करवा चौथ याने आठवें जनम में बदलाव


बुधवार सुबह से शुरु हुई मेरी प्रतीक्षा अन्ततः कल, चौथे दिन, शनिवार की शाम को पूरी हुई।

उत्तमार्द्ध के नरम-गरम स्वास्थ्य के चलते मैंने उनसे अनुरोध किया था कि वे इस बार करवा चौथ के उपवास से परहेज कर लें। अन्यथा होगा यह कि जिसकी बेहतरी के लिए वे उपवास करेंगी, उसे उनकी सेवा में लगना पड़ सकता है। यह सेवा यदि सामान्य स्थितियों में की जाए तो आत्मीय प्रसन्नता का विषय होगी किन्तु उपवास के कारण यदि वे अस्वस्थ हो गईं और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा तो करवा चौथ के उपवास का अर्थ ही बदल जाएगा। ईश्वर मुझ पर कृपालु था कि मेरी बात की तथ्यात्मकता को अनुभव कर मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया गया। किन्तु हमारा धर्म तो स्त्रियों के कारण ही जीवित है! सो उन्होंने इसमें तनिक संशोधन किया कि वे उपवास भले ही नहीं करेंगी किन्तु व्रत अवश्य करेंगी। दो कारणों से मैं चुप रहा। पहला तो यह कि मेरे लाख कहने के बाद भी इस निर्णय में कोई बदलाव होना ही नहीं था। और दूसरा यह कि इसमें अस्वस्थ होने का खतरा समाप्त हो गया था।

सो, मेरी उत्तमार्द्ध ने करवा चौथ की सुबह साबूदाने की खिचड़ी और राजगीरे के आटे के हलवे का फलाहार बनाया। नौकरी पर जाने से पहले खुद भी खाया और मुझे भी खिलाया। शाम को नौकरी से लौटीं तो मैंने चाय बनाकर पेश की। वे प्रसन्न हुईं। हम दोनों ने साथ-साथ चाय पी। फिर वे घर के छुट-पुट कामों में और शाम के भोजन की तैयारी में जुट गईं। मैं अपना कामकाज लेकर बैठ गया। कामकाज से निपट कर, चाँद निकलने तक की प्रतीक्षा का समय उन्होंने विभिन्न चैनलों का जायजा लेकर काटा। अधिकांश समाचार चैनलें, देश के विभिन्न नगरों में चन्द्रोदय का सीधा प्रसारण कर रही थीं। सो, मेरी उत्तमार्द्ध को ‘चाँद निकला या नहीं’ जैसा प्रश्न पूछने का अवसर ही नहीं मिला। उन्हें तो मानों जबरन जानना पड़ा कि लखनऊ, भोपाल में चाँद निकल आया है। अपने आकाश में चाँद निकलने की पुष्टि कर, छत पर जाकर उन्होंने पूजा की। नीचे आईं। हम दोनों ने साथ-साथ भोजन किया और फिर बुद्धू बक्से के सामने बैठ गए। इस तरह, इस बार की करवा चौथ मेरे घर में एक सामान्य दिन की तरह बीत गई।

मेरी उत्तमार्द्ध ने नौकरी से छुट्टी नहीं ली, दिन में किसी मन्दिर में नहीं गई, किसी भी पड़ोसन से पूजा के समय, विधि-विधान आदि के बारे में कुछ भी नहीं पूछा, दिन भर मोहल्ले में नजर नहीं आईं। नजर आईं भी तो नौकरी पर जाते और आते। सो, यह तो तय था कि उनकी यह ‘हरकत’ ‘टाक ऑफ मोहल्ला’ तो बनकर रहेगी ही। ऐसा ही हुआ भी किन्तु मेरे घर आकर न तो किसी ने कोई पूछताछ की और न ही कोई प्रतिक्रिया ही जताई। यह मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं था। महिलाएँ अपने स्वाभाविक व्यवहार से स्खलित जो हो रही थीं! किसी के पेट में मरोड़ नहीं उठी, कहीं से ‘हाय! हाय!’ सुनाई नहीं दी? ‘सब कुछ’ नहीं तो कम से कम, ‘कुछ न कुछ’ तो गड़बड़ है। मोहल्ले की महिलाओं के व्यवहार में आए इस बदलाव ने मुझे पहले तो असहज किया, फिर पेरशान और अन्ततः क्षुब्ध। मुझे लगा, हम दोनों को, षड़यन्त्रपूर्वक ‘उपेक्षा का दण्ड’ दिया जा रहा है। सच कहूँ, किसी काम में मेरा मन नहीं लगा इन दिनों में।

लेकिन मुहल्ले की महिलाओं ने कल शाम मुझे इस ‘मानसिक त्रास’ से मुक्त कर दिया। वे चार थीं और मेरी उत्तमार्द्ध को भाभीजी, आण्टीजी और मम्मीजी सम्बोधित कर बता रही थें कि वे तीन पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। मैं अगले कमरे में, अपने लेप टॉप पर काम कर रहा था। मुझे नमस्कार कर वे सीधे अन्दरवाले कमरे में चली गईं, मेरी उत्तमार्द्ध के पास। उनका ‘आगमन आशय’ समझने में मुझे तनिक भी श्रम नहीं करना पड़ा और इसी कारण मेरी आँखें और अंगुलियाँ भले ही लेप टॉप से उलझी हुई थीं किन्तु मेरा रोम-रोम कान बनकर, अन्दरवाले कमरे की, धीमी से धीमी सरसराहट भी सुनने को व्यग्र था।

मुझे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। महिलाएँ या तो मेरे अनुमान से अधिक समझदार थीं या मुझसे भी अधिक व्यग्र, पहले ही क्षण, बिना किसी भूमिका के विषय पर आ गईं। कानों सुना, जितना भी मुझे याद रह सका, वह सब कुछ ऐसा था -

‘करवा चौथ पर आपने पूजा कहाँ की?’

‘छत पर।’

‘कब की?’

‘चाँद निकलने पर।’

‘आप दिन भर नजर ही नहीं आईं?’

‘हाँ। ड्यूटी पर गई थी।’

‘छुट्टी नहीं ली?’

‘नहीं।’

‘फिर तो दिन भर मुश्किल में निकला होगा?’

नहीं तो? क्यों?’

‘उपवास जो था!’

‘मैंने उपवास नहीं किया।’

‘क्या? करवा चौथ का उपवास नहीं किया?’

‘हाँ। नहीं किया।’

‘क्यों नहीं किया?’

‘इन्होंने मना कर दिया था।’

‘भाई साहब के मना करने से क्या होता है? औरत को तो उपवास करना पड़ता है।’

‘हाँ। लेकिन मैंने नहीं किया। इन्होंने मना कर दिया था।’

‘आपने कहा नहीं कि उपवास भाई साहब की लम्बी उम्र के लिए ही था?’

‘नहीं कहा।’

‘क्यों?’

‘इन्हें पता है कि करवा चौथ का उपवास क्यों किया जाता है।’

‘फिर भी भाई साहब ने मना कर दिया? और उन्होंने मना किया सो किया, आपने भी मान लिया?’

‘हाँ। मान लिया। करवा चौथ के दिन पति का कहना नहीं मानती तो यह पाप नहीं होता?’

कुछ क्षण कमरे में मौन पसर गया। मेरी उत्तमार्द्ध को ‘मम्मीजी’ कहनेवाली युवती ने मौन तोड़ा -

‘लेकिन यह तो धर्म का मामला है?’

‘हाँ है।’

‘तो फिर तो धर्म टूट गया?’

‘पता नहीं। पर मैंने तो पति का कहना मानने का धर्म निभाया।’

‘भाई साहब ने ऐसा क्यों किया?’

‘उनका कहना था कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती। उपवास करने से तबीयत बिगड़ सकती है। अस्पताल में भर्ती करना पड़ जाएगा। जिस पति की लम्बी उम्र के लिए उपवास करोगी उसी पति को घर और अस्पताल के बीच भागदौड़ करनी पड़ेगी। इसलिए उपवास मत करो।’

‘पर करवा चौथ का उपवास तो सात जनमों तक साथ निभाने के लिए किया जाता है?

अब मेरी उत्तमार्द्ध शायद परिहास पर उतर आईं। बोलीं - ‘यह हमारा सातवाँ जनम है इसलिए अब उपवास करने की जरूरत नहीं रही।’

‘वाह! आपको कैसे पता कि यह जनम आप दोनों का सातवाँ जनम है?’

‘मुझे नहीं पता तो किसे पता? अरे बेटा! जनम हमारा है तो हमें ही तो मालूम होगा ना? तुम बता सकती हो कि यह हमारे साथ-साथ का कौनसा जनम है?’

युवती शायद सकपका गई। घुटी-घुटी आवाज आई -

‘नहीं मम्मीजी! मुझे कैसे पता हो सकता है?’

‘वही तो! भई हम दोनों को पता है कि हम कितने जनमों से साथ बने हुए हैं। सात जनम हो गए। हम दोनों एक दूसरे से भर पाए। अगले जनम से दोनों छुट्टे। आखिर कब तक साथ-साथ रहें? अगले आठवें जनम में चेंज करके देखेंगे। जमा तो ठीक वर्ना नौवें जनम में फिर साथ-साथ हो जाएँगे।’ कह कर मेरी उत्तमार्द्ध जोर से खिलखिलाईं।

मेरी उत्तमार्द्ध को ‘भाभीजी’ सम्बोधित करनेवाली, उनकी हमउम्र महिला (मानो थक कर) बोली - ‘हम तो समझे थे कि भाई साहब ही ऊटपटांग बातें करते हैं। लेकिन आप भी वैसी ही बातें कर रहीं हैं?’

अब मेरी उत्तमार्द्ध मानो ‘खुल कर खेलने’ के ‘मूड’ मे आ गईं। चहकते हुए बोलीं - ‘आखिर सात जनमों से साथ रह रहे हैं। एक दूसरे के असर से कैसे बच सकते हैं? उनकी कुछ बातें और आदतें मुझमें आ गईं और मेरी कुछ बातें, आदतें उनमें आ गईं। अच्छा है ना?’

