भगतसिंह! अच्छा हुआ कि ज्यादा नहीं जीए


रात के साढ़े नौ बज रहे हैं। मैं अभी-अभी घर लौटा हूँ, भगतसिंह के जन्म दिन पर आयोजित, बन्द कमरे के एक ‘वाणी विलास’ को देख-सुन कर। पहले मुझे गाँधी पर दया आती थी, अब भगतसिंह पर आ रही है। लेकिन आज का ‘वाणी विलास’ देख-सुन कर खुश भी हूँ कि अच्छा हुआ जो भगतसिंह मात्र तेईस वर्ष की आयु में ही स्वर्गवासी हो गए। अधिक आयु तक जीते तो गाँधी से भी अधिक दुर्दशा झेलनी पड़ती उन्हें।

हम कुल जमा सत्रह लोग थे इस गोष्ठी में। दो लोग सत्तर बरस से अधिक आयु वाले, दस लोग साठ वर्ष से अधिक आयु वाले, तीन लोग पचास से साठ वर्ष के बीचवाले और दो लोग पैंतालीस से पचास के बीचवाले। हम सत्रह में से ग्यारह लोग बोले। इनमें से एक ने वह कविता सुनाई जिसका भगतसिंह से कोई लेना-देना नहीं था और जिसे वे आज से पहले बीसियों कवि गाष्ठियों में सुना चुके थे और जिसे सुनकर हर बार, उनके मित्रों ने उनकी पीठ पीछे उनकी खिल्ली उड़ाई और हिन्दी साहित्य की ‘कविता विधा’ पर तरस खाया।

हम सत्रह में से एक को भी पूर्व सूचित नहीं किया गया था कि उसे बोलना है। लेकिन जब गोष्ठी औपचारिक होकर शुरु हुई तो संचालकजी एक के बाद एक, सबको बोलने के लिए बुलाने लगे। जोरदार बात यह रही कि ऐसे अकस्मात बुलावे को भाई लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया और ऐसे बोले मानो उन्हें पूर्व सूचना दी गई हो।

इन ‘तात्कालिक और अकस्मात वक्ताओं’ में से अधिकांश ने भगतसिंह का नाम लेकर जो कुछ कहा वह सुन कर ही मुझे भगतसिंह के जल्दी मर जाने पर सन्तोष हुआ।

एक रचनाकार ने कहा कि हिन्दू पिटता है तो कोई नहीं आता और मुसलमान पिटता है तो बीसियों लोग जुट जाते हैं। आगे उन्होंने कहा - इसीलिए भगतसिंह ने कहा था कि हम सबने एक होकर रहना चाहिए।

दूसरे विद्वान् ने कहा कि भगतसिंह होते तो देश को आज अयोध्या प्रकरण नहीं झेलना पड़ता और राम मन्दिर कब का बन चुका होता।

तीसरे ने पूछा - जब पाकिस्तानी क्रिकेट टीम जीतती है तो पाकिस्तान झण्डे लहराए जाते हैं और भारतीय क्रिकेट टीम जीतती है तो मुसलमान लोग गम में डूब जाते हैं। मुसलमानों को भगतसिंह से सबक लेना चाहिए और भारत को अपना मुल्क मानना चाहिए। इन सज्जन ने जब यह कहा तो एक श्रोता ने टोका - ‘तनिक बताएँ कि शत्रु देश की मदद करने के लिए, शत्रु देश से रिश्वत लेकर भारत की गोपनीय सूचनाएँ देने के अपराध में पकड़ाए गए लोगों में से कितने हिन्दू और कितने मुसलमान हैं?’ तो वक्ता गड़बड़ा गए और बोले - ‘गोष्ठी के बाद बात करेंगे।’

मुझे पता था कि मुझे भी बोलने को कहा जाएगा। मैं बोल भी सकता था। कई बातों को भगसिंह से जोड़ कर उपदेश बघार सकता था। किन्तु इस प्रकार ‘अकस्मात, तात्कालिक उद्बोधन’ के लिए बुलाना मुझे कभी नहीं रुचता। इसलिए साफ कहना पड़ा कि इस प्रकार औचक आग्रह कर मुझे संकोच में नहीं डाला जाना चाहिए था। न इस प्रकार बुलाना उचित है और न ही ऐसे निमन्त्रण पर बोलना उचित है। मेरी इस बात का असर यह हुआ कि अगले वक्ताओं में से पाँच लोगों ने बोलने से इंकार कर दिया।

पैंतालीस से पचास के बीच की आयु वाले एक सज्जन ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार पर निराशा, क्षोभ और क्रोध जताया और कहा - ‘आज भगतसिंह होते तो वे यह सब बिलकुल ही बर्दाश्त नहीं करते और एक क्रान्ति और कर देते।’ अपनी बात का समापन उन्होंने इस आशा से किया कि कोई न कोई भगतसिंह फिर पैदा होगा जो हमें इन अव्यवस्थाओं, दुराचारों से बचाएगा।

तीन वक्ता या तो चतुर थे या समझदार। इन्होंने चार-पाँच वाक्यों में अपना वक्तव्य समाप्त कर दिया। अधिकांश वक्ताओं ने जन्म दिन को पुण्य तिथि मे बदल कर भगतसिंह को श्रद्धांजलि अर्पित की। ले-दे कर कुल दो वक्ता भगतसिंह पर गम्भीरता से बोले। इन दोनों ने भगतसिंह से जुड़े अभिलेखीय सन्दर्भों से अपने वक्तव्य को और शेष श्रोताओं को समृद्ध किया।

दो सज्जन तब पहुँचे जब अध्यक्षीय वक्तव्य समाप्त हुआ ही था। उनमें से एक ने बोलना चाहा तो मैंने टोक दिया कि अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद किसी और का बोलना अशालीनता और अशिष्टता होगी क्योंकि अध्यक्षीय वक्तव्य के बाद केवल आभार प्रदर्शन होना चाहिए। उन्हें मन मसोस कर चुप रहना पड़ा जबकि बाकी बस लोगों ने मुझे अत्यधिक कृतज्ञ नजरों से देखा।

गोष्ठी के अन्त में मध्य प्रदेश के दो राजनेताओं की आत्मा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए दो मिनिट का मौन रखा गया। इसके ठीक बाद स्वल्पाहार की प्लेटें आईं जिनमें फलाहारी नमकीन प्रमुख थे। व्रत-उपवास करनेवालों ने मेजबान को अत्यधिक कृतज्ञ नजरों से देखते हुए मुक्त हस्त और उदार मन से स्वल्पाहार स्वीकार किया। मैं खाँसी से परेशान चल रहा हूँ। सो, तरसी-तरसी नजरों से प्लेटों को और जली-कटी नजरों से खानेवालों को देखता रहा।

कमरे से बाहर आते हुए हर कोई आयोजन की प्रशंसा कर रहा था और पूछ रहा था - अगला आयोजन कब और किस पर केन्द्रित होगा? एक ने कह दिया - ‘भगतसिंह पर।’ सवाल आया - ‘कब?’ जवाब मिला - ‘28 सितम्बर को ही।’ सुननेवालों में से अधिकांश लोग ‘हो, हो’ कर हँस पड़े।

मुझसे यह सब नहीं देखा गया। भगवान को धन्यवाद दिया कि यह सब देखने-सुनने के लिए भगतसिंह को अधिक नहीं जीना पड़ा।

शहीद-ए-आजम! तुम सचमुच में तकदीरवाले हो कि अंग्रेजों ने तुम्हें फकत तेईस वर्ष की आयु में ही फाँसी दे दी। वरना, गाँधी से भी बुरी गत होती तुम्हारी।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

फीड मिली या नहीं?


कृपालु मित्रों,

मुझ पर नियमित नजर रखनेवाले और मुझे टिपियानेवाले मित्रों ने शिकायत है कि एक लम्बे समय से मेरे ब्लॉग की ‘फीड’ नहीं मिल रही है। मुझे तो ‘फीड’ का मतलब भी नहीं मालूम। तकनीक के मामले में मैं शून्यवत हूँ।

मैंने अपनी समस्या मेरे गुरु श्री रवि रतलामी को बताई। मेरे बेटे वल्कल को भी मेरी समस्या की जानकारी मिली। उसने रविजी से ज्ञान प्राप्ति कर कुछ कोशिश की।

यह अनुरोध केवल यह जानने के लिए पोस्ट कर रहा हूँ कि इन दोनों के प्रयास सफल हुए या नहीं।

कृपया सूचित कीजिएग कि आपको ‘फीड’ मिली या नहीं।

कल तय होगी परसों की दशा-दिशा


मुझे नहीं लगता कि कल कुछ होगा। सब कुछ शान्त, राजी-खुशी रहेगा। तनाव से शुरु हुआ दिन शाम होते-होते यदि तनाव मुक्त नहीं भी हो पाया तो भी अधिक तनाव युक्त समाप्त नहीं होगा।

तीन न्यायाधीशोंवाली, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्ड पीठ, कल अपराह्न साढ़े तीन बजे, अयोध्या प्रकरण पर अपना बहु प्रतीक्षित निर्णय सुनाएगी। सबकी धड़कनें बढ़ी हुई हैं। लोगों के चेहरों पर तनाव और भय साफ-साफ दिखाई दे रहा है। प्रशासन अतिरिक्त सतर्कता बरत रहा है। अधिकारियों ने अपने स्तर पर यथेष्ठ व्यवस्थाएँ कर ली हैं। किसी भी आपात् स्थिति के लिए सब कुछ तैयार है। जहाँ-जहाँ भाजपा की सरकारें हैं, वहाँ-वहाँ अतिरिक्त चिन्ता, अतिरिक्त भय और अतिरिक्त दहशत अनुभव की जा रही है। दूसरों की छोड़ दें, खुद भाजपा अतिरिक्त सतर्कता बरतती नजर आ रही है। कर्नाटक सरकार ने 28 सितम्बर को ही घोषित कर दिया है कि वहाँ 29 और 30 सितम्बर को स्कूलों/कॉलेजों में अवकाश रहेगा। मैं 28 सितम्बर की आधी रात के बाद यह सब लिख रहा हूँ। तब तक तो मध्य प्रदेश सरकार ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है किन्तु लग रहा है कि 30 सितम्बर को स्कूलों में सन्नाटा ही रहेगा। सड़कें भी वीरान रह सकती हैं। मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान घोषित कर चुके हैं कि यदि कहीं कोई गड़बड़ हुई तो वहाँ के अधिकारी ही जवाबदार होंगे। उन्होंने अधिकारियों को ‘फ्री हेण्ड’ देने की सार्वजनिक घोषणा भी कर दी है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने मन्त्रियों को सार्वजनिक रूप से हिदायत भी दी है कि वे (मन्त्री) प्रशासन में हस्तक्षेप न करें। यह अलग बात है कि इस सार्वजनिक हिदायत ने मन्त्रियों द्वारा प्रशासन में हस्तक्षेप करने की बात को मुख्‍यमन्‍त्री की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति दे दी है।

