टेलीफोन बन्द करते ही साहिल के ‘कुलनाम’ (सरनेम) की तरफ ध्यान गया। लगा, या तो मैंने गलत सुन लिया है या साहिल ने ही गलत कह दिया है।
साहिल गाजियाबाद से बोल रहा था। एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करता है। अभी-अभी, 26 जून को एक बिटिया का पिता बना है। पूछने पर बताया - ‘अयरा नाम रखा है।’ ‘अयरा’ का अर्थ पूछने पर बोला - ‘विदेशी भाषा का शब्द है। अर्थ है - ‘आदरणीय।’ पिता बने अभी दो महीने नहीं हुए किन्तु साहिल ने अयरा के भविष्य के बारे में सोचना शुरु कर दिया। उसकी उच्च शिक्षा के लिए बीमा योजनाओं की जानकारी चाह रहा था। मैंने साहिल के ब्यौरे लिखे और कहा कि वांछित बीमा योजनाओं के ब्यौर मैं उसे अगले दिन भेज दूँगा। उसका पूरा नाम-पता पूछा तो बताया - साहिल कुक्कड़। मैंने पता लिख कर फोन बन्द कर दिया और जैसा कि शुरु में ही कहा, फोन बन्द करते ही उसके ‘कुलनाम’ ‘कुक्कड़’ की तरफ ध्यान गया। अब तक मैंने ‘कक्कड़’ सुना/पढ़ा था। ‘कुक्कड़’ पहली बार सुनने को मिला। कहीं कुछ गलत न कर बैठूँ, यह सोच कर फौरन ही साहिल का नम्बर फिर से लगाया। पूछा - ‘तुम्हारा सरनेम ‘कुक्कड़’ है या ‘कक्कड़?’ साहिल जोर से हँसा और बोला - ‘अंकल, मेरा सरनेम ‘कुक्कड़’ ही है।’ मैंने ‘कक्कड़’ का हवाला दिया तो उसने मेरा ज्ञान-वर्द्धन किया।
साहिल के कहे अनुसार पंजाबी समुदाय के जितने भी लोग ‘कक्कड़’ लिखते हैं, वे सब ‘कुक्कड़’ ही हैं। पंजाबी भाषा में ‘कुक्कड़’ का मतलब ‘मुर्गा’ होता है। सो, साहिल के अनुसार, ‘जगहँसाई’ (एम्बरेसमेण्ट) से बचने के लिए लोगों ने ‘कुक्कड़’ से पीछा छुड़ा कर ‘कक्कड़’ का दामन थाम लिया। मैंने पूछा - ‘तुम्हें जगहँसाई’ की चिन्ता नहीं हुई?’ ‘बिन्दास भाव’ से चहकते हुए साहिल ने कहा - ‘जो जगहँसाई की परवाह में दुबला होता रहता है, ‘जग’ (दुनिया) उसे जीने नहीं देता। और जो ‘जग’ की परवाह नहीं करता, -‘जग’ उसकी परवाह में दुबला होता रहता है।’ बात को आगे बढ़ाते हुए साहिल बोला - ‘अंकल! कोई कितना ही, कुछ भी कर ले, हकीकत तो सब जानते हैं। फिर यह सब उठापटक क्यों और किसके लिए? इसलिए मैं तो कुक्कड़ ही हूँ।’
बात आई-गई हो जानी चाहिए थी। किन्तु नहीं हुई। मुझे कुछ ऐसे ही नाम याद आने लगे जो लोगों को छेड़खानी करने के लिए उकसाते थे।
