कभी-कभी बच्चे आपको (याने हमें) चौंका देते हैं।
इसी अगस्त के पहले सप्ताह की बात है। मैं अपने बड़े बेटे वल्कल के पास था। पुणे में। काम-धाम कुछ था नहीं। पढ़ने के लिए कुछ साथ नहीं ले गया था। बेटे के यहाँ हिन्दी अखबार नहीं आता और मुझे अंग्रेजी पढ़ने का अभ्यास बिलकुल नहीं। कुल चार दिन रुकना था, इसलिए हिन्दी अखबार मँगवाना भी सम्भव नहीं था। सो, दिनचर्या के नाम पर खाओ, पीओ और सोओ। याने - आराम कर-कर थक जाओ।
सुबह उठने के मामले में मैं ‘सूरजवंशी’ हूँ। देर से सोना, देर से उठना। लेकिन पहली ही सुबह, सूरज उगने से पहले ही सुबह हो गई। साढ़े छह बजे के आसपास का वक्त रहा होगा। महिला स्वर में ‘ओऽम्’ नाद की गूँज सुनाई पड़ी। लगा, कोई ‘भ्रामरी’ क्रिया कर रहा है। अनुमान लगाया - प्रशा (बहू) होगी। लेकिन नाद-स्वर एकल नहीं सामूहिक था। सारे के सारे नारी स्वर। मैं जिज्ञासु हो गया - ‘घर में प्रशा अकेली महिला। मेरी श्रीमतीजी बिस्तर में ही हैं। फिर यह सब क्या है?’ उठने का जी तो किया लेकिन इच्छा पर आलस भारी पड़ गया। बिस्तर में ही पड़ा रहा।
सुबह जब चाय पर सब मिले तो मालूम हुआ, प्रशा घर पर योग-कक्षा चलाती है। अभी तीन महिलाएँ आ रही हैं। लगभग पौन-एक घण्टा की कक्षा रहती है। मेरे लिए यह सुखद तो था किन्तु आश्चर्य पहले था। इस बारे में परिवार में कभी, कोई बात नहीं हुई।
मेरी जिज्ञासा के समाधान में बात पर बात निकलती गई। मेरे लिए तो यह सब किसी रोचक किस्से जैसा ही रहा।
घर-गृहस्थी के काम-काज निपटाने के बाद प्रशा अपने लिए यथेष्ठ समय निकाल लेती है। एम.ए., एमबीए है किन्तु बेटे को प्राथमिकता देने के लिए नौकरी करने का विचार ही छोड़ दिया। लेकिन ‘अपना कुछ’ करने की बात मन से निकली। वल्कल ने प्रशा के ऐसे हर विचार को समर्थन और प्रोत्साहन दिया। ‘धणी-लुगाई’ दोनों ने सोचा, कुछ ऐसा किया जाय कि ‘खुद का भी भला हो और सबका भी।’ सोच-विचार के बाद ‘योग’ पर पर नजर टिकी। ‘निवेश’ के नाम पर केवल समय। वह पर्याप्त है ही। सो, प्रशा इसी दिशा में आगे बढ़ गई।
‘कविकुलगुरु-कालिदास-संस्कृत-विश्वविद्यालय, नागपुर’ से सम्बद्ध, पुणे के ‘रिच हेरिटेज योग सेण्टर’ से प्रशा ने अक्टूबर 2021 से जनवरी 2022 के तीन महीनों का प्रशिक्षण ले ‘योग प्रशिक्षक’ की उपाधि अर्जित की। लेकिन उपाधि अर्जित करते ही कक्षाएँ शुरु नहीं कीं। खुद को परखने के लिए, जहाँ से प्रशिक्षण लिया, अपने उसी सेण्टर द्वारा आयोजित विभिन्न योग-शिविरों में भागीदारी कर प्रशिक्षण देने का पूर्वाभ्यास किया। जब खुद पर भरोसा हो गया तो घर पर ही योग कक्षा शुरु करना तय किया।
अपनी सोसायटी के, अपने परिचय क्षेत्र के परिवारों में बात की। आशानुरूप प्रतिसाद मिला और प्रशा की योग-कक्षा चल पड़ी। अगस्त में जब मैं वहाँ था तब प्रशा की यह कक्षा अपने शुरुआती समय में थी। मैंने पेशेवर पत्रकार की तरह प्रशा से सवाल-जवाब किए। मालूम हुआ कि उसकी ‘छात्राएँ’ सन्तुष्ट और प्रसन्न हैं और अपने परिचय क्षेत्र में प्रशा की योग-कक्षा की सिफारिश कर रही हैं। घर पर कक्षा चलाने के साथ ही साथ, प्रशा, ऑन-लाइन भी प्रशिक्षण दे रही है।
