ऐसे हैं हम

मेरे कक्षापाठी के बड़े भाई और सेवा निवृत्त प्राचार्य श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर रतलाम में ही रहते हैं और पत्रों के माध्यम से अपने अनुभव मुझे लिखते रहते हैं। इन अनुभवों में हमारे दैनन्दिन आचरण की विसंगतियाँ और अन्तर्विरोध अत्यधिक रोचकता और तीखेपन से उजागर होते हैं। पहली नजर में ‘मजा देनेवाले’ ये अनुभव हमारी कथनी और करनी के अन्तर को जिस तीखेपन से प्रकट करते हैं वह तिलमिलादेनेवाला और खुद से नजरें मिलाने में असुविधा पैदा करनेवाला होता है।

अभी दो दिन पहले मुझे करमरकरजी का ऐसा ही एक पत्र मिला है। करमरकरजी की हस्तलिपिवाला मूल पत्र तो यहाँ प्रस्तुत है ही, उसकी इबारत भी यहाँ प्रस्तुत है -


प्रिय श्री विष्णुजी,

नमस्ते,

बड़े दिन से पत्र लिख रहा हूँ।

मैं शासकीय कार्य से (सेवा निवृत्ति के बाद) जावरा जा रहा था। गाड़ी में दो सज्जनों की बातों ने सहसा मेरा ध्यान आकर्षित किया। एक बी. एस. एन. एल. में व एक शासकीय शिक्षक। बी. एस. एन. एल. कर्मचारी पूर्व में प्रायव्हेट नौकरी में थे। शिक्षक, जो सरकारी हैं, पहले प्रायव्हेट स्कूल में थे।

बी. एस. एन. एल. कर्मचारी के पास उनकी बी. एस. एन. एल. का मोबाइल नहीं था। शिक्षक महोदय के बच्चे प्रायव्हेट स्कूल में पढ़ते हैं।

इन्हें नौकरियाँ शासकीय चाहिए, मगर फोन और स्कूल प्रायव्हेट चाहिए। फिर, इनकी निन्दा पुराण की कथाएँ। श्रीमनमोहन सिंहजी से लेकर शिवराज सिंह से होते हुए पार्षद तक सब भ्रष्ट। ये दोनों तड़ी मारकर एक सन्त की सेवा में आ रहे थे।

कैसा ‘दो मुँहा’ व्यवहार पाले हैं लोग? सन्तों की भीड़ ऐसे लोगों से ही बनती है।

विष्णुपत्नी को नमस्ते।

- सुरेशचन्द्र करमरकर

आत्मा की अनवरत चैतन्यता से साक्षात्‍कार

इस अनुभव को कौन से विशेषण से सजाऊँ? संज्ञाओं के कौन से वर्ग में इसे रखूँ? इसे सच की शक्ति कहूँ या सच की निर्ममता? आत्मा की अनवरत चैतन्यता के इस साक्षात्कार को कैसे और कहाँ सहेजकर रखूँ? सब कुछ इतना अनपेक्षित और अकस्मात हुआ कि न तो इसका ‘अथ‘ पकड़ पा रहा हूँ और न ही ‘इति‘ खोज पा रहा हूँ। ऐसे में, अच्छा यही होगा कि सब कुछ, ‘जस का तस’ परोस दूँ - खुद को पूरी तरह से दूर रख कर।

यह गए सप्ताह की बात है। वे बिना पूर्व सूचना दिए आए और बिना किसी भूमिका के बोले - ‘आपको फुरसत हो न हो, मेरी बात सुन लीजिए। पता नहीं मुझे कितनी देर लगेगी किन्तु अपनी बात कह कर फौरन ही चला जाऊँगा। बिलकुल वैसे ही, जैसे कि अचानक ही आया हूँ।’ मैं उनसे कुछ पूछता-कहता, उससे पहले ही वे शुरु हो गए। अब सब कुछ, लगभग उन्हीं के शब्दों में -

‘‘इस 31 मार्च को मैं रिटायर हो रहा हूँ। छब्बीस बरस की उम्र में मेरी नौकरी लगी थी। चौंतीस बरस हो गए, नौकरी लगने के पहले ही दिन से मैं अपनी आत्मा पर यह बोझ ढो रहा हूँ। पता नहीं क्यों, गए कुछ दिनों से मेरा जीना हराम हो गया है। न नींद आती है न रोटी गले उतरती है। सब इसे मेरे रिटायरमेण्ट का प्रभाव समझ रहे हैं। समझ रहे हैं कि मैं रिटायरमेण्ट के बाद होनेवाली अपनी दशा की कल्पना से परेशान हूँ। लेकिन बात कुछ और ही है। अब मुझसे सहा नहीं जा रहा। साँसें घुटी-घुटी लगती हैं। छाती में समाती नहीं। लगता है, मेरी छाती अचानक ही फट जाएगी। पता नहीं, मौत कब आएगी। किन्तु गए कुछ दिनों से तो मैं पल-पल मर रहा हूँ।

‘‘नौकरी लगने के एक दिन पहले ही मुझे बताया गया कि मुझे मेरी योग्यता और पात्रता से यह नौकरी नहीं मिली थी। मामा ने जुगत भिड़ा कर मुझे नौकरी दिलवाई थी। यह किस्सा मामा ने ही सुनाया तब मुझे सारी बात मालूम हुई।

‘‘नौकरी के उम्मीदवारों को एक लिखित परीक्षा देनी थी। मैं परीक्षा देने गया तो देखा कि उम्मीदवारों पर नजर रखने के लिए जिन लोगों की ड्यूटी लगी थी, उनमें मामा भी शामिल हैं। आपको पता ही है कि मामा भी इसी विभाग में थे। उन्हें देख कर मुझे अच्छा लगा क्योंकि पढ़ाई के मामले में मैं शुरु से एकदम मामूली स्तर का विद्यार्थी था। मुझे अपने पास होने की कोई उम्मीद नहीं थी। मैं नकल की तैयारी करके गया था। मामा को देखकर लगा कि भगवान ने मेरी सुन ली। अब मैं आराम से नकल कर सकूँगा।‘‘परीक्षा शुरु हुई। एक-दो सवाल ऐसे थे जिनके जवाब मुझे कुछ-कुछ आते थे। सोचा, पहले वे ही लिख लूँ। नकल सामग्री का उपयोग बाद में कर लूँगा। लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई। पन्द्रह-बीस मिनिटों के बाद ही, निरीक्षण करते हुए, मामा मेरे पास आकर रुक गए और कड़ी नजरों से मुझे देखते हुए बोले - ‘यह क्या कर रहे हो? हमें बेवकूफ समझते हो? समझते हो कि हमें कुछ नजर नहीं आ रहा? चलो! खड़े हो जाओ!’ कह कर मामा ने मेरी उत्तर पुस्तिका झपट ली। मुझे चक्कर आ गए। कहाँ तो मैं मस्ती से नकल करने की सोच रहा था और कहाँ मेरे ही मामा ने मुझे पकड़ लिया? वह भी तब जबकि मैं नकल कर ही नहीं रहा था! मुझे कँपकँपी छूट गई और मैं रोने लगा। लेकिन मामा जरा भी नहीं पसीजे। मेरी उत्तर पुस्तिका लिए मामा आगे-आगे और उनके पीछे-पीछे रोता हुआ मैं।

‘‘हम दोनों कमरे से बाहर आए। एकदम कोनेवाले कमरे के बाहर जा कर मामा रुके और उत्तर पुस्तिका मेरे हाथ में देकर बोले - ‘रोना बन्द कर गधे! जा। चुपचाप अन्दर जा। अन्दर ओमजी बैठे हैं। वे तुझे सारे जवाब लिखवा देंगे।’ मैं मानो आसमान से गिरा। मुझे कुछ सूझ पड़ती, तब तक मामा जा चुके थे। मैं हाथ में उत्तर पुस्तिका लिए, मूर्खों की तरह बरामदे में खड़ा था। ओमजी तेजी से बाहर आए और मुझे पकड़ कर अन्दर ले गए। इसके बाद क्या हुआ, यह कहने की जरूरत नहीं। बस, लोग समझे कि मुझे नकल करते हुए निकाल दिया गया है जबकि सौ टका सही उत्तरोंवाली मेरी कॉपी सबसे पहले जमा करा दी गई थी।

‘‘कुछ दिनों बाद परीक्षा का रिजल्ट आया। मुझे पास होना ही था। मैं पास हो गया। उसके कुछ दिनों बाद डाक से मुझे नियुक्ति पत्र मिल गया। मैंने मामा को दिखाया तो मामा बोले - ‘कोई जाने न जाने, तू, मैं, ओमजी और भगवान जानता है कि तुझे यह नौकरी पात्रता और योग्यता से नहीं, भाग्य से मिली है। तेरे कमरे में अपनी ड्यूटी मैंने ही लगवाई थी। किसी और के हक पर डाका डाल कर तुझे नौकरी मिली है। पाप तो मैंने ही किया है। भगवान मुझे सजा देगा ही। पता नहीं वह कौन सी सजा देगा और किस रूप में देगा। किन्तु देगा जरूर और मुझे भुगतनी ही पड़ेगी। लेकिन तू दो बातें याद रखना। एक तो यह कि तुझे जितनी आसानी से यह नौकरी मिली है, इसे निभाना उससे हजार गुना मुश्किल होगा। निभाने की योग्यता, क्षमता और पात्रता तुझे ही हासिल करनी पड़ेगी। और दूसरी बात यह कि इस बेईमानी का प्रायश्चित तुझे पूरे सेवाकाल में करते रहना पड़ेगा। यह प्रायश्चित कैसे किया जाए, यह तू ही तय करना।’

‘‘मैं उछलता हुआ मामा के पास गया था और बुझे मन से लौटा। कहाँ तो शाबाशी की उम्मीद थी और कहाँ लम्बा-चौड़ा उपदेश लेकर लौटा। मामा पर गुस्सा आने लगा और रोना भी। मुझे लगा, मामा ने जानबूझकर मुझे बेइज्जत कर दिया है। यही सब करना था तो मुझे नौकरी दिलाई ही क्यों?

‘‘घर आया। मेरी नौकरी लग जाने से घर के सब लोग खुश थे किन्तु मैं खुश होने का नाटक भी नहीं कर पा रहा था। अगली सुबह मुझे नौकरी ज्वाइन करनी थी और मैं उदासियों से और मामा के प्रति गुस्से घिरा था।‘‘रात को देर तक नींद नहीं आई। विचारों का झंझावात आया हुआ था। गुस्सा धीरे-धीरे कम होने लगा। मन शान्त हुआ तो मामा की बातें फिर से कानों में गूँजने लगीं। विचार आया - मामा ने गलत क्या कहा? वे तो खुद को भी गुनहगार और पापी मान रहे हैं? अपने गुनाह की सजा भुगतने के लिए खुद को तैयार किए बैठे हैं। मैं तो उनसे बेहतर स्थिति में हूँ। मुझे तो पहले ही दिन से प्रायश्चित करने का अवसर मिल रहा है!

‘‘और बैरागीजी! उस रात, एक क्षण में ही मानो मेरा काया पलट हो गया। ईश्वर मुझ पर महरबान हो गया। मैंने नौकरी को साधा और इतने बढ़िया ढंग से साधा कि हर कोई दंग रह गया। मैंने कायदे-कानूनों की, काम की प्रक्रिया की, फाइल बनाने और उसे चलाने की, नोट शीट लिखने की, किस काम को पहले निपटाना इस बात की, याने सारी बातों की जानकारी लेने में खुद को खपा दिया। हालत यह हो गई कि जब भी कोई फाइल उलझती, मेरी राय ली जाती। मेरे सेक्शन ऑफिसर मुझसे सलाह लेते। शुरु के चार-पाँच सालों को छोड़कर बाकी पूरे सर्विस पीरीयड में मेरी सी. आर. हमेशा ‘आउटस्टैण्डिंग’ ही रही। मुझे मेरे सारे प्रमोशन तयशुदा वक्त पर मिले। विभागीय स्तर पर हुए मेरे पाँच-सात सम्मान समारोहों में तो आप भी शरीक हुए हैं। लेन-देन के मामले में मैंने पहले ही दिन कसम खा ली थी - भूखों मर जाऊँगा पर रिश्वत नहीं लूँगा। नहीं ली। कभी, किसी की फाइल, मिनिट भर भी नहीं रोकी। सूखी तनख्वाह में मेरी सारी जरूरतें पूरी हुईं। बेटा बी. ई., एम.बी. ए. कर अच्छी नौकरी कर रहा है। बेटी की शादी में तो आप शरीक हुए ही थे। माया नहीं कमाई किन्तु सद्भावनाएँ अटूट मिलीं। किसी गरीब की हाय नहीं ली और जबरे की नाराजी नहीं झेली। आज मुझे कोई कमी नहीं है। सब रामजी राजी है।

‘‘लेकिन किसी का हक मारकर नौकरी हासिल करने की फाँस आज तक कलेजे में गड़ी हुई है। एक मामा और दूसरे ओमजी, ये दो लोग इस बात को जानते थे। आज दोनों ही नहीं हैं। लेकिन सोते-जागते लगता है, कोई दो आँखें हैं जो बिना पलकें झपकाए मुझे देख रही हैं। देखती ही जा रही हैं। पता नहीं ये आँखें भगवान की हैं या उसकी जिसके हक की नौकरी मुझे मिली। यह हकीकत, ये आँखें अब मुझसे नहीं झेली जा रहीं। आठ-दस दिनों बाद मैं रिटायर हो जाऊँगा। तब अकेलापन और बढ़ जाएगा। तब, इन आँखों की ताब झेलना, इस फाँस की कसक को सह पाना मेरे लिए और मुश्किल हो जाएगा। सोचा, किसी के सामने सब कुछ कबूल कर लूँ तो शायद थोड़ी राहत मिल जाए। इसलिए आपके पास आया। भगवान आपका भला करे कि आपने मेरी बात शान्ति से सुन ली। मैं हलका हो गया। मेरे इस कबूलनामे का आपको जो करना हो कर लें। अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।’’

और, अपनी सुना कर वे सचमुच में फौरन ही चले गए। नहीं जानता वे मुक्त हुए या नहीं किन्तु वे मुझे बिंधा हुआ छोड़ गए हैं।

बजते डिंगे

स्थानीय स्थितियों और प्रभावों के कारण, स्वरूप और प्रस्तुति में थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है किन्तु यह कथा पूरे देश के ‘लोक‘ में समान रूप से कही-सुनी जाती होगी। मैं चूँकि ‘मालवी’ हूँ, इसलिए मुझे छूट दी जाए कि मैं इसे ‘मालवी लोक कथा’ के रूप में प्रस्तुत कर सकूँ।

सुविधा और सुरक्षा की दृष्टि से एक व्यक्ति ने एक गधा और एक कुत्ता पाल रखा था। सामान ढोने का काम गधे के जिम्मे था और चौकीदारी करने का काम कुत्ते के जिम्मे। गधे को दिन भर कड़ा परिश्रम करना पड़ता जबकि कुत्ता दिन भर आराम से बैठा रहता।