1975-76 में मैं, भोपाल में, अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ में काम करता था। पत्रकारों में एक था मजहर उल्ला खान। खेल गतिविधियाँ उसीके जिम्मे थी। एक ‘लाइनो-ऑपरेटर’ से उसकी तनातनी बनी रहती थी। इस ‘लाइनो-ऑपरेटर’ की ड्यूटी में जब भी कोई समाचार मजहर उल्ला खान के नाम सहित जाता तो वह ‘लाइनो-ऑपरेटर’, ‘मजहर उल्ला खान’ को जान बूझ कर ‘जहर उल्ला खान’ कर दिया करता था। प्रूफ रीडरों को इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता था। किन्तु इसके बाद भी, महीने में एक-दो बार ‘मजहर उल्ला’ के स्थान पर ‘जहर उल्ला’ छप ही जाया करता था। हमारे सम्पादक नटेश राजन जब-जब भी यह चूक देखते तब हर बार खुल कर हँसते और मजहर से कहते - ‘मियाँ, उससे दोस्ती कर लो वर्ना वो तुम्हें ताजिन्दगी ‘जहर’ बनाए रखेगा।’ मजहर जिन्दादिल नौजवान था। अपनी इस दुर्गत के मजे लेता था। कहता - ‘सर! फिकर वो करे। वो महादेव तो है नहीं कि नीलकण्ठ बन जाए। मैं जिस दिन सचमुच में जहर बनने पर उतर आया तो ‘बीबी का प्यारा’ यह बन्दा, ‘खुदा का प्यारा’ हो जाएगा।’
नाम के साथ हुई छेड़खानी से उकता कर हमारे एक सीनीयर ने अपना कुलनाम ही बदल लिया था। यह सन् 1967 की बात है। मैं रामपुरा (जिला नीमच, म. प्र.) में, बी. ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ रहा था। महाविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में ‘डबकरा’ कुलनाम वाले हमारे एक सीनीयर ने अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी ठोक दी। उसकी उम्मीदवारी से हम सब चौंके थे। वह चुनाव मैदान का खिलाड़ी कभी नहीं रहा। पता नहीं क्यों चुनाव मैदान में उतर आया था! आश्चर्य की बात यह थी कि वह पूरी गम्भीरता से चुनाव लड़ भी रहा था। तब ‘प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली’ लागू थी - महाविद्यालय के प्रत्येक छात्र को मतदान करना था।
रामपुरा बहुत छोटा कस्बा है। आबादी इतनी कम कि कस्बे के सारे लोग एक दूसरे को भली प्रकार जानते थे। ऐसे में चुनाव प्रचार का कोई अर्थ नहीं था। किन्तु जगदीश ने पूरे कस्बे की तमाम गलियों की दीवारों पर लिखवा दिया - ‘अध्यक्ष पद के लिए डबकरा को वोट दीजिए।’ चूँकि वह शुरु से ही गम्भीर उम्मीदवार नहीं था सो हर कोई उसके मजे लेने लगा था। उसके प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार ने पूरे कस्बे को मजा दिला दिया। उसने पूरे कस्बे में ‘डबकरा’ में से ‘ड’ को मिटवा दिया। अब पूरे कस्बे में, गली-गली में लिखा हुआ था - ‘अध्यक्ष पद के लिए बकरा को वोट दीजिए।’ पूरे कस्बे में हालत यह हो गई कि आगे-आगे डबकरा और पीछे-पीछे ‘बकरा-बकरा’ कहते हुए बच्चों का झुण्ड।
चुनाव परिणाम तो सबको पता ही था। किन्तु उसके ठीक बाद डबकरा ने अपना कुलनाम बदलकर ‘गुप्ता’ कर लिया। लेकिन अतीत पीछा नहीं छोड़ता। वह अपना परिचय ‘गुप्ता’ कह कर देता तो सामनेवाला चेहरे पर गम्भीरता और मासूमियत ओढ़कर दुष्टतापूर्वक पूछता -‘वही गुप्ता ना जो पहले बकरा था?’
