बेईमानी भरे दिल-दिमाग-नजर से की गई, ईमानदार कार्रवाई की माँग अपने आप में बेईमानी होती है। चूँकि हम सब यही कर रहे हैं, इसलिए, दिल्ली में हुई, सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएँ होती रहेंगी। कभी नहीं रुकेंगी क्योंकि हम ही रोकना नहीं चाहते। बस! रोकने की माँग करते रहते दीखना चाहते हैं। हम ‘करने’ में नहीं, ‘करते रहते दीखने’ में भरोसा करते हैं।
देश तो बहुत छोटी बात है, पूरी दुनिया में कौन होगा जो दुराचार-दुष्कृत्य का समर्थन करेगा? इनका विरोध तो सहज-स्वाभाविक है। विरोध करना ही चाहिए। किन्तु यह विरोध ईमानदार होना चाहिए। यहीं हम मात खा जाते हैं।
आज के अखबार भी दिल्ली की खबरों से अटे पड़े हैं। रविवार है तो, ‘बाजार के चलन‘ के चलते, जेकेट भी लगे हैं। जेकेटों पर भी दिल्ली ही दिल्ली है। विस्फोटक जनाक्रोश और उसका निरंकुश दमन। साफ लग रहा है कि केन्द्र की और दिल्ली की सरकारें आज भले ही बनी रहें किन्तु अगले चुनावों में सब कुछ बदल जाएगा। लेकिन उस बदलाव के बाद भी ‘यह सब’ या ‘ऐसा कुछ’ नहीं होगा, इसकी गारण्टी लेने-देने की बात न तो कोई कर रहा है न ही किसी अखबार में नजर आ रही है। हमारा आनेवाला कल भले ही आज से भी बदतर हो लेकिन हमें हमारा आज ठीक-ठाक चाहिए। बस! आज सब ठीक हो जाए। कल की कल देखेंगे।
लग रहा कि दिल्ली ही देश बन कर रह गया है। दिल्ली के अलावा या तो देश है ही नहीं या फिर है तो वह सब देश में नहीं है। इसीलिए, जो कुछ दिल्ली में हो रहा है, वैसा ही सब कुछ बाकी हिस्सों में होता है तो होता रहे। कोई फर्क नहीं पड़ता।
देश का कौन सा राज्य है जहाँ ऐसे जघन्य बलात्कार नहीं हो रहे? देश का लगभग प्रत्येक दल, किसी न किसी राज्य में सत्तारूढ़ है और सबके सब ‘हमाम के नंगे’ हैं। जिस घटना के विरोध में लोगों ने दिल्ली की सड़कें छोटी और सँकरी कर दी हैं, वे सारी घटनाएँ पूरे देश में हो रही हैं। लेकिन दिल्ली के अलावा शेष देश में, फिल्मी जेल के पहरुए की, आधी रात में दी जा रही ‘स ऽ ऽ ऽ ब ऽ ऽ ठी ऽ ऽ ई ऽ ई ऽ ऽ क है ऽ ऽ ऐ’ की हाँक गूँज रही है।
मेरे यहाँ तीन अखबार आते हैं - दैनिक भास्कर, पत्रिका और जनसत्ता। जनसत्ता मेरा प्रिय अखबार है किन्तु इसका नाम तीसरे क्रम पर इसलिए रख रहा हूँ क्यों कि यह एक दिन देर से आता है। दैनिक भास्कर रतलाम में ही छपता है और पत्रिका इन्दौर से छपकर आता है। सो, पहले दोनों अखबार तो आज के ही हैं। जनसत्ता कल का है।
पहले दैनिक भास्कर के, जेकेट के बाद वाले मुखपृष्ठ के मध्य भाग में छपी खबर की स्केन प्रति देखिए (डिजिटल प्रति निकालना मुझे अब तक नहीं आया है) जिसमें मध्य प्रदेश की तीन खबरें एक साथ हैं और तीनों ही ‘स्त्री पर अत्याचार’ के हैं।
पहली खबर के मुताबिक, सो रही एक नाबालिग लड़की को दो लोग घर से उठाकर ले गए। अगली सुबह यह लड़की एक सड़क किनारे मिली। उसके हाथ, पैर और मुँह बँधे हुए थे। लड़की के परिजनों ने दो लोगों पर, लड़की के साथ ज्यादती करने के नामजद आरोप लगाए। पुलिस ने चिकित्सकीय जाँच के बाद अपहरण और छेड़खानी का मामला दर्ज किया।
दूसरी खबर के मुताबिक एक महिला ने आत्महत्या कर ली। इस महिला के साथ एक महीना पहले, उसके साथ हुई छेड़छाड़ और ज्यादती की रिपोर्ट पुलिस में कराई थी। पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की तो महिला ने खुद को समाप्त करने की कार्रवाई कर ली। इस मामले में भी महिला ने दो लोगों के नाम बताए थे।
तीसरी खबर में एक शिक्षक पर, पन्द्रह वर्षीय एक आदिवासी छात्रा के साथ ज्यादती करने की बात कही गई है। पुलिस ने छात्रा की डॉक्टरी जाँच कराई। शिक्षक को हिरासत में ले लिया। शिक्षक इस मामले को साजिश बता रहा है।
तीन समाचारों वाले इस समाचार की ‘इण्ट्रो’ में अखबार ने लिखा है - ‘‘दिल्ली में गेंगरेप की घटना के बाद देश भर में इसके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में महिलाओं से ज्यादती और छेड़छाड़ की घटनाएँ कम नहीं हो रही हैं। कई क्षेत्रों में नाबालिग छात्रों, महिलाओं से ज्यादती के मामले सामने आए हैं......’’
