विजय में बदली जा सकती है हिन्दी की पराजय
(ख्यात भाषाविद् जलजजी का यह आलेख 14 सितम्बर 2003 को नईदुनिया (इन्दौर) में प्रकाशित हुआ था। तनिक संशोधनों और परिवर्द्धनों सहित जलजजी का यह आलेख अभी-अभी, 11 सितम्बर 2014 को साप्ताहिक उपग्रह (रतलाम) में प्रकाशित हुआ है। ग्यारह वर्षों के अन्तराल में स्थितियाँ, सुधरी तो बिलकुल ही नहीं, और अधिक खराब ही हुई हैं। जलजजी की कृपापूर्ण अनुमति से यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है।)
यह सच्चाई कितनी ही अपमानजनक और पीड़ादायक क्यों न हो, पर अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। जो काम अंग्रेेजों के शासनकाल में नहीं हो सका वह अब हो गया। हमारे क्रिकेट खिलाड़ी दैनिक जीवन में भले ही मातृ-भाषा में बोलते हों, पर टीवी पर या सम्वाददाताओं से बात करते वक्त भारत में भी सिर्फ अंग्रेजी में ही बोलते हैं। फिल्मों में धड़ल्ले से हिन्दी सम्वाद बोलकर हिन्दी की रोटी खाने वाले अभिनेताओं, अभिनेत्रियों की भी यही स्थिति है। दरअसल कुछ वर्षों से अंग्रेजी ‘स्टेटस सिम्बॉल’, रुतबे का प्रतीक बन गई है।
आखिर इस स्थिति तक हम पहुँचे कैसे? आजादी मिलने के बाद जो समस्याएँ लम्बित रहीं उनमें कश्मीर की और भाषा की समस्या प्रमुख है। इन दोनों समस्याओं की लीपापोती करके यह मान लिया गया कि इससे काम चल जाएगा लेकिन इससे समाधान नहीं हुआ। इन दोनों समस्याओं को हल करने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत थी। उसके अभाव में वही हो सकता था जो हुआ। कश्मीर की तरह भाषा की समस्या को भी अपरिभाषित, अमूर्त मानदण्डों के हवाले कर दिया गया। कहा गया, जब तक हिन्दी समर्थ नहीं हो जाती, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी जारी रहेगी। हिन्दी के सामर्थ्य का प्रमाण पत्र क्या होगा? कौन देगा यह प्रमाण पत्र? कैसे देगा? सामर्थ्य को कैसे नापा जाएगा? इन प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया गया।
फिर भी आजादी के बाद आरम्भिक वर्षों में विभिन्न विषयों में मौलिक लेखन आरम्भ हो गया था। कक्षाओं में विभिन्न विषयों को पढ़ाने के लिए हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध होने लगी थीं। अगर इस क्षेत्र को माँग और पूर्ति की शक्तियों के हवाले छोड़ दिया जाता तो धीरे-धीरे हिन्दी माध्यम की मौलिक किताबों से बाजार पट जाते। लेकिन इसी बीच विभिन्न सरकारें अनुवाद की योजनाओं के साथ इस मैदान में कूद पड़ीं। विषय विशेषज्ञों का, जिन्हें अनुवाद का कार्य सौंपा गया, विषय पर तो अधिकार था, हिन्दी पर नहीं। कभी -कभी एक ही किताब के विभिन्न हिस्से विभिन्न विशेषज्ञों को सौंपे गए। अनुवाद की भाषा की आलोचना हुई तो सरकारों ने उनके साथ हिन्दी विद्वानों को भी संयुक्त करना शुरु किया।
समय सीमा में काम पूरा करने के बन्धन, पारिश्रमिक पर दृष्टि, एक किताब के विभिन्न हिस्सों के अलग-अलग भाषा शैली के अलग-अलग विशेषज्ञों द्वारा किए गए अनुवाद नेे और उसके अलग-अलग भाषा संशोधकों ने अनुवाद को छात्रों के लिए कठिन बना दिया। कहीं-कहीं यह नियम भी रहा कि अनुवाद पर विशेषज्ञ अनुवादक और उसके हिन्दी संशोधनकर्ता का नाम नहीं दिया जाएगा। इससे उन्हें लापरवाही बरतने की पुख्ता छूट मिल गई। जवाबदेही नहीं रही। अपयश का डर नहीं रहा। कोई भाषा कुछेक कठिन शब्दों या पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से कठिन नहीं बनती। गलत वाक्य रचना, परसर्गों के यथास्थान अप्रयोग, क्रियाओं के लापरवाह प्रयोग आदि के कारण कठिन बनती है। इन कारणों से और स्रोत भाषा की प्रकृति को अनुवाद की भाषा पर हावी होने देने तथा शब्द-शब्द अनुवाद से इन अनुवादों की भाषा छात्रों के लिए ही नहीं शिक्षकों के लिए भी कठिन हो गई। मूल अंग्रेजी ग्रन्थ अपेक्षाकृत सरल लगने लगे। काश! हिन्दी संशोधकों ने अनुवाद की भाषा की इन कठिनाइयों को दूर करने में जरूरी परिश्रम किया होता। काश! अपने आलस्य से होने वाली भारी हानि का अन्दाजा उन्होंने लगाया होता।
