कीर्तिमानी चीनी झूठ

चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग आज भारत आ रहे हैं।
भारतीय सीमा में चीनी अतिक्रमण और चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सैनिकों की घेराबन्दी किए जाने की खबरों के बीच शी जिन पिंग की यात्रा को लेकर आशा भरे अनुमान कम और आशंकाएँ ज्यादा जताई जा रही हैं। आशाएँ पूरी तरह से भारत में चीनी निवेश को लेकर है और आशंकाएँ भारतीय भूमि पर उसकी अवांच्छित उपस्थिति को लेकर।

1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के बाद चीन की दोस्ती पर आँखें मूँदकर विश्वास हम कभी नहीं जता पाए। इसके सर्वथा विपरीत, चीन हमारे लिए ‘मुँह में राम, बगल में छुरी’ का पर्याय बन गया। माओ त्से तुंग (या ‘दुंग’) हमारे लिए सबसे बड़े खलनायक बने हुए थे।

सत्तर और अस्सी के दशक में चीन के प्रति यह अविश्वास और सन्देह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभव किया जाता था। निकिता ख्रुश्चेव (उन्हें ‘ख्रुश्चोफ’ भी लिखा जाता रही है) के नेतृत्व में सोवियत संघ तब हमारे लिए सबसे बड़ा, सर्वाधिक विश्वस्त और सर्वाधिक सहयोगी मित्र बनकर उभरा था। हम ‘निर्गुट आन्दोलन के नेता’ होते हुए भी रूसी खेमे में मौजूद रहते थे।

चीन की कथनी और करनी के अन्तर का बखान करनेवाला एक चुटकुला (जो मुझे आज भी लघु कथा ही लगता है) तब काफी लोकप्रिय हुआ था। ‘चीनी झूठ’ शीर्षक से लोकप्रिय हुआ यह चुटकुला मैंने तब अनेक अखबारों और पत्रिकाओं में पढ़ा था। आज वही चुटकुला मुझे बड़ी ही शिद्दत से याद आ रहा है।

चुटकुला कुछ इस तरह है -

कॉमरेड माओ और कॉमरेड ख्रुश्चेव एक बार एक साथ शिकार खेलने गए। उन्होंने एक शेर मार गिराया। दोनों मरे शेर के पास पहुँचे तो पाया कि शेर बहुत बड़ा और बहुत भारी है। इतना और ऐसा कि दोनों के लिए उसे ढो कर ले जाना सम्भव नहीं।

दोनों ने तय किया कि कॉमरेड माओ मरे शेर की रखवाली करेंगे और कॉमरेड ख्रुश्चेव सहायता के लिए पास के गाँव जाकर कुछ लोगों को लेकर आएँगे।

दोनों, बड़ी मुश्किल से खेंच-खाँच कर शेर को एक बरगद के नीचे लाए। कॉमरेड माओ को मरे शेर के पास छोड़ कर कॉमरेड ख्रुश्चेव पड़ौस के गाँव में चले गए।

थोड़ी देर बाद, गाँव के आठ-दस लोगों को साथ लेकर कॉमरेड ख्रुश्चेव लौटे तो देखा कि कॉमरेड माओ, टाँगें फैलाए, बड़े आराम से सिगार पी रहे हैं और शेर का अता-पता नहीं है।

कॉमरेड ख्रुश्चेव ने पूछा - “कॉमेरड! शेर कहाँ है?”

सिगार फूँकना जारी रखते हुए कॉमरेड माओ बेपरवाही से बोले - “शेर! कौन सा शेर?”

कॉमरेड ख्रुश्चेव फौरन ही सारी बात समझ गए। बोले - “कोई बात नहीं कॉमरेड। सारी बात शुरु से शुरु करते हैं।”

और कॉमरेड ख्रुश्चेव शुरु हो गए। दोनों में सम्वाद कुछ इस तरह हुआ -

“अपन दोनों शेर के शिकार पर आए?”

“हाँ। आए।”

“अपन दोनों ने मिल कर एक शेर मारा?”

“हाँ। मारा।”

“मरा शेर इतना भारी था कि अपन दोनों के लिए उसे ढो पाना मुमकिन नहीं था?”

“हाँ। नहीं था।”

“तब तय हुआ कि आप मरे शेर की रखवाली करेंगे और मैं पड़ौस के गाँव जाकर मदद के लिए कुछ लोगों को लेकर आऊँगा?”

“हाँ। तय हुआ था।”

“आपको मरे शेर के पास छोड़कर मैं पास के गाँव में गया?”

“हाँ। गये।”

“वापस आकर देखा कि आप अकेले बैठे सिगार पी रहे हैं और शेर कहीं नहीं है?”

“शेर! कौन सा शेर?”
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इस अन्तरराष्ट्रीय चुटकुले को याद रखते हुए आईए! चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग का स्वागत करें।


(साथवाला चित्र मैं बड़ी मुश्किल से तलाश कर पाया हूँ। यदि चित्र गलत हो तो मुझे क्षमा किया जाए।)







दोनों अनाथ

“क्यों? केवल बच्चे ही क्यों? अब तो बूढ़े भी अनाथ हो गए हैं। नहीं?” मेरी उत्तमार्द्ध ने कह तो दिया लेकिन कहते ही खुद ही हक्की-बक्की भी हो गई। कुछ इस तरह, मानो, उन्होंने अचानक ही ऐसा सच उजागर कर दिया जिसका सामना वे खुद भी नहीं करना चाहती थीं।

नेहा और वरुण कर बिटिया है अनन्या। अगले हफ्ते, 22 सितम्बर को दो बरस की हो जाएगी। घर में परी कहते हैं उसे। हम लोग एक ही मकान में रहते हैं। पहली मंजिल पर नेहा-वरुण। नीचेवाली मंजिल पर हम। वरुण एक निजी कम्पनी में नौकरी करता है और नेहा गृहिणी है। वरुण जब भी काम पर जाने के लिए निकलता होता  है, परी मचल जाती है। इसलिए, परी की नजरें बचा कर निकलना पड़ता है वरुण को। इसका एक उपाय अपने आप निकल आया। हम ही परी को नीचे बुला लेते हैं और वरुण के जाने के बाद परी को उसकी माँ के पास भेज देते हैं।

परी से हमारे मेलजोल की शुरुआत इसी तरह से हुई थी। उसके बाद उसका आना-जाना बढ़ गया। परी पहली मंजिल से हाँक लगाती है - ‘दादी! मैं आऊँ?’ हम लागों के कान भी उसकी यह हाँक सुनने का उतावले रहते हैं। प्रायः ही हम दोनों एक साथ जवाब देते हैं - ‘आजा।’ और परी ठुमकती-ठुमकती आ जाती है। यूँ तो बहुत बोलती है किन्तु उसके मन की बात हो जाने पर आनन्द लेती रहती है - चुपचाप। उसके मन की बात होती है - छोटा भीम।

आते ही कहती है - ‘टाटून लदाओ।’ ‘टाटून’ मतलब ‘कार्टून’। उन क्षणों में परी हमारा खिलौना बन जाती है। उसकी बात समझ जाने के बावजूद पूछते हैं - ‘कौन सा कार्टून?’ वह कहती है - ‘तोता बिम।’ उसका ‘टाटून‘ और ‘तोता बिम’ कहना हमें अच्छा लगता है। गुदगुदा देता है। हम उसे पलंग पर बैठा कर, टीवी खोल कर ‘पोगो’ लगा देते हैं। 

