खबरों से दूर रहने का मेरा फैसला भंग होने की गति में बढ़ोतरी हो गई है। समाचार पढ़ने का आग्रह करने के फोन पहले, दो-तीन दिनों में आते थे। अब लगभग प्रतिदिन आ रहे हैं। मैं खबरों से दूर रहना चाहता हूँ लेकिन भाई लोग हैं कि मानते ही नहीं। बाबाजी कम्बल छोड़ना चाह रहे और लोग फिर-फिर ओढ़ा देते हैं।
आज भी ऐसा ही हुआ। एक युवा व्यापारी का फोन आया - ‘फलाँ अखबार में फलाँ खबर पढ़िए।’ आज मैं झुंझला गया। जानता हूँ कि क्यों मुझे इस तरह खबरें पढ़वाई जाती हैं। मैंने कहा - ‘पराये पाँवों से तीर्थ नहीं होते सेठ!’ युवा व्यापारी केवल व्यापारी नहीं है। अभिरुचि सम्पन्न है। शब्द-शक्ति जानता, समझता है। बोला - ‘लगता है, आज सबसे पहले मैं हत्थे चढ़ गया हूँ। घर पर ही रहिएगा। आ रहा हूँ।’ उम्मीद से तनिक जल्दी ही आ गया। कुछ पुराने अखबार लिए। बोला - ‘आज आप चुप रहेंगे। मैं बोलूँगा। आप सुनेंगे।’ कह कर, अखबार फैलाकर कर एक के ऊपर एक रख दिए। बोला - ‘हाई लाइटेड खबरें पढ़िए।’ मैंने पढ़ना शुरु किया।
तमाम समाचारों का सार कुछ इस तरह रहा - “रेडीमेड की माँग में देशव्यापी ठण्डापन आया हुआ है। भीलवाड़ा में कुछ दिनों बाद उत्पादन बन्द करना पड़ सकता है। मिलों में बना माल गोदामों में जमा हो रहा है। खेरची/फुटकर ग्राहकी नहीं हो रही है। अगस्त में रेडीमेड निर्यात में लगभग चार प्रतिशत की गिरावट आई है। इन्दौर में रेडीमेड व्यापार 35 प्रतिशत ही रह गया है। खेरची/फुटकर ग्राहकी न होने से देहाती इलाकों में रुपया बाजार में वापस न आने से बेचवालों की आर्थिक स्थिति डगमगा रही है। वे जाने-अनजाने दिवालिया बनने की ओर बढ़ रहे हैं। व्यापारियों के हाथ में पूँजी नहीं है। छोटे व्यापारी बाजार से पूरी तरह हो जाएँ तो ताज्जुब नहीं। प्रोसेस हाउसों में काम नहीं मिल रहा। भीलवाड़ा में एक आढ़तिया पार्टी ने ढाई करोड़ की देनादारी से हाथ खड़े कर दिए हैं। उधारी व्यापार लगभग बन्द ही हो गया है। नियमों ने व्यापार को जकड़ लिया है। तिरुपुर एक्सपोर्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष के मुताबिक (निर्यात में) गिरावट का यह दौर बना रहेगा क्योंकि जीएसटी लागू होने के बाद निर्यातकों ने नए आर्डर लेना या तो कम कर दिया है या बन्द कर दिया है। सूरत, मुम्बई, भीलवाड़ा, भिवण्डी के कपड़ा उत्पादक और व्यापारी भारी संकट में आ गए हैं।
“जीएसटी प्रणाली व्यापारियों के जी का जंजाल बन गई है। पिछले ढाई-पौने तीन महीनों में कारोबार घटा है। जिन पर यह प्रणाली लागू ही गई है उनमें से 95 प्रतिशत असहज हैं। देश, आजादी के बाद सबसे बड़े आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। आनेवाले दिनों में बाजारों में धन की तंगी महसूस होती लग रही है। तीन वर्ष पूर्व जिस सरकार को एक तरफा गद्दी सौंपी थी, उसीसे से और उसकी कार्य प्रणाली से व्यापारियों का विश्वास उठता जा रहा है। अपराह्न चार बजे स्टाक सीमा लागू करती है और शाम 6 बजे छापे शुरु कर देती है। जीएसटी लागू होने के बाद व्यापार के लिए समय ही नहीं मिल रहा। शायद सरकार की नजर में व्यापारी ईमानदार नहीं हैं। व्यापारियों-उद्योगों को जकड़ लिया है। व्यापारी सरकार को कोस रहे हैं। निठल्ले बैठे और करें भी क्या?
