दलाल कथा-5
यादव सा’ब के सुनाए, दलालों के किस्से आपको सुनाते हुए मैंने कहा था कि एक किस्सा मेरे पास वाला भी सुनाऊँगा। लेकिन ऐसा सिलसिला बन गया कि बीच में दूसरे किस्से आ गए और मेरेवाला किस्सा रह गया। देरी के लिए मुझे माफी दे दी जाए और ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ की तर्ज पर अब सुन लिया जाए।
यह किस्सा रतलाम का नहीं, मालवा के एक अन्य व्यापारी-कस्बे का है। इस किस्से का मैं चश्मदीद गवाह हूँ।
‘कन्नू दलाल’ के नाम से पहचाने जानेवाले कन्हैयालालजी कस्बे के सबसे वरिष्ठ और सबसे भरोसेमन्द दलाल थे। उनके लाए सौदे लेने के लिए व्यापारी एक पाँव पर बैठे रहते थे। वे भी कस्बे के तमाम व्यापारियों को सौदे पहुँचाया करते थे किन्तु ‘माँगू सेठ’ याने सेठ माँगीलालजी की पेढ़ी उनकी प्रिय पेढ़ी थी। दोनों एक दूसरे पर खुद के बराबर भरोसा करते और खुद से ज्यादा मान देते। एक की कही बात, दूसरे की इज्जत होती थी। कमाई के नाम पर कन्नूजी ने यही कमाया था - बाजार का भरोसा और इज्जत। बाजार में निकलते तो किसी सेठ की तरह मान पाते। लेकिन कन्नूजी ने कभी धरती नहीं छोड़ी। अपनी विनम्रता से उन्होंने पूरे कस्बे को कायल कर रखा था।
कन्नूजी का एक ही बेटा था। भँवरलाल। पिता की तरह ही प्रतिभाशाली और व्यवहार कुशल। लेकिन पिता के सन्तोषी भाव से सदैव असहमत। वह धनपति होने को उतावला रहता था। गाहे-ब-गाहे, पिताजी पर झुंझला जाता। पिताजी की सिद्धान्तप्रियता उसे अपने परिवार की सम्पन्नता की यात्रा में सबसे बड़ी बाधा अनुभव होती थी। कन्नूजी कुछ नहीं कहते। उसे समझा देते।
सब कुछ ठीक ही चल रहा था किन्तु होनी ऐसी हुई कि एक रात कन्नूजी सोये तो सुबह उठे ही नहीं। उनकी अर्थी ही उठी। लेकिन इस मौत का मातम केवल कन्नूजी के घर तक ही नहीं रहा। कन्नूजी का पुण्य-प्रताप ऐसा कि पूरे कस्बे को उनकी मौत का सदमा लगा। कन्नूजी के सम्मान में पूरा बाजार बन्द रहा।
तेरह दिन पलक झपकते निकल गए। अब कामकाज भँवर को ही सम्हालना था। वह बाजार में उतरा तो जरूर लेकिन पिता की सिद्धान्तप्रियता, धैर्य और सन्तोष को खूँटी पर टाँग कर। उसे बड़ी जल्दी थी। कन्नूजी के प्रति लोगों का आदर भाव उसकी पूँजी थी। लेकिन जल्दी ही वह यह पूँजी खोने लगा। उसकी हरकतें देख माँगू सेठ ने इशारों ही इशारों में उसे समझाने की कोशिश की कि लेकिन भँवर ने अनसुनी, अनदेखी कर दी।
भँवर बेलगाम घोड़े की तरह सरपट दौड़ चला। इस उतावली में उसे अच्छे-बुरे का भान ही नहीं रहा और ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ को चरितार्थ कर बैठा। उसने अपने बुरे दिनों को न्यौता दे दिया। जो नहीं होना था, वह हो गया। एक दिन एकान्त में उसने माँगू सेठ को मानो धमकी ही दे दी। उसने इशारों में कहा कि उसे माँगू सेठ के व्यापार की वो बातें भी पता है जो यदि बाजार को मालूम हो जाए तो माँगू सेठ तकलीफ में आ जाएँ। उसने चुप रहने की अच्छी-भली कीमत माँग ली। माँगू सेठ को विश्वास ही नहीं हुआ-कन्नूजी का छोरा और ऐसी घटिया हरकत! इसे इसके बाप के और मेरे रिश्ते, मेरे सम्बन्धों का भी भान नहीं रहा! अपने