जितना कुछ मैं सुन पा रहा था उससे अनुमान कर रहा था कि चारों का समाधान नहीं हुआ है लेकिन कहने के लिए उनके पास भी कुछ नहीं था। ठिठोली करती हुई मेरी उत्तमार्द्ध बोलीं - ‘आप लोग भी कहाँ इस फालतू के चक्कर में पड़ गईं? आपकी बातें सुनकर लग रहा है कि करवा चौथ तो मैंने ही मनाई। मैंने तो वही किया जो मेरे इन्होंने चाहा और कहा। लेकिन लगता है कि उस पूरे दिन आपका ध्यान तो मेरी ओर ही लगा रहा! है कि नहीं?’

चारों चुप थीं। न हाँ कर पा रही थीं और न ही ना। मेरी उत्तमार्द्ध ने मानों चारों को इस दशा से उबारा। बोलीं - ‘अरे! भाभीजी! निकल गई ना करवा चौथ? आज तो चौथा दिन है। आप तो यह बताओ कि दीपावली पर क्या-क्या तैयारी कर रही हैं? मैं तो इस बार कुछ भी नहीं कर रही हूँ। जो कछ भी करना-कराना है, बाजार से ले आएँगे। तबीयत साथ नहीं दे रही है। साथ देती तो भला करवा चौथ का उपवास नहीं कर लेती? भाभीजी! शरीर साथ दे तो सारे व्रत-उपवास और सारे त्यौहार। शरीर साथ न दे तो कुछ भी नहीं। सारे त्यौहार मन के। तन दुरुस्त तो मन और अधिक दुरुस्त। तन ठीक नहीं तो मन भी ठीक नहीं। दीवाली का सामान बनाने के लिए किसी बाई या कारीगर को बुला रही हों तो दो दिन पहले बताना। मैं भी कुछ बनवा लूँगी। वर्ना कहा ही है, बाजार से मँगवा लूँगी।’

इस ‘धर्म सम्वाद’ के बीच चाय-जलपान का उपक्रम भी पूरा हो चुका था। चारों महिलाएँ मुझे नमस्कार कर, निकल गईं। मैंने साफ देखा, वे मेरी उत्तमार्द्ध की बातों से सहमत तो थीं किन्तु सन्तुष्ट नहीं थीं। उन्हें लग रहा था - इस घर में धर्म की पूछ परख जितनी होनी चाहिए, उतनी नहीं हो रही है।

देखते हैं, अगली करवा चौथ को क्या होता है।
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‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके बारे में बताना गौरवानुभूति तो देता ही है, उनसे जुड़ना गर्वानुभूति भी देता है। जमनालाल के साथ भी ऐसा ही है। यूँ तो हम, आठवीं से लेकर ग्यारहवीं तक, कक्षापाठी हैं किन्तु वह इतना ‘शानदार आदमी’ है कि हमारे सहपाठी होने की बात को यूँ कहता हूँ - ‘यह जमनालाल है। मैं इसके साथ पढ़ा हुआ हूँ।’ मेरे महापुरुषों की सूची में यह प्रथम स्थान पर है। इस पर मैं सैंकड़ों/हजारों पन्ने लिख सकता हूँ। लेकिन यदि एक वाक्य में इसके बारे में कहना पड़े तो वह कुछ यूँ होगा - ‘काश! भगवान ने हर आदमी को जमनालाल बनाया होता।’ यहाँ दिया चित्र जमनालाल का ही है।

जमनालाल का पूरा नाम जमनालाल राठौर है। कुछ बरस पहले इसने ‘भेल’ (भारत हेवी इलेक्ट्रीकल्स) के वरिष्ठ प्रबन्धक (सीनीयर मैनेजर) पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली है। तीन बच्चों का पिता। हर हाल में सुखी और सन्तुष्ट रहने के अनवरत, मूक प्रयत्न करते रहनेवाला। कल अपराह्न कोई साढ़े तीन बजे आया था। अभी, सुबह 6 बजे, भोपाल के लिए इसे स्टेशन पर छोड़ कर आया हूँ। लेकिन इस पर लिखने का मनपसन्द काम फिर कभी। आज वह एक बात, जो अचानक ही कल, हमारी गप्पेबाजी में प्रमुख बन कर उभर आई।

कल हम दोनों ने हमारे कुछ अध्यापकों, व्याख्याताओं को याद किया-प्रेमपूर्वक भी और अदरपूर्वक भी। बातों ही बातों में उसने अपने, कक्षा छठवीं और सातवीं पढानेवाले प्रधानाध्यापक स्वर्गीय श्री माँगीलालजी जैन के बारे में जिस प्रकार और जो कुछ बताया, उस विवरण ने ही यह पोस्ट लिखने के लिए मुझे बाध्य कर दिया।

मनासा में अपनी पढ़ाई के दौरान जमनालाल, संस्कृत व्याख्याता शास्त्रीजी का सर्वाधिक प्रिय छात्र था। शास्त्रीजी का नाम तो हम तभी भूल चुके थे जब वे हमें पढ़ाया करते थे। उनकी अदा और कमोबेश शकल-सूरत के कारण हम सब उन्हें ‘दिलीप कुमार’ कहते और हमारे कहने का परिणाम यह हुआ कि शास्त्रीजी भी अपना मूल नाम भूल गए। वे जब तक मनासा रहे, श्री दिलीप कुमार शास्त्री ही बने रहे। संस्कृत हमारे लिए ‘जी का जंजाल’ विषय था जबकि शास्त्रीजी जो भी पढ़ाते, जमनालाल पहली ही बार में इतना समझ जाता था कि शास्त्रीजी को भी हैरत होती। वह इसलिए भी कि जमनालाल के पास तो पाठ्य पुस्तकें भी नहीं होती थीं! संस्कृत के सन्दर्भ में जमनालाल हमारे लिए ‘ईर्ष्‍याजनक अजूबा’ था। बाद-बाद के दिनों में तो यह होने लगा कि शास्त्रीजी कक्षा में आते, किताब में से कोई श्लोक या उद्धरण पढ.कर सुनाते और जमनालाल से कहते - ‘जमनालाल! इसे हिन्दी में समझाओ।’ और जमनालाल शुरु हो जाता। शास्त्रीजी ध्यानपूर्वक सुनते-देखते और जहाँ आवश्यक होता, हस्तक्षेप करते। किन्तु जमनालाल ने उन्हें हस्तक्षेप करने के अवसर बहुत ही कम दिए। हम पूछते - ‘जमनालाल! यार! तू यह सब कैसे कर लेता है?’ उसके पास कोई जवाब नहीं होता।

यह जवाब उसे और मुझे कल मिला। अचानक ही।

जमनालाल का गाँव भाटखेड़ी, मेरे गाँव मनासा से कोई दो किलोमीटर दूरी पर है। वहाँ, सातवीं कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी। आठवीं और उससे आगे की पढ़ाई के लिए भाटखेड़ी के बच्चों को मनासा आना पड़ता था।

यह सन् 1958 की बात है। भाटखेड़ी के स्कूल में उसी साल छठवीं कक्षा खुली थी और जमनालाल भी उसी साल छठवीं कक्षा में पहुँचा था। माँगीलालजी जैन प्रधानाध्यापक थे। वे भाटखेड़ी के ही निवासी थे। बच्चों को पढ़ाने का उनका शौक, शौक से कोसों आगे बढ़कर मानो सनक और व्यसन तक पहुँच चुका था। बच्चों को पढ़ाने के लिए वे चैबीसों घण्टों मानों ‘पगलाए’ रहते थे। कुछ ऐसे कि उनका बस चले तो न तो खुद और कुछ करें और न ही बच्चों को कुछ और करने दें - बस, वे पढ़ाएँ और बच्चे पढ़ते रहें, जगातार चैबीसों घण्टे। इस ‘पागलपन’ ने उनके नाम में लगा ‘जैन’ लुप्त कर दिया था और वे ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ बनकर रह गए थे।

भाटखेड़ी में छठवीं कक्षा शुरु हुई तो माध्यमिक शिक्षा स्तर का पाठ्यक्रम प्रभावी होना ही था। उसमें संस्कृत भी एक विषय था। शासन ने स्कूल को ‘पदोन्नत’ तो कर दिया किन्तु नए जुड़े विषयों के अध्यापक नहीं भेजे। अन्य विषय तो ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने स्वयम् सहित सारे अध्यापकों में बाँट दिए किन्तु संस्कृत पढ़ाने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। आज जैसा समय होता तो प्रधानाध्यापकजी, सरकार को पत्र लिखने की खानापूर्ति करते रहते। तब भी संस्कृत अध्यापक की नियुक्ति नहीं होती। तब वे, मनासा में किसी संस्कृत अध्यापक से ‘भागीदारी’ कर, भाटखेड़ी में छोटी-मोटी ‘संस्कृत कोचिंग क्लासेस’ शुरु करवा देते। संस्कृत अध्यापक भी मलाई मारता और खुद ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ भी मोटी रकम प्राप्त कर लेते। किन्तु शुक्र है कि वह ‘आज का समय’ नहीं था। वह ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय था। जो कुछ करना था, ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ को ही करना था। संस्कृत अध्यापक के न होने के नाम पर कक्षाएँ बन्द कर दें तो भाटखेड़ी का जो स्कूल बड़ी मुश्किल से प्राथमिक से माध्यामिक स्तर पर पदोन्नत हुआ था, फिर से प्राथमिक स्तर का विद्यालय बनकर रह जाए!

