रात के साढ़े नौ बज रहे हैं। मैं अभी-अभी घर लौटा हूँ, भगतसिंह के जन्म दिन पर आयोजित, बन्द कमरे के एक ‘वाणी विलास’ को देख-सुन कर। पहले मुझे गाँधी पर दया आती थी, अब भगतसिंह पर आ रही है। लेकिन आज का ‘वाणी विलास’ देख-सुन कर खुश भी हूँ कि अच्छा हुआ जो भगतसिंह मात्र तेईस वर्ष की आयु में ही स्वर्गवासी हो गए। अधिक आयु तक जीते तो गाँधी से भी अधिक दुर्दशा झेलनी पड़ती उन्हें।
हम कुल जमा सत्रह लोग थे इस गोष्ठी में। दो लोग सत्तर बरस से अधिक आयु वाले, दस लोग साठ वर्ष से अधिक आयु वाले, तीन लोग पचास से साठ वर्ष के बीचवाले और दो लोग पैंतालीस से पचास के बीचवाले। हम सत्रह में से ग्यारह लोग बोले। इनमें से एक ने वह कविता सुनाई जिसका भगतसिंह से कोई लेना-देना नहीं था और जिसे वे आज से पहले बीसियों कवि गाष्ठियों में सुना चुके थे और जिसे सुनकर हर बार, उनके मित्रों ने उनकी पीठ पीछे उनकी खिल्ली उड़ाई और हिन्दी साहित्य की ‘कविता विधा’ पर तरस खाया।
हम सत्रह में से एक को भी पूर्व सूचित नहीं किया गया था कि उसे बोलना है। लेकिन जब गोष्ठी औपचारिक होकर शुरु हुई तो संचालकजी एक के बाद एक, सबको बोलने के लिए बुलाने लगे। जोरदार बात यह रही कि ऐसे अकस्मात बुलावे को भाई लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और ऐसे बोले मानो उन्हें पूर्व सूचना दी गई हो।
इन ‘तात्कालिक और अकस्मात वक्ताओं’ में से अधिकांश ने भगतसिंह का नाम लेकर जो कुछ कहा वह सुन कर ही मुझे भगतसिंह के जल्दी मर जाने पर सन्तोष हुआ।
एक रचनाकार ने कहा कि हिन्दू पिटता है तो कोई नहीं आता और मुसलमान पिटता है तो बीसियों लोग जुट जाते हैं। आगे उन्होंने कहा - इसीलिए भगतसिंह ने कहा था कि हम सबने एक होकर रहना चाहिए।
दूसरे विद्वान् ने कहा कि भगतसिंह होते तो देश को आज अयोध्या प्रकरण नहीं झेलना पड़ता और राम मन्दिर कब का बन चुका होता।
तीसरे ने पूछा - जब पाकिस्तानी क्रिकेट टीम जीतती है तो पाकिस्तान झण्डे लहराए जाते हैं और भारतीय क्रिकेट टीम जीतती है तो मुसलमान लोग गम में डूब जाते हैं। मुसलमानों को भगतसिंह से सबक लेना चाहिए और भारत को अपना मुल्क मानना चाहिए। इन सज्जन ने जब यह कहा तो एक श्रोता ने टोका - ‘तनिक बताएँ कि शत्रु देश की मदद करने के लिए, शत्रु देश से रिश्वत लेकर भारत की गोपनीय सूचनाएँ देने के अपराध में पकड़ाए गए लोगों में से कितने हिन्दू और कितने मुसलमान हैं?’ तो वक्ता गड़बड़ा गए और बोले - ‘गोष्ठी के बाद बात करेंगे।’
मुझे पता था कि मुझे भी बोलने को कहा जाएगा। मैं बोल भी सकता था। कई बातों को भगसिंह से जोड़ कर उपदेश बघार सकता था। किन्तु इस प्रकार ‘अकस्मात, तात्कालिक उद्बोधन’ के लिए बुलाना मुझे कभी नहीं रुचता। इसलिए साफ कहना पड़ा कि इस प्रकार औचक आग्रह कर मुझे संकोच में नहीं डाला जाना चाहिए था। न इस प्रकार बुलाना उचित है और न ही ऐसे निमन्त्रण पर बोलना उचित है। मेरी इस बात का असर यह हुआ कि अगले वक्ताओं में से पाँच लोगों ने बोलने से इंकार कर दिया।
पैंतालीस से पचास के बीच की आयु वाले एक सज्जन ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार पर निराशा, क्षोभ और क्रोध जताया और कहा - ‘आज भगतसिंह होते तो वे यह सब बिलकुल ही बर्दाश्त नहीं करते और एक क्रान्ति और कर देते।’ अपनी बात का समापन उन्होंने इस आशा से किया कि कोई न कोई भगतसिंह फिर पैदा होगा जो हमें इन अव्यवस्थाओं, दुराचारों से बचाएगा।
तीन वक्ता या तो चतुर थे या समझदार। इन्होंने चार-पाँच वाक्यों में अपना वक्तव्य समाप्त कर दिया। अधिकांश वक्ताओं ने जन्म दिन को पुण्य तिथि मे बदल कर भगतसिंह को श्रद्धांजलि अर्पित की। ले-दे कर कुल दो वक्ता भगतसिंह पर गम्भीरता से बोले। इन दोनों ने भगतसिंह से जुड़े अभिलेखीय सन्दर्भों से अपने वक्तव्य को और शेष श्रोताओं को समृद्ध किया।
दो सज्जन तब पहुँचे जब अध्यक्षीय वक्तव्य समाप्त हुआ ही था। उनमें से एक ने बोलना चाहा तो मैंने टोक दिया कि अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद किसी और का बोलना अशालीनता और अशिष्टता होगी क्योंकि अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद केवल आभार प्रदर्शन होना चाहिए। उन्हें मन मसोस कर चुप रहना पड़ा जबकि बाकी बस लोगों ने मुझे अत्यधिक कृतज्ञ नजरों से देखा।
गोष्ठी के अन्त में मध्य प्रदेश के दो राजनेताओं की आत्मा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए दो मिनिट का मौन रखा गया। इसके ठीक बाद स्वल्पाहार की प्लेटें आईं जिनमें फलाहारी नमकीन प्रमुख थे। व्रत-उपवास करनेवालों ने मेजबान को अत्यधिक कृतज्ञ नजरों से देखते हुए मुक्त हस्त और उदार मन से स्वल्पाहार स्वीकार किया। मैं खाँसी से परेशान चल रहा हूँ। सो, तरसी-तरसी नजरों से प्लेटों को और जली-कटी नजरों से खानेवालों को देखता रहा।
कमरे से बाहर आते हुए हर कोई आयोजन की प्रशंसा कर रहा था और पूछ रहा था - अगला आयोजन कब और किस पर केन्द्रित होगा? एक ने कह दिया - ‘भगतसिंह पर।’ सवाल आया - ‘कब?’ जवाब मिला - ‘28 सितम्बर को ही।’ सुननेवालों में से अधिकांश लोग ‘हो, हो’ कर हँस पड़े।
मुझसे यह सब नहीं देखा गया। भगवान को धन्यवाद दिया कि यह सब देखने-सुनने के लिए भगतसिंह को अधिक नहीं जीना पड़ा।
शहीद-ए-आजम! तुम सचमुच में तकदीरवाले हो कि अंग्रेजों ने तुम्हें फकत तेईस वर्ष की आयु में ही फाँसी दे दी। वरना, गाँधी से भी बुरी गत होती तुम्हारी।
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