बाप की इज्जत की भी चिन्ता नहीं रही! उन्होंने पहले तो उसे, नरमाई से समझाया। कोई असर होता नजर नहीं आया तो हलके से डाँटा। लेकिन भँवर की आँख का पानी मर चुका था। उस पर कोई असर नहीं हुआ। माँगू सेठ ने मर्मान्तक पीड़ा से कहा - ‘भँवर! मैं कन्नूजी का लिहाज कर रहा हूँ इसलिए जोर से नहीं बोल रहा हूँ। क्या पता, मेरे जोर से बोलने से कन्नूजी की आत्मा दुखी हो जाए। तू बेटा बनकर सामने आता तो मैं कुछ सोचता भी। लेकिन तू तो मेरा बाप बनकर सामने खड़ा है! मैं तेरी कोई बात माननेवाला नहीं। जा! तुझे जो करना हो, कर ले। कोई कसर मत रखना।’ तुलसीदासजी की ‘जा को प्रभु दारुण दुख देई, वाकी मति पहले हर लेई’ वाली चौपाई भँवर पर लागू हो रही थी। इतनी गम्भीर बात भी उसकी समझ में नहीं आई। ‘तो ठीक है सेठजी! अब आपका कल का सूरज राजी-खुश नहीं उगेगा।’ कहकर दुष्टतापूर्वक हँसता हुआ चला गया।
लेकिन माँगू सेठ सामान्य, सहज बने रहे। कुछ नहीं बोले। कुछ नहीं किया। दो-तीन जगह फोन लगाया और शाम को रोज की तरह पेढ़ी मंगल कर घर चले आए। भोजन कर, रामजी को याद करते-करते सो गए।
अगली सुबह बाजार में हल्ला था - ‘माँगू सेठ के पतरे उलट गए।’ याने सेठ माँगीलालजी दिवालिया हो गए। उनकी पेढ़ी पर, ब्याज पर रकम लगानेवालों ने भँवर से कहा तो उसने कपड़े फेंक दिए - ‘तुम जानो और सेठ माँगीलाल जानें।’
माँगू सेठ की साख का आलम यह कि उनके सामने जाने की हिम्मत वैसे भी नहीं होती। ऐसे में भला रुपये माँगने के नाम पर कैसे जाएँ? अकेले जाने की तो किसी की हिम्मत ही नहीं हुई। अपनी-अपनी हुण्डी लेकर लोग दो-दो, तीन-तीन का साथ बना कर पहुँचे। किसी को अपनी रकम मिलने की उम्मीद नहीं थी। भागते भूत की लँगोटी की एक लीर ही मिल जाए। सबको लगा था, माँगू सेठ, मुँह लटका कर, हाथ जोड़े बैठे होंगे। लेकिन वहाँ तो नजारा ही दूसरा था। लोगों की आँखें फटी रह गईं और जबान को लकवा मार गया। माँगू सेठ सौ-सौ के नोटों की गड्डियों की थप्पियाँ लगाए बैठे थे। मुनीमजी को उन्होंने दूर बैठा दिया था। खुद ही एक-एक का हिसाब कर रहे थे। अपना भुगतान लेकर जानेवाले प्रत्येक व्यापारी को कह रहे थे-‘बाजार में सबको खबर कर देना। जिसके भी पास हुण्डी हो, आकर अपनी रकम ले जाए।’
डेड़-दो घण्टा भी नहीं हुआ और बाजार की रंगत बदल गई। हुण्डी लेकर आनेवाले, माँगू सेठ की पेढ़ी तक पहुँचने से पहले ही उल्टे पाँवों लौटने लगे। जो रकम ले चुके थे, पछताने और घबराने लगे। पूरे बाजार में भँवर की तलाश शुरु हो गई। लेकिन भँवर हो तो मिले! पता नहीं कब उसने कस्बा छोड़ दिया। घर पर ताला। आस-पड़ौसवालों को भी भनक नहीं हुई। मानो हवा में अन्तर्ध्यान हो गया।
यह माँगू सेठ की सूझबूझ और दम-गुर्दा ही था कि जितनी तेजी से बवण्डर उठा था, उससे अधिक तेजी से बैठ गया। माँगू सेठ की साख तो सौ गुना बढ़ गई लेकिन बाजार में दलालों का काम करना मुश्किल हो गया। भँवर ने दलाल कौम के नाम को बट्टा लगा दिया था। दलालों को खुद को दलाल कहने में पसीने आने लगे। लेकिन यह दशा कुछ ही दिन रही। जल्दी ही बाजार में पहले की तरह ही रामजी राजी हो गए। लेकिन माँगू सेठ भला भँवर को कैसे भूलें? उस पर खुब गुस्सा आए। लेकिन उसकी याद के साथ-साथ कन्नूजी की याद भी चली आए। गुस्सा झुुंझलाहट, खीझ में बदल जाए। कन्नूजी की वजह से उस पर दया भी आए। क्या कर दिया बेवकूफ ने? कहाँ चला गया। कुछ कर-करा न लिया हो। कोई दिन ऐसा न गया जब माँगू सेठ ने भँवर की तलाश, पूछ-ताछ न की हो।