एक शाम गधे ने कुत्ते से अपनी पीड़ा जताई और एक दूसरे का काम बदलने का प्रस्ताव किया। कुत्ते ने कहा कि वह जानता है कि इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे किन्तु दिन-रात साथ-साथ रहते हैं तो काम के बदलाव का यह प्रयोग आज रात से ही शुरु करके देख लिया जाए। कल की कल देखेंगे।

कुत्ते द्वारा अपना प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाने से गधा खुश हो गया। इतना खुश कि दिन भर की थकान भूल गया।

रात हुई। सब सो गए। योग-संयोग रहा कि उसी रात चोर आ गए। कुत्ते के कान खड़े हुए और वह भौंकना शुरु करने ही वाला था कि उसे मित्र से किए गए ‘काम के बदलाव’ का वादा याद आ गया। उसने गधे से कहा कि वह मालिक को चोरों के आने की सूचना दे। खुशी से झूमते गधे ने उत्साह के अतिरेक में जोर-जोर से रेंकना शुरु कर दिया। मालिक की नींद बाधित हुई। बिस्तर छोड़ कर बाहर आया और गधे को दो लात टिका कर सोने चला गया। गधे को अच्छा तो नहीं लगा किन्तु बात स्वामी भक्ति और कर्तव्यपरायणता की थी। सो, फिर जोर-जोर से रेंकने लगा। मालिक फिर बाहर आया और इस बार आठ-दस लातें टिका दी।गधे को मालिक का यह व्यवहार अच्छा तो नहीं लग रहा था किन्तु कर ही क्या सकता था? सो, उसने रेंकना जारी रखा। परेशान मालिक ने अन्ततः डण्डा उठाया और गधे की, अन्धाधुन्ध पिटाई शुरु कर दी। दिन भर की कड़ी मेहनत के कारण पहले से ही निढाल गधे के लिए यह ‘कोढ़ में खाज’ वाली बात थी। वह दुःखी होकर, हाँफता-कराहता, लस्त-पस्त हो, अपने खूँटे के पास लेट गया।

कुत्ते ने सहानुभूति जताते हुए कहा - मैंने तो पहले ही मना किया था। तुम ही नहीं माने। प्रकृति के प्रतिकूल व्यवहार करने पर यही होता है।

कुत्ते ने नसीहत दी -

जणी को काम वणी ने साजे।
और करे तो डिंगा बाजे।।

याने, सबको अपना-अपना काम ही शोभा देता है। ऐसा न करने पर डण्डे पड़ते हैं और डण्डों की आवाज सारी दुनिया सुनती है।

‘बजते डिंगे’ दसों दिशाओं में गूँज रहे हैं।

‘वे’ याने कि ‘हम’

कुछ तो है जो कचोटता है, न चाहते हुए भी अपनी ओर ध्यानाकर्षित करता है, सोचने पर विवश करता है।

मेरे कस्बे की पुलिस ने, सोमवार की रात दस लोगों को गिरफ्तार किया। इनमें, क्रिकेट और वायदा बाजार के सटोरिए और सोना-चाँदी व्यापारी शामिल हैं। सब के सब, अच्छी-खासी सामाजिक हैसियत रखनेवाले, श्री सम्पन्न और क्षमतावान। पुलिस के अनुसार ये सब जुआ खेल रहे थे।

सारे अखबारों ने (मंगलवार को) यह समाचार प्रमुखता से, चित्र सहित प्रकाशित तो किया किन्तु इस बात का उल्लेख अतिरिक्त महत्व देते हुए विशेष रूप से किया कि इन लोगों को पकड़ने के लिए, पुलिस ने ‘राजा जैसी हिम्मत’ दिखाई। ‘राजा जैसी हिम्मत’ याने, शक्ति का सर्वोच्च और अन्तिम ऐसा संस्थान् जिससे, अपनी कार्रवाई के लिए, कोई पूछ-परख न की जा सके या जो अपने से ऊपरवाले, ‘किसी’ को स्पष्टीकरण देने के लिए बाध्य न हो। इस विशेष उल्लेख के पीछे कारण यह बताया गया कि पकड़े गए तमाम लोगों को बचाने के लिए, काँग्रेस और भाजपा के कुछ प्रभावी नेता, अपने तमाम राजनीतिक मतभेद भुलाकर, पुलिस थाने पहुँचे तो कुछ निर्दलीय नेताओं ने फोन करके इन्हें बचाने की गुहार लगाई। बुधवार को अखबारों ने सूचित किया कि दिल्ली से एक काँग्रेसी नेता ने भी, गिरफ्तार लोगों के समर्थन में पुलिस अधिकारियों को फोन किया।

अखबार, मुक्त-कण्ठ से पुलिस भूमिका की सराहना तो कर रहे हैं किन्तु परोक्षतः भरोसा भी जता रहे हैं कि दो-चार दिनों में मुद्दा ठण्डा हो जाएगा और पुलिस को अन्ततः नेताओं के सामने समर्पण करना ही पड़ेगा। छपे समाचार की पंक्तियों के बीच की खाली जगह में पढ़ा जा सकता है कि ये ही पुलिसकर्मी/अधिकारी आनेवाले दिनों में उन्हीं लोगों के अध्यक्षता और मुख्य अतिथिवाले आयोजनों की व्यवस्था में तैनात नजर आएँगे जिन्हें आज अपराधी करार दिया जा रहा है और जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए ‘राजा जैसी हिम्मत‘ बरती गई है।

मैंने इस समाचार को देखा, बार-बार देखा, खूब ध्यान से देखा किन्तु, गिरफ्तारों की पैरवी करनेवाले एक भी नेता का नाम समाचारों में नजर नहीं आया। मुझे पक्का पता था कि ऐसा ही होगा इसलिए मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। अपनी धारणा की पुष्टि करने के लिए मैंने फेस बुक खोली। एक पत्रकार ने इस समाचार को वहाँ भी ‘राजा जैसी हिम्मत’ वाले विशेषण सहित लगाया हुआ था लेकिन नेताओं के नाम यहाँ भी नहीं थे। हाँ, कुछ टिप्पणियाँ अवश्य उल्लेखनीय थीं। एक टिप्पणी में पत्रकारों और पुलिस की औकात बताई गई थी और गिरफ्तार किए गए लोगों के जल्दी ही छूट जाने की अग्रिम सूचना, अधिकारपूर्वक दी गई थी। दो-एक टिप्पणियों में पत्रकारों की हँसी उड़ाते हुए उन्हें, नेताओं का नाम बताने की चुनौती दी गई थी तो कुछ टिप्पणियों में पत्रकारों का बचाव किया गया था। किन्तु सारी टिप्पणियों से यह बात साफ-साफ अनुभव हो रही थी सबको इन नेताओं के नाम मालूम थे। बस! बताना कोई नहीं चाह रहा था। मानो प्रत्येक टिप्पणीकार कह रहा था - ‘मुझे तो मालूम है। तुझे मालूम हो तो तू बता। तेरे बताए नाम गलत होंगे तो मैं बता दूँगा।’ याने, ‘नाम बताने का यश’ लेने का लोभ किसी को नहीं! अहा! क्या निस्पृहता है! क्या वीतराग भाव है!

हम जानते हैं कि अपराधियों को सुरक्षा देने का अपराध कौन कर रहा है किन्तु उसका नाम नहीं बताएँगे। चलिए, नाम न बताएँ। कोई बात नहीं। किन्तु अनुचित को संरक्षण और प्रश्रय देनेवाले अपने इन नेताओं को हम टोकेंगे भी नहीं और जब भी ये सामने मिलेंगे तो हम ‘दैन्य’ की सीमा तक विनीत भाव से, इस तरह से झुकते हुए मानो हमारी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं, ‘हें! हें!’ करते हुए इन्हें प्रणाम करने की प्रतियोगिता में, कम से कम समय में सबसे पहले प्रणाम करने का खिताब हासिल करना चाहेंगे। बलिहारी! बलिहारी!!

पत्रकारों से मुझे कोई शिकायत नहीं है। ऐसे मामलों में वे अपनी क्षमता और सीमा का अधिकतम उपयोग करते ही हैं। इस मामले में भी उन्होंने वही किया है। सामाजिक स्खलन के विकराल प्रभाव से त्रस्त इस समय में आज भी शिक्षक, पत्रकार और न्यायपालिका, इन तीन संस्थाओं से सबको अपेक्षाएँ बनी हुई हैं। किन्तु ये तभी हमारी अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं जब हम इन्हें तन-मन-धन से खुला और यथेष्ठ सहयोग, समर्थन और सुरक्षा उपलब्ध कराएँ। भले ही पत्रकारिता अपना मूल स्वरूप खोती जा रही हो किन्तु अवधारणा के सन्दर्भ में उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। आएगा भी नहीं। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि अखबारों के जरिए जनभावनाएँ उजागर करनेवाले पत्रकार, उतनी ही पत्रकारिता कर पा रहे हैं जितनी कि वे कर सकते हैं या कि जितनी उन्हें करने दी जा रही है। (वर्ना तो सबके सब नौकरियाँ ही तो कर रहे हैं!) वह जमाना गया जब अखबार वास्तव में अखबार हुआ करते थे। तब, अखबार और पत्रकारिता ‘अभियान’ (मिशन) हुआ करता था। आज यह ‘व्यवसाय’ (प्रोफेशन) से कोसों आगे बढ़ कर ‘बिजनेस’ (व्यापार) हो गया है। निगमित (कार्पोरेट) घरानों के स्वामित्ववाले अखबार अब ‘उत्पाद’ (प्रॉडक्ट) बन कर रह गए हैं। ऐसे में किसी पत्रकार से अपेक्षा करना कि वह अपनी नौकरी दाँव पर लगाने की, अपने बीबी-बच्चों की परवाह न करने की जोखिम लेकर हमारी ‘सेवा’ करे, न केवल हमारी मूर्खता होगी अपितु पत्रकारों के प्रति अन्याय और अत्याचार भी होगा। हाँ, अखबार मालिक यह जोखिम ले सकता है और मेरा दावा है कि यदि कोई अखबार मालिक जोखिम ले तो पत्रकार सचमुच में अपनी जान पर खेल कर पत्रकारिता कर लेंगे। वर्ना मैं भुक्त भोगी हूँ कि जब पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा लगता है तो, पत्रकारों को मदद करने का वादा करनेवाले सूरमा गुम हो जाते हैं और मुकदमे में हाजरी माफी की अर्जी पर लगाए जानेवाले टिकिट के दो रुपये जुटाने में भी पत्रकार को पुनर्जन्म लेना पड़ जाता है।
हम समाज से और तमाम सामाजिक कारकों से सहयोग और सुरक्षा तो चाहते हैं किन्तु खुद कुछ नहीं करना चाहते। हम अधिकारों की दुहाइयाँ देते हैं और कर्तव्य भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि जिस ‘समाज’ से हम अपेक्षाएँ कर रहे हैं, वह हमारा ही बनाया हुआ है, हम ही उसकी आधारभूत इकाई हैं। समाज हमारी भव्य इमारत है और हम उसकी नींव के वे पत्थर जिन पर इस इमारत की मजबूती और बुलन्दगी निर्भर है। हम अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे तो इस इमारत का, भरभराकर ढहना निश्चित है।

जैसे हम हैं, वैसा ही हमारा समाज है। हमें वैसे ही नेता मिले हैं, वैसी ही पुलिस मिली है और वैसे ही पत्रकार भी मिले हैं जैसे हम हैं। इनमें से कोई भी बाहर से नहीं आया है। ये सब हममें से ही हैं, हमारे ही भेजे हुए, हमारे ही बनाए हुए।

वस्तुतः ‘वे’, वे नहीं हैं - ‘हम’ ही हैं।

किसम-किसम के कर्मचारी

हम लगभग 30-35 एजेण्टों ने मेरी कलवाली पोस्‍ट काम करने की शर्त का, बड़े ही मनोयोग से सामूहिक वाचन किया और बिना किसी गहन विचार विमर्श के, कर्मचारियों को निम्नानुसार तीन श्रेणियों में विभाजित किया -

पहली श्रेणी में वे कर्मचारी आते हैं जो ‘काम‘ करते हैं। ये यथा सम्भव समय से पहले ही दफ्तर पहुँचते हैं और दफ्तर का समय हो जाने के बाद भी, देर शाम तक काम करते रहते हैं। इनकी भावना रहती है कि इनकी टेबल पर कल के लिए कोई काम लम्बित नहीं रह जाए। ये कर्मचारी भोजनावकाश में अपनी कुर्सी छोड़ते जरूर हैं किन्तु इन्हें लौटने की उतावली बनी रहती है। भोजन करने के बाद गपियाने में इनकी कोई रुचि नहीं होती। ये कर्मचारी चाय-पानी के नाम पर भी अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते और जब भी चाय पीनी होती है, अपनी टेबल पर ही मँगवा लेते हैं।

काम के मामले में ये सदैव ही ‘ओव्हर लोडेड’ रहते हैं किन्तु इन्हें कोई शिकायत नहीं होती। मेनेजमेण्ट को जब भी कोई काम तत्काल ही करवाना होता है, वह काम इन कर्मचारियों को सौंप दिया जाता है। सुखद आश्चर्य यह कि पहले से ही काम से लदे-फँदे ये कर्मचारी, इस तरह अचानक आए काम को भी प्रसन्नतापूर्वक, सर्वोच्च प्राथमिकता पर निपटा देते हैं।

संख्या, प्रतिशत और अनुपात में ये ‘अत्यल्प समुदाय’ के लोग हैं और हम सबने माना कि ऐसे कर्मचारियों के दम पर ही दफ्तर की इज्जत बनती है और बनी रहती है। अच्छी बात यह है कि मेनेजमेण्ट भी इनकी इस भूमिका को यथेष्ठ सम्वेग और गहनता से अनुभव करता है और इनके काम में कोई अड़ंगा पैदा नहीं करता। हम सबने यह भी महसूस किया कि प्रथमतः तो ये कर्मचारी अपने लिए कोई अतिरिक्त ‘फेवर’ चाहते ही नहीं किन्तु यदि कभी ऐसी स्थिति बनी तो मेनेजमेण्ट ने, इनके कहने से पहले ही इन्हें यह ‘फेवर’ दे दिया। किन्तु जो बात हमें सबसे अच्छी लगी वह यह कि उत्तम चरित्रावली और पदोन्नति के मामले में इनमें से किसी के साथ कभी कोई अन्याय नहीं हुआ।