मेरे कुलनाम के साथ भी भाई लोगों ने खूब छेड़छाड़ की और मेरे खूब मजे लिए। ‘बैरागी’ को कभी ‘बैरा’ (जी हाँ, ‘होटल बैरा’) तो कभी ‘बैर’ कर दिया जाता था। कभी-कभी ‘रागी’ कहा जाता किन्तु ‘रागी’ में भाई लोगों को मजा नहीं आता। उल्टे लगता, मेरी इज्जत बढ़ा दी। सो, मुझे ‘बैरा’ और ‘बैर’ ही बनाया जाता रहा। कभी-कभी ‘बेरा’ बना दिया जाता जो मालवी बोली में ‘बहरा’ का अपभ्रंश होता। शुरु-शुरु तो मैं भी चिढ़ता रहा किन्तु चण्डीगढ़ से आए, राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर केवल कुमार वर्मा ने जो ‘गुरु ज्ञान’ दिया उससे भाई लोग परास्त हो गए। भाई लोग मुझे जिस भी नाम से पुकारते, वर्माजी के निर्देशानुसार मैं तत्काल ऐसे जवाब देता जैसे सामनेवाले ने मेरा सही नाम ही पुकारा है। वर्माजी के कारण मेरे मजे लेने का, मेरे मित्रों का मजा नष्ट हो गया।
ये तो वे प्रकरण हैं जिनमें लोगों ने नाम के साथ छेड़खानी की। किन्तु क्या कोई कुलनाम ऐसा भी हो सकता है जिसके साथ छेड़खानी करने की न तो आवश्यकता हो और न ही कोई गुंजाइश और फिर भी आप मजे ले सकें? ऐसे एक नाम से मेरा वास्ता पड़ा है।
यह 1987 की बात है। मैं सम्भागीय उद्योग संघ का सचिव था। सरकारी दफ्तरों में जाना और अधिकारियों से मिलना मेरी जिम्मेदारियों में शरीक था। कुछ उद्योगों के कारण रतलाम को पर्यावरण प्रदूषण के सन्दर्भ में काफी संघर्ष करना पड़ रहा था। तब यहाँ, म. प्र. प्रदूषण निवारण मण्डल ने अपना एक कार्यालय खोल कर एक सहायक वैज्ञानिक की पदस्थापना की थी। पहली बार उनका नाम सुनकर हर किसी को लगता था कि उसने सुनने में कोई गलती कर ली है। सो, खातरी करने के लिए दूसरी बार पूछता था। तब समझ पड़ती थी कि पहली बार सही ही सुना था। इन सज्जन का कुलनाम था - गधेवाड़ीकर। नाम सुनकर हम सब पहले तो चौंकते और बाद में मुस्कुराते और गधेवाड़ीकर के पीठ फेरते ही पेट पकड़ कर हँसते।
उन दिनों सम्भवत: राकेश बंसल रतलाम के कलेक्टर हुआ करते थे। कलेक्टोरेट में आयोजित बैठक में गधेवाड़ीकर पहली बार पहुँचे तो बंसल साहब ने परिचय जानना चाहा। सहायक वैज्ञानिक महोदय ने खुल कर, गर्वपूर्वक कहा - ‘सर! मैं गधेवाड़ीकर हूँ। यहाँ पोल्यूशन कण्ट्रोल बोर्ड के सब-ऑफिस में असिस्टण्ट साइंटिस्ट हूँ।’ कुलनाम सुनकर बंसल साहब के पेट में मरोड़ उठने लगे। आई ए एस के वजन से हँसी को दबाने की कोशिश तो की किन्तु कामयाब नहीं हुए। कलेक्टरी एक ओर धरी रह गई और जो हँसी चली तो बंसल साहब की आँखों और नाक से पानी बहने लगा। बमुश्किल हँसी को थोड़ी देर के लिए काबू किया और कहा - ‘यार! यह भी कोई नाम है? वाकई में गधेवाड़ीकर ही नाम है?’ और इससे पहले कि गधेवाड़ीकर कोई जवाब दे, बंसल साहब की हँसी फिर से, पूरे जोर से छूट गई। उस दिन वह बैठक नहीं हो पाई सो तो ठीक किन्तु उसके बाद जब-जब भी बैठक में गधेवाड़ीकर मौजूद होता, बंसल साहब अनजान बन कर - ‘अरे! मिस्टर पोल्यूशन कण्ट्रोलवाले! वो, क्या नाम तुम्हारा.....’ कहकर मानो नाम याद कर रहे हों, इस तरह मुख-मुद्रा बनाकर गधेवाड़ीकर की ओर देखने लगते। गधेवाड़ीकर फौरन ही, तन कर कहता - ‘गधेवाड़ीकर, सर।’ सुनकर बंसल साहब जोर से हँसते और देर तक हँसते रहते। बाद-बाद में यह होने लगा कि यदि गधेवाड़ीकर बैठक में नहीं होता तो बंसल साहब कहते - ‘अरे! आज कैसे हँसेंगे भाई? देखो! देखो!! आते ही होंगे। कुछ देर राह देख लेते हैं।’ लब्बोलुआब यह कि जब तक गधेवाड़ीकर रतलाम में पदस्थ रहा, बंसल साहब का झुनझुना बना रहा।
मुझे लगता है, हममें से प्रत्येक के आसपास ऐसे दस-बीस किस्से तो होंगे ही। इन किस्सों को संग्रहीत करना कैसा रहेगा? और संग्रहीत कर लिया तो संग्रह का का नाम क्या रखा जाएगा?
सोचिएगा। आखिर नाम में कुछ तो रखा है।
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