दो साल हो गए। अधिक मास में माँगू सेठ सपरिवार तीर्थ यात्रा पर गए। एक दोपहर, देव-दर्शन कर लौटते हुए उन्हें लगा, भँवर नजर आया था। वे वहीं खड़े हो गए। आसपास देखा। भँवर कहीं नहीं था। लेकिन माँगू सेठ ने इस बात को हलके में, भ्रम की तरह नहीं लिया। उन्हें विश्वास हो गया कि उन्होंने भँवर को ही देखा था। वे रोज, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ निपटा कर उसी दुकान पर बैठने लगे, जिसके सामने उन्हें भँवर नजर आया था। उन्हें ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। तीसरे ही दिन भँवर उनकी पकड़ में था। भँवर को काटो तो खून नहीं। उससे कुछ न बन पड़ा और धार-धार रोने लगा। न कुछ बोले, न कुछ करे। बस रोए जाय। माँगू सेठ की भी यही दशा। आखिर था तो उनके कन्नूजी का ही बेटा! अपने बेटे की ही तरह। वे भी भँवर के सुर में सुर मिला, रोने लगे। दुकानदार को पहले ही पता चल चुका था। उसने दोनों को दुकान में बैठाया। हाथ-मुँह धुलवाए। पानी पिलाया। दोनों बोलने-सुनने की दशा में आए तो माँगू सेठ ने लाड़ से डाँटा - ‘गुस्सा तो तुझ पर इतना आ रहा था कि तुझे गोली मार दूँ। अरे! तेने मेरा नहीं सोचा तो कोई बात नहीं। पर तेने कन्नूजी का भी नहीं सोचा? और खैर! कर दिया सो कर दिया। लेकिन इस तरह भागने की, पीठ दिखाने की क्या जरूरत थी। तू क्या समझता है भाग कर तेने तेरी इज्जत बचाई? नहीं! तेने कन्नूजी का नाम खराब कर दिया। कन्नूजी का बेटा तो मर्द की तरह मैदान में खड़ा रहता। अपनी गलती कबूल करता। जिम्मेदारी लेता और गलती सुधारने का मौका माँग बाजार का भरोसा कमाता। जिन्दगी ऐसे थोड़े ही चलती है? ऊँच-नीच चलती रहती है। चल! अपने घर चल! फिर से सब कुछ शुरु कर कर। कन्नूजी तेरेे लिए बहुत काम छोड़ गए हैं। उनकी खोई इज्जत कमा कर उनको वापस कर।’ माँगू सेठ समझाए जाएँ और भँवर इंकार में मुण्डी हिला-हिला कर, माँगू सेठ के पाँवों पर झुक-झुक जाए।
दो दिनों बाद भँवर फिर से अपने कस्बे में था। बीच बाजार में। माँगू सेठ उसे लिए खड़े थे। सबसे कह रहे थे - ‘अपने कन्नूजी का छोरा है। सब मिल कर इसे सम्हालो। गलती सब से होती है। इससे भी हो गई। आगे से ऐसा नहीं करेगा। मैं इसकी जमानत देता हूँ।’ फिर भँवर से बोले - ‘तू सेठ बनना चाहता है। बहुत अच्छी बात है। लेकिन उसके लिए तुझे दलाली छोड़नी पड़ेगी। सेठ कभी दलाली नहीं करता और दलाल कभी साहूकारी नहीं करता। दोनों का अपना-अपना धरम और अपना-अपना चलन है। याद रखना - व्यापार-धन्धे में दो धरम और दो चलन एक साथ नहीं निभते।’
माँगू सेठ की बात भँवर ने गाँठ बाँध ली। कोई सात-आठ बरस बाद कस्बे में एक नई पेढ़ी की शुरुआत हुई - सेठ भँवर दलाल की पेढ़ी।
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