दूसरी श्रेणी के कर्मचारी ‘नौकरी’ करते हैं। ये अपने अधिकारों के प्रति चौबीसों घण्टे सजग रहते हैं। ये समय पर दफ्तर आते हैं (कानूनन जितनी देर से आना अनुमतेय होता है, उतनी देर से ही आते हैं), समय होते ही भोजनावकाश पर चले जाते हैं, भोजन करने के बाद थोड़ी देर गप्प गोष्ठी जमाते हैं और सदैव ही, भोजनवाकाश की निर्धारित समयावधि से दस-पाँच मिनिट देर से ही अपनी कुर्सी पर लौटते हैं। ये लोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक काम करते हैं और पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं कि कानूनों का पालन करते हुए किस तरह, कम से कम काम किया जाए। ये लोग, चाय-पानी के नाम पर गाहे-ब-गाहे अपनी कुर्सियों से गायब हो जाते हैं। आज का काम कल पर छोड़ने में इन्हें रंचमात्र भी संकोच नहीं होता। ये लोग यह चिन्ता भी नहीं करते कि इनके ऐसे व्यवहार के कारण ग्राहकों को कितनी असुविधा होती है। ये अत्यन्त सहज भाव से, ग्राहकों को ‘अब आज तो मुमकिन नहीं। कल तलाश कर लीजिएगा।’ जैसे जुमलों से ‘टरका देते’ हैं। ग्राहक के चेहरे पर उभरी प्रतिक्रिया इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। दफ्तर का समय होने से बीस-पचीस मिनिट पहले ही ये कर्मचारी अपने कागज-पत्तर समेट लेते हैं और हाथ पर हाथ धरे, घड़ी की ओर ताकते रहते हैं। कानूनी सुविधा का लाभ उठाकर देर से आनेवाले ये कर्मचारी, जाने के मामले में कानून को पूरा सम्मान देते हैं और निर्धारित समय के बाद क्षण भर भी नहीं रुकते।

मेनेजमेण्ट का व्यवहार भी इनके प्रति ‘कानूनी’ ही होता है और इसीलिए दोनों के बीच आए दिनों कोई न कोई खिचखिच चलती रहती है। ये कम से कम काम करना चाहते हैं और मेनेजमेण्ट चाहता है ये लोग, कम से कम काम तो करें। ‘कम से कम’ के, दोनों के अपने-अपने अर्थ हैं।

संख्या, प्रतिशत और अनुपात के मामले में ये ‘मध्यमवर्गीय’ श्रेणी में आते हैं - याने सर्वाधिक। ये सदैव किसी न किसी बात का रोना रोते रहते हैं और अपनी-अपनी यूनीयन के नेताओं की आलोचना करते हुए उनके प्रति अपना असन्तोष जताते रहते हैं। ये किसी की परवाह नहीं करते किन्तु चाहते हैं कि सब इनकी परवाह करें।

तीसरी श्रेणी के कर्मचारी न तो काम करते हैं और न ही नौकरी। इन्हें ‘फुल पे पेंशनर’ कहा जाता है। ये रोज ही, दौड़ते-हाँफते, निर्धारित समय की अन्तिम सीमा वाले क्षणों में दफ्तर पहुँचते हैं। जल्दी से जल्दी अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं और बिना किसी की ओर देखे, बिना किसी की चिन्ता किए, फौरन ही दफ्तर छोड़ देते हैं। किसी को अपनी बच्ची को स्कूल छोड़ना होता है तो किसी को अपनी साली को रिसीव करने के लिए स्टेशन जाना होता है। सुबह-सुबह सब्जियाँ ताजी मिलती हैं इसलिए ऐसे कर्मचारी, हाजरी दर्ज करने के फौरन बाद सब्जी मण्डी चले जाते हैं। यदि ऐसा कुछ न हो तो ये कर्मचारी, फौरन ही दफ्तर के सामनेवाली, चाय की गुमटी पर पहुँच जाते हैं और तीन मिनिटों में पी जा सकनेवाली चाय को बीस मिनिटों में खत्म कर पाते हैं। इन्हें अपनी कुर्सी पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं होती। जैसे-तैसे कुर्सी पर पहुँचते हैं तो पहले ही क्षण परेशान हो जाते हैं कि कहाँ से काम शुरु किया जाए। अनिर्णय की स्थिति से मुक्ति पाने में इन्हें देर नहीं लगती और ये काम शुरु ही नहीं करते। अपनी कुर्सी इन्हें काटती है। सो, ये (अपने जैसे ही) दूसरे कर्मचारी के पास चले जाते हैं। इन्हें अपने दफ्तर की इज्जत की बड़ी चिन्ता रहती है इसलिए अपना काम छोड़कर दूसरों को नसीहत देते रहते हैं।

इनके लिए समय की कोई पाबन्दी नहीं होती। जब चाहे, चले जाते हैं और तभी आते हैं जब या तो मजबूरी में आना पड़ता है या फिर इसलिए कि कल फिर आ सकें। इन दिनों, कम्प्यूटर पर हाजरी दर्ज कराने की व्यवस्था हो गई है। तीसरी श्रेणी के ये कर्मचारी, एक दूसरे की भरपूर चिन्ता और सहायता करते हैं और ‘अपने जैसे’ किसी का सन्देश मिलते ही, उसकी हाजरी भी कम्प्यूटर पर दर्ज कर देते हैं।

ईश्वर की असीम कृपा है कि संख्या, प्रतिशत और अनुपात के मामले में ऐसे लोग ‘अल्पतम समुदाय’ में होते हैं किन्तु चर्चा इन्हीं की (याने, इनके निकम्मेन की) होती है और इतनी और इस कदर होती है मानो सारे के सारे कर्मचारी ऐसे ही हैं। ये ईश्वर से लेकर, सड़क पर आ-जा रहे, अनजान लोगों तक से नाराज रहते हैं। इन्हें लगता है कि सारी दुनिया ने इनके विरुद्ध षड़यन्त्र रच लिया है जिसके चलते इन्हें न तो पदोन्नति मिल रही है न ही इनकी पूछ-परख हो रही है। अच्छी बात यह भी है कि मेनेजमेण्ट इनकी रग-रग से वाकिफ होता है। यह अलग बात है कि मेनेजमेण्ट चाहकर भी इनके विरुद्ध खुलकर कुछ नहीं कर पाता (कर्मचारी यूनियनें अपने कामचोर सदस्यों को बचाने में भी पूरी-पूरी ईमानदारी जो बरतती हैं!) किन्तु वार्षिक गोपनीय चरित्रावली लिखते समय इनका पूरा-पूरा ध्यान रखता है। इसी कारण, ये तो जहाँ के तहाँ बने रह जाते हैं जबकि इनके साथ नौकरी में आनेवाले लोग, उपरोल्लेखित प्रथम श्रेणी के कर्मचारी बनकर, दो-दो, तीन-तीन पदोन्नतियाँ लेकर, कभी-कभी इनके नियन्त्रक की स्थिति में आ चुके होते हैं।

ऐसे लोगों के भरोसे दफ्तर का कोई काम नहीं छोड़ा जाता। हम एजेण्टों ने तेजी से अनुभव किया इन्हें प्रायः वही काम दिया जाता है जिसके न करने में इनका भी नुकसान होने की आशंका हो।

अच्छी बात यह भी कि ऐसे कर्मचारी, लोगों की नजरों में अपनी छवि के बारे में भली प्रकार जानते हैं
इसलिए, किसी के कुछ कहने की परवाह बिलकुल ही नहीं करते। (परवाह करने लगें तो खुद को बदल न लें?) उलटे कुछ इस तरह हरकत करते हैं मानो अपने कपड़ों पर से धूल झटक कर कह रहे हों - ‘शरम तो आनी-जानी है, बन्दा ढीढ होना चाहिए।’

कोई सवा घण्टे की अपनी इस मशक्कत के निष्कर्षों पर हम सबने जब पुनर्विचार किया तो पाया कि हम सबके सब एक मत थे - अपने इन निष्कर्षों को न बदलने के लिए।

काम करने की शर्त

काम करने/निपटाने के लिए क्या (या, क्या-क्या) जरूरी होता है?

क्या फिजूल का, मूर्खतापूर्ण सवाल है? जैसे चाय बनाने के लिए दूध, पानी, शकर, चाय पत्ती, शौक हो तो मसाला जरूरी होता है वैसे ही, कम से कम ये तीन बातें तो आवश्यक होंगी ही - काम, आवश्यक साधन/संसाधन और समुचित वातावरण।

बड़े बेटे वल्कल की, नौकरी की कठोरता और विवशताएँ अब हमें भली प्रकार समझ में आ गई हैं। सोचा, इस बार होली पर हम ही बेटे-बहू के पास चले जाएँ। माँ-बेटे में बात हुई तो बेटे ने कहा - ‘नहीं। हम ही आ रहे हैं। मुहल्ले और व्यवहार का मामला है। हम नहीं आएँगे तो सब लोग आपसे पूछताछ करेंगे। हमारा भी सबसे मिलना हो जाएगा।’ सुनकर अच्छा तो लगा किन्तु चिन्ता भी हुई - वह थक जाएगा। उसे अतिरिक्त व्यवस्था और भाग-दौड़ करनी पड़ेगी हमारे पास आने के लिए। किन्तु वह निर्णय ले चुका था।

बेटा-बहू आए। हमें अच्छा तो लगना ही था। किन्तु अच्छा लगने से पहले आश्चर्य हुआ। अनुमान था कि वह सात मार्च की रात को आएगा - दिन में नौकरी करके। लेकिन वह तो सात की सुबह, कोई सवा दस बजे ही आ गया! सोचा, छुट्टी लेकर आया होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। आते ही अपना लेप टॉप खोलकर शुरु हो गया। बोला कि वह छुट्टी लेकर नहीं, मुख्यालय छोड़ने की अनुमति लेकर आया है। यहीं हमारे साथ रहेगा और नौकरी भी करेगा।

घर पर रहकर किसी को नौकरी करते देखने का, इस प्रकार का मेरा यह पहला अनुभव था। अपने लेप टॉप पर वह ‘ऑन लाइन’ था। सन्देश आते ही उसे संकेत मिलता, वह व्यस्त हो जाता और काम निपटते ही हमसे बातें करने लगता। बीच-बीच में कभी अपनी मैनेजर से तो कभी अपने किसी सहयोगी से मोबाइल पर भी बात करता रहा। काम करना, हमसे बातें करना, भोजन-चाय-पानी करना, रात आठ बजे तक ऐसा ही चलता रहा।

अगले दिन धुलेण्डी थी। छुट्टी का दिन। सुबह ग्यारह बजते-बजते, हमारी कॉलोनी का, सामूहिक होली मिलन निपट गया और उसके कोई आधा घण्टे बाद ही हम घरवाले भी सब फुरसत में हो गए। मैं ‘पारिवारिक गप्प गोष्ठी’ के सुख का अनुमान कर ही रहा था कि यह क्या? वल्कल ने तो अपना लेपटॉप खोल लिया! हमने कहा - ‘आज तो छुट्टी है!’ उसने कहा कि हाँ छुट्टी तो है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? वह घर पर ही है और फुरसत में है। उसकी मैनेजर नई-नई है और मुमकिन है उसे (नई मैनेजर को) किसी सहायता की आवश्यकता पड़ जाए। सो, उसने सन्देश कर दिया कि यदि कम्पनी को उसकी (वल्कल की) आवश्यकता हो तो वह ऑन लाइन उपलब्ध है। हमारे सवालों के जवाब में वल्कल ने सहजता से बताया कि आज काम करने के लिए उसे न तो कोई अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाएगा और न ही यह बात अलग से उल्लेखित की जाएगी। सब कुछ ‘आपसी समझ’ की बात है।

उस पूरे दिन भी वल्कल ऑन-लाइन ही रहा। दिन भर में उसे चार-पाँच सन्देश मिले जिन्हें उसने सहज भाव से निपटाया। उसका इस तरह काम करना हमारे लिए अजूबा तो था किन्तु हमारी गप्प गोष्ठी में रंचमात्र भी व्यवधान नहीं आया और न ही हमारी गप्प गोष्ठी उसके काम काज में कहीं बाधक बनी। सब कुछ, सामान्य दैनन्दिन व्यवहार की तरह चलता रहा। वल्कल ने बताया कि इस तरह काम करना, निजी कम्पनियों में आजकल चलन बनता जा रहा है। कर्मचारी दफ्तर में आए या पूर्व सूचना देकर/अनुमति लेकर घर रहे, कम्पनी को काम चाहिए।

अगले दिन बेटा-बहू लौट गए। जैसा कि मैंने कहा ही है, उनका आना हमें अतीव सुखकर लगा किन्तु वह मुझे नया अनुभव दे गया है। अपना काम करने के लिए वल्कल ने अपना लेप टॉप कभी गोद में रखा, कभी स्टूल पर, कभी बिस्तर पर तो कभी सोफे पर। उसे व्यवस्थित टेबल-कुर्सी की या आधुनिक फर्नीचरवाले ‘क्यूबिकल’ की या समुचित हवा-प्रकाश की व्यवस्था की आवश्यकता क्षण भर भी अनुभव नहीं हुई।

दूसरी ओर हमारे सरकारी दफ्तर हैं। मुझे प्रति दिन, कम से कम दो-तीन सरकारी कार्यालयों में जाना होता है। मैं देखता हूँ कि लोग अपने कागज हाथों में लिए खड़े रहते हैं और दफ्तरों में सन्नाटा पसरा रहता है। बाबू लोग या तो चाय की गुमटी पर मिलते हैं या फिर अपना निजी/घरु काम निपटाने के लिए कहीं गए होते हैं। संयोग से यदि दफ्तर में मौजूद मिलते हैं तो काम टालने की मानसिकता से। सरकार ने कार्यालय खोल रखे हैं, कुर्सियाँ-टेबलें लगा रखी हैं, बिजली-पंखों-पानी की व्यवस्था कर रखी है किन्तु लोगों के काम नहीं होते। कागजों में कर्मचारियों की हाजरी लगी रहती है और कर्मचारी गैरहाजिर। दूसरी ओर, निजी कम्पनियाँ हैं कि अपने काम से काम रखती हुईं, अपनी पाई-पाई वसूल करती हैं।

मुझे ज्ञान प्राप्ति हुई। दूध, पानी, शकर, चाय पत्ती (और चाय मसाला भी) हो तो इसका मतलब यह नहीं कि चाय मिल ही जाएगी। चाय बनाने की ललक पहली शर्त है। ललक हो तो आदमी सारे सरंजाम जुटा ले और ललक न हो सारे सरंजाम धरे के धरे रह जाते हैं।

निजी कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों में चाय बनाने की ललक पैदा करने में सफल हो रही हैं और सरकारी दफ्तरों का सरंजाम विकर्षक बन कर, राष्ट्रीय समस्या में तब्दील है।

महिला संगीत

वे अपने बेटे के विवाह का न्यौता दे कर अभी-अभी गए हैं। पूरे पाँच दिनों का आयोजन है। आमन्त्रित तो सब में कर गए हैं किन्तु ‘ध्यान रखिएगा! महिला संगीत और रिसेप्शन में तो आपको आना ही आना है’ का आग्रह विशेष रूप से कर गए हैं।