लेकिन ऐसा भी नहीं होता कि वह हर बार चुपचाप देखती रहे। देखते-देखते वह अचानक ही कुछ पूछने/कहने लगती है। उसकी भाषा हम अब तक नहीं समझ पाए हैं। हमें कुछ भी समझ नहीं आता। उसकी बात का मनमाना अर्थ लगा कर हम कुुछ तो भी जवाब दे देते हैं। इस तरह ‘जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी’ की तर्ज पर हमारे अर्थहीन सम्वाद चलते रहते हैं। हम समझते हैं, हम उसे बुद्धू बना रहे हैं लेकिन वास्तव में वही हमें बुद्धू बना रही होती है। 

लेकिन एक विशेष बात हम लोगों के ध्यान में आई। वह भले ही बात नहीं करे, चुपचाप कार्टून देखती रहे, लेकिन उसे हम दोनों में से किसी एक की उपस्थिति चाहिए होती है। परी का आना-जाना अधिकांशतः सुबह के समय ही होता है। वह समय हम दोनों की व्यस्तता का भी होता है। लेकिन परी का होना हमें जीवन्तता से जोड़े रखता है, हमारे घर को जगर-मगर बनाए रखता है। सो, हम दोनों अपना-अपना काम निपटाते हुए ऐसा कुछ करते हैं कि हम दोनों में से कोई न कोई उसके पास बैठा/बना रहे।
जब परी का जी भर जाता है तो हमारी ओर बाँहे पसार कर कहती है - ‘उतारो। मम्मा जाना।’ हम अनमनेपन से उसे पलंग से उतार कर सीढ़ियों के पास खड़ा कर देते हैं। वह ‘बाय!’ कहती हुई, एक-एक सीढ़ी चढ़ने लगी है। हम उसकी माँ को आवाज देते हैं - ‘नेहा! परी आ रही है। सम्हालना।’ और जब तक नेहा की शकल सीढ़ियों पर नजर नहीं आती, हम लोग परी को सीढ़ियाँ चढ़ते देखते रहते हैं।

लेकिन दो दिन पहले वह हो गया जिसका समापन मेरी उत्तमार्द्ध के ‘अकस्मात उजागर हुए सच’ से हुआ जिससे मैंने अपनी बात की शुरुआत की है।

परी ने अभी-अभी बालवाड़ी जाना शुरु किया है। ग्यारह - साढ़े ग्यारह बजे का समय है उसका। नेहा ने उसे तैयार कर हमें आवाज लगाई और उसे नीचे भेज दिया। उस समय मैं अपने हिसाब-किताब के कागज-पत्तर तैयार कर रहा था और उत्तमार्द्ध रसोई घर में व्यस्त थीं। परी आई। उत्तमार्द्ध ने मुझे हँकाला - ‘बच्ची को देखना। मैं सब्जी छौंक रही हूँ।’ उस समय मैं हिसाब मिला रहा था। अनमनेपन से उठा और परी से कहा - ‘भीम देखेगी?’ उसने इंकार कर दिया - ‘कूल जाना।’ मैंने बहलाया - ‘अच्छा। बैठ। मैं आता हूँ।’ और मैं नोट जमाने में लग गया। उत्तमार्द्ध मेरे भरोसे थी। उन्होंने देखने/जानने की कोशिश ही नहीं की। मुझे लगा, परी बैठी ही है। सो, अपने काम में लगा रहा।

अचानक ही उत्तमार्द्ध की आवाज आई - ‘क्या कर रहे हैं? छोरी कहाँ है? उसकी आवाज सुनाई नहीं दे रही।’ मैंने कहा - ‘बैठी है।’ मेरी बात पूरी हो उससे पहले की करछुल हाथ में लिए उत्तमार्द्धजी मेरे सामने खड़ी थीं - ‘कहाँ बैठी है? यहाँ तो नहीं है। कहाँ गई? आपको कहा था उसका ध्यान रखने को!’ मैंने भी देखा - परी कहीं नहीं थी। उसकी आवाज भी सुनाई नहीं दे रही थी। फौरन नेहा को आवाज लगाई। उसने कहा - ‘आपके पास ही तो है दादीजी!’ हम दोनों पसीना-पसीना हो गए। भाग कर बाहर आए। देखा - परी, बन्द फाटक के पास, कुछ इस तरह से खड़ी थी कि फाटक खुले तो सड़क पर चली जाए।

हम दोनों की साँसें लौटी। पहले एक-दूसरे पर खीझे और फिर नेहा पर - ‘कैसी माँ है? बच्ची को अकेले ही नीचे भेज दिया! साथ में आना था ना!’ नेहा भाग कर आई और परी को सम्हाला।

उसके बाद जो होना था, हुआ। लेकिन बड़ी देर तक हम दोनों के बोल नहीं फूटे। 

मैं विचार कर रहा था - संयुक्त परिवार रहे नहीं। स्थिति ‘एकल परिवार’ से भी नीचे उतर कर ‘एकल गृहस्थी’ पर आ गई। बच्चे छोटे और माँ-बाप को अपने काम पर जाना। अपना काम सम्हालें या बच्चे। तालमेल बैठाना कठिन। घर में कोई बड़ा-बूढ़ा हो तो बच्चों को देख ले, सम्हाल ले। मुझे लगा: माँ-बाप के होते हुए भी बच्चे अनाथ हो गए। 

मेरे मन पर उदासी छा गई। लगभग रुँआसी आवाज में अपनी उत्तमार्द्ध को मैंने यह बात कही तो उन्होंने सूनी नजरों से मुझे देखा और पूछा - ‘अनाथ से आपका मतलब?’ मैंने डूबे स्वरों में ही कहा - ‘अनाथ मतलब अनाथ। जिसके माँ-बाप नहीं।’ मेरी उत्तमार्द्ध ने मेरी आवाज से भी अधिक भीगी, अधिक डूबी और अधिक सर्द आवाज में कहा - ‘आप शाब्दिक अर्थ बता रहे हैं। आज तो अर्थ बदल गया है। अब अनाथ का मतलब है - जिसकी देखभाल करनेवाला, सार-सम्हाल करनेवाला कोई नहीं। आप केवल छोटे बच्चों को देख रहे हैं। जरा अपनी तरफ और अपने परिचितों में अपने जैसों की तरफ देखिए। सबके बच्चे बड़े होकर, ऊँची पढ़ाई कर अपनी-अपनी नौकरियों के लिए बाहर गए हुए हैं। अकेले बूढ़े दम्पतियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। बूढ़ों के जिम्मे मानो अपने-अपने मकानों की देखभाल का काम रह गया हो। उन्हें अपनी देखभाल भी करनी है और मकान की भी। आप कह रहे हैं कि आज के बच्चे अनाथ हो गए हैं। केवल बच्चे ही क्यों? अब तो बूढ़े भी अनाथ हो गए हैं। नहीं?’