अब, ‘जनसत्ता’ के कल, 22 दिसम्बर 2012 के मुखपृष्ठ पर ‘बॉटम लीड’ के रूप में प्रकाशित, धीरज चतुर्वेदी की रपट की स्केन प्रति देखिए। मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड अंचल पर केन्द्रित इस समाचार कथा का मुख्य शीर्षक और उप शीर्षक ही पर्याप्त हैं सारी बात समझने के लिए। आँकड़े डरावाने तो हैं ही, किसी भी जिम्मेदार व्यवस्था और समाज के लिए लज्जाजनक भी हैं।
इसे मात्र ‘योग-संयोग या कि दुर्योग’ ही कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है और लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, मध्य प्रदेश से ही निर्वाचित होकर लोक सभा में पहुँची हैं। दिल्ली के सामूहिक गेंग रेप की भीषणता और जघन्यता को रेखांकित करते हुए सुषमाजी ने इस पर चर्चा करने के लिए लोक सभा का विशेष सत्र बुलाने की माँग कर, इस मामले की गम्भीरता और महत्व को भी रेखांकित किया है।
सुषमाजी ने वही किया जो एक सजग और जिम्मेदार नेता-प्रतिपक्ष को करना ही चाहिए था। किन्तु उनका कहना एक खानापूर्ति बन कर रह गया। उनकी आवाज में ‘दम’ ही नहीं था। हो भी नहीं सकता था। क्योंकि, उनके पास वह आत्म-बल था ही नहीं जिसके दम पर वे ‘दहाड़’ पातीं। जिस दल से वे आती हैं, उसी की सरकार वाले प्रदेश में (और उनके संसदीय क्षेत्र के बगलवाले अंचल में) वही सब हो रहा है, होता चला आ रहा है, जिसके लिए वे दिल्ली की और केन्द्र की सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाह रही हैं।
विडम्बना यह कि इस दशा में सुषमाजी अकेली नहीं हैं। सबके सब बराबर के अपराधी हैं। यही कारण रहा कि दिल्ली के नौजवान जब सड़कों पर उतरे तो उनके साथ उतरने की हिम्मत इनमें से कोई नहीं कर सका। केवल दो दलों के लोग इन बच्चों के साथ सड़कों पर आए - वामपंथी वृन्दा करात और नवजात ‘आआपा’ के कुछ नेता। इनकी ईमानदारी पर सन्देह नहीं किया जाना चाहिए किन्तु यह भी एक सचाई है कि ये दोनों ही दल जानते हैं कि वे कभी भी दिल्ली में सरकार नहीं बना सकते। उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। जगजाहिर इस तथ्य ने इन्हें अतिरिक्त आत्म बल दिया हो तो आश्चर्य क्या?