यह जानते हुए भी कि मेरे छोटे बेटे का विवाह अभी बाकी है - मैं लोगों के यहाँ नहीं जाऊँगा तो मेरे यहाँ कौन आएगा? और यह भी कि बीमा एजेण्ट का व्यवहार काफी व्यापक होता है, अब ऐसे आयोजनों से अरुचि होने लगी है। खान-पान से अलग हटकर कुछ आदतें ऐसी होती जा रही हैं कि जी करता है, घर पर ही रहा जाए और यदि जाना ही है तो घर से भोजन करके ही जाया जाए ताकि ‘वहाँ से’ जल्दी से जल्दी घर आया जा सके। एक वक्त था कि ऐसे आयोजनों में लोगों से मिलने-जुलने का या/और सम्पर्कों के नवीकरण का मोह हुआ करता था। किन्तु अब वह भी नहीं रहा। सबके सब वे ही जाने-पहचाने, परिचित, मिलनेवाले। लगता है, एक ठहराव सा आ गया है। भीड़-भड़क्के से, शोर-शराबे से अब चिढ़ आने लगी है। भोजन के दौरान, चिंघाड़ती, कानों के पर्दे फाड़ती, संगीत व्यवस्था सारा रस भंग ही नहीं करती, विकर्षण भी पैदा करती है। चाह कर भी किसी से बात नहीं कर सकते। सर्वाधिक घबराहट होती है - महिला संगीत से।

अपने, बीसियों बार के अनुभवों के आधार पर, विश्वासपूर्वक कह रहा हूँ यह ऐसा भोंडा, अभद्र, अत्यधिक खर्चीला प्रदर्शन बन कर रह गया है जिसे कोई भी पसन्द नहीं करता किन्तु सबके सब इसे किए जा रहे हैं। ‘आवश्यक बुराई’ बन चुका यह आयोजन प्रायः ‘ क्या करें? बच्चे नहीं मानते’ जैसे तर्क के दम पर बना हुआ है। ‘समरथ को नहीं दोष गुसाँई’ की तर्ज पर, क्षमतावान इसे आँखें मूँद कर किए जाते हैं जबकि गरीब का मरण हो जाता है। मैंने ऐसे-ऐसे ‘महिला संगीत’ देखे हैं जिनमें, विवाह आयोजन का आधा बजट खपा दिया गया। गरीब, मध्यमवर्गीय परिवारों के दो-दो ब्याह इस खर्चे में हो जाएँ।

महिला संगीत के औचित्य को जब-जब भी समझने की कोशिश करता हूँ, तब-तब, हर बार विस्मित होता हूँ और गहरी हताशा से भर जाता हूँ। लगने लगता है कि परम्परा के नाम पर हमने अपनी आत्मा को, अपने विवेक को ही मार दिया है।

शादी-ब्याह के प्रसंग पर गली-मुहल्ले की महिलाएँ, किशोरियाँ, बच्चियाँ शाम को एकत्र हो, गणपति उगेर कर बन्ना-बन्नी गाती थीं। कभी ‘बनी खड़ी पेड़ के नीचे, अरज दादाजी से करती है - दादाजी मेरी मत करो शादी, उमर बारा बरस की है’ तो कभी ‘बना सा आपको मण्डप बण्यो भारी’ तो कभी ‘सड़क पर केसर की क्यारी, नवल बना सा की चली सवारी, हवा करो प्यारी’ गाती। लगता था, घर की सुहागिनों के गोटा-किनारी से सजे, ओढ़नों-लुगड़ों से तने, अनगढ़ मण्डप के नीचे, टिमटिमाती रोशनी में अनगिनत कोयलें कूक रही हों। लोकगीतों की मिठास पूरे मुहल्ले को अपने में बहा ले जाती। गली-मुहल्ले का पुरुष समुदाय वहाँ न हो कर भी वहीं होता। अपने-अपने घरों में बैठे, ढालियों में बतियाते पुरुषों के कान, इन गीतों पर ही लगे होते। जानते थे कि बन्ना-बन्नी का सत्र समाप्त होते ही ‘खेल’ शुरु होंगे। सयानी-बूढ़ी महिलाएँ इन खेलों की कमान थामतीं और उनकी बेटियाँ-बहुएँ, लजाती-झेंपती-खिलखिलाती उनके साथ हो लेतीं। किशोरियाँ औचक नजरों से यह सब देखतीं। इन ‘खेलों’ के बहाने, ‘पुरुष आरोपित वर्जनाओं का वाचिक मर्दन’ होता, ऐसे-ऐसे सम्वाद और अभिनय मुद्राएँ साकार होतीं कि अपने पौरुष का दम्भ भरनेवाले, अच्छे-अच्छे तीस मार खाँ, ढालियों में बैठे-बैठे ही झेंप जाते। सारी कुण्ठाएँ लोग-गीतों के जरिए अभिव्यक्त हो, मन निर्मल और तन ताजा दम कर देतीं। सबसे आखिरी में पतासे बँटते। यह काम जिस भी महिला को मिलता, वह ‘पटलन’ जैसी इठलाती-इतराती। अतिरिक्त प्रतिष्ठा और हैसियत मिलती थी इस काम से। लेकिन यह जिम्मेदारी भी अपने आप माथे चढ़ जाती थी कि कोई महिला पतासे से वंचित न रह न जाए। लोक गीतों की यह ‘कचहरी’ बड़ी मुश्किल से उठती थी। इसकी शुरुआत के लिए महिलाएँ जितनी फुर्ती-उतावली से आतीं, जाने में उतनी ही अनमनी होती थीं। उनका बस चलता तो वे रात भर गीत गाती रहती, खेल खेलती रहती।

लोक गीतों के ऐसे, गुड़ की मिठास को मात देनेवाले, कोयलों-पपीहों को प्रशिक्षण देनेवाले, आत्मीय आयोजन को हम किस मुकाम पर ले आए? पहले गाना-बजाना, सब कुछ ‘मानवीय’ होता था। आज यन्त्र ही यन्त्र हैं। पहले, गीतों को सुनने के लिए कानों को सतर्क होना पड़ता था। आज कानों को बचाए रखने के जतन करने पड़ रहे हैं। पतासों की मिठास, डीजे की चिंघाड़ में गुम हो गई है। पहले जहाँ लिहाज, आँखों की शरम और लोक-लाज का परदा था वहीं आज सब कुछ खुल्लम-खुल्ला है। आठवीं कक्षा में पढ़ रही, तेरह बरस की बच्ची को ‘निगोड़ी कैसी जवानी ये, जो बात न मेरी माने’ पर ठुमके लगाते देखना मर्मान्तक पीड़ादायक होता है। अभी-अभी, ग्यारह बरस की एक बच्ची को ‘उला ला, उला ला, छूना ना मुझे अब मैं जवान हो गई’ पर नाचते देखा तो अपने आप पर शर्म आ गई। लेकिन अचरज अभी बाकी था। मेरे पास ही बैठे सज्जन ने गर्वित होते हुए पूछा - ‘अच्छा नाच रही है ना? अपनी डिम्पी है।’ मुझसे जवाब देते नहीं बना। कहाँ लोक नृत्यों का लास्य और कहाँ पेड़ू उचकाते किशोर और नितम्ब मटकाती, वक्ष झटकाती बच्चियाँ?

एक परिचित के परिवार में विवाह प्रसंग आया। सोचा, मेरी बात सुनते हैं तो उनसे कहूँ कि महिला संगीत से बचें। पहुँचा तो पाया कि इसी मुद्दे पर विचार विमर्श चल रहा है। परिचित के एक अन्तरंग मित्र पहले से ही मौजूद थे और कह रहे थे कि महिला संगीत न करें तो अच्छा होगा। मेरी हिम्मत बढ़ी। मित्र के उन अन्तरंग मित्र से पूछा तो मानो ‘अब रोए कि तब’ वाली दशा में बोले - ‘क्या बताएँ सा’ब! परिवार में शादी थी। महिला संगीत के लिए बाहर से एक ट्रेनर बुलाया था। हम लोग तो अपने काम धन्धे में लगे रहते थे। ट्रेनर क्या कर रहा है, यह देखने-जानने की फुरसत नहीं थी। यह तो तकदीर अच्छी थी कि बच गए। वर्ना सा’ब! दो लड़कियाँ तो भाग ही गई थी उस ट्रेनर के साथ। इसीलिए भैया से कह रहा हूँ कि महिला संगीत मत करो।’

इस स्थिति की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मुझे घबराहट हो आई। मेरी बात को, मुझसे बेहतर ढंग से कहनेवाले भुक्त-भोगी, मुझसे पहले ही वहाँ मौजूद थे। मैंने कहा - ‘इनकी बात पर ध्यान दीजिएगा।’ घर-धणी ने जिन नजरों से देखा, उस पर दया आ गई। लगा, किसी तान्त्रिक अनुष्ठान में नर-बलि हेतु लाए व्यक्ति को देख रहा हूँ। मुझसे उनकी दशा नहीं देखी गई। उनकी आँखें कह रही थीं - ‘चाहता तो मैं भी नहीं। किन्तु क्या करूँ? बच्चे नहीं मान रहे।’
मैं चुपचाप चला आया। भगवान से प्रार्थना कर रहा हूँ कि महिला संगीत के नाम पर किसी की बच्ची के भागने का समाचार मुझे कभी न मिले।

एक विवश याचना

ईश्वर मेरी समस्त आशंकाएँ निर्मूल करे और ‘वह’ और उसके भाई-भौजाई, बूढ़े माता-पिता (क्रमशः 68 वर्ष तथा 66 वर्ष) पूर्णतः स्वस्थ-प्रसन्न, सुरक्षित रहें।

आयु के लिहाज से तो वह मेरे लिए ‘पुत्रवत्’ ही है किन्तु व्यवहार में वह ‘मित्रवत्’ है। उसके और मेरे परिजन, हमारी इस ‘मित्रता’ पर आश्चर्य करते हैं। आईआईटी मुम्बई से एम. टेक. उपाधिधारी ‘वह’ अपने मित्रों में, ‘थ्री इडीयट्स’ के ‘रेंचो’ की तरह जाना-पहचाना जाता है - अतिरिक्त प्रतिभाशाली और मेधावी। अपने गृहनगर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर, अहिन्दी प्रदेश के एम महानगर में, एक बहु राष्ट्रीय कम्पनी में, लगभग सवा सौ कर्मचारियों के समूह का नेतृत्व करनेवाला मेरा यह ‘पुत्रवत् मित्र’ जब-जब भी घर आता है, तब-तब अपना अधिकांश समय मेरे साथ ही व्यतीत करता है। हम दोनों देर रात तक गपशप करते हैं। इतनी देर तक कि उसके घर से आठ-दस फोन आ जाते हैं और मेरी उत्तमार्द्ध की नींद आधी हो जाती है।

उसके विवाह को दो बरस पूरे होने वाले हैं किन्तु ‘दाम्पत्य जीवन’ का एक क्षण भी वह अब तक नहीं जी पाया है। उसकी नवोढ़ा ब्याहता यूँ तो स्नातकोत्तर उपाधिधारिणी है किन्तु व्यवहार से वह या तो निरक्षर अनुभव होती है या फिर मनोरोगी। ‘वह’ चाहता है कि उसके बूढ़े माँ-बाप अपने पोते-पोतियों को अपनी गोद में खेलाएँ-दुलराएँ, उनसे तोतली बोली में बतियाएँ, घुटनों चलते अपने वंशजों को पकड़ने के लिए उनके पीछे भगते-दौड़ते थक जाएँ। किन्तु इस ‘चाहत’ के वास्तविकता में बदलना की ‘सम्भावना’ तो दूर रही, इसकी ‘आशंका’ भी दिखाई नहीं दे रही। इसके विपरीत, उसका जीवन नर्क हो गया है और स्थिति यह हो गई है कि उसे अपनी नौकरी से बचे समय में, उन संस्थाओं के कार्यालयों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं जो दहेज अधिनियम में झूठे फँसाए लोगों को बचाने में मदद करती हैं। दिन में नौकरी और बचे वक्त में खुद को तथा अपने बूढ़े माता-पिता को जेल जाने से बचाने की पेशबन्दियाँ करना - यही उसके जीवन का लक्ष्य बन कर रह गया है। वह चौबीसों घण्टे, अपनी कल्पना में, अपने बूढ़े माता-पिता को जेल जाते देखने की आशंका से उपजे तनाव को जी रहा है। एक ओर अपनी, ऊँचे वेतनवाली नौकरी को और नौकरी में अपनी स्थिति और प्रतिष्ठा को बनाए रखने का तनाव और दूसरी ओर यह मानसिक संत्रास! इन्हीं बातों से मैं अत्यधिक आशंकित और भयभीत बना हुआ हूँ - मेरा यह प्रतिभावान और मेधावी नौजवान मित्र कहीं, कुछ कर न बैठे! हताशा का रोगी न बन जाए!

उसकी पत्नी और सास-सुसर का व्यवहार अविश्वसनीय रूप से अमानवीयता की सीमा तक क्रूर है। कोई माँ-बाप अपनी बेटी का घर बसने में भला इस तरह कैसे और क्यों बाधक बन सकते हैं? यदि यही सब करना था तो बेटी का ब्याह ही क्यों किया? न तो उनकी बेटी अपने पति के साथ रहना चाहती है न ही वे उसे भेजना चाहते हैं। विवाह के बाद आई पहली दीपावली पर वह, लाख अनुराधों के बाद भी अपनी सुसराल नहीं आई। मेरे इस नौजवान मित्र के माता-पिता को अपने पड़ौसियों को जवाब देते-देते थकान आ गई। वह चाहती है कि उसका पति (याने कि मेरा यह नौजवान मित्र) नौकरी भले ही ‘दूर-देस’ में करे किन्तु रहे उसके (पत्नी के) पास, अपने ससुराल में ही। यदि यह सम्भव न हो तो फिर वह अपनी नौकरी करे किन्तु उसे (अपनी पत्नी को) अपने माँ-बाप के पास ही रहने दे। स्थिति यह है कि प्रथमतः तो वह अपने पति के पास जाती नहीं और जब भी जाती है (या गई है) तब, अगले ही पल मायके लौटने की बात करने लगती है। वह घर से दफ्तर पहुँचता ही है कि पत्नी का फोन आ जाता है -‘ मेरी तबीयत खराब है।’ वह भाग कर उल्टे पाँवों लौटता है तो पत्नी को सकुशल पाता है। वह डॉक्टर को दिखाने की बात करता है तो मना कर देती है। ऐसी स्थितियों में वह जब-जब भी जबरन अपनी पत्नी को डॉक्टर के पास ले गया, तब-तब हर बार डॉक्टर ने, जाँच के बाद कहा कि उसे (पत्नी को) कुछ नहीं हुआ है। दो-एक बार तो डॉक्टर ने झुँझला कर उसकी पत्नी को डाँट दिया और कहा कि वह (पत्नी), शारीरिक नहीं, मानसिक रोगी है और उसे किसी मनःचिकित्सक को दिखाया जाना चाहिए।

उसकी पत्नी ने शायद तय कर लिया है कि न तो खुद चैन से जीएगी और न ही मेरे इस मित्र को चैन से जीने देगी। वह दफ्तर पहुँचता ही है कि पत्नी का फोन आता है। पूछती है - ‘मेरा वापसी का टिकिट करा दिया या नहीं?’ वह चौंकता है। अभी कल ही तो मायके से आई है! घर से निकला था तो ऐसी तो कोई बात ही नहीं हुई थी! फिर यह, टिकिट कराने की बात कहाँ से आ गई? टिकिट भी उसे हवाई यात्रा का ही चाहिए! कभी कहती है कि जिस मल्टी में फ्लेट लिया है वहाँ से वह ‘साइट सीईंग’ नहीं कर पाती। पत्नी की इस माँग के चलते वह एक बार फ्लेट बदल भी चुका है। लेकिन ऐसा कितनी बार करे?