जहाँ से शुरु किया था, खतम करते-करते वहीं पहुँच गया हूँ। इंकार करूँ तो झूठ बोलूँगा और सच कबूल करने की इच्छा नहीं हो रही। हिम्मत तो बिलकुल ही नहीं हो रही।
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(चित्र में परी के साथ मेरी उत्तमार्द्ध।)

विजय में बदली जा सकती है हिन्दी की पराजय

विजय में बदली जा सकती है हिन्दी की पराजय
- डॉक्टर जयकुमार जलज

(ख्यात भाषाविद् जलजजी का यह आलेख 14 सितम्बर 2003 को नईदुनिया (इन्दौर) में प्रकाशित हुआ था। तनिक संशोधनों और परिवर्द्धनों सहित जलजजी का यह आलेख अभी-अभी,  11 सितम्बर 2014 को साप्ताहिक उपग्रह (रतलाम) में प्रकाशित हुआ है। ग्यारह वर्षों के अन्तराल में स्थितियाँ, सुधरी तो बिलकुल ही नहीं, और अधिक खराब ही हुई हैं। जलजजी की कृपापूर्ण अनुमति से यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है।)

यह सच्चाई कितनी ही अपमानजनक और पीड़ादायक क्यों न हो, पर अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। जो काम अंग्रेेजों के शासनकाल में नहीं हो सका वह अब हो गया। हमारे क्रिकेट खिलाड़ी दैनिक जीवन में भले ही मातृ-भाषा में बोलते हों, पर टीवी पर या सम्वाददाताओं से बात करते वक्त भारत में भी सिर्फ अंग्रेजी में ही बोलते हैं। फिल्मों में धड़ल्ले से हिन्दी सम्वाद बोलकर हिन्दी की रोटी खाने वाले अभिनेताओं, अभिनेत्रियों की भी यही स्थिति है। दरअसल कुछ वर्षों से अंग्रेजी ‘स्टेटस सिम्बॉल’, रुतबे का प्रतीक बन गई है।

आखिर इस स्थिति तक हम पहुँचे कैसे? आजादी मिलने के बाद जो समस्याएँ लम्बित रहीं उनमें कश्मीर की और भाषा की समस्या प्रमुख है। इन दोनों समस्याओं की लीपापोती करके यह मान लिया गया कि इससे काम चल जाएगा लेकिन इससे समाधान नहीं हुआ। इन दोनों समस्याओं को हल करने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत थी। उसके अभाव में वही हो सकता था जो हुआ। कश्मीर की तरह भाषा की समस्या को भी अपरिभाषित, अमूर्त मानदण्डों के हवाले कर दिया गया। कहा गया, जब तक हिन्दी समर्थ नहीं हो जाती, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी जारी रहेगी। हिन्दी के सामर्थ्य का प्रमाण पत्र क्या होगा? कौन देगा यह प्रमाण पत्र? कैसे देगा? सामर्थ्य को कैसे नापा जाएगा? इन प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया गया।

फिर भी आजादी के बाद आरम्भिक वर्षों  में विभिन्न विषयों में मौलिक लेखन आरम्भ हो गया था। कक्षाओं में विभिन्न विषयों को पढ़ाने के लिए हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध होने लगी थीं। अगर इस क्षेत्र को माँग और पूर्ति की शक्तियों के हवाले छोड़ दिया जाता तो धीरे-धीरे हिन्दी माध्यम की मौलिक किताबों से बाजार पट जाते। लेकिन इसी बीच विभिन्न सरकारें अनुवाद की योजनाओं के साथ इस मैदान में कूद पड़ीं। विषय विशेषज्ञों का, जिन्हें अनुवाद का कार्य सौंपा गया, विषय पर तो अधिकार था, हिन्दी पर नहीं। कभी -कभी एक ही किताब के विभिन्न हिस्से विभिन्न विशेषज्ञों को सौंपे गए। अनुवाद की भाषा की आलोचना हुई तो सरकारों ने उनके साथ हिन्दी विद्वानों को भी संयुक्त करना शुरु किया।

समय सीमा में काम पूरा करने के बन्धन, पारिश्रमिक पर दृष्टि, एक किताब के विभिन्न हिस्सों के अलग-अलग भाषा शैली के अलग-अलग विशेषज्ञों द्वारा किए गए अनुवाद नेे और उसके अलग-अलग भाषा संशोधकों ने अनुवाद को छात्रों के लिए कठिन बना दिया। कहीं-कहीं यह नियम भी रहा कि अनुवाद पर विशेषज्ञ अनुवादक और उसके हिन्दी संशोधनकर्ता का नाम नहीं दिया जाएगा। इससे उन्हें लापरवाही बरतने की पुख्ता छूट मिल गई। जवाबदेही नहीं रही। अपयश का डर नहीं रहा। कोई भाषा कुछेक कठिन शब्दों या पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से कठिन नहीं बनती। गलत वाक्य रचना, परसर्गों के यथास्थान अप्रयोग, क्रियाओं के लापरवाह प्रयोग आदि के कारण कठिन बनती है। इन कारणों से और स्रोत भाषा की प्रकृति को अनुवाद की भाषा पर हावी होने देने तथा शब्द-शब्द अनुवाद से इन अनुवादों की भाषा छात्रों के लिए ही नहीं शिक्षकों के लिए भी कठिन हो गई। मूल अंग्रेजी ग्रन्थ अपेक्षाकृत सरल लगने लगे। काश! हिन्दी संशोधकों ने अनुवाद की भाषा की इन कठिनाइयों को दूर करने में जरूरी परिश्रम किया होता। काश! अपने आलस्य से होने वाली भारी हानि का अन्दाजा उन्होंने लगाया होता।

एक विसंगति और हुई। छोटी कक्षाओं का शिक्षा माध्यम जहाँ हिन्दी था वहीं बड़ी कक्षाओं का अंग्रेजी। माध्यम को अंग्रेजी से हिन्दी करने का काम उत्‍तरोत्‍तर किया जाना चाहिए था। पर वह प्रायः नहीं हुआ। छात्रों और पालकों ने स्वभावतः यह महूसस किया कि जब बड़ी कक्षा की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से ही करनी है तब उसे छोटी कक्षा से ही क्यों न माध्यम बनाया जाए? फलस्वरूप छोटी कक्षाओं में भी अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी की माँग बढ़ने लगी। उसकी पूर्ति के लिए विभिन्न शहरों/कस्बों में एक के बाद एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खुलने लगे। शिक्षा माध्यम के सम्बन्ध में सरकारों की ढुलमुल नीति के कारण हिन्दी पाठ्य पुस्तकों के लेखन/प्रकाशन में निजी क्षेत्र ने शुरु में जो उत्साह दिखाया था वह शीघ्रतापूर्वक ठण्डा पड़ गया।

आज जो पीढ़ियाँ देश की प्रमुख कार्यशील जनसंख्या हैं और उद्योग-धन्धों, व्यापार, कार्यालयों, प्रतिष्ठानों आदि में काबिज हैं, वे वे ही हैं जो पिछले कुछ वर्षों में अंग्रेजी माध्यम से अपनी पढ़ाई पूरी करके आई हैं। इसलिए नहीं कि वे अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर निकली हैं बल्कि इसलिए कि पुरानी पीढ़ी के नेपथ्य में चले जाने के बाद उन्हें मंच पर आना ही था। उनके आने से स्वभावतः पूरा परिदृश्य अंग्रेजीमय हो गया है। अगर ये पीढ़ियाँ हिन्दी माध्यम से पढ़कर आई होतीं तो आज हिन्दी का वैसा पराभव नहीं दिखाई देता जैसा दिख रहा है। हिन्दी के इस पराभव के लिए न तो किसी जमाने में हुआ हिन्दी विरोधी आन्दोलन दोषी है और न अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार। इसके लिए हम ही दोषी हैं। हिन्दी की पराजय हमारी अपनी करनी का फल है।