बातों के दौरा प्रशा आत्म-विश्वास और उत्साह से लबालब थी। मैंने पूछा - ‘खुद के लिए तो हर कोई करता है! इससे आगे बढ़कर कुछ करने का इरादा है?’ उसने जवाब दिया कि कक्षा शुरु करने के बाद भी वह अपने प्रशिक्षक योग-सेण्टर से जुड़ी हुई है और सेण्टर द्वारा आयोजित सार्वजनिक, निःशुल्क शिविरों में सेवाएँ देती है। वह अपनी सोसायटी की कमेटी से बात कर रही है कि वह सोसायटी के रहवासियों के लिए समय-समय पर निःशुल्क योग शिविर लगाना चाहती है। उसे साफ-सुथरी जगह, निःशुल्क उपलब्ध करा दे। इसके साथ-ही-साथ, वह छोटी-मोटी शारीरिक व्याधियों से राहत दिलाने के लिए भी सोसायटी में शिविर लगाना चाहती है।
पुणे से लौटे मुझे लगभग तीन महीने हो गए हैं। मैंने प्रशा से उसकी कक्षा के बारे में कोई पूछताछ नहीं की है। लेकिन बेटा वल्कल जब भी बात करता है तो बताता रहता है, सब-कुछ ‘मनोनुकूल’ से अधिक ही चल रहा है।
प्रशा के इस उपक्रम से मेरे मन में कुछ बातें उग आईं।
जिन परिवारों के अपने खुद के कोई काम-धन्धे नहीं होते, उनके बच्चों को आजीविका के लिए खुद ही काम-धन्धे तलाश करने पड़ते हैं। इसीलिए उन्हें घर, माँ-बाप छोड़ने पड़ते हैं, अपने परिवार का, अपने बच्चों का समय होम करना पड़ता है। सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार का सबसे बड़ा संकट यह है कि उन्हंे जीवन-स्तर की प्रतियोगिता में शामिल होना ही पड़ता है। इसके चलते, वे खुद के लिए जीने के बजाय अपने नियोक्ता के लिए जीने को अभिशप्त हो जाते हैं। एक की कमाई अपर्याप्त होने लगती है। प्रतियोगिता के अधीन जीवन-स्तर का कद बढ़ने लगता है, चादर छोटी पड़ने लगती है। स्थिति ‘कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए’ वाली होने लगती है। तब ही ऐसे रास्ते तलाशे जाते हैं।
अच्छी बात यह है कि वल्कल और प्रशा महत्वाकांक्षी तो हैं किन्तु लालची नहीं। शायद इसी कारण प्रशा, सोसायटी के रहवासियों के लिए निःशुल्क योग-शिविर लगाने की सोचे बैठी है। यह सब देख कर, अनुभव कर, अच्छा लगा। अब भी लग रहा है।
अपने बच्चों की बेहतरी की कामना और चिन्ता करते हुए हम बूढ़े लोग, अपने संघर्षों की गाथाएँ सुना-सुना कर अनजाने में ही अपने बच्चों को अक्षम, असफल साबित करने लगते हैं। तब हम भूल जाते हैं कि हमारे माँ-बाप भी हमारे बारे में ठीक यही सब सोचते, कहते थे। लेकिन हम गर्व से कहते हैं कि हमने हमारे बारे में, हमारे माँ-बाप की धारणाओं को ध्वस्त कर दिया।
मुझे लगता है, अपने अतीत को याद करते हुए हमें याद रखना चाहिए कि हमारे बच्चों के संघर्ष, उनके सामने मौजूद चुनौतियाँ, प्रतियोगिताएँ हमारे समय से सर्वथा अलग और अधिक-विकट हैं। हमें अपने बच्चों की प्रतिभा, क्षमता, दक्षता, जीवट पर भरोसा करना चाहिए। वे हमें, उससे बेहतर तरीके से, बेहतर स्तर पर हमें गलत साबित करेंगे जिस तरीके से, जिस स्तर पर हमने हमारे माँ-बाप को गलत साबित किया हुआ है।
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योग शिविरों में प्रशिक्षण देती हुई प्रशा।
ऑन-लाइन प्रशिक्षण देते हुए प्रशा।
पोस्ट के शुरु में दिए चित्र में बेटे सृजक और पति वल्कल के साथ प्रशा।