वह देर रात, थका-हारा घर लौटता है। ‘रूखा-सूखा’ खाकर वह बिस्तर पर जाता है। रात तीन बजे उसकी पत्नी उसे उठाती है। कहती है - ‘मुझे घूमने जाना है।’ और तत्क्षण ही चल पड़ती है। वह जिस भी दशा में होता है, उसके पीछे-पीछे भागता है। अनजान शहर, देर रात के सन्नाटे में डूबी वीरान सड़कें। पत्नी मुँह उठाए कहीं तो भी चली जा रही है, किसी भी गली में घुस रही है, उससे बात करना तो दूर, देख भी नहीं रही कि वह उसके पीछे-पीछे, चिन्ता में डूबा, पागलों की तरह चल रहा है। वह जैसे-तैसे उसे घर लिवाता है। सोने की कोशिश करता है। रात में सोए कभी भी, नौकरी पर तो समय पर ही पहुँचना पड़ता है। वह नौकरी पर गया नहीं कि पत्नी का फोन आता है - ‘सात दिन में मेरे लिए नौकरी की व्यवस्था कर देना वर्ना ठीक नहीं होगा।’

अपने पति को परेशान करना, उसकी सार्वजनिक फजीहत करना, उसे संत्रस्त बनाए रखना ही मानो उसकी पत्नी ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है। अपने इस ‘मनोरथ’ को पूरा करने के लिए वह सारी मर्यादाओं, सारी सीमाओं को पार कर देती है। क्या कोई नवोढ़ा पत्नी, अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए लगभग निर्वस्त्र स्थिति में फ्लेट से बाहर आना तो दूर, बाहर आने की सोच सकती है? नहीं। किन्तु ऐसा वह एकाधिक बार कर चुकी है। उसे इस बात से अति सुख मिलता है कि पास-पड़ौसी, उसके पति को अजीब नजरों से देख रहे हैं और उसका पति नीची नजरें किए संकोचग्रस्त, शर्म से पानी-पानी हो रहा है।

लग रहा होगा कि मैं कुछ ज्यादा ही कह रहा हूँ। किन्तु सच मानिए, यह सब लिखने से पहले मुझे करोड़ों बार सोचना पड़ा है, खुद से सैंकड़ों सवाल करने पड़े हैं। दाम्पत्य सुख की चाहत में, अपनी गृहस्थी को बनाने के लिए और बचाए रखने के लिए मेरे इस मित्र ने अपने ससुर के सामने बार-बार गुहार लगाई। कहा - ‘आकर अपनी बेटी को समझाएँ।’ ससुर ने कहा - ‘ठीक है। आता हूँ।’ आने की तारीख दी। मेरे इस मित्र ने उनके लिए, राजधानी एक्सप्रेस में, सेकण्ड ए सी में उनके आने-जाने का आरक्षण करवाया। उन्होंने तारीख बदल दी तो आरक्षण निरस्त करवा कर दूसरी बार फिर आरक्षण करवाया। किन्तु उसके ससुर आज तक नहीं आए।

इन दिनों मेरा यह नौजवान मित्र चौबीसों घण्टे दहशत में जी रहा है। उसकी पत्नी ने धमकी दी है कि वह उसके छोटे भाई (याने, मेरे इस मित्र के साले) की शादी की प्रतीक्षा कर रही है। जैसे ही यह शादी हुई वैसे ही वह मेरे मित्र की और उसके परिजनों की जिन्दगी खराब कर देगी। ऐसा कुछ करेगी कि मेरा मित्र और उसके परिजन जिन्दगी भर याद रखेंगे। मेरा मित्र खुद को बचाए रखने और सामान्य बनाए रखने के लिए अपने आप से जूझ रहा है। उसे अपने बूढ़े माता-पिता की, नौकरी कर रहे अपने बड़े भाई की चिन्ता खाए जा रही है। वह अपराध बोध से ग्रस्त हो रहा है - उसके कारण उसके परिजन संकट में आ जाएँगे। वह क्या करे? नौकरी करे या अपने और अपने परिजनों के कानूनी बचाव की पेशबन्दियाँ?

मुझे नहीं पता कि अगले पल मुझे क्या खबर मिलेगी। देश के एक होनहार, प्रतिभाशाली और मेधावी नौजवान को इस तरह संकटग्रस्त होते देखते रहना मेरे लिए कठिन होता जा रहा है। मैं खुद को अभाग अनुभव कर रहा हूँ - उसकी कोई सहायता नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे लग रहा है - मैं अपने पुत्र को कानूनी दाँव-पेंचों में फँसता देख रहा हूँ और कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ।

ऐसे में मैं ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा हूँ कि मेरी सारी आशंकाएँ निर्मूल करे। यदि मैंने अपने जीवन में कभी, कुछ अच्छा किया हो तो उसका पुण्य मेरे इस नौजवान मित्र को मिले और वह अपने परिजनों सहित पूर्णतः स्वस्थ-प्रसन्न, सकुशल रहे।

हे! ईश्वर, मेरी याचना सुनना और अपने बच्चों पर अपनी कृपा-वर्षा करना।

अबके बरस भेज भैया को बाबुल

आज ही, दोपहर लगभग बारह बजे, 'दशमलव' पर (मुझे क्षमा करें, मुझे पर्मालिंक देना
नहीं आता) ललित कुमारजी की इसी शीर्षकवाली पोस्ट पर की गई अपनी टिप्पणी के निर्वहन में यह पोस्ट लिख रहा हूँ। फिल्म बन्दिनी के, नारी मन की करुणा को व्यक्तिवाचक संज्ञा में बदलनेवाले इस कालजयी गीत की शास्त्रीयता और अन्तःरचना पर ललित कुमारजी ने सब कुछ कह ही दिया है। यह संयोग ही है कि इस गीत के बारे में खुद सचिन दा’ के मुँह से सुनी वे कुछ बातें मेरी यादों की कोठरी में मिल गईं जो कहीं न कहीं इस गीत की रचना के मूल में हैं।

सचिन दा’ के दर्शन मैंने पचमढ़ी में किए थे। 10 अगस्त 2007 को मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित एस.डी.बर्मन : क्रिकेट और 'ड्रा' पोस्ट पर सारे ब्यौरे विस्तार से पढ़े जा सकते हैं।

सचिन दा’ ने शैलेन्द्रजी सहित अनेक फिल्मी गीतकारों के बारे में विस्तार से बातें की थीं।

शैलेन्द्रजी के बारे में बातें करते हुए वे बार-बार कठिनाई अनुभव करते नजर आ रहे थे। लग रहा था कि मुक्त कण्ठ से शैलेन्द्रजी की प्रशंसा करने के बाद भी उन्हें अपनी बात अपर्याप्त लग रही हो। मानो, शैलेन्द्रजी के साथ समुचित न्याय नहीं कर पाने से परेशान हों। वे ‘अभिभूत भाव’ से शैलेन्द्रजी के बारे में बता रहे थे।

शैलेन्द्रजी के बारे में कही गई उनकी कुछ बातें जो मुझे इस समय याद आ रही हैं उनमें शैलेन्द्रजी की रचनाओं की सहज और सादी शब्दावली, अपने साथ करनेवालों तथा अन्य गीतकारों के प्रति आदर भाव, उनके (शैलेन्द्रजी) आचरण में कलम के प्रति ईमानदारी और जिस बात के वे (सचिन दा’) सबसे ज्यादा कायल थे - लोक जीवन को उसकी सम्पूर्णता में आत्मसात कर उसे, अनुपम भाव प्रवणता से, उतनी ही सम्पूर्णता से अपने गीतों में प्रस्तुत कर देना।

सचिन दा’ के मुताबिक, लोक जीवन के बारे में बातें करना और सुनना शैलेन्द्रजी का प्रिय शगल था। ऐसे ही क्षणों में, बातें करते हुए सचिन दा’ ने बंगाल के गाँवों के बारे में शैलेन्द्रजी को बताया था। बंगाल के गाँवों में अधिकांश घरों के सामने छोटे-छोटे तालाब (पोखर) होते हैं जहाँ गृहिणियाँ सुबह-शाम अपने घरों के बर्तन धोते-माँजते, लोक गीत गुनगुनाती रहती हैं। गाँव का यही दृष्य वर्णन करते समय सचिन दा’ ने बताया था कि नई-नई ब्याही लड़कियाँ, बर्तन धोते-माँजते समय गीत गाते हुए, अपने पिता को सन्देश देती हैं - विवाह के बाद वाले पहले सावन में, रक्षा बन्धन के त्यौहार पर मुझे बुलवा लेना और लिवाने के लिए भैया को भेज देना।

शैलेन्द्रजी की बात करते हुए सचिन दा’ ने भावाकुल होकर बताया था कि यह वर्णन सुनकर शैलेन्द्रजी रोने लगे थे और कुछ देर बात, तनिक संयत होकर कहा था - ‘दादा! यह सिचुएशन मेरी हुई। आप किसी और को यह मत देना। इसे मैं ही लिखूँगा।’

कहने के बाद सचिन दा‘ थोड़ी देर रुके थे और गहरी साँस लेकर कुछ ऐसा कहा था - ‘उसके बरसों बाद बन्दिनी फ्लोर पर आई और शैलेन्द्र को गीत लिखने का जिम्मा मिला। जब उन्होंने यह गीत मेरे सामने रखा तो पढ़कर मुझे रोना आ गया। शैलेन्द्र ने ही याद दिलाया कि यह सिचुएशन मैंने ही उन्हें बताई थी।’ मुझे खूब अच्छी तरह याद है, सचिन दा‘ ने कहा था - ‘मेरा नरेशन सुनकर शैलेन्द्र को रोना आया था और शैलेन्द्र का लिरिक पढ़कर मुझे रोना आया था।’

उसके बाद, इस गीत को लेकर जो कुछ हुआ, वह सब तो ललित कुमारजी सन्दर्भ सहित पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं।

मेरे लिए तो कहने को कुछ बचा ही नहीं।

(चित्र में खडे हुए, बॉंये से - मैं और दादा। कुर्सियों पर बैठे हुए, बॉंये से - श्रीमती बर्मन, सचिन दा' और मेरी भाभीजी। फर्श पर बैठे हुए, बॉंये से - मेरा छोटा भतीजा गोर्की औरबडा भतीजा मुन्‍ना।)

उत्तराखण्ड: मध्यावधि चुनाव की अपरिहार्यता

विवेक पर जब लालच हावी हो जाए तब आदमी आत्मघाती मूर्खता करने लगता है। उत्तराखण्ड में काँग्रेस यही करती नजर आ रही है। सत्ता का लालच, दीवार पर लिखी इबारत पढ़ने से इंकार कर रहा है। तयशुदा दुर्दशा की अनदेखी की जा रही है। साफ नजर आ रहा है कि काँग्रेस वहाँ सौ प्याज भी खाएगी और सौ हण्टर भी। ताज्जुब यह कि सारे के सारे काँग्रेसी चुप हैं। शायद बाद में बोलने के लिए कि तब ऐसा नहीं किया जाना चाहिए था। लकीर पीटने की सुविधा हासिल करने के लिए साँप को जाने दिया जा रहा है?
उत्तराखण्ड के मतदाताओं ने किसी के पक्ष में दो टूक निर्णय नहीं दिया है। सबको कुर्सी से दूर रखा है। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि सारे के सारे दल नैतिक साहस बरतते और एक बार फिर लोगों के बीच जाकर स्पष्ट जनादेश माँगते। लोकतन्त्र की सेहत के लिए एक और चुनाव का भार इतना बड़ा खर्च नहीं है कि प्रदेश में राजनीतिक प्रहसन की छूट दे दी जाए। मतपेटियों के जरिए कही अपनी बात को उत्तराखण्ड के लोगों ने सड़कों पर आकर भी कहने का बुद्धिमत्तापूर्ण साहस बरतना चाहिए। यह चुप्पी अन्ततः उत्तराखण्ड के लोगों को ही भारी पड़ेगी।
साफ नजर आ रहा है कि निर्दलियों की बैसाखियों पर बन रही, काँग्रेस की सरकार पाँच साल नहीं चलेगी। चलेगी तो कभी नहीं। जब तक बनी रहेगी तब तक घिसटती ही रहेगी। समय से पहले इसका गिरना पक्का है - बिलकुल वैसे ही जैसे काँग्रेस ने चन्द्रशेखर और देवगौड़ा की सरकारें गिराई थीं। चार लोग, बत्तीस लोगों को तिगनी का नाच नचा देंगे। और क्या ग्यारण्टी कि इन बत्तीस लोगों में भी ‘चार लोग’ शरीक नहीं हैं? काँग्रेस की तो पहचान ही यही है कि उसे हारने/परेशान होने के लिए विरोधियों की आवश्यकता कभी नहीं रहती!
भाजपा की चुप्पी भी ‘भलमनसाहत’ नहीं, मजबूरी है। बसपा का साथ ले पाना अब उसके लिए आकाश कुसुम से भी अधिक कठिन है। किन्तु भाजपाई खुश हो सकते हैं कि मजबूरी से उपजी उनकी यह चुप्पी उनके पक्ष में जा रही है। वर्ना, कर्नाटक में उसने साबित कर ही दिया है कि सत्ता के लालच के मामले में वह काँग्रेस के निकृष्ट संस्करण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
राजनीति का ककहरा न जाननेवाला, सड़कछाप आदमी भी जान रहा है कि उत्तराखण्ड में मध्यावधि चुनाव होंगे ही होंगे। तब, लोकतन्त्र के नाम कुछ सफेद हाथियों के दाना-पानी का खर्च क्यों लोगों की जेब पर डाला जाए? इसके मुकाबले तो मध्यावधि चुनाव का खर्च हर मायने में कम ही होगा। फौरन ही मध्यावधि चुनाव क्यों नहीं करा लिए जाएँ? फौरन ही चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी जाए। चुनाव प्रचारी की गर्मी अभी भी सतह पर बनी ही हुई है। लोहा गरम ही है। हाँ, चुनाव सुधारों की सांकेतिक शुरुआत भी यहाँ से की जा सकती है कि जो लोग इन चुनावों में हार गए हैं, उन्हें उम्मीदवारी से वंचित किया जाए क्योंकि उन्हें तो लोग खारिज कर ही चुके हैं।
उत्तराखण्ड को सुस्पष्ट बहुमतवाली सरकार मिलनी ही चाहिए और इसके लिए बैसाखियों के सहारे घिसटती किसी सरकार को मौका देना न तो राजनीतिक विवेक है न ही लोकतन्त्रीय विवेक।

मेरे बेटे

मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं भी एक औसत पिता की तरह ही अपने दोनों बेटों (वल्कल और तथागत) में कमियाँ देखता रहता हूँ और उन पर चिढ़ता-कुढ़ता रहता हूँ। कह सकते हैं कि अरस्तु से चली आ रही सनातन परम्परा का पालन सम्पूर्ण निष्ठा से करता चला आ रहा हूँ। किन्तु इस समय (यह शायद ‘ब्राह्म मुहूर्त’ ही होगा - सूर्योदय से पहले, लगभग पौने पाँच बजे) सच ही कह रहा हूँ - यह ‘कमी देखना‘ और इस पर चिढ़ना/कुढ़ना, उनकी बेहतरी सोच-सोच कर ही होता है कि काश! यह फलाँ-फलाँ कमी इनमें नहीं होती तो कितना अच्छा होता!