पिछले साठ सालों में अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दी भाषी राज्य आर्थिक रूप से निरन्तर पिछड़ते रहे हैं। सम्भ्रान्त वर्ग इन्हें गायपट्टी/गोबरपट्टी के नाम से अभिहित करने में भी संकोच नहीं करता। दुर्भाग्य से इस पिछड़ेपन को भी हिन्दी से जोड़कर देखा जाने लगा। इसलिए यह मिथ्या धारणा बलवती होती गई कि आर्थिक तरक्की हिन्दी से सम्भव नहीं है। आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के चलते भी अंग्रेजी की अनिवार्यता रेखांकित की जा रही है। यह भुुलाया जा रहा है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ माल बेचने आ रही हैं, सिर्फ अपने दफ्तर खोलने नहीं। उन्हें हिन्दी प्रदेश के रूप में विशाल उपभोक्ता बाजार दिखाई दे रहा है। अगर हिन्दी भाषी ग्राहकों में माल की खपत करनी है तो उनसे हिन्दी में ही तो व्यवहार रखना होगा। कम्पनियाँ अपनी प्रचार सामग्री को हिन्दी में ही तो प्रस्तुत करेंगी। हिन्दी भाषी क्षेत्र में अपनी पैठ और पकड़ बनाने के लिए वे हिन्दी भाषी अमले को ही तो अपनी नौकरी में रखना चाहेंगी! आखिर टीवी चैनलों ने हिन्दी प्रसारणों को अधिकाधिक समय देना क्यों शुरू कर दिया है? लेकिन यह धारणा बनाई जा रही है कि अगर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी लेनी है तो हिन्दी में नहीं, अंग्रेजी में महारत हासिल करनी होगी।

अब कुछ वर्षों से ये कम्पनियाँ उचित ही यह समझने लगी हैं कि भारतीयों को अपनी भाषा से कुछ लेना देना नहीं है। इसलिए वे चीनी, अरबी आदि भाषाओं के तो सॉफ्टवेयर बनवाती हैं, हिन्दी के नहीं। वे जानती हैं कि भारत में अंग्रेजों का राज भले ही न हो, अंग्रेजी का राज तो बरकरार ही नहीं मजबूत भी हो गया है।

भाषा के मामले  में आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं, उसमें पहली जरूरत यह है कि हम अपनी आत्ममुग्धता और जय-जयकार से बाहर निकलें। यह स्वीकार करें कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। अब हमें वहीं से तमाम शुरुआत करनी होगी जहाँ से साठ साल पहले करनी थी। किसी देश की अर्थव्यवस्था में जो महत्व आधारभूत ढाँचे या अधोसंरचना का है उसकी भाषा के लिए वही महत्व विभिन्न कक्षाओं के विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तकों और शिक्षा माध्यम का है। अंग्रेजी माध्यम की पुस्तकें पढ़कर और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पाकर निकली आज की 25 से 50 साल उम्र वाली पीढ़ियाँ ही इस समय समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या हैं। इस जनसंख्या को अब हिन्दी की ओर मोड़ना कठिन है। हमें अपना ध्यान उन पीढ़ियों पर केन्द्रित करना होगा जो आज आरम्भ कर रही हैं और 20-25 साल बाद हमारे समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या में बदल जाएँगी।

साठ साल पहले की तुलना में आज यह काम ज्यादा कठिन है। तब के छात्रों की पीढ़ियाँ हिन्दी को ‘आजादी की लड़ाई की भाषा और देश भक्ति का प्रतीक’ मानती थीं। वे हानि उठाकर भी उसका झण्डा ऊँचा रखना चाहती थीं। आज के छात्रों की पीढ़ियाँ केरियर, व्यवसाय, प्रतिस्पर्धा को लेकर अधिक चिन्तित हैं और स्वभावतः उन्हें ही अधिक महत्व दे रही हैं। क्या केन्द्र और राज्य सरकारें उन्हें आश्वस्त कर सकेंगी कि हिन्दी और हिन्दी माध्यम की पढ़ाई उन्हें अंग्रेजी से, जो आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में भी शामिल नहीं है, वरीयता नहीं तो कम से कम अवसर की समानता तो प्रदान करेंगी ही? यूपीएससी के सीसेट प्रश्नपत्र में यह समानता न होने से ही तो भारतीय भाषाओं के छात्र उसका विरोध कर रहे हैं! अंग्रेजी में रचे गए प्रश्नपत्र के हिन्दी मशीनी अनुवाद को बड़े से बड़ा हिन्दीदाँ भी नहीं समझ सकता। अर्थबोध के लिए सिर्फ व्याकरणिक नियमों की समझ ही पर्याप्त नहीं होती। अगर टैबलेट कम्प्यूटर, को गोली कम्प्यूटर, स्टील प्लाण्ट को इस्पात पौधा कहा जाएगा तो परीक्षार्थी को क्या अर्थबोध होगा? क्यों न सीसेट का प्रश्नपत्र अगली बार हिन्दी में बने और उसका अनुवाद अँग्रेजी में हो? क्या हिन्दी सेवा संस्थाएँ और व्यक्ति, हिन्दी की अधोसंरचना को अपने एजेण्डे में शामिल करेंगे? यह सम्भव हो सका तो भी इसके परिणाम आने में बीस एक साल का समय लग जाएगा। जो नुकसान हो चुका, हो चुका है। उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इस बात की भी जरूरत है कि सूचना प्रौद्योगिकी को हिन्दी के अनुकूल बनाया जाए और हिन्दी राज्यों की सरकारें अपना तमाम काम हिन्दी में करके दिखाएँ। यह सिद्ध करके दिखाएँ कि हिन्दी में कामकाज से बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं। आवेश, आलस्य और बड़बोलेपन की अपनी कार्य संस्कृति का परित्याग करते हुए आर्थिक क्षेत्र में भी उन्हें बढ़त प्राप्त करनी होगी। यह कष्ट उन करोड़ों बच्चों के लिए उठाना होगा जिनकी अधिकांश आबादी गाँवों और गरीबी में है। उनकी मौलिक प्रतिभा का वास्तविक विकास हिन्दी में ही सम्भव है। वे ही इस नई सदी का इतिहास रचेंगे और हिन्दी की पराजय को विजय में बदलेंगे ।
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जलजजी का डाक का पता :  30, इन्दिरा नगर, रतलाम - 457001
जलजजी का ई-मेल पता  :   jaykumarjalaj@yahoo.com

हिन्दी : अपनों के अत्याचार

 हिन्दी का रास्ता आसान नहीं रह गया है। इसे दोहरा संघर्ष करना पड़ रहा है - चतुर, चौकन्ने अंग्रेजीपरस्तों से और अपने ही असावधान, आलसी, क्रूर सपूतों से। तय कर पाना मुश्किल लगता है कि किससे पहले निपटा जाए या किससे पहले बचा जाय?

यहाँ दी गई कतरन देखिए। यह उस अध्यापिका का वक्तव्य है जो बच्चों को हिन्दी पढ़ाती रही है। मध्य प्रदेश में अध्यापकों की सेवा निवृत्ति आयु, अन्य शासकीय कर्मचारियों से दो वर्ष अधिक है। सारे कर्मचारी 60 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं जबकि अध्यापक 62 वर्ष की आयु में। मोटे तौर पर माना जा सकता है कि इस अध्यापिका ने 35 बरस बच्चों को पढ़ाया।  कल्पना ही की जा सकती है कि इस अध्यापिका ने बच्चों को कैसी हिन्दी सिखाई/पढ़ाई होगी! यह भी तय है कि ‘ऐसी हिन्दी’ पढ़ानेवाली यह एकमात्र अध्यापिका नहीं ही होगी। पूरी जमात ऐसी भले ही न हो लेकिन हाँडी का चाँवल तो है ही।