इस सबके बाद भी मुझे लगता है कि 30 सितम्बर का दिन बिना किसी बड़ी घटना के बीत जाएगा और प्रशासन को कोई अप्रिय कार्रवाई नहीं करनी पड़ेगी। हाँ, 30 सितम्बर का दिन आनेवाले समय की दशा और दिशा अवश्य निर्धारित कर देगा।

ऐसा सोचने के लिए मेरी अपनी कुछ धारणाएँ हैं। लखनऊ उच्च न्यायालय खण्ड पीठ का निर्णय इस प्रकरण का अन्तिम निर्णय नहीं होगा। जो भी पक्ष असन्तुष्ट होगा, उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का विधि सम्मत रास्ता खुला रहेगा। याने जिसे भी, जो भी करना होगा, वह सर्वोच्च न्यायालय के अन्तिम निर्णय के बाद ही करेगा।

मुसलमानों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उनकी बाबरी मस्जिद ध्वस्त की जा चुकी है। निर्णय यदि उनके विरुद्ध होता है तो वे चुपचाप सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले लेंगे। यदि निर्णय उनके पक्ष में आता है तो भी उन्हें मालूम है उन्हें तत्काल खुश होने की जरूरत नहीं क्योंकि असन्तुष्ट पक्ष फौरन ही सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएगा। सम्भवतः इसीलिए लगभग समस्त मुसलमान नेताओं, संगठनों और संस्थाओं ने न्यायालय का निर्णय स्वीकार करने की स्पष्ट सार्वजनिक घोषणा बार-बार की है। ऐसा करके मुसलमान समुदाय इस देश के कानून, न्याय व्यवस्था और न्यायपालिका के प्रति अपने विश्वास का सार्वजनिक प्रकटीकरण कर रहा है। ऐसा बार-बार करने का सीधा सन्देश यही जाता है कि लोग दूसरे पक्षों से भी ऐसी ही सार्वजनिक घोषणा की अपेक्षा और प्रतीक्षा करें। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि अपनी इस घोषणा के कारण मुसलमान समुदाय को जन साधारण की सहानुभूति मिलेगी और जो लोग मुसलमानों की देश भक्ति को संदिग्ध बनाए रखने की कोशिशें करते रहे हैं, उन्हें चुप रहना पड़ेगा। मेरा निष्कर्ष यह कि मुसलमान समुदाय यह प्रकरण जीते या हारे, न्यायालयीन निर्णय को आँखें मूँदकर स्वीकार करने से उसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी और राष्ट्र के प्रति उनकी निष्ठा पर अंगुलियाँ उठानेवालों को परेशानी होगी। लेकिन ऐसा तभी होगा जब समूचा मुसलमान समुदाय, न्यायालय के निर्णय के बाद सचमुच में शालीनताभरी चुप्पी बरते। यह पंक्ति लिखते समय मुझे भली प्रकार याद है कि सब तरह के लोग सब जगह होते हैं और जैसा कि अब तक होता चला आ रहा है, मुट्ठी भर मूर्ख लोग अधिसंख्‍य सज्‍जनों की ऐसी-तैसी कर देते हैं और मुसलमान समुदाय भी इसका अपवाद नहीं है।

प्रकरण में पक्ष तो और भी कई हैं किन्तु ‘संघ’ ही ‘स्वाभाविक प्रमुख पक्ष’ बना हुआ है। संघ परिवार की स्थिति उतनी अच्छी और सुरक्षित नहीं है जितनी कि मुसलमान समुदाय की। संघ परिवार के लिए यह प्रकरण जीवन-मरण का प्रश्न है। संघ परिवार इस हीनता बोध से आज तक नहीं उबर पा रहा है कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में उसका रंच मात्र भी योगदान नहीं है। उसके पास कोई भी ऐतिहासिक-राष्ट्रीय नायक नहीं है। इसीलिए वह कभी किसी को तो कभी किसी को अपने नायक की तरह प्रस्तुत करते रहने को विवश भी है और अभिशप्त भी। दिल्ली की सरकार में जाने के लिए उसने (संघ और भाजपा को अलग-अलग समझने का भ्रम हममें से किसी को नहीं पालना चाहिए) अपने उन तीनों मुद्दों को सरयू में फेंक दिया जो उसकी पहचान बने हुए थे। इतना ही होता तो कोई बात नहीं थी। किन्तु उस पर आरोप यह भी लगा हुआ है कि दिल्ली सरकार में जाते ही वह राम मन्दिर को भूल गया और लगातार 6 वर्षों तक सरकार में बने रहने के बाद भी उसने राम मन्दिर के लिए चूँ तक नहीं की। संघ परिवार को सत्ता से बाहर हुए यह छठवाँ साल चल रहा है किन्तु इस आरोप का कोई जवाब उसके पास आज तक नहीं है। जाहिर है कि संघ परिवार को ऐसा कोई मुद्दा चाहिए ही चाहिए जो उसके लिए प्राण वायु का काम कर सके। वैसे, संघ परिवार की सेहतभरी दीर्घायु के लिए जरूरी तो यह है कि यह मामला कभी निपटे ही नहीं।
इसलिए, न्यायालयीन निर्णय को लेकर संघ (और भाजपा) के वक्तव्य सारी सम्भावनाओं को खुला रख रहे हैं। इनमें से कोई भी नहीं कह रहा कि वे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को आँख मूँद कर स्वीकार करेंगे, जैसा कि मुसलमान समुदाय कह रहा है।

फिर, संघ के वादों पर शायद ही किसी को भरोसा हो। यह संघ परिवार ही था जिसके कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मन्त्री की हैसियत में, सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र देकर बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का वचन दिया था। इसके समानान्तर यह तथ्य भी जगजाहिर है कि सत्ता में रहते हुए संघ के निष्ठावान स्वयम् सेवक कितने अलोकतान्त्रिक, कितने स्वच्छन्द हो जाते हैं। ये लोकतान्त्रिक पद्धति के सहारे सत्तासीन होते हैं और सत्ता में आते ही लोकतन्त्र को परे धकेलने लगते हैं। सो, 30 सितम्बर को यदि कुछ हुआ तो उस ‘होने’ के लिए सबसे पहले संघ परिवार पर ही सन्देह होता है।

ऐसे में, लखनऊ खण्ड पीठ का निर्णय यदि मुसलमानों के पक्ष में आया तो मुमकिन है कि संघ परिवार चुप रहे और सर्वोच्च न्यायालय की तैयारी करे। तब वह इस मामले को ‘कानूनी मामला’ कहना छोड़ कर इसे ‘आस्था का मामला’ कह कर ही अपनी बात कहेगा। वह सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा भी लड़ेगा और मामले को संसद से लेकर सड़क तक ले जाने की तैयारी भी रखेगा। किन्तु लखनऊ का निर्णय यदि संघ परिवार के पक्ष में आया तो वह चुप रह ही नहीं सकेगा। अपनी खुशी (याने कि मुसलमानों को उनकी हैसियत और स्थिति) जताने के लिए वह ढोल-नगाड़े न भी बजाए तो भी तुरही तो बजाएगा ही बजाएगा।

सो, मुझे नहीं लगता कि 30 सितम्बर को कुछ अनहोनी होगी। यह दिन बिना किसी बड़ी घटना के जैसे-तैसे निकल जाएगा। किन्तु इसी दिन यह भी तय हो जाएगा कि आनेवाले दिन कैसे होंगे।

उसी के लिए तैयार रहिएगा।

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एक माँगू सो रहा था, एक माँगू रो रहा था (भाग-2)

एक माँगू सो रहा था,
एक माँगू रो रहा था (भाग-2)

अब लौट आईए सन् 46-47 में। शंकरलाली का, चार-पाँच साल का बेटा परमानन्द बीमार हो गया। ‘उस जमाने’ के मुताबिक दवा-दारु शुरु हुआ। लेकिन परमानन्द की तबीयत नहीं सुधरी। अब फारुख भाई शाम से लेकर देर रात तक परमानन्द के पास बैठने लगे।

एक शुक्रवार की रात अचानक ही फारुख भाई ने परमानन्द के बिस्तर के पास बैठ कर विशेष नमाज पढ़ी और परमानन्द की सेहतमन्दी के लिए दुआ की। पता नहीं दवा का असर हुआ या दुआ का, कुछ ही दिनों में परमानन्द चंगा हो गया। बिस्तर से उतर कर परमानन्द खेलने-कूदने लगा तो फारुख भाई ने शंकरलालजी से कहा -‘शंकर भाई! मैंने परमानन्द को मालिक से माँगा था। मेरी गुजारिश है कि आप इसका नाम माँगीलाल रख दो।’ शंकर भाई ने कहा - ‘फारुख भाई! परमानन्द जैसे मेरा बेटा वैसे ही तुम्हारा भी बेटा। आज से उसका नाम माँगीलाल हुआ।’ और उसके बाद से किसी ने परमानन्द को परमानन्द कह कर नहीं पुकारा। वह माँगीलाल हो गया।

अब इसे खुदा का करिश्मा कहिए या कि जोग-संजोग, उपरोक्त घटना के कोई तीन साल बाद, सन् 49-50 में फारुख भाई का बेटा मुश्ताक बीमार हो गया। बीमार भी ऐसा कि न तो कोई दवा असर करे और न ही कोई झाड़ फूँक। परमानन्द की बीमारी के दौरान जैसे फारुख भाई रोज शंकरलालजी के घर देर रात तक बैठते थे, उसी तरह शंकरलालजी, फारुख भाई के घर बैठ रहे थे-बीमार मुश्ताक के पास। वे देखते थे मुश्ताक को लेकिन उन्हें नजर आता था माँगीलाल। अपनी असहायता पर दोनों ही परिवार दुखी थे। इसी दौरान एक मंगलवार की रात शंकरलालजी ने मुश्ताक के बिस्तर के पास अगरबत्ती लगा कर, हनुमान चालीसा का पाठ किया और ईश्वर से मुश्ताक की जीवन-याचना की। यहाँ भी वही हुआ जो परमानन्द बनाम माँगीलाल की बीमारी के वक्त हुआ था। मुश्ताक की सेहत सुधरने लगी और कुछ ही दिनों में वह माँगीलाल के साथ खेलता नजर आने लगा।

शंकरलालजी ने फारुख भाई से कहा - ‘ फारुख भाई! मुश्ताक हमें यूँही नहीं मिला है। मैंने इसे ईश्वर से माँगा था। क्या तुम इसका नाम माँगीलाल रख सकते हो?’ फारुख भाई ने शंकरलालजी वाला वाक्य जस का तस दोहरा दिया - ‘शंकर भाई! इसमें पूछना क्या? मुश्ताक जैसे मेरा बेटा वैसे ही तुम्हारा भी बेटा। इसका नाम माँगीलाल तुम ही रख दो।’ और उसी क्षण से मुश्ताक गुम हो गया और फारुख भाई के आँगन में भी माँगीलाल खेलने लगा।

शुरु-शुरु में कुछ ‘अपनेवालों’ ने फारुख भाई से ऐतराज जताया किन्तु दोस्ती के सामने धर्म परास्त हो गया और रतलाम जैसे छोटे से कस्बे के स्कूल में एक नाम ‘माँगीलाल वल्द फारुख मोहम्मद’ बना रहा।
दोनों माँगीलाल अब ‘माँगू’ पुकारे जाते थे। अन्तर करना होता तो ‘माँगू शंकर’ और ‘माँगू फारुख’ कह कर बात साफ कर दी जाती।