एक विसंगति और हुई। छोटी कक्षाओं का शिक्षा माध्यम जहाँ हिन्दी था वहीं बड़ी कक्षाओं का अंग्रेजी। माध्यम को अंग्रेजी से हिन्दी करने का काम उत्तरोत्तर किया जाना चाहिए था। पर वह प्रायः नहीं हुआ। छात्रों और पालकों ने स्वभावतः यह महूसस किया कि जब बड़ी कक्षा की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से ही करनी है तब उसे छोटी कक्षा से ही क्यों न माध्यम बनाया जाए? फलस्वरूप छोटी कक्षाओं में भी अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी की माँग बढ़ने लगी। उसकी पूर्ति के लिए विभिन्न शहरों/कस्बों में एक के बाद एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खुलने लगे। शिक्षा माध्यम के सम्बन्ध में सरकारों की ढुलमुल नीति के कारण हिन्दी पाठ्य पुस्तकों के लेखन/प्रकाशन में निजी क्षेत्र ने शुरु में जो उत्साह दिखाया था वह शीघ्रतापूर्वक ठण्डा पड़ गया।
आज जो पीढ़ियाँ देश की प्रमुख कार्यशील जनसंख्या हैं और उद्योग-धन्धों, व्यापार, कार्यालयों, प्रतिष्ठानों आदि में काबिज हैं, वे वे ही हैं जो पिछले कुछ वर्षों में अंग्रेजी माध्यम से अपनी पढ़ाई पूरी करके आई हैं। इसलिए नहीं कि वे अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर निकली हैं बल्कि इसलिए कि पुरानी पीढ़ी के नेपथ्य में चले जाने के बाद उन्हें मंच पर आना ही था। उनके आने से स्वभावतः पूरा परिदृश्य अंग्रेजीमय हो गया है। अगर ये पीढ़ियाँ हिन्दी माध्यम से पढ़कर आई होतीं तो आज हिन्दी का वैसा पराभव नहीं दिखाई देता जैसा दिख रहा है। हिन्दी के इस पराभव के लिए न तो किसी जमाने में हुआ हिन्दी विरोधी आन्दोलन दोषी है और न अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार। इसके लिए हम ही दोषी हैं। हिन्दी की पराजय हमारी अपनी करनी का फल है।
पिछले साठ सालों में अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दी भाषी राज्य आर्थिक रूप से निरन्तर पिछड़ते रहे हैं। सम्भ्रान्त वर्ग इन्हें गायपट्टी/गोबरपट्टी के नाम से अभिहित करने में भी संकोच नहीं करता। दुर्भाग्य से इस पिछड़ेपन को भी हिन्दी से जोड़कर देखा जाने लगा। इसलिए यह मिथ्या धारणा बलवती होती गई कि आर्थिक तरक्की हिन्दी से सम्भव नहीं है। आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के चलते भी अंग्रेजी की अनिवार्यता रेखांकित की जा रही है। यह भुुलाया जा रहा है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ माल बेचने आ रही हैं, सिर्फ अपने दफ्तर खोलने नहीं। उन्हें हिन्दी प्रदेश के रूप में विशाल उपभोक्ता बाजार दिखाई दे रहा है। अगर हिन्दी भाषी ग्राहकों में माल की खपत करनी है तो उनसे हिन्दी में ही तो व्यवहार रखना होगा। कम्पनियाँ अपनी प्रचार सामग्री को हिन्दी में ही तो प्रस्तुत करेंगी। हिन्दी भाषी क्षेत्र में अपनी पैठ और पकड़ बनाने के लिए वे हिन्दी भाषी अमले को ही तो अपनी नौकरी में रखना चाहेंगी! आखिर टीवी चैनलों ने हिन्दी प्रसारणों को अधिकाधिक समय देना क्यों शुरू कर दिया है? लेकिन यह धारणा बनाई जा रही है कि अगर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी लेनी है तो हिन्दी में नहीं, अंग्रेजी में महारत हासिल करनी होगी।