यही वह बिन्दु है जहाँ आकर लगता है कि दिल्ली ही देश बन गया है। ऐसा नहीं होता तो जो जनाक्रोश दिल्ली की सड़कों पर जाहिर हुआ है, वही का वही देश के अन्य भागों में भी होना चाहिए था। लेकिन नहीं हुआ। होगा भी नहीं। दिल्ली की सड़कों पर उतरे ‘जन’ की प्रशंसा में, आश्चर्य प्रकट करते हुए एक बात विशेष रूप से कही जा रही है - बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के सड़कों पर आना। सब कुछ स्वैच्छिक, स्वस्फूर्त, स्वआन्दोलित, स्वउद्वेलित। इसीलिए ये सब अधिकारपूर्वक और आत्मबलपूर्वक शीला दीक्षित और मनमोहनसिंह से सवाल पूछ पा रहे हैं। ये हमाम के नंगों में शरीक नहीं हैं। ये न तो सरकार में हैं और न ही कभी सरकार में आएँगे। इनकी भूमिका, ‘इनकी या उनकी’ सरकार बनाने में और ‘इन्हें या उन्हें’ सरकार से उखाड़ फेंक देने की है। सरकारों में बैठे हुए या सरकारों में बैठने के लिए बेकरारी से कतार में खड़े हुओं में से कोई भी इनके आगे चलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। कर भी नहीं सकता। वे सवाल पूछें तो कैसे पूछें? किससे पूछें? अपनी-अपनी सरकारोंवाले राज्यों में वे भी तो उसी सबके अपराधी हैं जिसके अपराधी शीला दीक्षित और मनमोहनसिंह को माना जा रहा है। सुषमा स्वराज से पूछा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में तो उन्हीं की सरकार है! वहाँ तो उन्हें किसी से माँग नहीं करनी है! वहाँ तो उन्हें शिवराज सिंह को निर्देश/आदेश ही देना है! फिर वे ऐसा क्यों नहीं कर पाईं? और यदि अब तक नहीं कर पाईं तो अब क्यों नहीं कर रहीं?
दिल्ली के इस वीभत्स और जघन्य काण्ड के विरोध में देश भर में जहाँ-जहाँ भी प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें से एक भी प्रदर्शन से भी कोई भी राजनीतिक दल आधिकारिक रूप से नहीं जुड़ा है। उनमें हिम्मत ही नहीं है जुड़ने की। जुड़ने पर, सवाल पूछने से पहले उन्हें जवाब जो देना पड़ेगा! और सवाल वही पूछ सकता है जिसका दामन दागदार न हो। सबे सब, ‘दागदार चुनरिया’ वाले हैं। इस घटना के विरोध में मेरे कस्बे के काँग्रेसी सड़कों पर उतरे तो उन्हें जो जगहँसाई झेलनी पड़ी उसके वर्णन के लिए पूरा शब्दकोश और सारे मुहावरे अपर्याप्त होते हैं। वे किससे सवाल पूछ रहे थे? शिवराज सिंह चौहान से? कैसे पूछ सकते थे? शिवराज से पहले उन्हें शीला दीक्षित से जवाब लेना था। जिनके पास अपनी करतूतों के जवाब नहीं, वे औरों से सवाल कैसे कर सकते हैं?
यही वह बेईमानी है जो ईमानदार कार्रवाई करने की माँग को अविश्वसनीय और हास्यास्पद बना रही है। अब वक्त सवाल पूछने का नहीं, जवाब देने का है। और यदि सवाल पूछने भी हैं तो अपने आप से, अपनेवालों से पूछने पड़ेंगे। पहले अपना घर-आँगन साफ-सुथरा करना पड़ेगा। तब ही दूसरों की गन्दगी पर सवाल उठाए जा सकेंगे। और चूँकि सबके सब दूसरों की गन्दगी बता रहे हैं इसीलिए जो कुछ दिल्ली में हुआ है, वह आगे भी होता रहेगा। क्योंकि हम ही रोकना नहीं चाहते।
जब तक हम ‘अपराध’ को ‘अपराध’ मानने की निरपेक्ष दृष्टि नहीं अपनाएँगे, ‘अपराध’ को ‘अपने अपराध’ और/या ‘उनके अपराध’ में विभाजित करेंगे तब तक हम अपराधविहीन समाज नहीं बन पाएँगे। सापेक्षिक आचरण या कि सापेक्षिक नजर रख कर निरपेक्ष कार्रवाई की माँग अपने आप में बेईमान ही नहीं है, यह बेईमानी को मजबूत करने का अपराध भी है।
यह आत्म निरीक्षण, आत्म विश्लेषण, आत्म शोधन, आत्म शुद्धि और आत्मोन्नति का मुद्दा है जिसे मैं हर बार की तरह इस बार भी यूँ कह रहा हूँ कि निकृष्ट कच्चे माले से उत्कृष्ट उत्पाद हासिल नहीं किए जा सकते।
आईए! सामूहिक बलात्कार की ऐसी ही, अगली जघन्य घटना की प्रतीक्षा करें।