सो, ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने खुद संस्कृत विषय पढ़ाने का निर्णय किया। किन्तु उन्हें तो संस्कृत का ‘क, ख, ग’ भी नहीं आता था? उन दिनों ‘लर्न संस्कृत इन वन डे’ जैसी गाइडों का चलन भी शुरु नहीं हुआ था। तब क्या किया जाए? ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने, मनासा में किसी से सम्पर्क किया और अगली सुबह से (यहाँ ‘सुबह’ के स्थान पर ‘अँधेरे-अँधेरे ही’ लिखा जाना चाहिए था) भाटखेड़ी के लोगों ने ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ को मनासा जाते देखा।

यह शुरुआत थी। वे प्रतिदिन मनासा जाकर दो घण्टे संस्कृत पढ़ते और लौट कर छठवीं के बच्चों को संस्कृत पढ़ाते। प्रतिदन चार किलोमीटर की यात्रा और दो घण्टों की पढ़ाई। यह क्रम दो वर्षों तक चलता रहा क्योंकि अगले साल भाटखेड़ी में सातवीं कक्षा शुरु हो गई किन्तु सरकार ने संस्कृत शिक्षक तब भी नहीं भेजा। ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ ने स्थिति ही ऐसी बना दी थी कि किसी को संस्कृत अध्यापक की आवश्यकता अनुभव ही नहीं हुई।

जमनालाल ने बताया कि उन दोनों वर्षों में भाटखेड़ी स्कूल का, संस्कृत विषय का परीक्षा परिणाम न केवल शत-प्रतिशत रहा अपितु किसी भी विद्यार्थी ने प्रथम श्रेणी से कम अंक प्राप्त नहीं किए।

भाटखेड़ी से सातवीं कक्षा पास कर, आठवीं की तथा आगे की पढ़ाई के लिए जमनालाल मनासा आया। यह सन् 1960-61 की बात है। उन दिनों आठवीं परीक्षा, बोर्ड से हुआ करती थीं। मनासा के सेठ श्रीरामनारायणजी झँवर ने सार्वजनकि घोषणा की कि आठवीं बोर्ड की परीक्षा में, मनासा स्कूल में प्रथम आनेवाले बच्चे को वे स्वर्ण पदक देंगे। इस घोषणा ने झँवर सेठ को लम्बे समय तक (आठवीं बोर्ड का परीक्षा परिणाम आने तक) ‘लोक चर्चा पुरुष’ (टॉक आफ टॉउन) बनाए रखा। उनका बेटा गोपाल भी आठवीं कक्षा में पढ़ रहा था। उसके लिए झँवर सेठ ने, लगभग प्रत्येक विषय की ट्यूशन लगा रखी थी। पूरे मनासा ने मान लिया था कि गोपाल ही प्रथम आएगा और झँवर सेठ का स्वर्ण पदक घर का घर में ही रहेगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उस परीक्षा में जमनालाल प्रथम आया। वह भी तब, जबकि परीक्षा के दौरान ही जमनालाल के पिताजी की मृत्यु हो गई थी। यह अप्रत्याशित था-खुद झँवर सेठ के लिए भी। पूरे मनासा में अफरा-तफरी मच गई। गोपाल के प्रथम न आने से झँवर सेठ को कैसा लग रहा है - यह देखने/जानने के लिए ‘वाणी विलासी रसिक’, बिना काम के ही झँवर सेठ से मिलने जाते और लौटकर कहते - ‘झँवर सेठ गोल्ड मेडल शायद ही दें।’ किन्तु झँवर सेठ ने ऐसा कहनेवाले सारे लोगों को झूठा साबित किया। उन्होंने स्कूल में समारोह आयोजित कर खुद अपने हाथों जमनालाल को यह स्वर्ण पदक दिया। उस समय बजीं तालियाँ आज तक हमारे कानों में ही नहीं पूरे मनासा में सुनाई दे रही हैं। (बाद में, वही स्वर्ण पदक बेच कर, जमनालाल अपनी पढ़ाई आगे जारी रख पाया।)
कल जमनालाल ने रुँधे कण्ठ से कहा - ‘अब समझ में आता है कि वह सब ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का ही किया-कराया था। मैं तो कठपुतली मात्र था।’

बच्चों को संस्कृत पढ़ाने के लिए, पदोन्नत हुए अपने स्कूल को पदोन्नत बनाए रखने के लिए ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ खुद विद्यार्थी बने, दो बरसों तक बने रहे।

‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ के पढ़ाए बच्चे, पढ़-पढ़कर भाटखेड़ी से निकलते गए और ‘माँगीलालजी माट्सा‘ब’ वहीं के वहीं रहे। लगता है, मैं कुछ गलत कह रहा हूँ, गलत कर रहा हूँ। सही तो यह होगा कि ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का शरीर भाटखेड़ी में रह गया था और अपने पढ़ाए बच्चों के माध्यम से वे न जाने कितने शहरों/नगरों में व्याप्त हो गए थे।

‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ की दुहाई दे कर आज को कोसना और ठण्डी साँसे भर-भर कर किसी किस्म की तुलना करना व्यर्थ और मूर्खता ही होगी। वह समय ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय था और आज का समय आज का है।

किन्तु ‘माँगीलालजी माट्सा’ब’ का समय आज भी कहीं न कहीं ठहरा हुआ है - उनके पढ़ाए हुए, जमनालाल जैसे बच्चों में।
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सब विफल हो गए?

यह किसकी विफलता है? धर्म की? धर्म गुरुओं की? या धर्मानुयायियों की?

हम दुहाई देते हैं कि हम अपने धर्माचार्यों, सन्तों
से निर्देशित होते हैं, जीवन की दिशा प्राप्त करते हैं। इतना ही नहीं, हममें से कई तो चाहते हैं कि हमारा ‘राज्य’ भी धर्माचार्यों से परामर्श ले और ‘धर्म मार्ग’ पर चले। याद आता है मुख्यमन्त्री के रूप में उमा भारती का शपथ ग्रहण समारोह जिसमें अनेक धर्म गुरु अपनी प्रिय साध्वी को एक शासक के रूप में शपथ लेने के साक्षी बनने हेतु भोपाल के लाल परेड ग्राउण्ड में पधारे थे। एक बड़ा मंच इन धर्म गुरुओं के लिए अलग से बनाया गया था। सारे धर्म गुरु, राजकीय अतिथि थे।

लेकिन यह समाचार तो पूरा नक्शा ही बदल रहा है! हजारों अनुयायियों (ये अनुयायी धर्म के भी रहे होंगे और धर्माचार्य के भी) की उपस्थिति में एक धर्माचार्य, ‘सीकरी’ से हस्तक्षेप की माँग कर रहा है। समाचार में यद्यपि उपस्थिति के आँकड़े का कोई संकेत नहीं दिया गया है तदपि सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि धार्मिक ‘दीखने’ का कोई भी मौका न छोड़नेवाले धर्मालु, हजारों की संख्या में उपस्थित रहे होंगे। लेकिन लगता है, एक ने भी धर्माचार्य का आह्वान सर-माथे नहीं लिया। अन्यथा ऐसे आयोजनों में, धर्माचार्यों के आह्वान के परिपालन के लिए धार्मिक लोगों में होड़ लग जाती है। पूजा प्रक्रिया के विभिन्न चरणों का श्रेय लेने के लिए बोली लगानेवालों में प्रतियोगिता छिड़ जाती है। बात सैंकड़ों, हजारों से होती हुई लाखों तक पहुँच जाती है। सबको मालूम हो जाता है कि किसने, धर्म की किस विधि का, कितनी बड़ी रकम से, धर्म-लाभ लिया।

लेकिन यहाँ धर्माचार्य की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। यहाँ बात त्याग की थी, प्रदर्शन से दूर रहने की थी। धर्माचार्य ने पटाखों से दूर रहने की बात कही थी। कहा था कि जिस देश की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है वहाँ पटाखों से देश में प्रति वर्ष अरबों रुपये भस्म कर देने का तमाशा अपमानजनक और घृणास्पद है।

धर्माचार्य ने जानकारी दी थी कि पटाखों के शौक के कारण केवल राजस्थान में ही प्रति वर्ष 70 हजार से अधिक लोगों को शारीरिक क्षति पहुँचती है - कोई जल जाता है, किसी की आँखों की रोशनी चली जाती है, कोई बहरा हो जाता है।

पटाखों के दुष्प्रभाव गिनाते हुए धर्माचार्य ने कहा कि इनके कारण बूढ़े और बीमार लोग सो नहीं पाते, परीक्षा की तैयारी कर रहे बच्चे पढ़ नहीं पाते, इनकी आवाज से पशु-पक्षी-बच्चे डर जाते हैं, वायु मण्डल अत्यधिक प्रदूषित हो जाता है, लोगों को अस्थमा, उच्च रक्त चाप, चमड़ी की एलर्जी जैसी घातक बीमारियाँ हो जाती हैं, पटाखों की फैक्ट्रियों में काम करनेवाले श्रमिक कभी स्वस्थ दशा में घर नहीं लौटते क्योंकि बारूद का जहर उनकी उम्र कम कर देता है।

उपरोक्त तमाम तथ्यों के प्रकाश में धर्माचार्य ने ‘सरकार से माँग की’ कि सरकार ने जिस प्रकार बाल विवाह, सती प्रथा, पॉलीथिन आदि के विरुद्ध कानून बनाए हैं, उसी प्रकार पटाखों पर प्रतिबन्ध के लिए भी कानून बनाए। धर्माचार्य ने धर्म गुरुओं, पालकों और शिक्षकों से भी आग्रह किया समाज और मानवता का भला करने के लिए वे बच्चों और युवाओं को समझाएँ।

सामाजिक बदलावों के लिए कोई धर्माचार्य ‘राज्य’ से माँग करे यह अटपटा ही लगता है। लोग अपने नेताओं और अफसरों की बात एक बार भले ही न मानें किन्तु अपने धर्माचार्यों की बात न मानने से पहले हजार बार सोचते हैं।

आदर्श स्थिति तो यही होती कि पटाखों की घातकता और अनौचित्य प्रस्तुत करने के साथ ही साथ धर्माचार्य अपने अनुयायियों को, पटाखे न छोड़ने के लिए संकल्पबद्ध करते। यदि उन्होंने ऐस नहीं किया तो सहज अपेक्षा होती है कि अपने आचार्य की इच्छा जानकर, वहाँ उपस्थित अनुयायी (भले ही सबके सब नहीं, कुछ ही सही) पटाखे न छोड़ने का संकल्प लेकर अपने धर्माचार्य के प्रति आदर और निष्ठा प्रकट करते। किन्तु न तो इन्होंने कहा और न ही उन्होंने। इन्होंने कहा, उन्होंने सुन लिया। मानो, धर्मोपदेश एक खानापूर्ति मात्र हो।

ऐसे सन्दर्भ-प्रसंगों में सहसा ही भक्ति काल के धर्माचार्य याद आ जाते हैं जिन्होंने समाज को दिशा दी। उनके पीछे पूरा समाज चला और उन सन्तों ने समाज को कष्टों से छुटकारा दिलाया।