आज न तो शंकरलालजी यादव हैं और न ही फारुख मोहम्मद खान। लेकिन तब का बना यह रिश्ता दोनों परिवारों की तीसरी पीढ़ी तक बराबर निभ रहा है। अन्नकूट के दिन यादव-परिवार में तब भी सब्जी तभी बनती थी जब फारुख भाई के घर से सब्जियों की डाली आती थी आज भी उसके बिना यादव-परिवार का अन्नकूट पूरा नहीं होता। तब भी फारुख भाई को ईद का साफा यादव-परिवार बँधवाता था और आज भी बँधवाता है। शादी हो या गमी, एक दूसरे के बिना इन परिवारों का काम नहीं चलता।

वही माँगीलाल याने ‘माँगू फारुख’, लम्बी बीमारी के बाद, 6 सितम्बर की अपराह्न चल बसा। उसके निधन की खबर सबसे पहले जिन लोगों का दी गई उनमें माँगीलालजी यादव भी शामिल थे ही।

आगे की बात यादवजी के शब्दों में ही सुनिए - ‘उस दिन मेरे हमनाम मृतक के मोहल्ले में कर्फ्यू लगा हुआ था। लोग कर्फ्यू तोड़ कर जनाजे में शामिल हुए। मुझे तो पहुँचना ही था। हम दोनों सहोदर भले ही नहीं थे किन्तु हमारे पिताओं ने अपने-अपने आराध्यों से हमें एक-दूसरे के लिए माँगा था। माँगीलाल के शव को जब जनाजे में रखा गया तो मुझे लगा, मैं अपना ही शव देख रहा हूँ। जनाजे के पीछे चलते समय कब्रस्तान तक के सफर में मुझे लगता रहा कि मैं अपनी ही शव यात्रा में शरीक हूँ। आप तो जानते हैं कि मुसलमानों में, शरीक-ए-जनाजा तभी माना जाता है जब आप जनाजे को कन्धा दें। मैंने जब माँगू के जनाजे को कन्धा दिया तो लगा, मैं अपना ही जनाजा ढो रहा हूँ।

‘जनाजा जब मस्जिद के सामने पहुँचा तो नमाज के लिए रोका गया। नमाज पढ़नेवाले को असुविधा हुई। माँगीलाल तो हिन्दू नाम है! उसके असली नाम की खोज-बीन शुरु हो गई। माँगू के लड़के ने मुझसे पूछा - ‘अब्बा का नाम शायद मुश्ताक था ना?’ मैंने ताईद की।

‘कब्रस्तान पहुँचते-पहुँचते सूरज क्षितिज पर झिलमिलाने लगा था। मैं हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ। माँगीलाल की मौत को अपनी मौत समझते हुए मुझे पचासों उपमाएँ याद आने लगीं। जनाजे का कब्र में उतारे जाना, उसे मिट्टी देना, कब्र को मिट्टी से भरते हुए देखना - सब कुछ ऐसा लग रहा था कि यह सब मेरे लिए, मेरे साथ हो रहा है।

‘शव को दफन कर जब लोग लौटने लगे तो मेरा जी किया कि मैं वहीं कब्र के पास बैठ जाऊँ। मैं सबसे पीछे रह गया। मैं जोर-जोर से रोना चाहता था। मेरी छाती में गुबार इकट्ठा हो गया था। मेरा अभाग्य कि मैं उस तरह से रो भी नहीं सका जिस तरह से रोना चाहता था।

‘भाई साहब! कल मैंने अपनी मौत देखी, खुद को जनाजे में देखा। खुद को मिट्टी दी और खुद को दफनाया। वह कब्र में अब कभी न उठने के लिए सो रहा था और मैं रो रहा था - उसमें और मुझमें बस यही फर्क रह गया था।’

उस शाम यादवजी ने कॉफी नहीं पी। जितने गमगीन वे आए थे, उतने ही गमगीन वे गए भी। और मैं? जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा, उस रात मैं ‘एक नींद’ सो नहीं पाया। हाँ, जब-जब भी नींद टूटी, मैंने खुद को रोता हुआ पाया।


(बॉंया चित्र श्री माँगीलालजी यादव और दाहिना चित्र स्‍वर्गीय श्री माँगीलालजी कुँजडा)

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आपकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है


26 सितम्बर 2010, रविवार
आश्विन कृष्ण तृतीया, 2067

माननीय श्रीयुत गुप्ताजी,

सविनय सादर नमस्कार,

‘साप्ताहिक डिम्पल’ में आपके, दोहा (कतर) विदेश यात्रा के संस्मरण पढ़ रहा हूँ। कल की डाक से ‘डिम्पल’ का, 24 सितम्बर वाला अंक मिला। उसी मे आपके संस्मरणों की दूसरी किश्त पढ़ी। संस्मरणों में जानकारियाँ प्रचुर और महत्वपूर्ण तो हैं ही, रोचक भी हैं। आपके अन्दर एक अच्छा लेखक मौजूद है। अभिनन्दन।

एक महत्वपूर्ण बात की ओर आपका ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ। अपने लेखन में आप अंगे्रजी शब्दों के बहुवचन रूप प्रयुक्त कर रहे हैं। ‘डिम्पल’ के 24 सितम्बर वाले अंक में छपी दूसरी किश्त में आपने ‘ब्लाक्स’, ‘कॉल्स’, ‘इंजिनियर्स’, ‘ड्रायफ्रूट्स’ और ‘टेलीफोन्स’ प्रयुक्त किए हैं। यह भाषा और व्याकरण के सन्दर्भ न तो उचित है और न ही अनुमतेय।

दुनिया की प्रत्येक भाषा के व्याकरण का यह सामान्य नियम है कि जब भी कोई शब्द अपनी मूल भाषा से अन्य भाषा (इतर भाषा) में जाता है तो उस पर उसकी मूल भाषा का व्याकरण लागू नहीं होगा। उस पर उस ‘अन्य भाषा’ (इतर भाषा) का व्याकरण लागू होगा जिस भाषा में वह जा रहा है।

अंग्रेजी में हिन्दी के डोसा, समोसा, साड़ी जैसे अनेक शब्द समाहित कर लिए गए हैं। अंग्रेजी में जब ये शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं तो वे उनके अंग्रेजी बहुवचन स्वरूप (‘डोसास’, ‘समोसास’, ‘सारीज’) में काम में लिए जाते हैं, उनके हिन्दी बहुवचन स्वरूप (डोसे, समोसे, साड़ियाँ) में नहीं। इसीलिए हिन्दी में कारें, बसें, रेलें, सिगरेटें, माचिसें, टिकिटें आदि प्रयुक्त किए जाते हैं, कार्स, बसेस, रेल्स, सिगरेट्स, माचिसेस, टिकिट्स आदि नहीं।
इसी तर्ज पर आपके लेख में ‘ब्लाक’ (ब्लाकों), ‘कॉल’, ‘इंजिनियर’ (इंजिनियरों), ‘ड्रायफ्रूट’, ‘टेलीफोन’ (टेलिफोनों) प्रयुक्त किए जाने चाहिए थे। आप तनिक कष्ट उठा कर, संस्मरणों की दूसरी किश्त में वापरे गए अंग्रेजी बहुवचन स्वरूपवाले शब्दों के अन्त में लगाए गए अंग्रेजी के ‘एस’ को हटा कर पढ़िएगा। आप पाएँगे कि अर्थ में कहीं अन्तर नहीं आता।

हिन्दी इन दिनों गम्भीर संकट से गुजर रही है। इसके स्वरूप का शील भंग तो किया ही जा रहा है, इसके व्याकरण को भी भ्रष्ट किया जा रहा है। आपके लिखे को पढ़कर बच्चे उसकी नकल करेंगे। इसलिए, मेरे विचार में, आपकी जिम्मेदारी तनिक अधिक बढ़ जाती है।

इसलिए आपसे मेरा साग्रह, सानुरोध, करबद्ध निवेदन है कि कृपया तनिक अधिक सतर्क होकर हिन्दी लेखन करें। हिन्दी हमें रोटी दे रही है, नाम दे रही है, पहचान दे रही है, हैसियत दे रही है। बदले में हम हिन्दी को यदि कुछ दे न पाएँ तो इतना तो कर ही सकते हैं कि उसे नुकसान नहीं पहुँचाएँ।

सम्भव है, मेरी बातें आपको अप्रिय, अनुचित, अनावश्यक, आपत्तिजनक लगें। यदि ऐसा हो तो मैं आपसे करबद्ध क्षमा याचना करता हूँ। किन्तु यह करते हुए भी अपना आग्रह दोहराता हूँ।

अपने हिन्दी लेखन से आप यशस्वी बनें और हिन्दी आपके कारण पहचानी जाए।

इन्हीं शुभ कामनाओं सहित।

विनम्र,
विष्णु बैरागी

प्रतिष्ठा में,
श्रीयुत राम शंकरजी गुप्ता,
सेवा निवृत्त डिप्टी कलेक्टर,
द्वारा - साप्ताहिक डिम्पल,
डिम्पल चौराहा,
शामगढ़ - 458883
(जिला - मन्दसौर)


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एक माँगू सो रहा था, एक माँगू रो रहा था (भाग-1)

इस पोस्‍ट की पूर्व पीठिका

गए दिनों मेरे कस्बे के कुछ मोहल्ले, साम्प्रदायिक तनाव के कारण लगभग एक सप्ताह भर कर्फ्यूग्रस्त रहे। दोनों समुदायों के बीच भरपूर अविश्वास और सन्देह फैला रहा। साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए प्रशासन तथा दोनों समुदायों के अनेक लोगों ने अपने-अपने स्तर पर प्रयास किए और सन्देह मिटाकर विश्वास लौटाने की कोशिश की। सतह पर तो अब सब कुछ सामान्य है किन्तु सतह के नीचे थेड़ी-बहुत खदबद अभी भी हो रही है।
सन्देह और अविश्वास के इन दिनों के बीच यहाँ प्रस्तुत घटना हमारी जड़ों की मजबूती उजागर कर भरोसा दिलाती है कि सब कुछ वैसा नहीं है जैसा कि गिनती के कुछ लोग साबित करना चाहते हैं।)

एक माँगू सो रहा था,
एक माँगू रो रहा था (भाग-1)

सात सितम्बर की रात की शुरुआत मुझ पर बहुत भारी पड़ी। उस रात मैं ‘एक नींद’ नहीं सो पाया। यादवजी की शकल रात भर मेरी आँखों के सामने बनी रही। कोई आठ - सवा आठ बजे वे आये थे। वे जब भी आते हैं, लगभग इसी समय आते हैं। किन्तु उस रात का उनका आना सामान्य नहीं था। उनसे बोला नहीं जा रहा था। आँखें, सावन की भरी-भरी बदलियों की तरह बरसने को उतावली हुई जा रही थीं। ऐसी दशा में पहली बार देखा था मैंने उन्हें। मुझे अकुलाहट हो आई। इतनी, कि पूछने की हिम्मत ही जाती रही। बैठे भी तो इस तरह मानो कोई महल भरभरा कर गिर रहा हो। बैठ तो गए किन्तु बैठ नहीं पा रहे थे। मेरी नजरों में सवालों का जंगल उग आया था और जबान लकवाग्रस्त हो गई थी। वे मेरी तरफ नहीं देख पा रहे थे। कमरे की छत को चीर कर मानो अनन्त आकाश को सम्बोधित कर रहे हों, इस तरह बोले - ‘भाई साहब! कल मैंने खुद को जनाजे में देखा। खुद को मिट्टी दी और खुद को दफनाया।’

इस अबूझ पहेली का जवाब यादवजी के पास ही था। उनके जवाब को जानने के लिए मैं आपको यहीं रोक कर कोई पाँच-सात बरस पीछे लिए जा रहा हूँ।

वह झुटपुटी शाम, रात का चोला पहन रही थी। मेरे कस्बे के माणक चौक पुलिस थाने में, दो गुटों में बँटे कोई आठ-दस लोग खड़े थे। दोनों पक्ष एक दूसरे को हमलावर बता रहे थे। पूरा किस्सा सुन थाना प्रभारी ने हेड मोहर्रिर से कहा - ‘दोनों की रिपोर्टें लिख कर भगाओ इन सबको।’ हेड साहब ने फौरन कहा माना और चिरपरिचित पुलिसिया अन्दाज में शुरु हो गए-

‘तेरा नाम?’