अपनी ‘कमियों’ से मुझे ‘चिढ़ाने/कुढ़ानेवाले’ मेरे इन्हीं दोनों बेटों ने, सोलह फरवरी की रात मुझे भावाकुल कर प्रेमाश्रुओं से ‘निहाल’ कर दिया।

जैसा कि मैंने अपवादों में आपवादिक सुखद संयोग शीर्षक अपनी पोस्ट में बताया था, सत्रह फरवरी को मेरे विवाह की छत्तीसवीं वर्ष गाँठ थी और उसी दिन मेरे बड़े साले, चि. देवेन्द्र की इकलौती बेटी प्रिय चि. नवनी का विवाह भी था, सोलह फरवरी की रात को, नवनी के विवाह प्रसंग पर आयोजित ‘महिला संगीत’ में मेरे इन्हीं, ‘कमियोंवाले’ दोनों बेटों ने हम दोनों पति-पत्नी को ‘सुखद आश्चर्य’ से हर्षास्तब्ध कर दिया।

निर्धारित कार्यक्रमानुसार, कुटुम्ब के बच्चे/बच्चियाँ, महिलाएँ अपनी-अपनी प्रस्तुतियाँ दे रहे थे। हम सब उनका आनन्द ले रहे थे। वल्कल और तथागत ही कार्यक्रम का संचालन कर हे थे। अचानक ही दोनों ने कहा - ‘अब नवनी के विवाह से थोड़ा अलग हटकर, हमारे पापा-मम्मी के विवाह की बात करने दें। कल उनके विवाह की छत्तीसवीं वर्ष गाँठ है।’ जब यह घोषणा हुई, उस समय मैंने भोजन के लिए अपनी प्लेट लगाई ही थी और पहला ही कौर लिया था। मैंने उत्सुकता से मंच की ओर देखा। वहाँ अँधेरा कर दिया था और मंच पर तने, सफेद पर्दे पर, प्रोजेक्टर से आकृतियाँ उभरनी शुरु हो गईं।

इस क्षण भी नहीं जानता कि यह ‘फिल्म’ थी या ‘स्लाइड-शो’, किन्तु मैंने अचानक ही देखा कि मेरे विवाह के अल्बम के श्वेत-श्याम चित्र एक के बाद एक पर्दे पर आने लगे। वल्कल का पार्श्व-स्वर चित्र-परिचय दे रहा था और फिल्म ‘ममता’ का, हेमन्त कुमार और लताजी का गाया गीत ‘छुपा लो यूँ दिल में, प्यार मेरा’ वातावरण को अपनी गन्ध में लपेट रहा था। मैं अपने अतीत को पर्दे पर देख रहा था। मेरा कौर, हाथ का हाथ में रह गया।

शायद एक क्षण भी नहीं लगा, मेरी आँखें धुँधलाने लगीं। मेरी माँ, मेरे पिताजी, मेरी भाभी, मेरी जीजी, मेरे मामा का बड़ा बेटा ईश्वर दादा, मेरे ममिया सुसर पपी मामाजी, मनासावाले बापू दादा (जैन), मदन दादा (सोडानी), मालवी के अनुपम लाड़ले बेटे हीरु भाई (हरीशजी निगम, उज्जैन), गिरिवरसिंहजी भँवर, मेरा सहपाठी नन्दा (प्रह्लाद पाराशर), रामपुरा में छात्रावास का मेरा सह-आवासी राधेश्याम धनोतिया जैसे अनेक स्वर्गवासी परिजन/प्रियजन पर्दे पर नजर आने लगे।

मुझे पता ही नहीं चला कि कब वल्कल मेरे पास आया, मेरे हाथों से प्लेट लेकर एक तरफ रखी, मेरी बाँह थाम, मुझे ले जाकर अपनी माँ की बगल में मुझे बैठा दिया। मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा था। लग रहा था, बरसात से धुँधलाई कोई फिल्म देखने की कोशिश कर रहा हूँ। महिलाएँ और बच्चे कुछ कह जरूर रहे थे किन्तु क्या कह रहे थे, समझ नहीं पा रहा था।

इस क्षण भी याद नहीं कि यह स्थिति कितनी देर रही। किन्तु जब तालियाँ बजीं तो मालूम हुआ कि फिल्म/स्लाइड शो समाप्त हो चुका है। मेरा रोना जारी था। तालियों ने मुझे अतीत से वर्तमान में लौटाया। मेरा जी भरा हुआ था और जी कर रहा था कि धाड़ें मार-मार कर रोऊँ और देर तक रोता रहूँ। उपस्थितों में महिलाएँ ही महिलाएँ थीं। पुरुष तो नाम मात्र के थे। व्यवस्थाओं के लिए। उस रात, इतनी ढेर सारी महिलाओं के बीच (वे भी मेरे ससुराल पक्ष की!) अपने रोने पर मुझे रंचमात्र भी झेंप नहीं आई। बाद में मेरी उत्तमार्द्ध ने बताया कि तथागत औचक नजरों से मुझे देख रहा था और वल्कल ने ही मुझे सम्हाला।

सत्रह की रात नवनी की बिदाई हुई। अठारह की सुबह हम सब ‘लुटे हुए काफिले के मुसाफिर’ बने बैठे थे - सबके मन भरे हुए थे। आयोजन समेटने का सारा काम बाकी था। सबके सब चुप। मैंने ही सन्नाटा तोड़ा और सोलह की रात वाले फिल्म/स्लाइड शो के बारे में पूछा। वल्कल और तथागत ने बताया कि दोनों ने इसकी कल्पना की थी। मालूम हुआ कि कुछ दिन पहले दोनों बेटे और बहू अ. सौ. प्रिय प्रशा की रतलाम यात्रा अचानक ही नहीं हुई थी। मेरे विवाह का अल्बम स्केन करने के लिए ही वे सब रतलाम आए थे। मुझे लगा था कि वे अपने निजी संग्रह के लिए चित्र सहेज रहे हैं।
चित्रों का क्रम-निर्धारण और शब्द परिचय वल्कल ने तय किया था जबकि चित्रों और गीत का ‘मिक्सिंग’ तथागत ने किया था। यह सब केवल, इस ‘सुखद आश्चर्य’ तक सीमित नहीं रहा था। पूरे कार्यक्रम के गीतों/नृत्यों का चयन और अन्तिम निर्धारण भी इन दोनों ने ही किया था और सारे गीतों का ‘मिक्सिंग’ तथागत ने ही किया था। ‘महिला संगीत’ के नाम पर बरती जा रही फूहड़ता को लेकर मेरे मन में ‘वितृष्णा’ तक का विकर्षण है (जिसे मैं जल्दी ही अपनी अलग पोस्ट पर उजागर करूँगा) किन्तु मैंने देखा कि इस चयन में मेरे दोनों बेटों ने अतिरिक्त सावधानी बरती। फूहड़ता नाम मात्र को और क्षण भर को भी नहीं आने दी। सब कुछ अत्यधिक (कहने दीजिए कि पूरी तरह) ‘सुरुचिपूर्ण’ था। ‘सांग मिक्सिंग’ ने मुझे तथागत के तकनीकी कौशल से परिचित कराया। उसने ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ (आई टी) में स्नातक उपाधि प्राप्त की है। मुझे नहीं पता कि आगे जाकर वह क्या करेगा, किन्तु उसका यह कौशल उसके व्‍यक्तित्‍व का अनूठा पक्ष लगा मुझे। विभिन्न मनोरंजन चैनलों पर मैंने कई कार्यक्रमों में ‘सांग मिक्सिंग’ देखे हैं। मैं बिना किसी ‘मोहग्रस्त-भाव’ से कह पा रहा हूँ कि तथागत का यह कौशल मुझे ऐसे अनेक कार्यक्रमों की गुणवत्ता के बराबर का लगा।

इस क्षण मैं सचमुच में निर्मल भाव से अपने दोनों बेटों पर गर्व-बोध से आप्लावित हूँ।

प्रिय वल्कल और तथागत! मुझे तुम दोनों पर गर्व है। ईश्वर तुम्हें सदा सुखी रखे - कष्टों की परछाईं की कल्पना से भी दूर।

पैंतीस रुपयों की दूरी

वे मेरे कस्बे में तो आते हैं किन्तु अब मेरे घर नहीं आते।

अगस्त 1977 में जब मैं इस कस्बे में आया तब वे यहाँ के स्थायी निवासी थे। स्थायी भी और अग्रणी, प्रतिष्ठित भी। यहाँ आने से पहले से ही उनसे पुराना परिचय था। सो, इस ‘नई जगह’ में वे ही मेरे ‘पुरानी पहचानवाले’ थे। डेरा-डण्डा रखने के बाद पहली ही फुर्सत में उनसे मिला। वे बड़े प्रसन्न हुए। हाथों-हाथ लिया मुझे। कालान्तर में, नौकरी की परवशता के अधीन वे यहाँ से कोई सवा सौ किलो मीटर दूर जाकर बसने को विवश हुए।

जब तक यहाँ रहे, स्नेह वर्षा करते रहे मुझ पर। मेरे काम आते रहे और मुझसे काम लेते रहे। मेरे कस्बे के साहित्यिक/बौद्धिक आयोजन सम्भव ही नहीं होते थे उनके बिना। ऐसे प्रत्येक आयोजन में वे सबसे पहले जिन ‘अपनेवालों’ को याद करते थे, उन्हीं में हुआ करता था मैं भी। उनके लिए उपयोगी और सहयोगी होकर मुझे अतीव आत्मीय प्रसन्नता होती थी। परम् आत्म सन्तोष मिलता था मुझे। उनके कारण और इन साहित्यिक/बौद्धिक आयोजनों के कारण मुझे जो अतिरिक्त प्रतिष्ठा मिलती थी, वह आज भी मेरी सामाजिक प्रतिष्ठा की नींव बनी हुई है।

कस्बा छोड़ने के बाद वे जब भी मेरे कस्बे (याने, उनके ‘अपने’ कस्बे) में आते, मेरे यहीं ठहरते। आने से पहले ही फोन कर देते - ‘मैं फलाँ दिन, फलाँ गाड़ी से आ रहा हूँ। तुम्हारे यहीं रुकूँगा और भोजन भी करूँगा।’ हम दोनों पति-पत्नी को अच्छा तो लगता ही, अतिरिक्त गौरवानुभूति भी होती - ‘वे’ हमारे यहाँ जो ठहरेंगे!

उनका आना किसी न किसी साहित्यिक आयोजन को लेकर ही होता। या तो मुख्य अतिथि होते उस आयोजन के या अध्यक्ष। वे आते। मैं अपने दुपहिया वाहन पर उन्हें लेकर जाता। जिस समारोह में मेरी उत्तमार्द्ध भी जाना चाहती, उसके लिए हम तीनों ऑटो रिक्शा से जाते। हमें पहली ही पंक्ति में बैठने का विशेष अधिकार रहता। सबसे अगली पंक्ति में बैठा मैं, बार-बार पीछे देखता और सगर्व खुश होता - कितने लोग मुझे देख रहे हैं!

आयोजन समाप्ति के बाद हम साथ-साथ घर लौटते। अगली सवेरे वे अपने नगर लौटते। बिदा वेला में कहते - ‘यहाँ आकर किसी और के यहाँ रुकने का मन नहीं होता। किसी और के यहाँ जाने का विचार ही मन में नहीं आता। यहाँ आने का एक बड़ा लालच होता है - तुम लोगों से मिलना।’

बरसों तक ऐसा ही होता रहा। लेकिन जब से मैंने अपना निवास बदला है, तब से, उनका मेरे यहाँ आना, रुकना बन्द हो गया है। वे अब भी मेरे कस्बे में आते तो हैं किन्तु उनके आने की खबर अगले दिन, उनके चले जाने के बाद, अखबारों से मिलती है - उनके आयोजन के समाचारों से। ऐसा जब शुरु-शुरु में पाँच-सात बार हुआ तो मैंने विनीत भाव और दयनीय स्वरों में शिकायत की। मेरी प्रत्येक शिकायत को उन्होंने ‘जायज’ माना तो जरूर किन्तु अपने न आने का कोई कारण कभी नहीं बताया। आज तक नहीं बताया।

अब मैंने शिकायत करना बन्द कर दिया है। एक बार तनिक आक्रोशित हो, मुझे झिड़क दिया था उन्होनें मुझे-मेरी शिकायत सुनकर। उसके बाद से मैंने शिकायत करना ही नहीं, उनकी प्रतीक्षा करना भी बन्द कर दिया है।

लेकिन उनका न आने का मुझे बुरा लगता है। हर बार लगता है। लेकिन अब केवल इस बात का बुरा नहीं लगता कि वे अब मेरे यहाँ नहीं आते। मेरे यहाँ न आने का कारण जानने के बाद अधिक बुरा लग रहा है।

उनके नगर में ही रह रहे मेरे एक परिचित ने मेरी व्यथा-कथा सुनाकर जब उन्हें उलाहना दिया तो उनका जो जवाब आया वह जानकर मुझे अधिक बुरा लगा। मेरे परिचित से उन्होंने कहा - ‘यार! तुम और विष्णु कभी अपनी ओर से भी कुछ बातों को समझने की कोशिश किया करो। पहले विष्णु मेन रोड़ पर रहता था। रुपया-आठ आने में, टेम्पो से उसके घर पहुँच जाता था। अब वह स्टेशन से चार किलो मीटर दूर रहने लगा है। अब कम से कम तीस-पैंतीस रुपये लेता है ऑटो रिक्शावाला उसके घर जाने के लिए। यात्रा का किराया बीस रुपये ओर ऑटो रिक्शा का भाड़ा पैंतीस रुपये! सोने से घड़ावन मँहगी पड़ती है विष्णु के घर जाने में।’
सुनकर मुझे बुरा लगा है। उनके न आने से अधिक बुरा।