“व्यापार चरमरा जाने से महाराष्ट्र की शकर मिलें अब नवम्बर में ही शुरु होने की सम्भावना है। (महाराष्ट्र की ही) कुछ दाल मिलों पर ‘बिकाऊ है’ के बोर्ड लटक गए हैं। दालों की दलाली करनेवाले कहते हैं कि जीवन में पहली बार सितम्बर महीने में घर-खर्च भी नहीं निकला।”
समाचार पढ़ कर मैंने उदासीन भाव से उसे देखा - ‘हाँ, लेकिन इससे मुझे क्या लेना-देना?’ उसकी शकल पर अविश्वास, आश्चर्य और निराशा छा गई। हताश आवाज में बोला - ‘यह आपने क्या कह दिया? आपको पता भी है कि आपके कहे का मतलब क्या है?’ मुझे कोफ्त होने लगी। बात समाप्त करने के लिए मैं बोला - ‘देखो सेठ! यह तुम्हारी लड़ाई है। तुम्हें ही लड़नी पड़ेगी। वैसे भी तुम व्यापारी हो और मुझ जैसे लोग ग्राहक। तुम जिस भाव सामान दोगे, हमें तो उसी भाव खरीदना पड़ेगा।’ उसकी आवाज बदल गई। आवेश से बोला - ‘उम्मीद नहीं थी कि आप ऐसी बात करोगे। ठीक है! लेकिन याद रखना दादा! आपको कमीशन तब ही मिलेगा जब मैं बीमे की किश्त जमा करूँगा।’ मुझे घबराहट हो आई। जिस बात से मैं बचना चाह रहा था, वही उसने कह दी। मैंने दयनीय स्वरों में कहा - ‘तुम तो बुरा मान गए सेठ। यार! तुम ही बताओ मैं कर ही क्या सकता हूँ? जो भी करना है, आखिर तुम्हें ही तो करना है?’ पीड़ा, लाचारी, झुंझलाहट से बोला - ‘हम तो जो कर सकते थे, किया। सराफा व्यापारी चालीस दिनों तक हड़ताल पर रहे। सरकार का चपरासी भी नहीं फटका। हम गए तो हमारी सुनी ही नहीं। सूरत के व्यापारी पन्द्रह-सोलह दिन हड़ताल पर रहे और लाखों लोगों के जुलूस निकलते रहे। सरकार के कानों पर जूँ नहीं रेंगी। व्यापारी मिलने गए और ‘लाखों’ का हवाला दिया तो जेटली बोले कि इनकम टैक्स तो गिनती के व्यापारी देते हैं! बाकी क्यों नहीं दे रहे? किसानों की आत्महत्याओं का भी इन पर असर नहीं हुआ। किसानों का आन्दोलन इतने दिन चला। उनसे बात करने के बजाय सरकार ने उन्हें गुण्डा साबित करने की कोशिश की। मन्दसौर में तो पाँच-सात को गोली ही मार दी! बनारस की लड़कियों का मामला ही देख लो। जिस दिन धरने पर बैठी थीं उस दिन मोदी बनारस में ही थे। वे वहाँ के सांसद भी हैं। माना कि वे नहीं आ सकते थे। लेकिन लड़कियों का बुलाकर तो बात कर सकते थे! लेकिन किया क्या? उन पर लाठियाँ बरसाईं। अब उन बच्चियों को ही गुनहगार साबित कर रहे हैं। न तो बात करते हैं, न सुनते हैं। गलती कबूल करना इन्हें अपनी बेइज्जती लगती है। ये तो मानो आदमजात नहीं, पीरजी हो गए हों! हमारी मुश्किल यह कि यह सरकार बनावाने में हम ही सबसे आगे रहे। कहें तो क्या कहें? किससे कहें? हम और क्या करें?’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था।
हमारे बीच में मौन ने डेरा डाल लिया था। गहरी साँस छोड़ते हुए, गुस्से और नफरत से बोला - ‘अब तो भगवान का ही भरोसा रह गया है। आज तो कुछ कर नहीं सकते। जो भी करना है, चुनाव में ही करेंगे। तब तक सब झेलना, सहना है। लेकिन आप याद रखना, आप-हम-सबके भाग्य एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। व्यापारी तो वैसे भी डरपोेक माने जाते हैं। फिर भी, जो कर सकते हैं, करेंगे। अब व्यापारियों ने अपनी स्टेशनरी पर ‘हमारी भूल-कमल का फूल’ छपवाना शुरु कर दिया है। मैंने कल ही मोदी को चिट्ठी लिखी है कि अपने जुल्मों में कसर मत रखना। हर जुल्म पर मैं एक गाँठ लगा रहा हूँ। गाँठ तो मैं हाथ से लगा रहा हूँ लेकिन आप दाँतों से खोलोगे तो भी नहीं खुलेगी।’ अपनी आवाज और तेवरों को यथावत रख मुझसे बोला - ‘राज तो रामजी का भी नहीं रहा और घमण्ड कंस का भी नहीं रहा। कल ये नहीं थे। पक्का है कि कल नहीं रहेंगे। आप और आप जैसे लोग जो ठीक समझें वह जरूर करें।’ मुझे सम्पट बँधे और मैं कुछ कहूँ, उससे पहले ही वह तैश में ही सपाटे से चला गया। मैं उसकी पीठ भी नहीं देख पाया।
उसकी बातों का जवाब मेरे पास न उसके सामने था न अब है - उसके जाने के बाद भी।
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे‘, भोपाल में, 28 सितम्बर 2017 को प्रकाशित)