‘माँगीलाल कुँजड़ा।’

‘बाप का नाम?’

‘फारुख मोहम्मद कुँजड़ा।’

हेड साहब की कलम रुक गई। आँखे तरेरकर हड़काया - ‘स्साले मजाक करता है। गलत नाम लिखवाता है? जूते पड़ेंगे तो होश ठिकाने आ जाएँगे। बाप का नाम बता।’

‘वही तो बताया सा‘ब। फारुख मोहम्मद नाम है मेरे बाप का।’

हेड साहब चकरा गए। उन्होंने विरोधी गुट की ओर देखा तो जवाब मिला - ‘सही कह रहा है सा‘ब। इसके बाप का नाम फारुख मोहम्मद ही है।’ हेड साहब ने लिखा पढ़ी तो कर ली लेकिन बात उन्हें हजम नहीं हुई।

हजम होती भी कैसे? इसके लिए उन्हें लगभग तरेसठ-चैंसठ बरस पीछे जाना पड़ेगा। चलिए, हेड साहब को साथ लिए चलते हैं सन् 1946-47 में। लेकिन हेड साहब को 46-47 में छोड़कर, आप-हम उससे भी थोड़ा पीछे चलते हैं।

अब सन्-वन् का चक्कर छोड़िए। यह तब की बात है जब शंकरलालजी यादव गायें चराया करते थे और फखरु भाई ऊँट। दोनों की दोस्ती इन जानवरों की गवाही में ही जंगलों में परवान चढ़ी। शुरु-शुरु मे दोनों एक दूसरे को दूर-दूर से ही देखते थे। फिर दुआ-सलाम, राम-राम से होते हुए दोनों एक ही झाड़ के नीचे बैठकर रोटी खाने लगे। लेकिन दोनों को पता नहीं लगा कि अलग-अलग धर्मों के होते हुए भी कब दोनों एक दूसरे के चूल्हे पर बनी रोटियाँ और सब्जी अदल-बदल कर खाने लगे। मजे की बात यह रही कि इसके बावजूद दोनों के धर्मों ने इनका साथ नहीं छोड़ा। बाद में हुआ यह कि शंकरलालजी ने होटल खोल ली और फारुख भाई ने सब्जी का धन्धा शुरु कर दिया। काम-धन्धे से फुरसत मिलती तो फारुख भाई, शंकरलालजी की दुकान पहुँच जाते। शंकरलालजी बिना कुछ पूछे, मनुहार किए फारुख भाई को, (उस जमाने के चाल-चलन के मुताबिक) मुसलमानों के लिए अलग से रखे कप-प्लेट में चाय पेश करते। फारुख भाई सहजता से चाय पीते। अपने लिए अलग से कप-प्लेट रखे जाने पर उन्हें न तो कभी असहज लगा और न ही ऐतराज हुआ।

दोनों की दोस्ती पारिवारिकता में बदली। शंकरलालजी के घर में पीतल का पहला बरतन फारुख भाई ने खरीदा और फारुख भाई के घर के लिए चाँदी की पहली अँगूठी शंकरलालजी ने खरीदी। उसके बाद तो यह स्थायी व्यवहार हो गया - शंकरलालजी कभी कसारा बाजार नहीं गए और फारुख भाई ने कभी सराफा बाजार की शकल नहीं देखी। फारुख भाई की खरीदी थालियों में शंकरलालजी के कुनबे ने रसोई का जायका लिया और शंकरलालजी के खरीदे गहनों से फारुख भाई की बहन-बेटियों-बहुओं ने खानदान की इज्जत बढ़ाई।

घरोपे के घनत्व की कल्पना इस बात से ही की जा सकती है कि फारुख भाई के बच्चों के निकाह के दावतनामों में शंकरलालजी का नाम छपता और शंकरलालजी के परिवार में होनेवाले विवाहों के निमन्त्रण पत्रों में फारुख भाई का नाम ‘दर्शनाभिलाषियों’ में शामिल होता। दोनों परिवारों के निमन्त्रण पत्र हर बार सारे जमाने के लिए कातूहल और जिज्ञासा के विषय बने रहे।

(शेष भाग कल)

(बॉंया चित्र श्री मॉंगीलालजी यादव का और दाहिना चित्र स्‍वर्गीय श्री मॉंगीलालजी कुँजडा का)
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हाजी मस्तान की हलाल की कमाई


‘वन्स अपऑन ए टाइम इन मुम्बई’ से चर्चा में आए, अपने समय के ख्यात तस्कर (अब स्वर्गीय) हाजी मस्तान से जुड़ा यह ऐसा संस्मरण है जिसे पढ़ने के बाद यह तय करना तनिक कठिन हो जाएगा कि उसे क्या समझा जाए - व्यक्तिगत रूपसे ईमानदारी बरतनेवाला ‘खुदा का नेक बन्दा’ या चापलूसी को धकेल कर अपनी जेब बचाने के लिए सतत् सन्नद्ध, चौकन्ना आदमी?

यह उस काल खण्ड की सत्य घटना है जब हाजी मस्तान तस्करी से तौबा कर भला आदमी बनने के उपक्रम कर रहा था। इस घटना से जुड़े कम से कम तीन व्यक्ति आज रतलाम में जीवित हैं। उन्हीं में से एक ने मुझे यह किस्सा सुनाया। वादाखिलाफी का गुनहगार होने से बचने के लिए इस किस्सागो का नाम न बताना मेरी मजबूरी है।

भला आदमी बननेवाले दौर में हाजी मस्तान रतलाम भी आया था। उसके आने की खबर पर्याप्त समय पहले ही रतलाम पहुँच चुकी थी। मस्तान के चाहनेवालों और उसका ‘आर्थिक सदुपयोग’ करनेवालों में उत्साह था। माणक चौक में महालक्ष्मी मन्दिर के पास स्थित मस्जिद के कायापलट के लिए लोगों से चन्दा इकट्ठा किया जा रहा था। चन्दा लेनेवाले, रोज शाम मुहल्लों में, घर-घर जाकर, सामनेवाले की हैसियत से अधिक रकम लेने की कोशिश कर रहे थे। चूँकि ‘नेक काम’ के लिए लेना था इसलिए दिल खोल कर माँग रहे थे। खुद के लिए माँगते तो सौ बार सोचते। लेकिन यहाँ तो मामला खुदा के घर का था। सो, सब कुछ उत्साह और प्रसन्नता से चल रहा था।

मस्तान के आने की खबर इसी दौर में आई। सुनकर चन्दा इकट्ठा करनेवालों के मन में आशा की किरण फूटी। आपस में बात तो बाद में की, बिना बात किए ही सबने मान लिया - मस्तान याने खुले हाथों चन्दा मिलने का भरोसा। उस समय मस्तान का तो नाम ही काफी था।

सो, मस्तान के रतलाम आने पर उसका जोरदार स्वागत किया गया। जरूरी-गैर जरूरी तौर पर उसके लिए कार्यक्रम आयोजित किए गए। खूब फूल-हार किए गए। इस सबमें, ‘उस जमाने में’ रतलाम के लोगों ने मस्तान पर कोई पाँच हजार रुपये खर्च कर दिए। इसी क्रम में, निर्माणाधीन मस्जिद का दौरा भी करवाया गया। रतलाम प्रवास की पूरी समयावधि में मस्तान ने अपेक्षा से अधिक गम्भीरता जताई। मस्जिद से बाहर आते-आते बातों ही बातों में निर्माण कार्य का अनुमानित खर्च भी बता दिया गया। ऐसे क्षणों में कोई लाख छुपाना चाहे तो भी मन्तव्य छुपता नहीं। सो, बहुत ही जल्दी मस्तान को अहसास हो गया कि उससे अच्छी-खासी आर्थिक अपेक्षा की जा रही है। किन्तु उसने रतलाम के लोगों को बोलने का मौका नहीं दिया। अपनी ओर से पूछा - ‘इस काम में आप लोग मुझसे भी कुछ उम्मीद कर ही रहे होंगे?’ सुननेवालों की तो मन की मुराद पूरी हो गई! मस्तान ने कहा - ‘आप लोग बॉम्बे तशरीफ लाईए। वहीं बात करेंगे।’

काम मस्जिद के लिए चन्दा लेने का और न्यौता मस्तान का! वह भी सपनों के शहर मुम्बई का! मानो, धकापेल मच गई। मुम्बई जानेवाले पाँच लोगों के नाम तय करने में जमात को अच्छी-खासी मशक्कत करनी पड़ी।

बमुश्किल तय किए पाँचों लोग रतलाम से सवेरेवाली ट्रेन से निकले और शाम को मुम्बई पहुँचे। मस्तान ने गर्मजोशी से स्वागत किया और कहा - ‘आज आप आराम कीजिए। रात को क्या बात हो पाएगी? कल ही बात करेंगे।’

ठाठें मार रहे उत्साह से सराबोर पाँचों ने अपनी हैसियत से तनिक अधिक मँहगी होटल में डेरा डाला और खान-पान भी इसी के मुताबिक तनिक अधिक खुले हाथों ही किया।

अगली सुबह पाँचों मस्तान के दरबार में पहुँचे। मस्तान ने इस्तकबाल और आवभगत तो की किन्तु मेहमानों को गर्मजोशी महसूस नहीं हुई। मस्तान ने कहा - ‘आपको तकलीफ न हो तो शाम को चार बजे मिल लें।’ मेहमानों के बस में था ही क्या? तकलीफ तो हुई किन्तु किससे कहे और क्या कहे? मस्तान का कहा मानना मजबूरी थी। लेकिन मुम्बई में बिना माँगे मिली फुरसत ने सैर-सपाटे की सम्भावना पैदा कर दी। नतीजतन, घूमने-फिरने और भोजनादि पर दिन भर में भरपूर खर्चा हो गया।
पाँचों रतलामी, शाम चार बजे से थोड़ा पहले ही पहुँच गए। मुख्य काम यही तो था! भला इसमें देर कैसे करते?
मिजाजपुरसी के दौरान मस्तान ने पूछा - ‘आपकी वापसी का प्रोग्राम क्या है?’ जवाब मिला - ‘कल शाम चार बजेवाली गाड़ी से जाएँगे।’ मस्तान ने जवाब को हाथों-हाथ लिया। कहा - ‘फिर तो आप लोग कल दोपहर में दो बजे आ जाएँ। नमाज के फौरन बाद।’

मरता क्या न करता? कहा मानने के सिवाय और कोई रास्ता भी तो नहीं था। लेकिन एक बार फिर फुरसत भरी पूरी शाम मिल गई रतलामियों को। मस्तान की टाला-टोली से उपजी खिन्नता दूर करने की जुगत में मेहमानों ने सैर-सपाटे का सहारा लिया और उम्मीद से ज्यादा ही खर्चा भी कर लिया।

अगली दोपहर पाँचों ही लोग, होटल का भारी-भरकम बिल चुका कर मस्तान के दरबार मे पहुँचे। अपना बोरिया-बिस्तर साथ ही ले लिया था। मस्तान से चन्दा लेकर सीधे स्टेशन जो पहुँचना था!