अब कुछ वर्षों से ये कम्पनियाँ उचित ही यह समझने लगी हैं कि भारतीयों को अपनी भाषा से कुछ लेना देना नहीं है। इसलिए वे चीनी, अरबी आदि भाषाओं के तो सॉफ्टवेयर बनवाती हैं, हिन्दी के नहीं। वे जानती हैं कि भारत में अंग्रेजों का राज भले ही न हो, अंग्रेजी का राज तो बरकरार ही नहीं मजबूत भी हो गया है।
भाषा के मामले में आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं, उसमें पहली जरूरत यह है कि हम अपनी आत्ममुग्धता और जय-जयकार से बाहर निकलें। यह स्वीकार करें कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। अब हमें वहीं से तमाम शुरुआत करनी होगी जहाँ से साठ साल पहले करनी थी। किसी देश की अर्थव्यवस्था में जो महत्व आधारभूत ढाँचे या अधोसंरचना का है उसकी भाषा के लिए वही महत्व विभिन्न कक्षाओं के विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तकों और शिक्षा माध्यम का है। अंग्रेजी माध्यम की पुस्तकें पढ़कर और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पाकर निकली आज की 25 से 50 साल उम्र वाली पीढ़ियाँ ही इस समय समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या हैं। इस जनसंख्या को अब हिन्दी की ओर मोड़ना कठिन है। हमें अपना ध्यान उन पीढ़ियों पर केन्द्रित करना होगा जो आज आरम्भ कर रही हैं और 20-25 साल बाद हमारे समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या में बदल जाएँगी।
साठ साल पहले की तुलना में आज यह काम ज्यादा कठिन है। तब के छात्रों की पीढ़ियाँ हिन्दी को ‘आजादी की लड़ाई की भाषा और देश भक्ति का प्रतीक’ मानती थीं। वे हानि उठाकर भी उसका झण्डा ऊँचा रखना चाहती थीं। आज के छात्रों की पीढ़ियाँ केरियर, व्यवसाय, प्रतिस्पर्धा को लेकर अधिक चिन्तित हैं और स्वभावतः उन्हें ही अधिक महत्व दे रही हैं। क्या केन्द्र और राज्य सरकारें उन्हें आश्वस्त कर सकेंगी कि हिन्दी और हिन्दी माध्यम की पढ़ाई उन्हें अंग्रेजी से, जो आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में भी शामिल नहीं है, वरीयता नहीं तो कम से कम अवसर की समानता तो प्रदान करेंगी ही? यूपीएससी के सीसेट प्रश्नपत्र में यह समानता न होने से ही तो भारतीय भाषाओं के छात्र उसका विरोध कर रहे हैं! अंग्रेजी में रचे गए प्रश्नपत्र के हिन्दी मशीनी अनुवाद को बड़े से बड़ा हिन्दीदाँ भी नहीं समझ सकता। अर्थबोध के लिए सिर्फ व्याकरणिक नियमों की समझ ही पर्याप्त नहीं होती। अगर टैबलेट कम्प्यूटर, को गोली कम्प्यूटर, स्टील प्लाण्ट को इस्पात पौधा कहा जाएगा तो परीक्षार्थी को क्या अर्थबोध होगा? क्यों न सीसेट का प्रश्नपत्र अगली बार हिन्दी में बने और उसका अनुवाद अँग्रेजी में हो? क्या हिन्दी सेवा संस्थाएँ और व्यक्ति, हिन्दी की अधोसंरचना को अपने एजेण्डे में शामिल करेंगे? यह सम्भव हो सका तो भी इसके परिणाम आने में बीस एक साल का समय लग जाएगा। जो नुकसान हो चुका, हो चुका है। उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इस बात की भी जरूरत है कि सूचना प्रौद्योगिकी को हिन्दी के अनुकूल बनाया जाए और हिन्दी राज्यों की सरकारें अपना तमाम काम हिन्दी में करके दिखाएँ। यह सिद्ध करके दिखाएँ कि हिन्दी में कामकाज से बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं। आवेश, आलस्य और बड़बोलेपन की अपनी कार्य संस्कृति का परित्याग करते हुए आर्थिक क्षेत्र में भी उन्हें बढ़त प्राप्त करनी होगी। यह कष्ट उन करोड़ों बच्चों के लिए उठाना होगा जिनकी अधिकांश आबादी गाँवों और गरीबी में है। उनकी मौलिक प्रतिभा का वास्तविक विकास हिन्दी में ही सम्भव है। वे ही इस नई सदी का इतिहास रचेंगे और हिन्दी की पराजय को विजय में बदलेंगे ।
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