पर आज सब कुछ पूरी तरह से बदल गया है। अब तो धर्माचार्य कहते रहते हैं और लोग एक कान से सुनकर दूसरे कान से उसे निकालते रहते हैं। धर्माचार्य भी इस वास्तविकता को भली प्रकार जानते हैं। तभी तो वे लोगों से आग्रह/अपेक्षा नहीं करते, नहीं, ‘राज्य’ से ‘माँग’ करते हैं।

धर्म कभी जड़ नहीं होता। वह तो व्यक्ति के विकास का श्रेष्ठ औजार होता है, बशर्ते उसे आचरण में उतारा जाए। लेकिन अब धार्मिक होना जोखिमभरा हो न हो, नुकसानदायक जरूर हो सकता है। सो धार्मिक दीखने में ही भलाई है।

यह किसकी विफलता है?
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बाजार की मेनका मेरे घर में


कोई एक पखवाड़े से अखबार ‘निपटाने’ में समय कम लग रहा है। इन दिनों विज्ञापन, वे भी पूरे-पूरे पृष्ठों के, अधिक आ रहे हैं और समाचार मानो निष्कासित कर दिए गए हैं। विज्ञापन भी आकर्षक नहीं। कल्पनाशीलता और प्रस्तुति की सुन्दरता कहीं अनुभव नहीं हो रही। लगता है, ताबडतोड़ ‘कॉपी’ तैयार की जा रही हो। छोटे विज्ञापनों की दशा तो देहातों के परमिटवाली यात्री बसों में ठुँसे हुए यात्रियों जैसी है। जहाँ पाँव रखने की जगह मिल जाए, वहीं टिकने की कोशिश कर लो। कैसा भी विज्ञापन, कहीं भी लगाया जा रहा है। याने, इन दिनों अखबार न तो पठनीय हैं और न ही दर्शनीय।

सुबह चार अखबार आते हैं। ‘पत्रिका’ सबसे पहले, ‘पीपुल्स समाचार’ उसके बाद और ‘जनसत्ता’ तथा ‘भास्कर’ सबसे बाद में। ‘नईदुनिया’ मेरे यहाँ नहीं आता। लगभग दो वर्षों से उसे खरीदना बन्द कर रखा है। इधर-उधर कहीं नजर आ जाता है तो पढ़ लेता हूँ। न पढ़ने पर कोई असुविधा भी नहीं होती। ‘पीपुल्स समाचार’ शायद प्रतिदिन नहीं छपता इसलिए प्रतिदिन नहीं आता। ‘भास्कर’ रतलाम मे ही छपता है किन्तु पता नहीं क्यों, सबसे बाद में आता है जबकि वह तो सबसे पहले मिलना चाहिए। इनमें केवल ‘जनसत्ता’ ही पढ़ने की भरपूर सामग्री देता है। शाम को ‘प्रभातकिरण’ आता है। वह कभी भी दस-पाँच मिनिट से अधिक नहीं लेता।

विकर्षक और कल्पनाशीलताविहीन विज्ञापनों के बीच छप रहे समाचारों में भी बाजार ही बाजार है। लगता है, अखबार अब अखबार न रह कर ‘अनुकूल विपणन स्थितियाँ’ (फेवरेबल मार्केटिंग सुटेबिलिटी) बनाने के औजार बन गए हैं। सब कुछ इस तरह परोसा जा रहा है कि आपको आवश्यकता हो न हो, फलाँ-फलाँ सामान तो आपके घर में होना ही चाहिए। न हुआ तो आप असामाजिक हो जाएँगे। इस हेतु चार-चार पृष्ठोंवाले विशिष्ट परिशिष्ट प्रायः प्रतिदिन ही अखबारों के साथ आ रहे हैं। उनमें उन्हीं दुकानो/संस्थानों के विवरण छपते हैं जिनके विज्ञापन होते हैं। याने, एक ही दुकान/संस्थान का विज्ञापन दो-दो बार। निश्चय ही, अखबारों को विज्ञापनों के इन दोनों स्वरूपों का भुगतान मिल ही रहा होगा।

त्यौहारी खरीद के लिए पहले लोग बाजार में जाया करते थे किन्तु अब तो बाजार, आपके दरवाजे पर नहीं, आपके घर में ही घुसा चला आ रहा है। बाजार जाकर, मनपसन्द चीज खरीदने के लिए किए गए भाव-ताव (या कि झिकझिक) ने कभी भी हीनता बोध पैदा नहीं किया। किन्तु अखबारों के विज्ञापन मानों कहत हैं - यह सामान नहीं खरीदा तो तुम्हारा जीना बेकार है। धिक्कार है तुम्हें।

खूब अच्छी तरह याद है, स्कूली दिनों में केवल ‘गुरु पुष्य‘ की चर्चा होती थी और खरीदी के लिए वही मुहूर्त महत्वपूर्ण माना जाता था। तब, यह मुहूर्त व्यापारियों के लिए ही माना जाता था, जन-सामान्य से मानो इसका कोई लेना-देना नहीं होता था। व्यापारी इस मुहूर्त की प्रतीक्षा अधीरता से करते थे और ‘गुरु पुष्य’ की अवधि वाला समय पूरी तरह खाली रखते थे कि फालतू कामों में उलझ कर इस मुहूर्त में खरीददारी से चूक न जाएँ। लेकिन देख रहा हूँ कि गए कुछ बरसों से ‘रवि पुष्य’ भी ‘गुरु पुष्य’ की प्रतियोगिता में ला खड़ा कर दिया गया है और अभी-अभी ‘शनि पुष्य’ को स्थापित करने का मानो अभियान ही शुरु कर दिया है। इन दिनों अखबारों से ‘गुरु पुष्य’ और ‘रवि पुष्य’ गुम हैं और ‘शनि पुष्य’ छाया हुआ है। सारी दुनिया को समझाया (इसे ‘चेताया’ कहना अधिक उपयुक्त होगा) कि यह ‘दुर्लभ योग’ दस वर्षों में आया है। गोया, यदि इस मुहूर्त में खरीदी नहीं की गई तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। पहले जो इकलौता मुहूर्त केवल व्यापारियों के लिए माना जाता था, आज उसके दो और विकल्प प्रस्तुत कर तीन गुना अवसर उपलब्ध करा दिए गए हैं। अब तीनों के तीनों ही मुहूर्त मानो सबके लिए ‘समान रूप से खोल दिए गए’ हैं। पहले व्यापारी खरीदी करते थे, अब आप-हमको व्यापारियों के लिए खरीदी करनी है।

‘आक्रामक विपणन नीति’ (एग्रेसिव मार्केटिंग स्ट्रेटेजी) पूरी मारक क्षमता से छायी हुई है। अच्छे-अच्छों का संयम डिग जाए, ऐसी कोशिशें चौडे-धाले की जा रही हैं। पहले आप जरूरत का सामान लेने के लिए बाजार जाते थे। अब बाजार आपके घर में घुस आया है। पहले जरूरत के लिए सामान तलाशा जाता था। अब, सामान के हिमालय आपके चारों ओर खड़े कर दिए गए हैं। आपको कुछ न कुछ तो खरीदना ही पड़ेगा - जरूरत हो न हो।

उपभोक्तावाद की इस मेनका से कितने विश्वामित्र, कितने समय तक खुद को बचा पाएँगे, यह देखना रोचक होगा। अधिक रोचक यह देखना होगा कि बचा पाएँगे भी या नहीं?
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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यह उजास चाहिए मुझे

त्यौहार सामने है और मेरी उत्तमार्द्ध, दोनों बेटे और बहू, चारों के चारों मुझसे खिन्न हैं। मजे की बात यह है कि ये चारों मेरी प्रत्येक बात से सहमत हैं फिर भी चाहते हैं कि मैं अपनी बातें एक तरफ सरका कर उनकी बात मान लूँ - बिना कुछ बोले। आँखें मूँद कर।

कहते हुए मुझे संकोच हो रहा है कि मेरे पास इस समय लगभग ग्यारह जोड़ कपड़े हैं। आठ जोड़ पतलून-कमीजें और तीन जोड़ कुर्ते-पायजामे। हो सकता है, कुर्ते-पायजामे एक-दो जोड़ ज्यादा ही हों। वास्तविकता मेरी उत्तमार्द्ध ही जानती है। पूरी तरह से उन्हीं पर निर्भर जो हूँ! यह बात कहने के लिए नहीं कह रहा, इस ब्लॉग पर प्रकाशित मेरे आत्म-परिचय में यह बात पहले ही दिन से कही हुई है।

दिसम्बर 2004 में, गृह-प्रवेश के समय चार जोड़ पतलून-कमीजें एक साथ बनवा ली थीं। बड़े बेटे वल्कल के विवाह के समय, 2008 में तीन जोड़ कपड़े और बन गए - दो जोड़ पतलून-कमीज और एक जोड़ कुर्ता-पायजामा। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, 2002 या 03 में दो-एक जोड़ कुर्ते-पायजामे सिलवाए थे।

2004 वाले पतलून-कमीजों का रंग अवश्य तनिक फीका पड़ गया है, कमीजों के कॉलर अल्टर करवाए गए हैं किन्तु कपड़े न तो फटे हैं और न ही गले हैं। 2008 वाले कपड़े तो नए-नकोर लगते हैं। कुर्तों-पायजामों पर तो समय और मौसम का कोई असर हुआ लगता ही नहीं।

मुझे कहीं कोई कारण और औचित्य नजर नहीं आता - नए कपड़े सिलवाने का। किन्तु चारों के चारों दीपावली की दुहाई दे कर नए कपड़े सिलवाने का आग्रह कर रहे हैं। अधिक नहीं तो कम से कम एक जोड़ तो सिलवा ही लूँ ताकि ‘दीपावली मिलन’ के लिए आने-जाने में काम आ जाएँ। मैंने साफ मना कर दिया है।

वे मुझसे कारण पूछते हैं। मैं चाह कर भी नहीं बता पा रहा हूँ। मेरी गली के सामनेवाले बाँये कोने पर एक मिस्त्री परिवार रहता है। चार भाइयों का, लगभग बारह सदस्यों का संयुक्त परिवार है। सरकारी जमीन पर अतिक्रण कर बसे हुए हैं वे लोग। काम-काज ठीक-ठीक चल रहा है। इतनी कमाई हो जाती है कि गुजारा भी हो जाए और त्यौहार भी मन जाए। फिर भी उनका ‘अधिकतम’ मेरे परिवार के ‘न्यूनतम’ से भी कम है, बहुत कम। ऐसा भी नहीं है कि उनके बच्चे-स्त्रियाँ कपड़े-लत्तों की मोहताज हों। फिर भी अभाव छुपाए नहीं छुपते। होली-दीवाली और दूसरे त्यौहारों पर जब मेरे मुहल्ले के परिवारों के बच्चे खुले हाथों पटाखे फोड़ रहे होते हैं, रंग खेल रहे होते हैं तो इस परिवार के बच्चे कुछ ही पटाखे जला कर या नाम मात्र का रंग खेल कर, बाकी बच्चों को टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं। इनकी यह नजर मुझसे सहन नहीं होती। अपराध-बोध होता है इन्हें इस तरह देखते हुए। मुझे हर साल, हर बार लगता है कि मेरे पास सब कुछ मेरी आवश्यकता से कहीं अधिक है, बहुत अधिक। जबकि इनकी तो जरुरतें भी पूरी नहीं हो पातीं। ऐसे में अपना त्यौहार मनाना मुझे शोकग्रस्त तक कर देता है। तब, त्यौहार का उल्लास चेहरे पर लाने और उसे बनाए रखने में मुझे अपने आप से जूझना पड़ता है। बहुत कठिन और पीड़ादायक होता है यह जूझना। मर्मान्तक पीड़ादायक। यह सब अपने इन चारों परिजनो को कैसे बताऊँ? कैसे समझाऊँ?