इस समय मुझे मेरे छोटे बेटे का एक कक्षापाठी याद आ रहा है। इस समय उसकी अवस्था 26 वर्ष से अधिक नहीं होगी। कोई दो बरस पहले, एक दिन वह अचानक फेस बुक पर प्रकट हुआ और अपनी सत्रह कविताओं की पहली खेप मुझे अर्पित कर कहा - ‘अंकल! ये मेरी कुछ कविताएँ हैं। इन्हें जरा देख लीजिएगा।’ मुझे अच्छा तो लगा लेकिन कुछ ही देर तक। पहली कविता की पहली ही पंक्ति से, वर्तनी की अशुद्धियों का क्रम जो जारी हुआ तो एक कविता पूरी पढ़ने में मुझे रोना आ गया। शेष कविताएँ नहीं पढ़ सका! अगले दिन उसने (फेस बुक पर ही) पूछा - ‘मेरी कविताएँ देखी अंकल? कैसी लगी?’ मैंने उत्तर दिया - ‘एक कविता ही पढ़ पाया। वह भी बड़ी मुश्किल से। वर्तनी की अशुद्धियों ने जी खट्टा कर दिया। पहले अपनी वर्तनी सुधारो। उसके बाद ही कविता लिखना।’ उसने ‘दन्न’ से पूछा - ‘ये वर्तनी क्या होता है अंकल?’ मेरी घिग्घी बँध गई। अपनी बुद्धि, शक्ति और सामर्थ्यानुसार उसे समझाया। उसने जवाब दिया - ‘आप जो कह रहे हैं वह सीखने में तो बहुत टाइम लग जाएगा अंकल! मुझे तो अपनी नौकरी से ही फुरसत नहीं मिल पाती। यह नया काम सीखने के लिए मुझे टाइम नहीं है।’ मैंने यही कहा कि इस दशा में वह मुझे अपनी कविताएँ न भेजे।

उसने मेरा कहा मानने का उपकार तो कर लिया किन्तु उसका ‘कविता-कर्म’ न केवल निरन्तर है बल्कि हिन्दी साहित्य की कई संस्थाएँ और मंच उसे सम्मानित कर चुके हैं। उसकी उम्र और कविता लिखने की गति देखते हुए लगता है कि वह यदि ‘सबसे कम उम्र में सर्वाधिक सम्मान पानेवाला हिन्दी कवि’ बन जाए तो ताज्जुब नहीं। हाँ, वर्तनी के प्रति उसकी असावधानी पूर्ववत बनी हुई है। मैं तय नहीं कर पा रहा कि किस पर गुस्सा अधिक करूँ - इस बच्चे पर या इसे सम्मानित करने वाली साहित्यिक संस्थाओं/मंचों पर?

मुझे एक और ‘कवि’ याद आ रहे हैं। उम्र में मुझसे छोटे थे। अब दिवंगत हो चुके हैं। ऐसे में उनका नाम देना अशालीन होगा। मैं अपना काम कर रहा था। वे अपनी कविता-डायरी में व्यस्त थे। अचानक ही पूछा - “भाई साब! ये ‘सैलाब’ क्या होता है?” मैंने कहा - ‘सामान्य अर्थ तो बाढ़ या पानी का उफान होता है। लेकिन यदि वाक्यों में प्रयोग करके पूछो तो अधिक स्पष्ट बता सकूँगा।” अपनी डायरी में नजर गड़ाए बोले - ‘वाक्यों में प्रयोग तो मैंने कर लिया। तुक भी मिल गई। आप तो बस इसका अर्थ बता दीजिए।’ मैं क्या जवाब देता? बताने के लिए मेरे पास बचा ही क्या था?

‘अपनी हिन्दी’ के प्रति हिन्दीवालों के व्यवहार का एक और नमूना। साथवाला चित्र देखिए। एक अखबार में छपा यह विज्ञापन कल, 12 सितम्बर 2014 का ही है। इस अखबार की जड़ें राजस्थान में हैं। इसके संस्थापकजी को ‘हिन्दी-पुरुष के रूप में जाना जाता था। पत्रकारिता के पुरोधा बताते हैं कि अपने इसी अखबार की हिन्दी को ‘निर्दोष और अनुकरणीय’ बनाने के लिए उन्होंने अखबार में एक स्वतन्त्र विभाग बनाकर कुछ लोग नियुक्त किए थे। संस्थापकजी तो दिवंगत हो चुके हैं। उनके सुपुत्र ही अब इसके स्वामी और नियन्त्रक हैं। वे खुद ‘स्थापित हिन्दी साहित्यकार’ हैं और ‘श्रेष्ठ हिन्दी सेवी’ के रूप में एकाधिक राज-पुरुषों के हाथों, देश के विभिन्न स्थानों में राजकीय और साहित्यिक/सामाजिक सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। हिन्दी साहित्य की लगभग समस्त विधाओं में इनका हस्तक्षेप है। इनकी, कम से कम एक दर्जन पुस्तकें तो प्रकाशित हो चुकी हैं। इन पुस्तकों के विज्ञापन भी इनके इसी अखबार में छपते हैं।

पाँच बरस पहले, 12 सितम्बर 2009 को इस अखबार का, मेरे कस्बे का संस्करण शुरु हुआ था। छपता तो अब भी इन्दौर में ही है किन्तु मेरे कस्बे के लिए अलग से पन्नों की व्यवस्था है। कल, इस अखबार के, मेरे कस्बेवाले संस्करण के पाँच बरस पूरे हुए। छठवाँ वर्ष शुरु हुआ। उसी प्रसंग पर यह सूचना, मेरे कस्बे के पन्नेवाले हिस्से के मुखपृष्ठ पर छपी थी। यह अखबार हिन्दी का है, हिन्दी (क्षमा करें, ‘हिंग्लिश’) में छपता है, इसके संस्थापक ‘हिन्दी-पुरुष’ थे, इसके वर्तमान स्वामी ‘श्रेष्ठ हिन्दी सेवी’ हैं, इसका दावा है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ (दोनों हिन्दी प्रदेशों में) इसके 46 लाख पाठक हैं। लेकिन अपना छठवाँ स्थापना दिवस याद करने, इस प्रसंग पर गर्वित होने और अपने पाठकों को बताने के लिए इस अखबार को अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ा।

क्या कहा जाए? क्या-क्या कहा जाए? किससे, किस-किससे कहा जाए? कब तक कहा जाए? अंग्रेजीपरस्तों पर गुस्सा किया जाए या नहीं? किया जाए तो क्यों किया जाए? मेरे पास अपने ही सवालों का जवाब नहीं है। अचानक ही मुझे एक शेर याद आ गया है। सम्भव है, शब्दशः इस स्थिति पर लागू न हो किन्तु अंशतः ही सही, मेरी बात प्रकट तो करता ही है -

दोस्तों से जान पे सदमे उठाए इस कदर।
दुश्मनों से बेवफाई का गिला जाता रहा।

अब भगतसिंह की बारी है?

गाँधी और भगतसिंह को परस्पर विरोधी की तरह चित्रित/निरूपित किया जाता है। लेकिन सचाई इसके ठीक विपरीत है। दोनों ही एक दूसरे के मुक्त-कण्ठ प्रशंसक थे। यदि प्रशंसक नहीं भी थे तो, बैरी तो नहीं ही थे।

आज का भारत, निश्चय ही न तो गाँधी के सपनों का भारत है न ही शहीद-ए-आजम भगतसिंह के सपनों का। उन्हीं भगतसिंह के साथ हो रहे व्यवहार से मैं आज दो सवालों के बीच फँस गया। तय नहीं कर पा रहा कि कौन सा सवाल सही है।

पहला सवाल - क्या यह अच्छा ही हुआ कि अंग्रेजों ने भगतसिंह को फाँसी दे दी और उन्हें (भगतसिंह को) आज के भारत को देखने के दारुण दुःख से बचा दिया?