कमरे में मस्तान अपनी टेबल के पीछे बैठा था और सामने कुर्सियों पर रतलाम से पहुँचे मेहमान। मस्तान ने बिना किसी भूमिका के बात शुरु की। बातें कुछ इस तरह से हुईं -
‘मुझे मस्जिद के लिए चन्दा देना है ना?’
‘जी हाँ।’
‘देखिए! मामला मस्जिद का है और मेरे काम-धाम के बारे में आप जानते ही हैं। जरा खुलकर बताइए कि इस नेक काम के लिए आप हराम का पैसा लेना पसन्द करेंगे या हलाल का?’
पाँचों को कोई जवाब नहीं सूझा। कभी एक दूसरे का तो कभी मस्तान का मुँह देखें! जवाब कौन दे? क्या पता, क्या नतीजा निकले? जवाब देने के लिए पाँचों के पाँचों, एक दूसरे की प्रतीक्षा करने लगे। कमरे में मौन छा गया। चुप्पी मस्तान ने ही तोड़ी। मुद्राविहीन मुद्रा में, निर्विकार भाव से बोला -‘जवाब दीजिए साहबान ताकि काम खतम हो। और आपको ट्रेन भी तो पकड़नी है?’

मुझे किस्सा सुना रहे बन्दे ने कहा - ‘बैरागीजी! हमारे बोल नहीं फूट रहे थे। गले से घरघराहट या गों-गों जैसी कुछ आवाज निकल रही थी। हम पाँचों को पहले ही लमहे में समझ आ गई थी कि मस्तान ने गहरी चाल चल दी है। वह चुपचाप रुपये दे देता तो हम जानने की कोशिश ही नहीं करते कि रुपये हराम के है या हलाल के। लेकिन जब उसने पूछा तो भला हराम का पैसा लेने की हाँ कौन भर सकता था? आखिरकार, हम सबमें जो उमरदार था, उसने जैसे-तैसे कहा - जाहिर है मस्तान साहब कि पैसा तो हलाल का ही लेंगे।’

मस्तान के चेहरे पर कोई हरकत नहीं हुई। वह निर्विकार ही बना रहा। सपाट आवाज में बोला -‘आप लोग सच्चे मुसलमान हैं। वरना तो भाई लोग इस बाबत सोचते ही नहीं।’ कह कर उसने अपनी टेबल की दराज खोली। हाथ डाला। हमारी जिज्ञासा चरम पर पहुँच गई थी। मस्तान से मिलनेवाली रकम का अनुमान हम पाँचों ही, अपने-अपने हिसाब से लगा रहे थे। हमारे दिलों की धड़कनें बढ़ गई थीं। देखें, मस्तान के हाथ में नोटों की कितनी बड़ी गड्डी या गड्डियाँ आती हैं!

जैसे ही मस्तान का हाथ बाहर आया, हम पाँचों की नजरें फटी की फटी रह गईं। हम कभी मस्तान के हाथ को, कभी मस्तान के चेहरे को तो कभी एक दूसरे के चेहरे को देख रहे थे। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मस्तान हमें चन्दे में यह रकम दे रहा है।

मस्तान के दरबार में पाँचों रतलामियों की दशा पता नहीं कैसी हुई होगी। किन्तु किस्से के इस मोड़ पर आकर मेरा रोमांच चरम पर पहुँच गया। मेरा जी कर रहा था कि मैं किस्सागो के मुँह में हाथ डालकर किस्से का शेष भाग निकाल लूँ। मैं चुप नहीं रह सका। धड़धड़ाती धड़कनों और उखड़ती साँसों को नियन्त्रित करते हुए पूछा - ‘कितने नोट थे मस्तान के हाथ में?’

किस्सागो ने मेरी ओर तरस खाते हुए, अत्यन्त दया भाव से देखा और बोला - ‘बैरागीजी! मस्तान के हाथ का नोट देखकर हम पाँचों को गश आ गया। लगा कि धरती समन्दर में डूब रही है और हम भी उसी में समाते जा रहे हैं। बड़ी मुश्किल से हमने अपने आप को सम्हाला। मस्तान के हाथ में कुल जमा एक नोट था वह भी दो रुपये का।’

मैं मानो धड़ाम से जमीन पर गिरा। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मुझे पसीना आ गया। बिना विचारे मेरे मुँह से निकला - ‘क्या बात कर रहे हैं आप? ऐसा कैसे हो सकता है?’ मेरी दशा देखकर किस्सागो हँसा। बोला - ‘हो क्या सकता है बैरागीजी! यही हुआ।’ मैंने पूछा - ‘फिर?’ किस्सागो ने जवाब दिया -‘फिर क्या? हम अपने आप में लौटते उससे पहले ही मस्तान ने दो रुपये का वह नोट हमारी तरफ बढ़ाया और उसी सपाट आवाज में बोला - ‘मेरी हलाल की कमाई यही है। कबूल करने का करम फरमाईए। आप अगर हराम का पैसा लेने की बात करते तो आज मैं खुदा का गुनहगार हो जाता। आप लोगों ने आज मुझे दोजख से बचा लिया। आप वाकई में सच्चे मुसलमान हैं।’

किस्सागो कह रहा था - ‘बैरागीजी! हमें कुछ भी नहीं सूझ रहा था। अच्छी-खासी रकम की उम्मीद में हम अपनी औकात और हैसियत से कई गुना ज्यादा रकम मुम्बई में खर्च कर चुके थे। सोचा था, चन्दे की रकम ऐसी होगी कि आने-जाने का खर्चा चन्दे की रकम में से लेने की इजाजत जमात दे देगी। लेकिन यहाँ तो सब उल्टा हो गया था। पता नहीं मस्तान ने हमसे सच बोला था या हमसे खेल खेला था। अपने आप पर काबू पाने में हमें बहुत मेहनत लगी। मस्तान ने हमारा ही तीर हम पर चला दिया था। हम न तो कुछ बोल सकते थे और न ही कुछ कर सकते थे। जी तो किया कि दो रुपये का वह नोट उसके मुँह पर फेंक कर चले आएँ लेकिन लगा कि वह कहीं यह नोट भी वापस न रख ले। सो, भारी और बुझे मन से हमने दो रुपये का वह नोट लिया। मस्तान को शुक्रिया कहा और लौट आए।’

‘रतलाम आकर लोगों से क्या कहा आप लोगों ने?’ पूछने से रोक नहीं सका मैं अपने आप को।

‘कहते क्या? लौटते में हम पाँचों ने तय कर लिया था कि यह हकीकत जमात के दो-चार लोगों को ही बताएँगे ताकि मुट्ठी भी बँधी रहे और हम पाँचों की जग हँसाई भी न हो। यही किया भी। सयानों ने हमसे हमदर्दी जताई, ढाढस बँधाया और यह बात गिनती के लोगों के बीच ही रही।’

इसके बाद किस्सागो ने कहा तो बहुत कुछ किन्तु उस सबसे आपको क्या लेना?

बना लीजिए मस्तान के बारे में अपनी धारणा जो आप बनाना चाहें।

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भटे वाले भट्टजी


‘क्या कर रहे हो प्यारे भाई? मेरे दफ्तर आओ यार! फुरसत में बैठा हूँ। चाय पीएँगे, कुछ गपशप करेंगे।’ यह सोलह सितम्बर का दिन था और पूर्वाह्न लगभग साढ़े ग्यारह बजे का समय। मुझे आश्चर्य हुआ। इस समय वे फुरसत में? यह तो उनकी चरम व्यस्तता का समय होता है!

सम्पर्क सबसे बड़ा धन होता है किसी भी बीमा एजेण्ट का। ‘बीमा आग्रह की विषय वस्तु है’ वाले सूत्र वाक्य के अधीन बीमा एजेण्ट घर-घर जाकर लोगों से सम्पर्क करता है। किन्तु बीमा एजेण्ट की ‘स्थापित जन छवि’ ऐसी है कि बीमा एजेण्ट को अपने घर की ओर आता देख हर कोई (बीमा एजेण्ट के आने से पहले ही) घर से निकल जाना चाहता है - ‘स्साला! माथा खा जाएगा।’ जैसी उक्ति उच्चारते हुए। ऐसे में यदि कोई आगे चलकर किसी बीमा एजेण्ट को बुलाए तो एजेण्ट की बाँछे खुल जाती हैं। सो, मैं भी अपनी खुली बाँछों सहित (वैसे, बकौल श्रीलाल शुक्‍ल, पता नहीं, ये बाँछे शरीर के किस हिस्से में होती हैं?) उनके दफ्तर पहुँच गया।

उनका दफ्तर याने उनका स्कूल। वे छोटे-बड़े तीन स्कूलों के मालिक हैं, लेकिन कागजी और कानूनी तौर पर नहीं। कागजों में तीन समितियाँ उनके तीन स्कूल की मालिक हैं। यह अलग बात है कि ये तीनों समितियाँ उनकी पारिवारिक समितियाँ हैं। ऐसी समितियाँ, जिनके अधिकांश सदस्यों और पदाधिकारियों ने आज तक (अपनी समिति के स्वामित्ववाले) स्कूल का मुँह नहीं देखा। उनका दफ्तर उनके स्कूल जैसा नहीं था। दतर और स्कूल में बिलकुल वही और वैसा ही अन्तर था जैसा कि ‘इण्डिया’ और ‘भारत’ में है।

दफ्तर में वे अकेले बैठे थे। प्रधानाध्यापिका अपने कार्यालय में और अध्यापिकाएँ स्टाफ रूम में बैठी थीं। बस। सारे क्लास रूम खाली थे। एक भी बच्चा मौजूद नहीं था। स्कूल परिसर वैसे ही खूब बड़ा और खुला-खुला है। किन्तु सुनसान होने से और अधिक बड़ा लग रहा था। दो चपरासी ड्यूटी पर थे - एक प्रधानाध्यापिका के कार्यालय के बाहर और दूसरा ‘उनके’ दफ्तर के बाहर।

मैं पहुँचा तो उनके चेहरे पर वैसा ही सन्तोष भाव उभरा जैसा किसी आई. ए. एस. के चेहरे पर उभरता है - अपने किसी मातहत को, मूक पशुवत, प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा-पालन करते देख कर। उन्होंने मेरी अगवानी तो की किन्तु इतने ठण्डेपन से कि मुझे सोचना पड़ा कि मैं क्यों आया हूँ - अपनी मर्जी से या उनके बुलावे पर?