इधर इन चारों की बात केवल कहने और चाहने तक ही सीमित नहीं है। दोनों बेटे और बहू इन्दौर रहते हैं। गए दिनों उत्तमार्द्ध कोई एक सप्ताह के लिए इन्दौर गई थीं। वल्कल और उसकी माँ कुछ खरीददारी करने बाजार गए थे। दोनों ने मेरे लिए कपड़े देखे तो किन्तु खरीदे नहीं। यह सोच कर कि पता नहीं रंग वगैरह मुझे पसन्द आए या नहीं, या मुझ पर फबें या नहीं। लेकिन ये सब बहाने हैं। दोनों भली प्रकार जानते हैं कि मैं अपने लिए नए कपड़े खरीदने या सिलवाने के पक्ष में हूँ ही नहीं।

चारों के चारों, मेरे इस नकार को, घुमा-फिराकर मेरी कंजूसी साबित करना चाह रहे हैं। मुझे हँसी आती है किन्तु हँस नहीं पाता। डरता हूँ कि ये सब बुरा न मान जाएँ। मैंने प्रस्ताव किया कि नए कपड़ों के मूल्य की रकम वे मुझसे ले लें और त्यौहार की किसी दूसरी मद पर या फिर घर की किसी और आवश्यकता पर खर्च कर लें। लेकिन वे इस पर तैयार नहीं। वे दीपावली का हवाला देकर अपने आग्रह पर अड़े हुए हैं और मैं अपनी मनस्थिति के अधीन विवश हूँ।

मैंने अपना अन्तिम निर्णय चारों को सुना दिया है - ‘मुझे आवश्यकता बिलकुल ही नहीं है इसलिए मैं नए कपड़े नहीं सिलवाऊँगा।’ चारों निराश हैं और खिन्न भी, जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा है।

मेरे मुहल्ले का रिवाज है, हम सारे परिवार दीवाली पर एक दूसरे के घर जाते हैं, यथा सम्भव सपरिवार। मैं चाहता हूँ कि इस बार दीवाली मिलन के लिए जब यह मिस्त्री परिवार मेरे घर आए तो इनके कपड़े मेरे कपड़ों से बेहतर हों। तब इनके चेहरों पर जो उजास आएगा उसके सामने, मेरे मुहल्ले के सारे मकानों पर की गई बिजली की रोशनी का उजाला जुगनू बन कर रह जाएगा।

अब तक ये लोग मेरी दीवाली में शरीक होते रहे हैं। इस बार से मैं इनकी दीपावली में शरीक होना चाहता हूँ। इस दीपावली से अब मैं हर दीपावली पर इसी रोशनी में नहाना चाहता हूँ।

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गाँधी को ले आए अपने गाँव


चूँकि गाँधी को बहुत ही कम पढ़ा है इसलिए ठीक-ठीक नहीं कह सहता किन्तु कहने को जी कर रहा है रतलाम से कोई 25 किलोमीटर दूर के
तीन गाँवों (अम्बोदिया, रैन और मऊ) के पुरुषार्थी किसानों ने न्यूनाधिक, गाँधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को साकार किया है।

यह समाचार मुझे मिला, कल, 25 अक्टूबर को, ‘पत्रिका’ (इन्दौर) से।

मेरे अचंल में इस बार वर्षा कम हुई है। किसान चिन्तित भी हैं और परेशान भी। बरसात आने की अब आशा तो छोड़िए, कोई ‘आशंका’ भी नहीं रही। ऐसे में, इन गाँवों के कन्हैयालाल पाटीदार, जय प्रकाश धाकड़, डी. पी. धाकड़, मदन सिंह, भरत पाटीदार जैसे किसानों ने सोचा - ‘क्यों नहीं बहते नाले के पानी को रोक कर सिंचाई की जाए?’ और वे शुरु हो गए।

प्रति व्यक्ति 500-500 सौ रुपये के मान से रकम एकत्रित की गई और जेसीबी की मदद से, तीनों गाँवों में, नाले पर मिट्टी की भरपूर ऊँची पाल खड़ी कर, तीन स्‍टॉप डेमों की मदद से पानी को रोक लिया। आज एक किलो मीटर तक पानी रुका हुआ है। किसानों की समस्या तो हल हुई ही, भूमिगत जलस्तर भी बढ़ गया। न तो किसी इंजीनीयर की मदद ली और न ही किसी सरकारी अफसर के सामने अर्जी लगाई। सब कुछ खुद ही कर दिखाया भूमि पुत्रों ने।

जैसा कि चित्र में दिखाई दे रहा है, इन पुरुषार्थियों ने केवल पाल ही नहीं बनाई, पानी का रिसाव रोकने के लिए पूरी पाल को प्लास्टिक से ढक कर पर्याप्त बचाव भी कर लिया। लागत पूछने पर एक दूसरे की ओर देख कर हँसने लगते हैं। एक बाँध की लागत किसी भी दशा में दस हजार रुपयों से अधिक नहीं। कल्पना की जा सकती है कि कच्ची मिट्टी का यही बाँध यदि सरकारी विभाग बनाता तो लागत का आँकड़ा क्या होता? उस आँकड़े में मूल लागत से अधिक तो कमीशन का हिस्सा होता।

छोटी सी पहल और सबकी मदद का नतीजा यह है कि तीनों गाँवों के लोग खुश तो हैं ही, रबी की भरपूर फसल के प्रति निश्चिन्त भी हैं।

कहावत है कि कहे का असर हो न हो, किए का असर जरूर होता है। सो इसका असर भी हुआ और आसपास के अन्य गाँवों के लोग भी ऐसे स्टाप डेम बनाने में जुट गए हैं ताकि अपनी रबी की फसलें बचा सकें।

गाँधी ने और क्या चाहा, क्या कहा था? यही तो कि गाँवों की समस्या का निदान गाँववाले आपस में मिलजुल कर गाँवों में ही तलाशें और समस्या से छुटकारा पाएँ। शायद ऐसे ही सन्दर्भ में गाँधी ने उस व्यवस्थ को सर्वोत्कृष्ट व्यवस्था कहा होगा जो जन सामान्य के दैनन्दिन व्यवहार में कम से कम हस्तक्षेप करे।

अम्बोदिया, रैन और मऊ के इन लोगों को तो पता ही नहीं कि ये लोग अनजाने में ही गाँधी को अपने गाँवों में ले आए हैं।

(इस पोस्ट का आधार, ‘पत्रिका’ में प्रकाशित समाचार है। चित्र श्री स्वदेश शर्मा का है जो मुझे ‘पत्रिका’ के श्री नरेन्द्र जोशी के कृपापूर्ण सौजन्य से मिला है।)

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आओ! करें दुस्साहस


कल देर रात (सुबह साढ़े तीन बजे) तक काम करता रहा। कुछ दिनों से कम्प्यूटर खराब पड़ा था। दुरुस्ती के लिए भेजा हुआ था।

कागज-पत्तर टटोलते-टटोलते एक कविता हाथ आई। जब इसकी नकल की तब इसके रचयिता का नाम लिखना भूल गया और न ही यह लिख पाया कि यह मुझे कहाँ से मिली है या किसने उपलब्ध कराई है।

कविता मुझे अच्छी लगी। प्रस्तुत कर रहा हूँ। किसी को इसके रचानाकार का नाम मालूम हो तो बताइएगा। यदि सम्भव हो तो चित्र भी उपलब्ध कराइएगा।

कविता का शीर्षक मैंने ही दिया है - रचनाकार ने नहीं।


आओ! करें दुस्साहस

इतिहास बदल देने का
दम्भ भरनेवाली

नर हत्याओं
के महायज्ञ में लीन
दिग्भ्रमित इस
पीढ़ी को
विवश करने का संकल्प
आज हमें लेना होगा।

आतंक के उफनते
ज्वार का आवेग
शान्त करने का
दुस्साहस
अब हमें करना होगा
आरोपों/प्रत्यारोपों के
चक्रव्यूह से
बाहर निकल कर।

आओ!
धूमिल पड़े
इस केनवास पर
कुछ नये रंग
बिखेरें हम।

तब शायद
जलते हुए इस वन में
एक बार फिर से
बसन्त आएगा।
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जनता के सेवक बनाम नौकरों के नौकर

ये हैं मनोहर ऊँटवाल। रतलाम जिले के आलोट विधान सभा क्षेत्र से विधायक हैं और इस समय मध्य प्रदेश सरकार में राज्य मन्त्री हैं। भले आदमी हैं और अब तक भ्रष्टाचार, गुटबाजी जैसे विवादों से बचे हुए हैं। दो-एक बार इनसे मिलने का प्रसंग आया था। तब वे मन्त्री नहीं थे। उस समय का मेरा अनुभव है कि वे कम बोलते हैं और धीमा बोलते हैं। नहीं जानता कि मन्त्री बनने के बाद उनकी इस आदत में कितना बदलाव आया या बदलाव आया भी कि नहीं।