दूसरा सवाल - क्या यह अच्छा नहीं होता कि भगतसिंह आज हमारे बीच होते तो उनके नाम पर जो कुछ किया जा रहा है, वह नहीं होने देते और अपने सपनों का भारत बनाते?

भगतसिंह के बारे में मैं नाम मात्र को ही जानता हूँ। सुना अधिक। पढ़ा बहुत कम। लेकिन दो बातें अवश्य पढ़ी हैं। पहली तो यह कि वे नास्तिक/अनीश्वरवादी थे। और दूसरी यह कि वे जात-पाँत में भरोसा बिलकुल ही नहीं करते थे।

पहली बात तो उनके उस लेख से मालूम हुई जो उन्होंने अपने नास्तिक होने को लेकर लिखा था। जाति-पाँति न माननेवाली बात उस घटना से मालूम हुई जो उन्होंने अपनी अन्तिम इच्छा के रुप में व्यक्त की थी।

अपनी अन्तिम इच्छा उन्होंने बताई थी कि फाँसी पर चढ़ने से पहले वे अपनी ‘बेबे’ (पंजाबी में माँ को ‘बेबे’ ही सम्बोधित किया जाता है) के हाथ की बनी रोटी खाना चाहते थे। जेलर परेशान हो गया था। इतने कम समय में भगतसिंह की माँ को कैसे बुलाया जाए? भगतसिंह ने तब कहा था कि ‘बेबे’ से उनका मतलब उस महिला से था जो उनके शौचालय की साफ-सफाई करती थी। भगतसिंह की सीधी-सपाट व्याख्या थी - माँ ही अपने बच्चों का मल-मूत्र साफ करती है। इसी व्याख्या से उन्होंने जेल में, उनके शौचालय की साफ-सफाई करनेवाली महिला को अपनी ‘बेबे कहा और माना था।

भगतसिंह की बात सुनकर वह महिला संकुचित हो गई थी। उसके मन पर हावी ‘जाति-बोध’ के चलते वह भगतसिंह के लिए रोटी बनाने को तैयार नहीं थी। लेकिन भगतसिंह की जिद के आगे उसे झुकना पड़ा। उसने रोटी बनाई और भगतसिंह ने बड़े प्रेम से खाई।

आज,  ग्यारह सितम्बर 2014 को मैंने भगतसिंह की इन दोनों बातों को दफन होते देखा।

एक साहित्यिक संस्था ने भगतसिंह की मूर्ति, एक सार्वजनिक उद्यान में स्थापित करवाई। उद्यान नगर निगम ने विकसित किया और मूर्ति का मूल्य इस साहित्यिक संस्था ने चुकाया। आयोजन इसी उद्यान में था लेकिन मेजबानी इस साहित्यिक संस्था की थी। मुख्य अतिथि हमारे नगर के विधायक थे। वे भाजपाई हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता हमारे महापौरजी ने की। वे भी भाजपाई हैं। मंच यद्यपि साहित्यिक संस्था का था और पीछे बैनर भी इस संस्था का ही था लेकिन मंच पर संस्था का कोई प्रतिनिधि नहीं था। कुल सात लोग कुर्सियों पर विराजमान थे जिनमें विधायक, महापौर, भाजपा के जिलाध्यक्ष, भाजपा युवामोर्चा के जिलाध्‍यक्ष, क्षेत्रीय पार्षद (वे भी भाजपाई) और भाजपा के दो कर्मठ कार्यकर्ता शामिल थे। ऐसा लग रहा था मानो इस साहित्यिक संस्था ने भाजपा का, वार्ड स्तरीय भाजपा सम्मेलन आयोजित किया हो।

मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री 18 सितम्बर को मेरे कस्बे में आ रहे हैं। उसी तैयारी के लिए जिला प्रशासन द्वारा आयोजित बैठक में भाग लेने के लिए विधायक और महापौर को जाना था। दोनों को जल्दी थी। वे भगतसिंह को जल्दी से जल्दी निपटा कर मुख्यमन्त्री को सँवारने में लगना चाह रहे थे। दोनों ने संक्षेप में अपनी-अपनी बात कही। महापौर ने अपने  कार्यकाल की उपलब्धियाँ गिनवाईं (उनका कार्यकाल इसी दिसम्बर में समाप्त हो रहा है)। उन्होंने भगतसिंह का उल्लेख केवल यह कह कर किया कि उनकी मूर्ति का अनावरण है। 

विधायक ने भगतसिंह का उल्लेख कुछ अधिक वाक्यों में किया। भगतसिंह को अपनी राजनीतिक विचारधारा के आदर्श के रूप में उल्लेखित किया। कहा कि भगतसिंह के सपनों का भारत उनकी पार्टी ही बना सकती है और बनाएगी भी। उन्होंने महापौर से अधिक समय नहीं लिया।

दोनों भले ही बहुत कम बोले लेकिन स्वागत-अभिनन्दन के कारण कार्यक्रम काफी लम्बा खिंच गया था। स्थिति यह हो गई थी कि तय करना मुश्किल हो गया था कि किसे अधिक जल्दी है - विधायक, महापौर को या श्रोताओं को?

कार्यक्रम तो निपट गया लेकिन मैं अपने ही दो सवालों में उलझ गया। भगतसिंह के सपनों का भारत बनाने का दावा वे लोग कर रहे हैं जो ‘भगवा, भगवान और हिन्दू धर्म’ की डोर थामे सरकार में बैठे हैं। हिन्दू धर्म का आधार तो वर्णवादी व्यवस्था है! भगवान की दुहाइयाँ देनेवाले और अपने व्यवहार से वर्णवादी व्यवस्था को मजबूत करने में व्यस्त लोग भला भगतसिंह के सपनों का भारत कैसे बनाएँगे? मुझे भगतसिंह की जाति नहीं मालूम। लेकिन क्या हमें, आनेवाले दिनों में भगतसिंह के बारे में कुछ इस प्रकार सुनने को मिलेगा - ‘खत्री-शिरोमणी, हिन्दू धर्म के गर्व पुरुष, अमर शहीद भगतसिंह।’

गाँधी को काँग्रेसियों ने निपटा दिया। हालत यह कर दी कि अब गाँधी और गाँधीवाद से मुक्ति पाने की आवाजेें उठने लगी हैं। लेकिन यह स्थिति आने में 65 बरस लग गए। किन्तु लगता है, संघ परिवार भगतसिंह को उससे कहीं अधिक जल्दी निपटा देगा। भारत के शहीद-ए-आजम को दस-पाँच बरस में ही ‘खत्री शिरोमणी और हिन्दू धर्म का गर्व पुरुष’ बना देगा। 

यह सच है कि संघ परिवार के पास, स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने की कोई विरासत नहीं है। वह अपने लिए किसी महापुरुष की तलाश में जुटा हुआ है। पहले कुछ हद तक लाल बहादुर शास्त्री और अब सरदार पटेल के जरिए वह अपनी टोपी में कुछ पंख खोंस रहा है। लेकिन क्या इसके लिए यह जरूरी है कि भगतसिंह की विशालता और व्यापकता को संकुचित, सीमित कर दिया जाए? समन्दर को नाले में बदल दिया जाए?