‘आ गए? अच्छा किया। बैठो।’ कहते हुए घण्टी बजाई। चपरासी ऐसे आया मानो पहले से ही वहीं कमरे में था, अदृश्य, घण्टी बजने की प्रतीक्षा कर रहा हो और घण्टी बजते ही हवा में से प्रकट हुआ हो। उसकी ओर देखे बिना ही मुझसे पूछा - ‘क्या लोगे? चाय? काफी? या कुछ ठण्डा? या पहले कुछ नाश्ता हो जाए?’ उनकी आदतों से वाकिफ हूँ। वे पहले ही तय कर चुके होते हैं कि क्या मँगवाना है। पूछ कर तो महज रस्म अदायगी करते हैं। मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चपरासी को आदेशित किया -‘प्रभाकर! दो लोगों के लिए खमण ले आओ और साथ में कॉफी। कॉफी कम शकर की और गरम, उबलती-उबलती।’

वे जब अपने दफ्तर में होते हैं तो अपनी ओर से बात शुरु नहीं करते। आदत ही नहीं। उनसे मिलने के लिए जो भी आता है, आते ही, उनके बिना कहे ही अपनी बात शुरु कर देता है। आनेवाले तमाम लोग बच्चों के पालक होते हैं। सो, यह भूलकर कि मुझे उन्होंने बुलाया है, भौंहे उचकाकर सवाल किया - ‘बोलो?’ उन्हें याद दिलाते हुए मैंने कहा - ‘मैं तो सुनने के लिए आया हूँ, आपके बुलाने पर।’ वे निमिष मात्र को भी नहीं शरमाए। बोले -‘स्कूल में सन्नाटा है। पूछोगे नहीं क्यों?’ मैंने कहा -‘बताने की उतावली तो आपको है किन्तु यदि आप चाहते हैं कि मैं पूछूँ? तो पूछ लेता हूँ। बताइए! स्कूल में सन्नाटा क्यों है?’

जैसा कि प्रत्येक स्कूल मालिक के साथ होता है, उन्होंने विस्तार को भी विस्तारित करते हुए सारी बात बताई। सार यह था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने शिक्षा के व्यवसायीकरण (परिषद् वालों को ‘व्यवसायीकरण’ और ‘व्यापारीकरण’ का अन्तर नहीं मालूम) के विरुद्ध आज पूरे प्रदेश के स्कूलों में बन्द का आह्वान किया है। कल ही आकर ‘हिन्दी में’ समझा गए थे। कह गए थे कि स्कूल सही-सलामत रहने देना या नहीं रहने देना, यह मुझ पर ही निर्भर करेगा। इसलिए स्कूल में सन्नाटा है।’ मालूम तो मुझे था ही। किन्तु, नई-नई खरीदी हुई, भारी-भरकम मँहगी, बनारसी साड़ी पहने किसी महिला से यदि कोई साड़ी के बारे में कुछ भी नहीं पूछे तो जो उसकी दशा होती है, वही दशा ‘उनकी’ भी हो जाती यदि मैं नहीं पूछता।

विस्तार को विस्तार देनेवाला अपना वक्तव्य समाप्त कर उन्होंने अचानक ही मुझसे सहायता माँग ली -‘तुम्हारा उठना-बैठना तो सबके बीच में है। इन्हें समझाओ यार! क्यों बन्द-वन्द कराते हैं? बच्चों का नुकसान होता है।’ उनकी यह याचना मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। अचकचा कर पूछा -‘क्या समझाऊँ?’ तय कर पाना मुश्किल था कि वे मुझे लड़िया रहे थे या दुत्कार रहे थे, कुछ इसी तरह बोले -‘ अरे! यही यार! कि जो भी बदलाव चाहते हैं, वह अपने घर से शुरु करें।’ मुझे सचमुच में कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा। मैं अहमक की तरह उनकी ओर देखने लगा। मानो बड़ी कठिनाई से मेरी पिटाई की हसरत को काबू में कर रहे हों, कुछ इस तरह बोले -‘अरे! यार, विद्यार्थी परिषद् याने संघ। संघवालों से कहो कि शिक्षा के व्यवसायीकरण का खात्मा खुद से शुरु कर दे।’ मैं फिर भी नहीं समझा। ‘तुम्हारी समझ पर भरोसा करना इतना खतरनाक होगा, यह मैंने नहीं सोचा था। अरे! भाई, (और एक के बाद एक, तड़ातड़ पाँच-सात नाम गिनाते हुए जारी रहे) ये सब के सब संघ के लोग हैं और स्कूल चलाते हैं। यदि संघ वाकई में मँहगी शिक्षा के खिलाफ है तो ये सब के सब अपने-अपने स्कूलों की फीस घटा दें। हम जैसे सारे स्कूलवालों को झख मारकर अपनी फीस घटानी पड़ेगी।’

मुद्दा अब समझ पड़ा मुझे। उन्होंने जो नाम गिनाए, वे सब मेरे कस्बे के प्रतिष्ठित और अच्छे-खासे मँहगे स्कूल हैं और सब के सब, ‘संघ’ के निष्ठावान, प्रतिदिन शाखा में जानेवाले लोगों के स्वामित्व के हैं। मुझे तर्क में दम लगा। सारे लोग मेरे परिचित तो हैं किन्तु यह बात कहनेवाला मैं कौन होता हूँ? सो मैंने कहा -‘माफ करें। यह कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं। आप खुद ही यह नेक काम करें। वैसे भी, आप निजी स्कूलवालों का तो अच्छा-भला एक संगठन है। आप वहीं क्यों नहीं यह बात उठाते?’ ‘नहीं उठा सकता मेरे भाई! नहीं उठा सकता। सरकार इनकी, राज इनका। पता नहीं, मेरी बात की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ जाए मुझे।’ उनकी आवाज में दहशत थी। मुझे अजीब तो लगा ही, अच्छा भी नहीं लगा। मैंने तनिक रूखे स्वरों में पूछा -‘जब आप कुछ कह नहीं सकते तो दुखी क्यों हो रहे हैं? जो सबका होगा, वही आपका भी होगा।’

‘तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो। चुप रहूँगा तो मेरा कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन इनका यह व्यवहार मुझे कचोटता है, गुस्सा दिलाता है।’ मैं तनिक चौंका। पूछा - ‘कौन सा व्यवहार?’

‘यार! तुम इतने नासमझ नहीं हो। शिक्षा के व्यवसायीकरण का यह विरोध ढोंग और दिखावा है। इन्हें केवल लोगों को बताना है कि ये लोगों के खैरख्वाह हैं। ये जताना-बताना चाहते हैं, लोगों का भला करना नहीं चाहते। देश की तो मालूम नहीं किन्तु पूरे प्रदेश में संघ प्रशासित स्कूल चल रहे हैं। यदि ये ईमानदार होते तो किसी से पूछे बिना और किसी को बताए बिना अपनी फीस कम कर देते। किन्तु ये खुद शिक्षा को मँहगे दाम पर बेचना चाहते हैं। फीस बढ़ानी होती है तो कोई कारण बताए बिना बढ़ा देते हैं। लेकिन कम करने की बात है तो देखो, सरकार का बहाना बना रहे हैं। याने बढ़ाएँगे तो खुद और कम करने की जिम्मेदारी सरकार की? ऐसे दिखा रहे हैं मानो ये तो कम करने को उतावले बैठे हैं किन्तु कम करें तो कैसे करें? सरकार खुद कम नहीं कर रही है!’

उनकी बात में तार्किक औचित्य लग रहा था। सहमति में मेरी मुण्डी हिलती देख बोले - ‘तुमने वो कहावत तो सुनी होगी?’ मैंने पूछा - ‘कौन सी?’ बोले - ‘अरे! वही। भटजी भटे खाएँ, औरों को परहेज बताएँ।’ मैंने कहा - ‘सुनी क्या, यह तो मैंने पचासों बार वापरी भी है।’ खुश होकर बोले - ‘ये संघवाले भी यही कर रहे हैं। पट्ठे, खुद मँहगी फीस वसूल रहे हैं, माल काट रहे हैं और परिषद् वालों से हंगामा करवा रहे हैं, पूरे प्रदेश के स्कूल बन्द करवा रहे हैं। और अपनी सरकार है तो खुल कर खेल रहे हैं।’

उनकी बात तो सही थी किन्तु उनका दर्द मैं अभी भी समझ नहीं पा रहा था। इस बीच, प्रभाकर खमण और कॉफी कभी की रख चुका था। खमण स्वादिष्ट थे और कॉफी सचमुच में उबलती-उबलती, गरम थी। मैं खमण साफ कर, कॉफी का आनन्द ले चुका था। और वे? उनकी खमण की प्लेट ज्यों की त्यों थी और उनकी, ‘उबलती-उबलती कॉफी’ अब ‘कोल्ड कॉफी’ का दर्जा हासिल कर चुकी थी। वे गमगीन बैठे थे। मेरे लिए करने को कुछ भी नहीं था, सिवाय उनकी बात से सहमत होकर उन्हें नैतिक समर्थन देने के। वह तो मैं कर ही चुका था।

मैंने सुस्वादु अल्पाहार के लिए उन्हें धन्यवाद दिया, अपना ब्रीफ केस उठाया, नमस्कार किया और लौट पड़ा। सीढ़ियाँ उतरते हुए मुझे अपने पीछे किसी और की भी पदचाप सुनाई दी। पल भर ठिठक कर मैंने अपने पीछे देखा। वहाँ कोई नहीं था। मैं सीढ़ियाँ उतरने लगा। वही पदचाप मुझे फिर सुनाई दी।

इस बार मैंने पलट कर नहीं देखा। समझ गया। ‘भट्टजी’ की पदचाप थी वह।

(मूल पोस्‍ट में, 'बाँछो' को लेकर मैंने श्री शरद जोशी का उल्‍लेख किया था जबकि यह श्री श्रीलाल शुक्‍ल की उक्ति है। ब्‍लॉगर श्री बृजमोहनजी श्रीवास्‍तव ने मेरी यह गलती पकडी। मैं श्रीवास्‍तवजी का आभारी हूँ।)
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.


