और हमारा यह क्रम बना रहता है। नहीं जानता कि कितने 'बिगडैल बीमा एजेण्ट' अपने वादे पर कायम रहते हैं किन्तु हमारे रोकने-टोकने का यह असर तो होता ही है कि ‘कुछ’ को प्रताड़ित होते देखकर ‘कई’ भयभीत होते हैं और लालच की राह पर बढ़ते उनके कदम निश्चय ही रुक जाते हैं। यह सब करने के लिए हमसे किसी ने नहीं कहा। हम लोग अपनी जिम्मेदारी मान कर, अपनी ओर से ही यह करते हैं। अपना घर सुरक्षित बनाए रखने के लिए, उसे सुधारने, सँवारने के लिए, उसकी इज्जत बचाए-बनाए रखने के लिए। यह सब करके हम खुद पर ही उपकार करते हैं। किसी और पर नहीं।
सफलता प्रयत्नों को ही मिलती हैं, प्रलाप-विलाप को नहीं। मंजिल हासिल करने लिए चलना या कि कोशिश करना पहली शर्त है।
और हाँ, बात शुरु जरूर ‘प्रेस’ से हुई थी। किन्तु आप भी मानेंगे कि यह सब पर लागू होती है - समान रूप से। -----