गाँधी को हम नहीं बचा पाए। लगता है, भगतसिंह भी गाँधी-गति को प्राप्त हो जाएँगे।

मैं अब भी अपने दोनों सवालों में उलझा हुआ हूँ। 

सरकारी दफ्तर में जाने से पहले

सरकारी दफ्तर में जाने से पहले
- मुकेश नेमा
(मुकेश भाई को आप यहॉं पढ चुके हैं।)

मैं कोई उपदेश नहीं दे रहा। मैं तो फकत बस इतना ही चाहता हूँ कि किसी सरकारी दफ्तर में अपना काम करवाने के लिये पहली बार जाने के पहले आप वहाँ के बारे में, वहाँ के कायदों, चाल-चलन के बारे मे थोड़ा बहुत जान लें। ऐसे ही मुँह उठाये ऐसी खतरनाक जगह पर जाने से आप दिक्कत में पड़ सकते हैं। सरकारी आदमियों और सरकारी दफ्तर के बारे में अता पता करके जाना ही ठीक रहता है। इससे आपको ही सुविधा ही होगी। आपको अचानक कोई धक्का नहीं लगेगा और आप जैसे नासमझ से जूझने में, दफ्तरों में काम करने वाले भले लोगों का वक्त भी ख़राब नहीं होगा। 

पहले तो यह समझिये कि सरकारी दफ्तर कैसे होते हैं और क्यों होते हैं? सरकारी दफ्तर, आम तौर पर किसी पुरानी, रोती-पीटती सी इमारत में, ऊँघते-अनमने लोगों का जमावड़ा होता है। ये लोग किसी आने वाले की औकात देख कर तय करते है कि क्या ज्यादा फायदेमन्द होगा - ऊँघते रहना या चौकन्ना हो जाना? आमतौर पर यह जमावड़ा कुछ भी नहीं करता और करता है तो वो करता है जो उसे नहीं करना चाहिये। अधिक सरल तरीके से इसे ऐसे समझिये कि सरकार ने हर सरकारी दफ्तर को आम आदमी की किसी खास जरूरत के मद्देनजर किसी खास काम को करने लिये बनाया हुआ होता है। पर सरकारी आदमी अपनी पूरी ताकत इस बात के लिये लगा देते हैं कि कम से कम हमें वो काम तो नहीं ही करना है जिसकी हमें तनख्वाह मिल रही है। वे तयशुदा काम को न करने के लिये इतने कट्टरधर्मी होते हैं कि आपको ऐसा लग सकता है कि हो ना हो ये भले लोग ‘यही सब’ करने के लिये यहाँ बैठाये गये हैं। ये सारे लोग सावधान रहते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि कोई शातिर आम आदमी अपना काम करवा कर फटाफट निकल ले और बाहर, जमाने भर में गाना गाता, बेइज्जती करता फिरे कि यहाँ इस दफ्तर मंे सब ऐसे ही हैं, सब कुछ आसान सा ही है। आप खुद सोचिये, किसी भी सरकारी आदमी के लिये यह कितनी शरम की बात है कि उसे ‘ऐसा-वैसा लुंजपुंज टाईप का’ समझ लिया जाये? यदि कोई दफ्तर में हँसता हुआ आये और मुस्कराता हुए चल दे तो यह तो किसी भी स्वाभिमानी सरकारी बाबू के लिये सरासर डूब मरने जैसी बात है! यदि आने वाले को ऐसे ही चले जाने देना है तो फिर सरकारी दफ्तर का और वहाँ बाबू होने का मतलब ही क्या रह जायेगा?

ख़ुदा ना खास्ता, हमारे दफ्तर कभी ऐसे ईमानदार टाईप के, नियमानुसार काम करने वाले हो जायें तो हमारे बाबू ऐसे बकवास दफ्तर में टाईम खराब करने के बजाय किसी बड़े आदमी के बँगले के लॉन की घास छीलना ज्यादा बेहतर समझेगें। अब, चूँकि कोई भी सरकारी बाबू घास छीलना नहीं चाहता इसलिये वो आने वालों को छीलता है। खाली वक्त में आने वालों को छीलने के लिये नये नये तरीके इजाद करता रहता है ताकि उसके और उसके ऑफिस के होने की वजहें और हैसियत बनी रहे।

वैसै सरकारी बाबुओं की, सालों-साल से, इस दिशा में की जा रही मेहनत से इतना तो हो ही गया है कि आजकल हमारे देश में इन दफ्तरों में आने वाला कोई भी शरीफ आदमी फौरन और फोकट में अपना काम करवाने की जिद करता ही नहीं है। वह ऐसी कोई अहमकाना जिद करने की हिम्मत कर भी ना सके, इसलिये सरकारी दफ्तरों का माहौल पर्याप्त डरावना बनाये रखा जाता है, छोटे अँधेरे कमरे, मन मार कर, बीमार, मद्धिम पीली रोशनी में जलते मनहूस बल्ब, कमरों में बिखरी पड़ी गन्दगी, चारों तरफ झूलते मकड़ी के जाले ,टूटा-चरमराता फर्नीचर, धूल खाती फाइलें और इन फाइलों के पीछे पान की पीक बहाते सफेद बालों वाले बाबू। ये सब मिल कर वह हाहाकारी दृश्य रच देते हैं कि आने वाले की हिम्मत वैसे ही टूट जाए। इन सारी ‘व्यवस्थाओं’ के बावजूद यदि आने वाला नियमानुसार काम करवाने की जिद पर अड़ा रहता है तो हमारे अनुभवी बाबू उसकी अनदेखी करके उसे इशारों-इशारों मे समझाने की कोशिश करते हैं और यदि फिर भी वो नहीं मानता तो बेचारे बाबूओं को उसकी लानत-मलामत करनी ही पड़ती है। 

लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं हमारे बाबू काम करते ही नहीं। करते हैं। ख़ूब करते हैं। पर तभी करते हैं जब आप इन कामों के लिये इन दफ्तरों में काम करने के लिये नियत मार्गदर्शक सिद्धान्तों, शर्तों का पालन करने के लिये राजी हों। आपके राजी होने पर ही आपको समझदार माना जायेगा वरना यह तय मानिये कि नासमझों को सरकारी बाबू मुँह लगा कर अपना समय बर्बाद नहीं किया करते। चूँकि वक्त तो आपके पास भी नहीं होगा और काम तो आपको करवाना ही करवाना है! इसलिये किसी से फोन करवा कर अपनी सिफारिश करवाने जैसी हिमाकत न ही करें तो अच्छा है। ऐसी ‘ओछी हरकत’ करने वालों को सरकारी दफ्तरों में सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। और यदि किसी ऑफिस से आपको बार-बार काम करवाना है तो किसी दंबग या किसी नेताजी को साथ ले जाना तो अपने होने वाले काम की हत्या कर देने जैसा ही होगा। आपको इन सभी गलतियों से बचना चाहिये। 

यह सब ब्यौरा केवल इसलिये है ताकि आप कम से कम सरकारी दफ्तर में अपनी उपस्थिति पर्यन्त सावधान और समझदार बने रहें। मैं उम्मीद करता हूँ कि यह सब पढ़कर आप ऐसे नाज़ुक वक्त में इन सब बातों का ध्यान रखेंगे (और मेरे प्रति कृतज्ञ भी बने रहेंगे)।

ग्राहक सेवा याने सीनाजोर कृतघ्नता

यह एक बीमा कम्पनी और उसके ग्राहक के बीच का एक मामला मात्र नहीं है। यह मामला है - ‘ग्राहक ही भगवान है’ की भारतीय संस्कारशीलता और ‘ग्राहक कभी गलती नहीं करता’ की पाश्चात्य आदर्शवादिता को घोलकर पी जाने की ‘सीनाजोर कृतघ्नता’ का।