अहम् की क्रूरता


हम में से कोई भी अहम् रहित नहीं। कुछ लोगों को इस बात का अहम् होता है कि उन्हें कोई अहम् नहीं है। इस अहम् के चलते कैसे-कैसे विचित्र व्यवहार होते हैं, इसकी एक बानगी मुझे अभी अभी ही मिली।

ब्राह्मणों की गली से लौट रहा था। सोचा, कान्ति बाबू से भी मिल लूँ। वे विधुर हैं। गया तो वे अकेले मिले। बहू के मायके में एक मंगल प्रसंग के सिलसिले में बेटा-बहू अजमेर गए हुए हैं। पोता-पोती थे तो यहीं किन्तु स्कूल गए हुए थे। मैं पहुँचा तो कान्ति बाबू खुश हो गए। मेरे लाख मना करने के बाद भी चाय बनाई। पूरे घर में सन्नाटे का साम्राज्य था। मैं कोई बात शुरु करता उससे पहले ही वे पूछ बैठे - ‘आपकी श्रीमतीजी जब मायके जाती हैं तो आप टिफिन कहाँ से मँगवाते हैं?’ मैंने बताया कि मैं टिफिन नहीं मँगवाता, पासवाली कॉलोनी स्थित भोजनालय पहुँच जाता हूँ। कान्ति बाबू ने पूछा - ‘क्यों? टिफिन क्यों नहीं मँगवाते?’ मैंने बताया कि भोजनालयवाले दोयम दर्जे का आटा वापरते हैं। घर आते-आते रोटियाँ तनिक कड़ी हो जाती हैं। सो, भोजनालय पहुँचकर, तवे से उतरती, गरम-गरम रोटियाँ खाने के लालच में वहीं चला जाता हूँ।

अचानक मुझे ध्यान आया कि सुबह के पौने ग्यारह बज रहे हैं और कान्ति बाबू के रसोई घर से कोई आवाज नहीं आ रही है। मैंने पूछा - ‘आज खाना बनानेवाली बाई नहीं आई?’ तनिक क्षुब्ध हो कान्ति बाबू ने बताया कि वे सवेरे से उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। न तो वह आई न ही उसका कोई समाचार।

भोजन व्यवस्था को लेकर कान्ति बाबू की परेशानी वाजिब और स्वाभाविक थी। पोता-पोती दोपहर में लौटेंगे। उन्हें भोजन तैयार मिलना चाहिए। मैंने पूछा - ‘टिफिन की व्यवस्था करूँ?’ बोले - ‘नहीं। मैं ही कुछ न कुछ व्यवस्था कर लूँगा।’ तभी मुझे वीरेन्द्र का ध्यान आया। वीरेन्द्र उनका इकलौता छोटा भाई है और कान्ति बाबू के निवास से दो मुहल्ले दूर ही रहता है। मैंने कहा - ’आप वीरेन्द्र के यहाँ खबर क्यों नहीं कर देते? वह आप तीनों के भोजन की व्यवस्था कर देगा।’

मेरा सवाल कान्ति बाबू को अच्छा नहीं लगा। सरोष बोले - ‘क्यों? मैं खबर क्यों करुँ? चार दिन पहले से उसे पता है कि अजय और प्रीती को अजमेर जाना है। उसने खुद ने चिन्ता करके अपनी ओर से पूछना चाहिए!’ मुझे अच्छा नहीं लगा। हैरत हुई। कान्ति बाबू के जवाब ने मुझे काफी कुछ याद दिला दिया। मैंने तुर्की-ब-तुर्की कहा - ‘इससे पहले दो बार ऐसा हुआ कि जब आप अकेले थे तो एक बार आपने शर्माजी को और दूसरी बार पाठकजी को अपनी ओर से फोन करके कहा था कि आप उनके यहाँ भोजन करेंगे!’ मेरी बात कान्ति बाबू को अच्छी नहीं लगी।
बोले - ‘हाँ कहा था। वे मेरे दोस्त हैं। उन पर मेरा अधिकार है। मैं उनसे कभी भी, कुछ भी माँग सकता हूँ, कह सकता हूँ।’

मेरी हैरत बढ़ गई। कान्ति बाबू का व्यवहार मुझे अजीब और अप्रिय लगा। मैंने तनिक तेज और तीखी आवाज में कहा - ‘दोस्तों को तो आप निस्संकोच कह सकते हैं। उन पर अपना हक मानते हैं। और छोटे भाई से कहने में आपको हेठी लग रही है? उस पर तो आपका सबसे पहला हक है?’ कान्ति बाबू अब प्रकटतः नाराज हो गए। मानो मैं वीरेन्द्र का वकील होऊँ, इस तरह जवाब दिया - ‘उस पर मेरा हक है तो उसकी भी तो जिम्मेदारी बनती है कि वह मेरी खोज-खबर ले! मेरा ध्यान रखे। आप चाहते हैं कि मैं उसके सामने भिखारी की तरह हाथ फैला कर रोटी माँगूँ? मेरी भी अपनी इज्जत है कि नहीं?’

बात बिगड़ने लगी थी। मुझे लगा, मेरी बातों से अकारण ही वीरेन्द्र का नुकसान हो जाएगा और दोनों भाइयों में मन-मुटाव हो जाएगा। सो, मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। चुपचाप कान्ति बाबू की ओर देखता रहा। हाँ, मेरी नजरों में हैरत, गुस्सा, क्षोभ साफ-साफ देखा जा सकता था। कान्ति बाबू भाँप गए। मुझे उकसाते हुए बोले - ‘हाँ! हाँ!! कह दीजिए जो आपके मन में आ रहा है।’ मैंने यथा सम्भव संयत स्वरों में कहा - ‘कान्ति बाबू! बेचारे वीरेन्द्र को क्या पता कि आपकी, भोजन बनानेवाली बाई आज नहीं आई है? वह तो यही मानकर चल रहा होगा कि आपके यहाँ सब कुछ सामान्य और रोज की तरह ठीक-ठाक चल रहा होगा।’

मेरी बात में शायद दम था। कान्ति बाबू फौरन ही (याने पलट कर) जवाब नहीं दे पाए। तनिक सोच कर (और बहुत ही धीमी आवाज में) बोले - ‘आपकी बात सही हो तो भी उसने कम से कम एक बार पूछना तो चाहिए कि हमारे भोजन की कुछ व्यवस्था है या नहीं?’

कान्ति बाबू की मुख-मुद्रा, धीमी आवाज और लचर दशा ने मुझे हँसा दिया। ‘आक्रमण ही श्रेष्ठ बचाव है’ वाली रणनीति पर अमल करते हुए मैंने (मानो, उनकी खिल्ली उड़ाते हुए) कहा - ‘आप मानें न मानें किन्तु आप वीरेन्द्र के साथ ज्यादती और अत्याचार कर रहे हैं। जो आपकी मर्जी पड़े कीजिए लेकिन आपका सोचना सही नहीं है।’ इस बार कान्ति बाबू कुछ भी नहीं बोले। वे सचमुच में निरुत्तर हो गए थे। मानो, रंगे हाथों पकड़ लिए गए हों, उनके झूठ की कलई खुल गई हो।

मैंने अपना ब्रीफकेस उठाया और चलने से पहले नमस्कार करने ही वाला था कि फोन की घण्टी बजी। मुझे रुकने का इशारा करते हुए कान्ति बाबू ने फोन उठाया। मैंने देखा, ‘हैलो’ कहने के बाद उनके चेहरे की रंगत बदलने लगी। उन्हें जवाब देने में कठिनाई हो रही थी। दूसरे छोर से क्या बोला जा रहा था यह तो मुझे पता नहीं चलना था किन्तु कान्ति बाबू की बातों से साफ हो गया था कि उधर से वीरेन्द्र बोल रहा था और कान्ति बाबू तथा पोते-पोती के भोजन की व्यवस्था उसी के यहाँ होने की सूचना दे रहा था।

सम्वाद समाप्ति के लिए बोला गया ‘अच्छा’, कान्ति बाबू के मुँह से ऐसे निकला मानो वे निष्प्राण हो गए हों। फोन का चोंगा ऐसे रखा मानो मुर्दे के हाथ में हरकत हुई हो।
चोंगा रखकर कान्ति बाबू, नीची नजरें किए, धरती देखने लगे। कहने की जरुरत नहीं कि मुझसे नजरें मिलाने का साहस उनमें नहीं रह गया था। इस क्षण मैं विजेता था। होना तो यह चाहिए था कि मैं कान्ति बाबू के मजे लेता, उन पर तंज कसता। किन्तु मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाया। मेरा जी भर आया। कान्ति बाबू पर दया भी आई और वीरेन्द्र जैसा छोटा भाई होने के कारण उन पर गुमान भी हो आया। मैंने पूछा -‘कहिए! कान्ति बाबू। कैसी रही? अब तो आप खुश?’ उनसे बोला नहीं गया। मुण्डी हिला कर ‘हाँ’ कहा।

अपनी सीमाएँ छोड़ कर, कान्ति बाबू से मिलनेवाली छूट का अशालीन उपयोग करते हुए, अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से मैंने पूछा - ‘वीरेन्द्र से क्षमा माँग सकेंगे?’ मेरा यह कहना था कि कान्ति बाबू बिखर गए। आँखों ने तट-बन्ध तोड़ दिए। बहते स्वरों में, बमुश्किल बोले - ‘माँगनी तो चाहिए। किन्तु नहीं माँग सकूँगा।’

मुझे तो आना ही था। मैं आ गया।

यह अहम् जो कराए, कम है।
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शारीरिक बल से परास्त आत्म-बल

गुरुवार नौ सितम्बर वाली, इतना तो मेरे बस में है शीर्षक मेरी पोस्ट, उसी दिन साप्ताहिक उपग्रह में भी छपी थी। ऐसे मुद्दों के प्रति व्याप्त सार्वजनिक और सामाजिक उदासीनता के चलते मुझे पूरा भरोसा था कि इसका नोटिस नहीं लिया जाएगा। किन्तु मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि ऐसा नहीं हुआ।

रविवार, बारह सितम्बर को जब माँगीलालजी यादव के ‘अन्नपूर्णा मिष्ठान्न और भोजनालय’ में यादवजी और मैं गपिया रहे थे तथी ‘पेंशनर्स समाज’ और ‘वरिष्ठ जन मंच’ के कटारियाजी पहुँचे। उन्होंने सूचित किया कि मेरी बात उन्हें अच्छी लगी है और ‘महारानी के डण्डे’ का मैदानी विरोध करने के बारे में वे अपनी दोनों संस्थाओ के लोगों से बात करेंगे। जैसा कि दोनों संस्थाओं के नाम से ही स्पष्ट है, इन संस्थाओं के समस्त सदस्य साठ वर्ष से ऊपर के ही हैं। मैंने कहा - ‘आप यदि ऐसा करते हैं तो उसके लिए बनाए जानेवाले फ्लेक्स बैनर की व्यवस्था मेरी ओर से।’ यह जानकारी मैंने अपने कुछ और मित्रों को भी दी। सबने कहा कि समय और स्थान की सूचना मैं उन्हें दूँ, वे भी इस विरोध में शामिल होंगे।

‘महारानी का डण्डा’ पन्द्रह सितम्बर को मेरे कस्बे में आनेवाला था। याने, हमारे पास पूरे तीन दिन थे। मैं प्रसन्नता और उत्साह से सराबोर था। किन्तु ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के कछु और’ वाली बात चरितार्थ हो गई। हम लोग यह मैदानी विरोध नहीं कर पाए।