मैं तो समझ रहा था कि उनके-मेरे बीच सवा सौ किलोमीटर की दूरी है। लेकिन नहीं। यह दूरी तो पैंतीस रुपयों की है। सवा सौ किलो मीटर से कहीं अधिक। सवा सौ किलो मीटर तो आया जा सकता हे किन्तु पैंतीस रुपयों की दूरी पार करना पोसान नहीं खाता।

अब वे मेरे घर नहीं आते। सवा सौ किलो मीटर पर पैंतीस रुपये भारी पड़ गए हैं।

निमन्त्रण-पत्र का नया चेहरा

छोटा बेटा तथागत होली पर घर आया। उसने मुझे एक निमन्त्रण-पत्र दिखाया। आप भी देखिए और अब ऐसे ही निमन्त्रण-पत्रों की आदत डाल लीजिए। मेरे कस्बे में ऐसे निमन्त्रण-पत्र चलन में आ गए हैं।

वैवाहिक आयोजन के इस निमन्त्रण-पत्र में तीन दिनों के चार प्रसंगों का निमन्त्रण है। चारों प्रसंगों के सामने, किसी वस्तुपरक-प्रश्नावली (आब्जेक्टिव क्वेश्चनायर) की तरह, खाली वर्गाकार खाने दिए गए हैं। सामनेवाले को जिस प्रसंग के लिए निमन्त्रित किया जाना है, उसके सामनेवाले खाली वर्गाकार खाने में सही का निशान लगा दिया जाता है।

यदि किसी को सपरिवार आमन्त्रित करना है तो इसी निमन्त्रण-पत्र पर ‘सपरिवार’ लिख दिया जाता है और यदि केवल दम्पति को निमन्त्रित करना है तो ‘जोड़े से’ लिख दिया जाता है।

जिस प्रसंग के सामने खाली वर्गाकार खाना नहीं है, उस प्रसंग पर तो आप आमन्त्रित हैं ही।

इस निमन्त्रण-पत्र का सबसे अन्तिम वाक्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें लिखा है - ‘कृपया सेवक के न्यौते का इन्तजार न करें।’ याने, आपको निमन्त्रण भेज दिया गया है, अब आप किसी व्यक्तिगत आग्रह की अपेक्षा और प्रतीक्षा न करें। तनिक परिहास की इजाजत दें तो आपसे कहा जा रहा है - ‘आओ तो वेलकम, वर्ना भीड़ कम।’

थोड़े लिखे को बहुत समझिएगा और आपको छूट है कि जैसा आपका मन चाहे वैसा समझिएगा।

इन चुनावों का मतलब

के अखबारों में, पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम देखकर मेरे मन में, बिना सोचे-विचारे आई बातें -

- जो जमीन से जुड़ा रहा, वो जमीन पर बना रहा।

- जिसने धरती छोड़ी, हवा में उड़ा, वह औंधे मुँह गिरा।

- जिसने लोगों की समझ पर भरोसा किया, उस पर लोगों ने भरोसा किया।

- जिसने लोगों को नासमझ समझा, लोगों ने उसकी नासमझी उजागर कर दी।

- लोग सुनते सबकी हैं किन्तु करते अपने मन की हैं।

- उत्तराखण्ड में सरकार बनाने की मूर्खतापूर्ण, दुस्साहसी कोशिश किसी ने नहीं करनी चाहिए। परिणाम चीख-चीख कर कह रहे हैं कि वहाँ कोई भी सरकार, चलना तो दूर, घिसट भी नहीं पाएगी। वहाँ फौरन ही चुनाव करा दिए जाने चाहिए।

- तीन राज्यों में लोगों ने स्पष्ट बहुमत देकर कहा है - ‘काम करके दिखाना। गठबन्धन की मजबूरी का बहाना नहीं चलेगा।’

- देश के ‘संघीय स्वरूप’ की वास्तविक शुरुआत इन चुनावों से ही हुई है। राजनीतिक दलों को बिना किसी हिचकिचाहट के अपने प्रान्तीय और राष्ट्रीय एजेण्डे उजागर करना चाहिए और अपनी सीमाएँ अनुभव कर, राष्ट्रीय स्तर पर हैसियत स्थापित करने की कोशिशों (और लालच) से बचकर अपने एजेण्डों पर ईमानदारी से काम करना चाहिए। याने -
डीएमके, एआईएमडीके, सपा, बसपा, तृणमूल काँग्रेस, राष्ट्रवादी काँग्रेस, शिवसेना, अकाली दल आदि जैसे तमाम दलों ने खुद को अपने-अपने प्रान्तों तक सीमित रखकर, दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से काम करना चाहिए और ऐसा करते समय राष्ट्रीय एकता को सर्वोपरि रखना चाहिए।

- काँग्रेस और भाजपा ही राष्ट्रीय स्तर के दल हैं। इन दोनों को अपने-अपने राष्ट्रीय और प्रान्तीय एजेण्डे अलग-अलग घोषित करने चाहिए। ऐसा करने में कुछ विसंगतियाँ नजर आ सकती हैं किन्तु अब इन विसंगतियों से बच पाना किसी के लिए सम्भव नहीं होगा। समय आ गया है कि खुलकर अपनी बात कहें और जो नहीं कर सकते, उसके लिए साफ-साफ इंकार करें। लोग साफ बात सुनने के लिए तैयार हैं - मूर्ख बनने के लिए नहीं।

- राजनीति में दम्भ, गर्व, अहंकार के दम पर कोई भी सत्ता हासिल नहीं कर सकता। भारत मूलतः मध्यममार्गी मानसिकता वाले समाजों का देश है। यहाँ ‘विनम्र और दयालु अपराधी’ भी स्वीकार कर लिए जाते हैं और ‘दम्भी, असहिष्णु ईमानदार/सज्जन’ खारिज कर दिए जाते हैं।

- अब दूसरों को गालियाँ देकर खुद को ईमानदार और साफ-सुथरा साबित कर पाना तनिक कठिन हो जाएगा। इसलिए, अपने घर की सफाई कीजिए और यदि ईमानदार और भले हैं तो वैसे ही नजर भी आईए।

सम्वेदनाओं का स्वर्गवास?

क्षमा-याचना करने और खेद प्रकट करने की सम्भावना तो वहीं होती है मनुष्य-हृदय हो, जहाँ झेंप, अपराध-बोध और शर्मिन्दगी जैसे भाव मन में आएँ। भारत संचार निगम लिमिटेड का अमला मुझे, ऐसी तमाम बातों से ऊपर उठ गया लग रहा है।

29 फरवरी की सुबह-सुबह पड़ौस से भैया साहब (श्रीयुत् सुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) का फोन आया। पूछ रहे थे कि नवीन भाई ने उनके फोन के बिल की रकम जमा कराई या नहीं। नवीन भाई मेरे व्यवसाय में और घर के असंख्य कामों में मेरी मदद करते हैं। सच तो यह है कि मुझे मदद करने की हामी भरकर बेचारे फँस गए हैं। या तो गए जनम का कोई कर्जा चुका रहे हैं या फिर अगले जनम के लिए मुझे कर्जदार बना रहे हैं। बड़े निष्ठावान, विश्वस्त, चाक-चौबन्द और चुस्त आदमी हैं और सम्पूर्ण समर्पण भाव से काम करते हैं। सो, नवीन भाई से पूछे बिना ही कह दिया कि निश्चिन्त रहें, उन्होंने (नवीन भाई ने) फोन बिल की रकम जमा करा दी है। चूँकि भैया साहब घर के फोन से ही बोल रहे थे सो जिज्ञासा हुई। पूछा कि वे पूछताछ क्यों कर रहे हैं। भैया साहब ने बताया कि उनके बिल की रकम जमा न करने के नाम पर, उनके फोन पर सुबह से ‘जावक’ (फोन करने की) सुविधा समाप्त कर दी गई है। केवल ‘आवक’ सुविधा बनी हुई है।

नवीन भाई ने 21 फरवरी को ही बिल जमा करा दिया था और रसीद तथा मूल बिल मेरी टेबल पर ही रखा हुआ था। साढ़े दस बजते-बजते, गुड्डु (अक्षय छाजेड़) ने बिल और रसीद उठाई और भा. सं. नि. लि. के कार्यालय पहुँच कर, फोन चालू करने की माँग तो की ही, यह भी जानना चाहा कि रकम जमा कराने के नौवें दिन यह कार्रवाई क्यों और कैसे हुई? जवाब और जवाब देने के तरीके के कारण ही मैं यह सब लिख रहा हूँ।

कर्मचारी ने गुड्डु को कुछ इस तह देखा कि ‘सुबह-सुबह यह कौन सा सरदर्द आ गया।’ उसने बताया कि बिल की रकम डाक घर में जमा हुई किन्तु डाक घर से समय पर सूचना नहीं मिली। इस कारण रकम समयोजित नहीं हो पाई और ‘चूँकि सारा काम कम्प्यूटर से होता है’ इसलिए, फोन पर आवक सुविधा बन्द करने की यह कार्रवाई अपने आप ही हो गई। कर्मचारी ने जवाब इतनी भावहीनता, असम्वेदनशीलता और लापरवाही से दिया कि मशीन भी शरमा जाए। मानो कोई अपराध कर लिया हो, कुछ इसी मनोदशा में गुड्डु लौट आया। बची-खुची कसर इस तरह पूरी हुई कि कर्मचारी के ‘आपका फोन अभी चालू होता है’ के वादे के बाद भी फोन पर ‘जावक’ सुविधा देर शाम तक उपलब्ध हो पाई।

फोन बिल डाक घर में जमा कराने की व्यवस्था भा. सं. नि. लि. ने की है। इस काम के लिए डाक विभाग को प्रति बिल के मान से भा. सं. नि. लि. से पारिश्रमिक मिलता है। बिल की रकम लेने और रकम जमा हो जाने की सूचना देने का जिम्मा डाक घर का है। यदि समय पर जानकारी नहीं आए तो भा. सं. नि. लि. की जिम्मेदारी बनती है कि अपनी ओर से पूछे। डाक विभाग ‘वितरण’ (डिलीवरी) के लिए और भा. सं. नि. लि. ‘सम्प्रेषण (कम्यूनीकेशन) के लिए पहचाने जाते हैं। लेकिन अपने-अपने काम में दोनों ही विफल रहे। दोनों ने ही अपनी-अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई और असुविधा झेलनी पड़ी उपभोक्ता को। (कोई ताज्जुब नहीं कि भैया साहब जैसे लोगों की संख्या अच्छी-खासी हो!) इसके लिए न तो डाक घर में किसी को फर्क पड़ा और न ही भा. सं. नि. लि. के कार्यालय में किसी को। होना तो यह चाहिए था कि कर्मचारी इस कार्रवाई के लिए खेद प्रकट करता, गुड्डु से क्षमा याचना करता और गुड्डु को प्रेमपूर्वक बैठा कर तभी बिदा करता जबकि गुड्डु की शिकायत दूर हो जाती। किन्तु हुआ इसके बिलकुल विपरीत। इस तरह बात की गई मानो ‘आपने फोन लगवाया है तो आप ही भुगतो।’ गुड्डु आहत और लगभग अपमानित दशा में ही लौटा। लौटते-लौटते उसने देखा, अपनी-अपनी रसीदें लिए अनेवालों की संख्या बढ़ने लगी थी।

यह कैसी स्थिति है? प्रोन्नत तकनीक और ऐसे ही उपकरण हमने इसलिए अपनाए हैं कि हमें, निर्दोष होने की सीमा तक की श्रेष्ठ सेवाएँ मिलें। किन्तु स्थिति यह हो गई है कि उपकरण हमारे लिए नहीं, हम उपकरण के लिए बन कर रह गए हैं। इस सीमा तक कि मानो हम भी निर्जीव-निष्प्राण उपकरण ही बन गए हैं। डाक घर ने अपना काम समय पर किया है या नहीं, यह देखने के लिए तो किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं। किन्तु हम क्यों सोचें? जानकारी हमें जब भेजनी होगी, भेजेंगे। या, जानकारी जब आएगी तब अगला काम कर लेंगे। अपनी नौकरी और तनख्वाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना। रोएगा तो ग्राहक। रोने दो। जब अपने पास आएगा, तब की तब देखेंगे। जो करना होगा, कर देंगे। रही बात उपकरणों के रख-रखाव और देख-भाल की, तो उनकी (उपकरणों की) ओर हम तभी देखेंगे जब वे काम करना बन्द कर देंगे या कोई समस्या उत्पन्न कर देंगे।

क्या हो गया है हमें? हमारी आत्मा तो नहीं मर गई? जो उपभोक्ता हमारा वेतन जुटाते हैं, जिनके लिए हमें बैठाया गया है, उन्हीं उपभोक्ताओं की, उनकी पीड़ा की, उनकी भावनाओं की चिन्ता करने का भाव, क्षणांश को भी हमारे मन में क्यों नहीं उपजता? विनम्रता, सदाशयता और सौजन्य बरतने के हमारे संस्कार कहाँ चले गए?