चूँकि इनका विधान सभा क्षेत्र रतलाम जिले में है सो इनका रतलाम आना-जाना सहज-स्वाभाविक रूप से बना ही रहता है। राजनीतिक रूप से भी यह आवश्यक है।

गए दिनों इनके माध्यम से हमारे राजनेताओं का वह स्वरूप सामने आया जिसके चलते ही लोहिया ने मन्त्रियों को ‘नौकरों का नौकर’ हो जाने का निष्कर्ष प्रस्तुत किया था।

पूरे प्रदेश में बिजली की कमी से हा-हाकार मचा हुआ है। बिजली कटौती शहरों-कस्बों में कम और गाँवों में बहुत ज्यादा हो रही है - बारह घण्टों की कटौती तो सामान्य बात है। यह अवधि कभी-कभी अठारह-बीस घण्टे भी हो जाती है।

गाँववालों का एक ही अपराध है कि वे गाँववाले हैं। मतदाताओं में उनका बहुसंख्यक होना भी उनका अपराध कम नहीं कर पाता। उनका अपराध यह भी है कि गाँव बिखरे हुए हैं और अखबारों में उनकी बातों को, उनके कष्टों को वह प्रमुखता नहीं मिलती जो शहरों/कस्बों के लोगों की छोटी-छोटी बातों को मिल जाती है। गाँवों का और गाँववालो का बिखरा होना, असंगठित होना भी उनका एक बड़ा अपराध है। शहरों/कस्बों के लोग जिस तरह से एक आवाज पर एकत्र हो जाते हैं और सरकार की खटिया खड़ी कर देते हैं, वैसा गाँववाले सामान्यतः नहीं कर पाते। गाँववालों का एक अपराध और है - वे शहरों/कस्बों में रहनेवालों की तरह एकजुट होकर अखबारों के जरिए ‘जनमत’ नहीं बना पाते।

ऐसे ही कुछ सौ गाँववाले गए दिनों रतलाम कलेक्टोरेट में एकत्र हो गए। ग्राम बिलपाँक के बिजली वितरण केन्द्र से जुड़े गाँवों के ये निवासी, बिजली कटौती की भीषणता को सहन नहीं कर पाए। जब उन्हें खबर लगी कि मनोहर ऊँटवाल रतलाम आ रहे हैं तो अल्पावधि की इस सूचना पर जितने लोग आ सकते थे, रतलाम आ गए।

जैसा कि होना था, गाँववालों ने अपने होने का अहसास कराया। उस समय मनोहर ऊँटवाल, जिलाधिकारियों की बैठक ले रहे थे। कोलाहल सुनकर कलेक्टर ने एक डिप्टी कलेक्टर को बाहर भेजा। किसानों ने अपनी पीड़ा जताई और चेतावनी दी कि यदि उन्हें आवश्यकतानुसार बिजली नहीं मिली तो वे रतलाम-इन्दौर फोर लेन हई वे पर जाम लगा देंगे। डिप्टी कलेक्टर ने अपना डिप्टी कलेक्टरपना बताया और कहा कि लोगों ने यदि कानून हाथ में लिया तो पुलिस को लाठियाँ चलानी पड़ जाएँगी। गाँववालों ने कहा - ‘लाठियाँ क्यों? आप तो गोली चलवा देना साहब।’ डिप्टी कलेक्टर की बोलती बन्द हो गई। उसने समझाने की कोशिश की तो गाँववालों बात करने से मना कर दिया। साफ कहा - ‘मन्त्रीजी को बुलाओ। हम उन्हीं से से बात करेंगे।’

डिप्टी कलेक्टर ने कहा - ‘मन्त्रीजी जब निकलेंगे तब निकास द्वार पर जाकर बात कर लेना।’ गाँववालों ने कहा - ‘हम कहीं नहीं जाएँगे। इसी दरवाजे पर खड़े रहेंगे। मन्त्रीजी यहीं, इसी दरवाजे पर आकर हमसे मिलें।’

डिप्टी कलेक्टर अन्दर गया। थोड़ी ही देर में लौटा और बोला - ‘मन्त्रीजी मीटिंग में व्यस्त हैं। मीटिंग समाप्त होने पर, कोई घण्टे भर बाद आपसे मिलेंगे।’ गाँववालों ने भलमनसाहत बरती और प्रतीक्षा करना मंजूर किया।

कोई घण्टे भर बाद, मीटिंग खत्म होने पर मन्त्रीजी बाहर आए, गाँववालों की बात सुनी। पारम्परिक आश्वासन दिया और मन्त्रीजी अपने रास्ते, गाँववाले अपने रास्ते चले गए।

यही वह क्षण था जब लोहिया की बात सच साबित हुई। मन्त्रीजी ने प्राथमिकता अधिकारियों की मीटिंग को दी, गाँववालों को नहीं। और तो और, मीटिंग से तत्काल न आ पाने के लिए भी मन्त्रीजी ने कोई दुःख प्रकट नहीं किया। उन्होंने पल भर भी नहीं सोचा कि बड़ी संख्या में आए गाँववाले, आश्विन महीने की तेज धूप में (लोकोक्ति के अनुसार, आश्विन महीने की धूप इतनी तेज होती है कि जंगल में विचरण कर रहे हिरण भी साँवले पड़ जाते हैं) कैसे और कब तक खड़े रहेंगे जबकि तमाम अधिकारी तो, वातानुकूलित कक्ष में, आरामदायक कुर्सियों पर पसरे हुए थे। हाँ, यह महत्वपूर्ण अन्तर अवश्य था कि गाँववाले खरी-खोटी सुना सकते थे जबकि अधिकारी चिरपरिचति ‘हें, हें’ करते हुए चापलूसी और जी हुजूरी कर रहे थे। जाहिर है, खरी-खोटी पर चापलूसी हावी रही। उस समय मन्त्रीजी को पल भर भी याद नहीं आया कि गाँववालों ने ही उन्हें मन्त्री पद तक पहुँचाया है, अधिकारियों ने नहीं।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और सम्वेदनशील बात - यदि चुनाव सामने होते तो क्या कोई मन्त्री ऐसा व्यवहार कर पाता?

हमारे तमाम मन्त्री और निर्वाचित जन प्रतिनिधि केवल चुनावी मौसम में ही ‘जनता के सेवक’ होते हैं। अन्यथा तो वे ‘नौकरों के नौकर’ ही होते हैं।

बेचारे मनोहर ऊँटवाल का (और मेरा भी) दुर्भाग्य कि वे इस प्रकरण के नायक हो गए। इसे ऊँटवाल पर टिप्पणी बिलकुल ही नहीं माना जाना चाहिए। यहाँ कोई भी मन्त्री हो सकता था। ऊँटवाल तो केवल एक नाम भर है।

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कुन्दन बनें गडकरी


ऐसा बहुत कम होता है जैसा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने किया है। राष्ट्रकुल खेलों में हुए आर्थिक घपलों और भ्रष्टाचार को लेकर जितने सुस्पष्ट और सुनिश्चित आरोप गडकरी ने लगाए हैं, भारतीय राजनीति में वह शायद पहली ही बार है।

गडकरी ने प्रधान मन्त्री और प्रधान मन्त्री कार्यालय का सुस्पष्ट नामोल्लेख करते हुए इन पर न केवल भ्रष्टाचार के सुस्पष्ट आरोप लगाए अपितु साफ-साफ कहा कि भाजपा के पास भ्रष्टाचार के प्रमाण भी हैं। गडकरी ने यह भी साफ-साफ कहा कि इन खेलों में हुए भ्रष्टाचार का पैसा मारीशस-मार्ग से देश के बाहर भेजा गया है।

मेरी अल्प जानकारी में ऐसी सुनिश्चितता और सुस्पष्टता तथा प्रमाण होने की बात, इतने आत्म विश्वास और इतनी जिम्मेदारी से इससे पहले किसी ने नहीं की है। कुछ ही दिनों पहले, लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने, भोपाल गैस काण्ड में किसी बिचौलिये के होने की बात कही थी। यह उल्लेख उन्होंने किसी पुस्तक के हवाले से किया था। जब उनसे बिचौलिये का नाम पूछा गया था तो उन्होंने जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए, घुटे हुए राजनेताओं का पारम्परिक जवाब दिया था - आप किताब पढ लीजिए।

मुझे यह जवाब बिलकुल भी नहीं रुचा था। जिम्मेदारी से बच कर स्वराज ने अपने आरोप की गम्भीरता और गहनता ही नष्ट कर दी थी। बिचौलिये का उल्लेख उन्होंने अपने सूत्रों के हवाले से नहीं, किताब के हवाले से किया था। यदि वे नाम बता देतीं तो उन पर किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी नहीं आती। वे पहले ही किताब का हवाला दे चुकी थी। ऐसे में, बिचौलिए का नाम न बता कर उन्होंने उन तमाम लोंगों को जानकारी से (जानबूझकर) वंचित कर दिया जिन तक किताब नहीं पहुँची या नहीं पहुँच सकेगी। संक्षेप में, उन्होंने देश के करोड़ों नागरिकों को बिचौलिये का नाम जानने से वंचित कर दिया।

किन्तु गडकरी ने वैसा कुछ भी नहीं किया है। किन्तु उन्होंने घपले की रकम, व्यक्तियों के नाम तथा प्रकरणों की संख्या आदि का भी कोई उल्लेख नहीं किया। प्रथमदृष्टया यह सम्भव भी नहीं लगता। किन्तु गडकरी ने बात को यदि यहीं समाप्त कर दिया तो उनकी और भाजपा की विश्वसनीयता और सार्वजनिक प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाएगी।

ऐसे में गडकरी से मुझ जैसे सड़कछाप लोगों की सहज अपेक्षा (और आग्रह, अनुरोध भी) है कि वे शुंगलु कमेटी के समक्ष अपने सारे प्रमाण, विस्तार से तथा असंदिग्ध स्पष्टता से प्रस्तुत कर दें। जैसा कि होता है, इसके बाद भी यह सन्देह बना ही रहेगा कि शुंगलु कमेटी इन प्रमाणों की अनदेखी या उपेक्षा कर दे और दोषियों को साफ बचा ले जाए जिसकी कि आशंका पूरे देश को है।