हुआ यूँ कि परिवार में उपजी आकस्मिकता के चलते कटारियाजी को, तेरह सितम्बर को भाग कर उज्जैन जाना पड़ा। वे लौटे चौदह की अपराह्न। उनके उज्जैन जाने की कोई सूचना वे दे नहीं पाए और इधर हम सब इसी भरोसे में रहे कि कटारियाजी सब कुछ देख ही रहे हैं।

कटारियाजी से सम्पर्क हुआ चौदह की शाम को लगभग सात बजे। मालूम हुआ, बात उसी मुकाम पर है जहाँ बारह सितम्बर को छूटी थी।

विचार विमर्श मेरे निवास पर ही शुरु हुआ। हम तीन लोगों (कटारियाजी, सूबेदारसिंहजी और मैं) ने ‘महारानी के डण्डे’ के यात्रा-कार्यक्रम की जानकारी लेनी शुरु की। मालूम हुआ कि ‘डण्डे’ का मध्य प्रदेश प्रवेश रतलाम से लगभग 45-50 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम कुण्डा से होगा। वहाँ का घोषित समय अपराह्न चार बजे का था। वहाँ से रतलाम आने के बीच रास्ते भर, गाँव-गाँव में उसका स्वागत होगा - सरकार की ओर से। इस रास्ते में ही सैलाना कस्बा भी है। वहाँ पूरे कस्बे में ‘डण्डे’ की शोभा यात्रा और स्वागत का कार्यक्रम निर्धारित था। सड़क-दूरी और स्वागत, शोभा-यात्रा के कार्यक्रमों के आधार पर हमने अनुमान लगाया कि यदि सब कुछ निर्धारित समयानुसार हुआ तो भी ‘डण्डे‘ को रतलाम आते-आते, कम से कम सात तो बज ही जाएँगे। इस बीच यदि ‘इण्डियन टाइम’ की मानसिकता का असर हो गया तो रात के आठ-नौ भी बज सकते हैं।

‘डण्डे’ का आगमन-समय, दोनों संस्थाओं के सदस्यों को उनकी सेहत और दिनचर्या के कारण तनिक भी अनुकूल नहीं था। उस पर विलम्ब की आशंका! तब हमें प्रकाश व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। प्रदर्शन के स्थान को लेकर भी उहापोह बनी हुई थी। फिर, देर इतनी हो गई थी कि समय और स्थान की जानकारी देनेवाली प्रेस विज्ञप्ति तैयार कर बाँटने तक इतनी देर हो जाएगी कि अखबारों में उसके छपने की सम्भावना शून्यवत रहेगी।

ऐसे में दो ही विकल्प रह गए थे - या तो हम तीनों ही, ‘डण्डे’ के रास्ते में कहीं खड़े होकर विरोध जताएँ और इसकी जानकारी यथा सम्भव अधिकाधिक मित्रों को दे दें। या फिर, विरोध प्रदर्शन का विचार निरस्त कर दें।

कटारियाजी और सुबेदारसिंहजी ने निर्णय मुझ पर छोड़ना चाहा तो मैंने कहा कि अन्तिम निर्णय वे ही लें क्योंकि मैंने तो पहले ही कह रखा है कि कोई विरोध करेगा तो मैं साथ में खड़ा रहूँगा।
दोनों ने बुझे मन से, स्थितिजन्य विवशता के अधीन इस विचार को निरस्त करने का निर्णय लिया। दोनों की शकलें कह रही थीं कि इस निर्णय से कहीं भी प्रसन्न नहीं हैं। सुबेदारसिंहजी हृदयाघात झेलकर शल्य क्रिया से गुजर चुके हैं और कटारियाजी भी, आयु-प्रभाव के चलते दिन भर में दो-चार गोलियाँ लेते हैं। दोनों संस्थाओं के सदस्यों की दशा भी न्यूनाधिक यही है। मैं भी उनके पीछे-पीछे ही चल रहा हूँ।

सो, हम तीन बूढ़ों का आत्म-बल, हमारे शाररिक बल के सामने परास्त हो गया और मेरा विचार तथा कटारियाजी का उत्साह वास्तविकता में नहीं बदल पाया।

मुझे केवल इसी बात का दुख नहीं है। दुख यह भी है कि निरर्थक बातों के लिए सड़क पर आनेवाले, और सड़क पर आ कर राष्ट्रीय सम्पत्ति को फूँक देनेवाले नौजवानों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया?

मैं आशावादी हूँ। आज नहीं तो कल, उन्हें इस ओर ध्यान देना ही पड़ेगा।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

हिन्दी का ‘शकुन पक्षी’ बन जाइए

अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। 5 सितम्बर को अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को 5 सितम्बर से अपने ब्लॉग पर पोस्ट करना शुरु कर दियाँ। ये मेरे ब्लॉग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।



13 सितम्बर 2010, सोमवार
भाद्रपद शुक्ल षष्ठमी, 2067

माननीया रेखाजी,

सविनय सादर नमस्कार,

एक परिवार में बीमे की बात करने पहुँचा तो वहाँ, ‘नईदुनिया’ के कल, 12 सितम्बर 2010, रविवार के अंक में 'सारी किताबें अँग्रेजी में हैं' शीर्षक के अन्तर्गत आपकी टिप्पणी पढ़ी। यह जानकर आत्मीय प्रसन्नता हुई कि आप हिन्दी के बारे में सोचती हैं और हिन्दी की चिन्ता करती हैं।

आपकी टिप्पणी के इस अंश ने मेरा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया - ‘यदि सभी चिकित्सक एकमत होकर दवाइयों के पर्चे हिन्दी में लिखने पर सहमति व्यक्त करें तो मुझे अपने पर्चे हिन्दी में लिखने में कोई आपत्ति नहीं है।’ आपकी इस बात से यह तो प्रकट है कि आप हिन्दी में अपने पर्चे लिखना चाहती हैं और लिख सकती हैं किन्तु चाहती हैं कि इसकी शुरुआत कोई और करे या फिर हिन्दी में पर्चे लिखनेवाली आप अकेली न रहें।
आपकी यह मनःस्थिति कहीं न कहीं हिन्दी का मूल संकट ही उजागर करती है। अपने दैनन्दिन जीवन-व्यवहार में हिन्दी के उपयोग को लेकर हम लोग अकारण ही हीनता बोध से ग्रस्त हैं, यही तथ्य आपकी उक्त बात से प्रकट होता है।

आपके डॉक्टरी पेशे में कई बातें ऐसी होंगी जो शाजापुर के अन्य डॉक्टर प्रयुक्त नहीं करते होंगे। इसी प्रकार अन्य डॉक्टरों की कई बातें ऐसी होंगी जिन्हें आप व्यवहार में नहीं लाती होंगी। कुछ बातों में आप अन्य डॉक्टरों से अलग होंगी तो कुछ बातों में अन्य डॉक्टर आपसे अलग होंगे। हिन्दी में अपने पर्चे लिखनेवाली बात भी ऐसी बात हो सकती है जो आपको शाजापुर के समस्त डॉक्टरों से अलग करे।

दो बातें तो तय हैं - पहली यह कि हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते। और दूसरी यह कि हमारा नियन्त्रण केवल हम तक ही सीमित है। दूसरों पर हमारा कोई नियन्त्रण सम्भव नहीं। और तो और, हमारे जीवन साथी पर भी हमारा नियन्त्रण सम्भव नहीं। ऐसे में, अब तक जो हो गया है, उस पर विचार किए बिना यह तय करना ही श्रेयस्कर और बुद्धिमानी होगी कि अब हमें क्या करना है। और चूँकि हमारा नियन्त्रण किसी और पर सम्भव नहीं, इसलिए जो भी करना है, हमें ही करना है।

इसलिए मेरा आपसे करबद्ध अनुरोध है कि कृपया अपने पर्चे हिन्दी में लिखने के विचार को तुरन्त अमल में लाना शुरु कर दें। यह श्रेयस्कर शुरुआत आप अविलम्ब ही कर दें। यह श्रेय अपने खाते में जमा करने में पल भर भी देर मत कीजिए। बाकी लोगों की प्रतीक्षा में आप, हिन्दी के स्वाभिमान को लौटाने के नेक काम को विलम्बित बिलकुल मत कीजिए। इस मामले में आप हिन्दी का ‘शकुन पक्षी’ बनने का ऐतिहासिक अवसर मत गँवाइए। आप शुरुआत करेंगी तो कुछ दिनों बाद पाएँगी कि शाजापुर के बाकी डॉक्टर आपके पद चिह्नों पर चल रहे हैं। हिन्दी में पर्चे लिखने के कारण आपको आपके मरीजों का (और दवाई दुकानदारों का) अतिरिक्त विश्वास प्राप्त होगा। आपकी लोकप्रियता ही नहीं, आपकी विश्वसनीयता भी बढ़ेगी। आपकी टिप्पणी के साथ ही प्रकाशित श्री अशोक गुप्ता की टिप्पणी से भी मेरी बात को बल मिलता है।

हिन्दी हमारी ताकत है, कमजोरी नहीं। यह अलग बात है कि हमने अपनी कमजोरी को हिन्दी की कमजोरी बना रखा है। कोई भी भाषा कमजोर नहीं होती। सो, हिन्दी को कमजोर, अक्षम अथवा असमर्थ समझना खुद पर ही अविश्वास करना है।

यदि अकादमिक गतिविधियों में आपकी रुचि हो और आपको समय मिल पाता हो तो मेरा आपसे अनुरोध है कि चिकित्सा-शिक्षा की पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद करने पर भी विचार अवश्य कीजिएगा। किन्तु इसके समानान्तर यह सावधानी भी बरतिएगा कि ‘अनुवाद’ के नाम पर हिन्दी असहज, अप्राकृतिक और क्लिष्ट न हो जाए। जहाँ भी अँग्रेजी शब्द प्रयुक्त करना आवश्यक अनुभव हो, वहाँ बेझिझक अँग्रेजी शब्द प्रयुक्त करें। ‘शुद्धतावाद का दुराग्रह’ हिन्दी का भला नहीं करेगा।

आपके लिए दो आलेखों की फोटो प्रतियाँ संलग्न कर रहा हूँ। विश्वास है, दोनों आलेख आपका आत्म बल बढ़ाने मे सहायक होंगे।

मेरे इस पत्र में आपको यदि कोई भी बात, कोई भी उल्लेख अनुचित, आपत्तिजनक, अन्यथा, अपमानजनक अनुभव हो तो उसके लिए मैं आपसे, अपने अन्तर्मन से करबद्ध क्षमा याचना करता हूँ।

ईश्वर आपको यशस्वी बनाए और आप हिन्दी की पहचान बनें।

हार्दिक शुभ-कामनाओं सहित।

विनम्र,
विष्णु बैरागी

संलग्न-उपरोक्तानुसार 2.

प्रतिष्ठा में,
माननीया डॉक्टर रेखाजी जारवाल,
स्त्री एवम् प्रसूति रोग विशेषज्ञ,
शाजापुर - 465001


पत्र के साथ भेजे गए आलेख -


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