मैं अक्षय छाजेड़ के ठीक पड़ौस में रहता हूँ। एक दीवार है हमारे बीच में। अक्षय ने, सरकारी बीमा कम्पनी युनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी से, दो मेडीक्लेम बीमा पॉलिसियाँ ले रखी हैं - एक अपने वृद्ध पिताजी के लिए और एक खुद के परिवार (खुद, पत्नी और दो बच्चों) के लिए। बीमा कम्पनी के कानूनों के चलते उसे दो पॉलिसियाँ लेनी पड़ती हैं। वर्ना, पिताजी कोई अलग परिवार नहीं हैं। 

दोनों ही पॉलिसियाँ पुरानी हैं। 05 दिसम्बर 2013 को अक्षय ने दोनों पालिसियों का नवीकरण (रिन्यूअल) कराया तो अनुभव किया कि एक पॉलिसी में उससे 1,533/- रुपये अधिक लिए गए हैं - 7,658/- रुपयों के स्थान पर 9,191/- रुपये। इसके अतिरिक्त अक्षय ने देखा कि एक पॉलिसी में ‘नो क्लेम बोनस’ की छूट 9 प्रतिशत है और दूसरी में 5 प्रतिशत।

22 दिसम्बर 2013 को अक्षय को जैसे ही यह भान हुआ, उसने उसी दिन अपनी गणना प्रस्तुत करते हुए, ई-मेल के जरिए, कम्पनी के रतलाम शाखा कार्यालय को (जहाँ से अक्षय ने पॉलिसियाँ ली थीं) से कहा कि उससे ली गई प्रीमीयम की तथा नो क्लेम बोनस की छूट की दरों में विसंगति की पुनर्गणना करे और यदि वास्तव में कम्पनी से चूक हुई है तो उससे ली गई अधिक रकम वापस करे। शाखा कार्यालय ने चुस्ती-फुर्ती बरती और अक्षय का मेल, समस्त सम्बन्धितों को अग्रेषित (फारवर्ड) कर दिया। अपनी इस कार्रवाई की सूचना कम्पनी ने अक्षय को भी दी।

लेकिन वह दिन और आज का दिन, स्थिति में रत्ती भर बदलाव नहीं आया है। अक्षय ने मार्च 2014 में उन समस्त लोगों को, जिन-जिन को कम्पनी के शाखा कार्यालय ने अक्षय का मेल अग्रेषित किया था और ग्राहक सेवा विभाग (कस्टमर केअर सेल) को ‘स्मरण-मेल’ किया किया। लेकिन इस बार तो किसी ने पावती देने का न्यूनतम शिष्टाचार भी नहीं निभाया।

कम्पनी का शाखा कार्यालय अक्षय की नौकरी वाले दफ्तर के रास्ते में ही पड़ता है। सो, जब भी सुविधा मिलती है, अक्षय बीमा कम्पनी के दफ्तर चला जाता है। शाखा प्रबन्धक से लेकर सेवक तक, सब अक्षय से भली-भाँति परिचित हैं। शुरु-शुरु में, गर्मजोशी से ‘आईये! आईये!!’ से अक्षय की अगवानी की जाती थी जो धीरे-धीरे ‘आप क्यों अपना वक्त खराब करते हैं? हम देख रहे हैं ना? आपका काम हो जाएगा।’ से होते-होते ‘अरे! आप फिर आ गए? आपको एक बार बता तो दिया है कि हमारे हाथ में कुछ नहीं है! जो भी करना है, ऊपरवालों को करना है! जैसे ही कोई खबर आएगी, आपको खबर कर देंगे।’ जैसे झुंझलाहट भरे जवाब को पार करते हुए ‘आप ग्राहक हैं साहब! आपको कुछ भी कहने का हक है। हमें तो सुनना ही सुनना है।’ जैसे बेशर्म जवाब पर आकर ठहर गई है। यह आखिरीवाला जुमला कहते हुए शाखा प्रबन्धक की मुख मुद्रा और कहने की शैली कुछ ऐसी होती है मानो कह रहा हो ‘तेरी बात चुपचाप सुनना मेरी मजबूरी है। अगर नौकरी की मजबूरी नहीं होती तो अभी, दो जूते मारकर, धक्के देकर निकलवा देता।’ और शायद यह भी कि ‘तुम कैसे बेवकूफ और घटिया आदमी को कि हजार-दो हजार की रकम के लिए मरे जा रहे हो! हमें परेशान किए जा रहे हो! इतना भी बर्दाश्त कर पाना मुमकिन नहीं है तो अगली बार से हमारे पास मत आना। किसी और कम्पनी से बीमा करा लेना।’ 

आज अक्षय बेबस खड़ा है। कम्पनी का शाखा कार्यालय ‘आवक-जावक बाबू’ की तरह काम कर रहा है, अपनी तरफ से कुछ नहीं कर रहा। ऊपरवालों के पास ऐसे हजारों ‘केस’ हैं। हजारों की इस भड़ में अक्षय तो ‘पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं है। कम्पनी, पहले लाखों की प्रीमीयम देनेवाले ‘जबरे’ ग्राहकों के दावे निपटाएगी। अक्षय जैसे ग्राहक तो, कम्पनी के कर्मचारियों/अधिकारियों की केवल ‘सेलेरी’ जुटाते हैं। सुविधाओं और ग्लेमर की चकाचौंध भरी जिन्दगी तो इन ‘जबरे’ ग्राहकों के दम पर ही जी जा सकती है। सो, ‘रोजी-रोटी’ देनेवाले की अनदेखी, अवमानना की जा रही है और मलाई देनेवालों को हाथों-हाथ लिया जा रहा है। 

अक्षय के सामने एक ही रास्ता है - उपभोक्ता संरक्षण फोरम का दरवाजा खटखटाने का। पहली नजर में हर कोई कह रहा है कि अक्षय की जीत पक्की है। कम्पनी सौ जूते भी खाएगी और सौ प्याज भी। याने, ज्यादा ली गई रकम भी लौटाएगी, उस पर ब्याज भी देगी और अखबारबाजी के जरिए अपनी फजीहत भी कराएगी। वह सब मंजूर है। मंजूर नहीं है तो बस! एक औसत ग्राहक को सन्तोषजनक समाधान उपलब्ध कराना मंजूर नहीं है।

बीमा उद्योग को निजी क्षेत्र की कम्पनियों के लिए खोल देने के बाद सरकारी बीमा कम्पनियों को भीषण, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से जूझना पड़ रहा है। सरकार, बीमा क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश बढ़ाने के लिए पण-प्राण से कटिबद्ध है। बीमा क्षेत्र को बचाने के लिए तमाम श्रम-संगठन एकजुट हो, सड़कों पर आने की तैयारी करते नजर आ रहे हैं। लेकिन जमीनी वास्तविकता इस सबको पाखण्ड साबित कर रही है। सरकारी कम्पनियों के लोग अपने ‘अन्नदाता ग्राहक’ को किस तरह निजी कम्पनियों की ओर धकेल रहे हैं - यह बात, अक्षय के इस छोटे से नमूने से समझी जा सकती है। 

मेरी पीड़ा केवल यही नहीं है। पीड़ा यह भी है कि एक जमाने में मुझे इसी कम्पनी से रोजी-रोटी मिलती थी। मैं भी कभी इस बीमा कम्पनी का एजेण्ट था। पर्दे के पीछे रहकर मैं भी यथा-शक्ति, यथा-सम्भव अक्षय की सहायता और कम्पनी की छवि बचाने की कोशिशें कर रहा हूँ। लेकिन साफ लग रहा है कि अकेला अक्षय ही नहीं, कम्पनी के लिए मैं भी ‘पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं ही हूँ।
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