इसलिए, गडकरी को सावधानी बरतते हुए, शुंगलु कमेटी के समक्ष प्रस्तुत किए जानेवाले सारे प्रमाण, सीलबन्द लिफाफों में, फौरन ही अपनी मनपसन्द समाचार चैनलों और अखबारों को भी सौंप देना चाहिए ताकि यदि शुंगलु कमेटी, गडकरी के प्रमाणों को हजम कर जाए तो वे समाचार चैनल और अखबार उन्हें सार्वजनिक कर सकें।

केवल आरोप लगाने भर से बात पूरी नहीं हो जाती। बात को मुकाम तक पहुँचाया जाना चाहिए। यदि गडकरी ऐसा नहीं करते हैं तो लोग, कांगे्रस प्रवक्ता मनीष तिवारी की उस बात पर सहजता से विश्वास कर लेंगे कि अपने समर्थक व्यापारी मित्तल पर पड़े छापों से ध्यान हटाने के लिए ही गडकरी ने ये आरोप लगाए हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि गडकरी ने जो साहसभरी पहल की है, उसे बीच में ही नहीं छोड़ा जाएगा। 70 हजार करोड़ के इस घपले की कीमत देश के आम आदमी ने चुकाई और पैसेवालों ने मलाई खाई है।

गडकरी ने शानदार शिकंजा कसा है। सारे देश की निगाहें और आशाएँ अब गडकरी पर टिकी हैं। यह गडकरी की अग्नि परीक्षा है। उम्मीद करें कि वे कुन्दन बन कर सामने आएँगे।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

रघुरामनजी को धन्यवाद दीजिए


मैं न तो कोई भाषाविद् हूँ और न ही हिन्दी भाषा का कोई प्राधिकार। वास्तविकता क्या है, यह तो ईश्वर ही जाने किन्तु मैं स्वयम् को असंख्य हिन्दी प्रेमियों की तरह ही एक सामान्य हिन्दी प्रेमी मानता हूँ। अन्तर इतना है कि मैं तनिक अधिक असहिष्णु, कम सहनशील, जल्दी उग्र हो जानेवाला, इसी कारण आपा खो कर आक्रामक हो जानेवाला हूँ। पता नहीं क्यों, हिन्दी के साथ कोई खिलवाड़ मैं सहन नहीं कर पाता। इसी कारण प्रायः ही अपनी सीमाएँ छोड़कर अशिष्ट और अशालीन भी हो जाता हूँ।

अपने इन्हीं ‘गुणों’ के चलते मैं प्रायः ही लोगों को पत्र लिखता रहता हूँ, उन्हें टोकता रहता हूँ, हिन्दी के साथ खिलवाड़ न करने के लिए यथा सम्भव अनुरोध/आग्रह करता हूँ और इतने पर भी जब मुझे अनसुना कर दिया जाता है तो मैं पहले तो रायचन्दी पर उतर आता हूँ और प्रक्रिया के अन्तिम चरण में अपने और सामनेवाले के कपड़े भी उतार देता हूँ। मुझे इस सबका दुःख तो होता है किन्तु इस सबके लिए लज्जा कभी भी अनुभव नहीं की। अपनी माँ के सम्मान की रक्षा करने के लिए मैं किसी भी हद तक गुजर जाने से परहेज नहीं करता।

अपनी इन्हीं आदतों के चलते मैंने गए दिनों, दैनिक भास्कर में ‘मेनेजमेंट फंडा’ स्तम्भ के लेखक श्रीयुत एन. रघुरामन को एकाधिक बार ई-पत्र लिखे और उन्हें अपने ब्लाॅग पर सार्वजनिक भी किया। इन पत्रों के अतिरिक्त भी मैंने एकाधिक बार रघुरामनजी को ई-पत्र भेजे।

यह कहते हुए मेरी प्रसन्नता को कोई ठिकाना नहीं है कि रघुरामनजी अपने लेखों में, लोक प्रचलित हिन्दी शब्दों के स्थान पर अकारण ही अंगे्रजी शब्दों का उपयोग शून्य प्रायः करने लगे हैं। गए पाँच-सात दिनों से तो उनके लेख पढ़-पढ़कर मैं पुलकित हो रहा हूँ। अपनी यह प्रसन्नता मैंने रघुरामनजी को भी जताई है।

चूँकि मैं रघुरामनजी को टोकता रहा हूँ, उनकी आलोचना करता रहा हूँ और उन्हें, अंगे्रजी शब्दों के हिन्दी पर्याय बता-बता कर उन्हें प्रयुक्त करने का आग्रह भी करता रहा हूँ और अपनी ये सारी ‘हरकतें‘ सार्वजनिक भी करता रहा हूँ इसलिए यह मेरा नैतिक दायित्प बनता है कि जब उन्होंने मेरी शिकायतें दूर कर दी हैं तो मैं उन्हें न केवल धन्यवाद दूँ अपितु उनके लिखे को पढ़ने का आग्रह भी सबसे करूँ।

मुझे नहीं पता कि रघुरामनजी द्वारा अपने लेखों में अंगे्रजी शब्दों का मोह त्यागने का कारण क्या है। किन्तु मुझे यह मानने की छूट दी जाए कि उनके इस कृपापूर्ण परिवर्तन में मेरा भी हिस्सा भी कहीं न कहीं और कुछ न कुछ तो है।

सो, मेरा निवेदन है कि कृपया हिन्दी के प्रति रघुरामनजी के इस परिवर्तित व्यवहार के लिए उनकी प्रशंसा करें और उन्हें साधुवाद दें।

आलोचना करने में हम कोई कसर नहीं छोड़ते। अपनी यह आदत हमने प्रशंसा करने के मामले में भी वापरनी चाहिए। प्रशंसा की खाद किसी भी आदमी के उत्साह की बेल को आसमान तक पहुँचा देती है।

रघुरामनजी! मैं जानता हूँ कि मेरी प्रशंसा से आपको कोई अन्तर नहीं पड़ता और आपके लिखे को पढ़ने के लिए मेरी कोई भी सिफारिश मेरी मूर्खता ही उजागर करेगी। किन्तु अपने उत्तरदायित्व को अनुभव कर मैं आपको कोटिशः धन्यवाद अर्पित करता हूँ। कृपया, हिन्दी की और हिन्दी के सम्मान की चिन्ता नींद में भी करते रहिएगा।

ईश्वर आपको दीर्घायु, यशस्वी बनाए और हिन्दी आपकी तथा आप हिन्दी की पहचान बनें।

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आप तो डरते हैं


अब तो इस सबकी आदत हो गई। ऐसा न तो पहली बार हुआ और न ही अन्तिम बार। ऐसा होता रहा है और होता रहेगा। पहले गुस्सा आता था। अब हँसी आती है।

एक दिवंगत एजेण्ट की, समूह बीमा राशि का भुगतान कराने को लेकर कल थोड़ा अतिरिक्त व्यस्त था। काम तनिक कठिन भी था। भुगतान इन्दौर से जो होना था! सो, मोबाइल कान से हट ही नहीं पा रहा था। यह भुगतान कुछ ऐसे अविश्वसनीय रूप से हुआ कि मुझे इसके लिए अलग से पोस्ट लिखनी पड़ेगी। भुगतान हो गया तो आत्म सन्तोष हुआ।

थकान दूर करने के लिए टाँगे फैलाकर पसरा हुआ था कि प्रकाशजी दवे आ गए। पूरे कस्बे में वे ‘पिक्कू भैया’ के नाम से पुकारे और पहचाने जाते हैं। खूब बोलते हैं। इतना कि खुद ही कहते हैं - ‘मुझे रोकते क्यों नहीं? मैं बोलते-बोलते थक जाता हूँ।’ यह अलग बात है कि उन्हें जब-जब भी रोका-टोका जाता है, वे हर बार ‘मुझे बोलने दो यार! टोका-टाकी मत करो’ कह कर टोकनेवाले की बोलती बन्द कर देते हैं।

उन्हें देख कर थोड़ा अनमना तो हुआ किन्तु सोचा कि मुझे तो केवल सुनना ही सुनना है। बोलने की मेहनत नहीं करनी है। सो, पसरी हालत में ही उनकी अगवानी की। उनके आने की वजह पूछने की जरूरत किसी को नहीं पड़ती और मुद्दे की बात पर आने में उन्हें देर नहीं लगती। मैं स्थानीय साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में ‘बिना विचारे’ शीर्षक से स्तम्भ लिखता हूँ। इस ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्टें ही प्रायः वहाँ छपने को दे देता हूँ। पिक्कू भैया ‘उपग्रह’ के नियमित पाठक हैं। आज वे ‘उपग्रह’ के ‘बिना विचारे’ से ही शुरु हुए। मेरे लिखने की प्रशंसा शुरु करते-करते, अठारह सितम्बर वाली अहम् की क्रूरता पोस्ट पर आ गए। उसकी खूब तारीफ की। बोले - ‘आपने तो जान ले ली। पढ़ते-पढ़ते रोना आ गया।’

और यह कहते ही वे मुद्दे की बात पर आ गए - ‘आप इतना अच्छा लिखते हो तो थोड़ा लोगों का भला भी कर दिया करो!’ मुझे तो चुप ही रहना था। बोले - ‘एक जनहित का मामला है। उसे उठाइए। पूरे जिले का भला हो जाएगा आपकी कलम से।’ मैंने सवालिया नजरों से उन्हें देखा। उन्हें अच्छा लगा। बोले - ‘ये जो अपना एस. पी. है ना? बहुत ही भला आदमी है। यह काफी कुछ करना चाहता है लेकिन इसके विभाग के लोग ही इसे कुछ करने नहीं दे रहे।’ इस बार मैंने थो ऽ ऽ ड़ा सा उठंगा होते हुए उनकी ओर देखा। मैं उन्हें ध्यान से ही नहीं, जिज्ञासा भाव से भी सुन रहा हूँ, यह देख वे उत्साहित हुए और जारी रहे - ‘ये अपना एस. पी. तो अपने शहर को गुण्डों-बदमाशों से, बिना परमिटवाले टेम्पो-ऑटो से, अतिक्रमण से मुक्त करना चाहता है। लेकिन डी. आई. जी., सी. एस. पी. और यातायात सुबेदार इसे कुछ भी नहीं करने दे रहे। इन तीनों ने इसके खिलाफ गुट बना लिया है। तीनों ही खूब माल कूट रहे हैं, अपना-अपना घर भर रहे हैं। बेचारा एस. पी. ईमानदार है। ये तीनों बेईमान इसे कुछ भी नहीं करने दे रहे।’ कह कर पिक्कू भैया ने इस सन्दर्भ से जुड़े बीसियों किस्से सुना दिए और बोले - ‘इन बदमाशों की तिकड़ी का पर्दा फाश कीजिए और एस. पी. की मदद कीजिए ताकि शहर के लोगों का भला हो सके।’