मुझे घबराहट हो रही है। केवल ये बातें सोच-सोच कर ही नहीं। इसलिए भी कि आज (5 मार्च) सुबह मुझे भी फोन पर टेपांकित सन्देश मिला है कि मैं मेरे फोन बिल की रकम जमा कराने की तारीख निकल चुकी है और मैंने रकम जमा नहीं की है सो रकम जमा करा दूँ।
मैं अपने कागजों में रकम जमा कराने की रसीद टटोल रहा हूँ।

नवीन भाई ने मेरे बिल की रकम भी 21 फरवरी को ही जमा कर दी थी।

‘जीवन वृद्धि’ - एक तलाश खत्म

अपने निवेश को अनिश्चितता की जोखिम से बचाने और सुनिश्चित लाभ की प्राप्ति की तलाश करनेवाले लोग अब आराम की साँस ले लें। 01 मार्च 2012 से बाजार में आई, भारतीय जीवन बीमा निगम की ‘जीवन वृद्धि’ पॉलिसी ने उनकी तलाश खत्म कर दी है। किन्तु सावधान! यह पॉलिसी 120 दिनों के लिए (अर्थात्, 30 जून 2012 तक) ही उपलब्ध है।

देखने-सुनने और समझने में इससे अधिक आसान और सीध-सादी पॉलिसी शायद ही कोई और हो। इसमें ‘किन्तु-परन्तु’ अपवादस्वरूप ही हैं।

यह पॉलिसी 8 वर्ष (पूर्ण) से लेकर 50 वर्ष की निकटतम आयुवालों के लिए उपलब्ध है।

पॉलिसी की अवधि 10 वर्ष है और इसकी प्रीमीयम दस वर्षों में एक ही बार देनी है। अर्थात् यह एकल (सिंगल) प्रीमीयम पॉलिसी है।

निवेश की न्यूनतम रकम 30,000/- (तीस हजार) रुपये है जबकि अधिकतम निवेश राशि की कोई सीमा नहीं है। तीस हजार के बाद एक हजार रुपयों के गुणक में राशि निवेश की जा सकती है। किन्तु याद रखिए! इस प्रीमीमय राशि पर सेवा शुल्क (सर्विस टैक्स) अतिरिक्त रूप से चुकाना पड़ेगा।

इसमें बीमा धन की गणना दो स्तर पर की गई है - आधारभूत बीमा राशि (बेसिक सम अश्योर्ड) तथा सुनिश्चित परिवक्वता बीमा राशि (ग्यारण्टीड मेच्यूरिटी सम अश्योर्ड)।

आधार भूत बीमा राशि (बेसिक सम अश्योर्ड) की गणना बहुत ही आसान है - प्रीमीयम का पाँच गुना। अर्थात् यदि किसी ने एक लाख रुपये प्रीमीयम जमा की है तो उसे पाँच लाख की बीमा सुरक्षा मिलेगी। याने, किसी भी आयु के व्यक्ति ने यदि 1,00,000/- रुपये निवेश किए हैं और पॉलिसी अवधि (10 वर्ष) के दौरान उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके नामित व्यक्ति को 5,00,000/- रुपयों की बीमा राशि का भुगतान किया जाएगा जो सुनिश्चित परिवक्वता बीमा राशि (ग्यारण्टीड मेच्यूरिटी सम अश्योर्ड) की रकम से कहीं अधिक होगी।

सुनिश्चित परिवक्वता बीमा राशि (ग्यारण्टीड मेच्यूरिटी सम अश्योर्ड) की रकम आयु के आधार पर निर्धारित की गई है जो प्रत्येक आयु के अनुसार सुनिश्चित है। कम आयुवाले व्यक्ति चूँकि ‘जोखिम क्षेत्र’ (रिस्क झोन) में कम समय तक रहेंगे इसलिए उन्हें अधिक राशि मिलेगी जबकि अधिक आयुवाले को कम राशि मिलेगी क्योंकि वे ‘जोखिम क्षेत्र’ (रिस्क झोन) में जल्दी प्रवेश करेंगे (मुमकिन है, पॉलिसी लेते समय ही) और कम आयुवालों की अपेक्षा अधिक समय तक ‘जोखिम क्षेत्र’ (रिस्क झोन) में बने रहेंगे। उदाहरण के लिए - एक लाख रुपयों के निवेश पर 8 वर्ष की आयुवाले व्यक्ति को 1,98,460/- रुपये, 20 वर्ष की आयुवाले व्यक्ति को 1,95,550/- रुपये, 30 वर्ष की आयुवाले व्यक्ति को 1,94,160/- रुपये, 40 वर्ष की आयुवाले व्यक्ति को 1,85,710/- रुपये और 50 वर्ष की आयुवाले व्यक्ति को 1,58,225/- रुपये सुनिश्चित रूप से भुगतान किए जाएँगे।

उपरोक्त राशि के अतिरिक्त, (यदि योजना का अर्थशास्त्र अनुकूल रहा, जिसकी की शत प्रतिशत सम्भावना है) तो ‘निष्ठा आधिक्य राशि’ (लॉयल्टी एडीशन अमाउण्ट) के भुगतान की सम्भावना भी प्रकट की गई है। इस रकम का निर्धारण इसके भुगतान के समय ही हो सकेगा।

उल्लेखनीय बात यह है कि ‘निष्ठा आधिक्य राशि’ (लॉयल्टी एडीशन अमाउण्ट) के भुगतान का प्रावधान दोनों ही स्थितियों (मृत्यु दावा और परिपक्वता दावा) के लिए किया गया है।

याने, जैसा कि ऊपर बताया गया है - कम आयुवाले व्यक्ति को निवेशित राशि के दुगुने से भी अधिक का भुगतान मिलता दिखाई दे रहा है जबकि अधिक आयुवालों को कम से कम डेढ़ गुना भुगतान तो निश्चित रूप से मिलना ही है।

50,000/- रुपयों से अधिक रकम निवेश करनेवालों को अतिरिक्त लाभ दिए जाने का प्रावधान किया गया है।

50,000/- रुपयों से 99,000/- रुपये तक निवेश करनेवालों को, सुनिश्चित परिवक्वता बीमा राशि (ग्यारण्टीड मेच्यूरिटी सम अश्योर्ड) की रकम की 1.25 प्रतिशत रकम तथा 1,00,000/- रुपयों से अधिक की रकम निवेश करनेवालों को सुनिश्चित परिवक्वता बीमा राशि (ग्यारण्टीड मेच्यूरिटी सम अश्योर्ड) की रकम की 3 प्रतिशत रकम अतिरिक्त रूप से भुगतान की जाएगी। याने, अधिक निवेश कीजिए और अधिक प्राप्तियाँ लीजिए।

पॉलिसी का एक वर्ष पूरा होने के इसे अभ्यर्पित (सरेण्डर या बन्द) भी किया जा सकता है। उस दशा में, निवेशित प्रीमीयम की 90 प्रतिशत रकम, अभ्यर्पित मूल्य (सरेण्डर वेल्यू) के रूप में मिलेगी।

इसी प्रकार इस पॉलिसी पर ऋण (पॉलिसी लोन) भी लिया जा सकता है। इस ऋण की अधिकतम रकम, उपरोल्लेखित अभ्यर्पण मूल्य (सरेण्डर वेल्यू) की 70 प्रतिशत होगी। इस ऋण राशि पर 10.25 प्रतिशत वार्षिक की दर से ब्याज लिया जाएगा जिसकी गणना अर्ध्दवार्षिक आधार पर होगी और यदि निर्धारति अवधि में ब्याज की रकम का भुगतान नहीं किया गया तो, उस ब्याज राशि पर इसी दर से चक्रवृद्धि ब्याज लगेगा।

इस पॉलिसी को, चालू वित्तीय वर्ष की सीमा में, पिछली तारीखों से भी शुरु किया जा सकता है। अर्थात्, यदि कोई व्यक्ति 31 मार्च 2012 को यह पॉलिसी ले रहा है तो वह इसका प्रारम्भ दिनांक 01 अप्रेल 2011 निर्धारित कर सकता है। किन्तु, ऐसा करने पर उसे, प्रीमीयम की रकम पर, 10 प्रतिशत वार्षिक की साधारण दर से ब्याज भुगतान करना पड़ेगा। किन्तु तब, 09 वर्षों में ही पॉलिसी के 10 वर्ष पूरे हो जाएँगे और पॉलिसीधारक एक वर्ष पूर्व ही सुनिश्चित परिवक्वता बीमा राशि (ग्यारण्टीड मेच्यूरिटी सम अश्योर्ड) तथा निष्ठा आधिक्य (लॉयल्टी एडीशन) की रकम प्राप्त कर लेगा। किन्तु ऐसा करने पर हानि यह होगी कि प्रीमीयम तो 10 वर्षों की चुकाई जाएगी जबकि जोखिम सुरक्षा 9 वर्षों तक ही उपलब्ध होगी।

आवश्यकता होने पर पॉलिसीधारक, विधिवत सूचना देकर अपनी इस पॉलिसी को, किसी संस्था के पक्ष में समनुदेशित (असाइन) भी कर सकेगा। अर्थात् किसी संस्था से वित्तीय सुविधा लेने के लिए इसे गिरवी भी रखा जा सकेगा।

कर छूट - इस पॉलिसी के लिए निवेशित रकम पर, आय कर की धारा 80 सी के अन्तर्गत कर-छूट प्राप्त होगी और इससे मिलनेवाली पूरी रकम, आय कर से मुक्त होगी। अर्थात्, यदि कोई व्यक्ति 30 प्रतिशत की दर से आय कर चुका रहा है तो उसे, दोनों बार मिलनेवाली आयकर छूट की गणना के बाद, निवेशित रकम का ढाई गुना तक लाभ होता नजर आता है।

पहली नजर में यह पॉलिसी, निवेशकों को समग्र रूप से न केवल लाभदायक अपितु कर नियोजन हेतु अपनाए जानेवाले अन्य माध्यमों की अपेक्षा अधिक आकर्षक अनुभव होती है।

मैंने अपने स्तर पर इसे सरलता से प्रस्तुत करने की भरसक कोशिश की है। इसके बाद भी यदि आपकी कोई जिज्ञासा हो तो आपके लिए सहायक और उपयोगी होकर मुझे आत्मीय प्रसन्नता होगी। मैं ई-मेल तथा मोबाइल नम्बर 098270 61799 पर समान रूप से, सहजता से उपलब्ध हूँ।

प्रापर्टी ब्रोकर होने का मतलब

संजय ने खिल्ली उड़ाई तो एक साथ कई बातें याद आ गईं।

कुछ दिनों पहले, मनासा में हम तीन सहपाठी मिले थे। अपने-अपने बच्चों के काम-काज की बात चली तो दोनों दुःखी मिले। दोनों के बेटे घर-खर्च इतनी कमाई तो कर लेते हैं किन्तु ‘काम-धाम’ कुछ नहीं करते। बात अजीब थी। खुल कर बोले कि दोनों जमीनों की दलाली करते हैं। दिन भर कुछ नहीं करते। इधर-उधर फोन करते रहते हैं। कोई नियमित और अनुशासित दिनचर्या नहीं। महीने-बीस दिन में कोई सौदा हो जाता है और एक झटके में महीने भर का खर्च निकल आता है। मैंने कहा - ‘तो तुम दोनों को तो खुश होना चाहिए। वे (दोनों बेटे) अपनी जिम्मेदारी तो निभा रहे हैं।’ एक ने मुझे कुछ इस तरह टोका - ‘तू तो ऐसी बात मत कर। जमीनों की दलाली कोई धन्धा नहीं होता। यह तो लालच है जो मेरे बेटे को लालची और निकम्मा बना रहा है। इससे पैसे तो मिल रहे हैं किन्तु जिन्दगी नहीं बन रही। इससे बड़ी बात कि वह बदतमीज भी होता जा रहा है। वह न तो परिश्रम कर रहा है और न ही पुरुषार्थ।’

संजय ने भी कहा तो यही सब था किन्तु अन्‍तर यही था कि मेरा सहपाठी अपने बेटे की मानसिकता से चिन्तित था जबकि संजय जमीन दलालों की खिल्ली उड़ा रहा था।

संजय को किसी के लिए किराए के मकान की तलाश थी। उसी से मालूम हुआ कि मेरे कस्बे में भी यह काम दलाल करने लगे हैं। मैं समझ रहा था कि केवल महानगरों में ही यह प्रथा चल रही है। मैंने संजय से पूछा - ‘अपने यहाँ भी इसके दलाल हैं क्या?’ उसने चौंकाया - ‘हैं क्या से आपका क्या मतलब? हैं और ढेर सारे हैं। एक की तलाश करेंगे तो दस मिल जाएँगे।’ मैंने पूछा - ‘यह इतना आसान काम है?’ संजय मेरे ‘बुद्धूपन’ पर खिलखिलाया। बोला - ‘आप समझ रहे होंगे कि बीमा एजेण्ट की तरह ही प्रॉपर्टी ब्रोकर बनने के लिए भी लायसेन्स लेना पड़ता होगा। ऐसा नहीं है। जिसे कोई काम नहीं मिलता वह प्रापर्टी ब्रोकर बन जाता है। करना क्या है? बढ़िया विजिटिंग कार्ड छपा लो, सफेद, कलफदार कुर्ता-पायजामा पहन लो और खुशबूदार पान चबा लो। बन गए प्रापर्टी ब्रोकर। न तो कोई क्वालिफिकेशन चाहिए न ही केपिटल लगानी है। कोई कानूनी जिम्मेदारी तो है ही नहीं।’ मैंने कहा - ‘याने नेताओं जैसा धन्धा?’ संजय ने कहा - ‘उससे भी अच्छा। नेता को तो फिर भी लोगों के पास जाना पड़ता है। भाइयों-बहनों करना पड़ता है। यहाँ तो वह भी नहीं। लोग खुद चल कर आपके पास आएँगे और आपकी खुशामद करेंगे।’

मुझे याद आया, अपना लेपटॉप ठीक कराने मैं भाई मनीष भटनागर की दुकान पर गया था तो दो-एक ग्राहक बैठे थे और वे (मनीष भाई) अकेले ही काम कर रहे थे। मैंने कहा - ‘कोई सहायक क्यों नहीं रख लेते?’ मनीष भाई का बताया किस्सा यह था कि कर्मचारी समय पर नहीं आते। पूछताछ करो तो कहते हैं - ‘आप कितनी तनख्वाह दोगे? जितनी माँगूँगा उससे हजार-पाँच सौ ज्यादा दे दोगे। यहाँ तो मैं प्लॉट का एक सौदा करता हूँ और पचीस-पचास हजार कमा लेता हूँ।’ मनीष भाई को कष्ट कर्मचारियों की अनियमितता और ऐसे उत्तर का नहीं, कष्ट इस बात का था कि नौजवानों का कामकाजी तकनीकी ज्ञान व्यर्थ जा रहा है और मेहनत की आदत छूटती जा रही है।

मुझे बरबस ही यह भी याद आने लगा कि मेरे कई अभिकर्ता मित्र भी इसी काम में लगे हुए हैं और शाखा कार्यालय में बैठकर बीमे की बातें कम और प्लॉटो के सौदों की और जमीनों के भाव की बातें ज्यादा करते हैं।

मुझे यह भी याद आया कि दलाल तो मैं भी हूँ किन्तु मुझे नियमित और निरन्तर काम करते रहना पड़ता है। मेरी कम्पनी मुझे एक सुनिश्चित लक्ष्य देती है जिसे हासिल करना मेरी बाध्यता होती है। मैं अपनी मर्जी से भले ही एक दिन, दो दिन या लगातार पाँच-सात दिन काम न करूँ किन्तु निर्धारित लक्ष्य तो हासिल करना ही है। फिर, मेरा काम ऐसा भी नहीं है कि एक बार सौदा हो जाने के बाद सामनेवाले से अन्तिम बार नमस्कार कर लूँ। इसके उलटे, जिस क्षण बीमा बिकता है, उसी क्षण से सामनेवाले से मेरा रिश्ता शुरु होता है जो तब तक चलता है जब तक कि पॉलिसी पूरी न हो जाए। मैं ऐसा दलाल हूँ जिसे न केवल चौबीसों घण्टे सक्रिय रहना पड़ता है अपितु मुझे तो ग्राहकों के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं जबकि प्रापर्टी ब्राकरों के पास तो लोग चलकर जाते हैं। काम तो हम दोनों ही दलाली का करते हैं किन्तु दोनों के काम का चरित्र सर्वथा भिन्न। पूरब-पश्चिम जैसा। मेरा काम निरन्तर दौड़-भाग माँगता है जबकि प्रापर्टी ब्रोकर एक झटके में महीने भर का काम कर लेता है।

क्या जमीनों की दलाली का काम वास्तव में आदमी को अकर्मण्य और लालची बनाता है?