मैंने कहा - ‘जरूर करूँगा और आप कह रहे हैं तो मदद तो करनी ही पड़ेगी। लेकिन इसके लिए पहले आप मेरी मदद कीजिए।’ पिक्कू भैया उछल कर बोले - ‘कहिए! कहिए!! क्या मदद करूँ?’ मैंने कहा - ‘आपने जो कुछ सुनाया वह सब मुझे याद रहेगा नहीं। आज तो वैसे भी थका हुआ हूँ। इसलिए आपने जो कुछ भी कहा है, वह संक्षिप्त मैं लिख कर छोड़ जाईए। मैं एक-दो दिन में ‘उपग्रह’ के लिए समाचार बना दूँगा।’

मेरी बात सुनकर पिक्कू भैया ऐसे चिहुँके मानो बिजली का नंगा, करण्टदार तार दिखा कर उसे छूने के लिए कहा जा रहा हो। बोले - ‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? जानते नहीं कि मेरी पत्नी सरकारी नौकरी में है?’ उनकी दशा देख कर मुझे हैरत हुई। कहा - ‘अच्छी तरह जानता हूँ कि भाभीजी सरकारी नौकरी में हैं। लेकिन इस बात का उनकी नौकरी से क्या लेना-देना?’ पिक्कू भैया ने रोष भरी नजरों से मुझे देखा - ‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? अरे! मैंने आपको लिख कर दे दिया और कभी भूले-भटके वह कागज पुलिसवालों के हत्थे चढ़ गया तो मेरी बीबी की नौकरी खतरे में आ जाएगी।’ बात अटपटी थी। मेरे गले नहीं उतरी। बोला - ‘मेरी पत्नी भी तो सरकारी नौकरी में है? सब जानते हैं कि मैं ‘उपग्रह’ में लिखता हूँ। आपके लिखे कागज पुलिसवालों तक पहुँचें या न पहुँचें लेकिन ‘उपग्रह’ तो पहुँचेगा ही। जिन तीन अफसरों के नाम आपने बताए है, उन तीनों ही अफसरों के दफ्तर में ‘उपग्रह’ डाक से जाता है। फिर मेरी पत्नी की नौकरी का क्या होगा?’

पिक्कू भैया ने बिलकुल भी परवाह नहीं की। बोले - ‘आपका क्या है? आप तो पत्रकार हो। सब आपको जानते हैं और आपसे डरते हैं।’ मैंने कहा - डी. आई. जी., सी. एस. पी. से तो मेरा आज तक मिलना नहीं हुआ। हाँ यातायात सुबेदार जरूर मेरी शकल पहचानता है। लेकिन वह अपनी नौकरी की परवाह करेगा या मेरी बीबी की नौकरी की?’ अपना आग्रह दोहराते हुए पिक्कू भैया बोले - ‘नहीं! नहीं!! भाभीजी की नौकरी पर आँच भी नहीं आएगी। मैं हूँ ना? आप तो लिखो।’

मुझे हँसी आ गई। कहा - ‘पिक्कू भैया आप मेरी बीबी की नौकरी पर आँच न आने देने की तो गारण्टी दे रहे हो और अपनी ही बीबी की नौकरी पर आनेवाले खतरे को लेकर परेशान हो रहे हो? जिस दम पर आप मेरी बीबी की नौकरी बचाने की गारण्टी दे रहे हो, उसी दम पर भाभीजी की नौकरी भी तो बचा सकते हो? चलो! जो भी किस्से सुनाए हैं, लिख कर दो ताकि अपन दोनों मिल कर एस. पी. की मदद कर सकें और अपने कस्बे के लोगों का ही नहीं, पूरे जिले के लोगों का भला कर सकें।’

पिक्कू भैया भड़क गए। जो कुछ कहा उसका मतलब था कि वे तो मुझे हिम्मतवाला, दम-गुर्देवाला, खतरे झेल कर सच के लिए मैदान मे कूद जानेवाला और ऐसे ही ‘कईवाला’ आदमी मान रहे थे। यह सब उनका भ्रम ही था। मैं तो वास्तव में डरपोक और अपनी बीबी की नौकरी पर आँच न आने देने के लिए, भ्रष्ट अफसरों की तिकड़ी की कारगुजारियों की अनदेखी करनेवाला स्वार्थी निकला।

मेरी तरफ हिकारत से देखते हुए उठे और चलते-चलते बोले - ‘मैं क्या समझ कर आया था और आप क्या निकले? आप तो डरपोक निकले। आप क्या लोगों का भला करेंगे? उसके लिए तो बड़ी हिम्मत चाहिए, जिगर चाहिए जो आप में तो है ही नहीं।’

वे चले गए। मैं उठंगी दशा में ही पसरा रहा। मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगा, गुस्सा नहीं आया। न ही पिक्कू भैया पर दया आई। मैंने कहा न! अब तो इस सबकी आदत हो गई। पहले गुस्सा आता था। अब हँसी आती है।

और मैं सचमुच हँस रहा था - पिक्कू भैया को जाते हुए देखकर।

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‘संस्कार गंगोत्री’ याने ‘गंगोत्री फ्यूनरल’

इन दिनों गूगल बाबा के करिश्मे मुझे लिखने नहीं दे रहे। बार-बार रोक देते हैं। मैं हिन्दी में लिख रहा होता हूँ और गूगल बाबा अचानक ही वह सब अंग्रेजी में परोसने लगते हैं।

लम्बे समय से मेरे ब्लॉग की फीड गड़बड़ चल रही थी। मित्रों ने समझ लिया कि मैंने लिखना बन्द कर दिया है। उनका ऐसा समझना वाजिब भी था। ऐसी हरकत मैं पहले कर जो चुका हूँ!

किन्तु लिखते रहने के बाद भी जब उलाहने मिलते रहे तो मैंने अपने गुरु रविजी (श्री रवि रतलामी) से सम्पर्क किया। तकनीक के मामले में मेरा हाथ भरपूर तंग है। फिर भी उनके परामर्श पर मैंने कुछ उठापटक की, किन्तु कोई नतीजा नहीं निकला। उलाहने बराबर आते रहे।

एक दिन अपने बड़े बेटे वल्कल से मैंने अपना दुखड़ा रोया। उसने तसल्ली से मेरी पूरी बात सुनी। मुझसे रविजी का नम्बर लेकर उनसे सलाह ली और अपने स्तर पर काफी मेहनत की। उसकी मेहनत रंग लाई और मेरे ब्लॉग की फीड मिलनी शुरु हो गई। पहले जहाँ मेरी पोस्टों की तलहटी सूनी सपाट पड़ी रहती थी, वहाँ अब कृपालुओं की टिप्पणियों के अंकुर लहलहाने लगे।

लेकिन केवल यही नहीं हुआ। इसके साथ शुरु हो गया, मेरे ब्लॉग का अयाचित, स्वतः अंग्रेजी अनुवाद। मैं अपना ब्लॉग देख रहा होता हूँ और अचानक ही पूरी पोस्ट अंग्रेजी में बदल जाती है।

मैंने वल्कल को बताया। उसने अपने स्तर पर कुछ देख भाल करने की कोशिश की किन्तु उसे न तो इसका कारण मिल पाया और न ही निदान। सो, मेरे लिखे का अकस्मात स्वतः अंग्रेजी अनुवाद जारी है।

शुरु-शुरु में मुझे चिढ़ होती थी किन्तु अब मैं इसका आनन्द लेने लगा हूँ। मैं हिन्दी में लिखता कुछ और हूँ और गूगल बाबा अंग्रेजी में उसका अनर्थ कर देते हैं।

कुछ नमूनों का आनन्द आप भी लीजिए -

मैंने लिखा - मेरे अवगुण चित न धरो।
गूगल बाबा ने लिखा - आई डू नॉट डिमेरिट धरो हेड्स।

मैं - हिन्दी जाल जगत् में और भी।
गूगल बाबा - हिन्दी नेट किंगडम एण्ड आल्सो।

मैं - अपनी गरेबान।
गूगल बाबा - योअर नेक।

मैं - संस्कार गांगोत्री : माँ।
गूगल बाबा - गंगोत्री फ्यूनरल : मदर।

मैं - बच्ची को पढ़ाओ मत : कार खरीदो।
गूगल बाबा - डू पढ़ाओ बेबी : बाय कार।

मैं - कुछ अपनी।
गूगल बाबा - सम ऑफ योअर।

मैं -ऑल इज वेल।
गूगल बाबा -ऑल इज बेल।

मैं - वे इसके बिना भी नौकरी आराम से कर सकते थे।
गूगल बाबा - विदआउट इट दे कुड हेव लेफ्ट देयर जॉब्स टू रिलेक्स।

मैं - माज़ी की कोई शकल नहीं होती। (यहाँ ‘माज़ी’ से मेरा तात्पर्य ‘अतीत’ था।)
गूगल बाबा - मदर हेज नो फेस।

ये तो वे नमूने हें जो मुझे अचानक ही नजर आ गए, जिन्हें एकत्र करने के लिए मैंने कोई कोशिश नहीं की। कोशिश करुँ तो शायद नई भाषा के चुटकुलों का अच्छा-भला संग्रह हो जाए।

मुझे चिढ़ अब इस कारण भी नहीं होती कि अब तक मैं हिन्दी को हिंग्लिश में बदले जाने के आपराधिक दुष्कृत्य से खिन्न होता रहा हूँ। किन्तु गूगल बाबा द्वारा किए जा रहे इस अयाचित स्वतः अंग्रेजी अनुवाद से अंग्रेजी की भी खटिया खड़ी हो रही है।

जय गूगल बाबा! लगे रहो।

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